बुधवार, 28 दिसंबर 2016

नोटबन्दी या फाँसी का फन्दा(व्यंग्य)

विगत कुछ वर्ष पहले जब न्यायालय ने दागदार प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगायी थी, तब इसी संसद ने इसके विरुद्ध एक स्वर से अध्यादेश पारित किया था, अर्थात दागदार होने के बावजूद कोई प्रत्याशी चुनाव लड़ सकता है । इसलिए मैं कहना चाहता हूँ कि सियासत को पहले भैंसलेस बनाने की जरूरत थी, जिसे कभी नहीं लागू किया गया, सारी समस्या का समाधान अपने आप हो गया होता, किन्तु अब तो चित्र-विचित्र जीवों की भरमार है वहाँ, जो जनता के हित में फैसले लेने के लिए बहस करते हैं और इस बात के पैसे लेते हैं और बेईमानी तो देखिये कि खुल्लम-खुल्ला बेईमानी करते हैं(अपने ही हित के विषय में लड़ते-झगड़ते रहते हैं, जनता का पैसा खर्च करते हैं-फूँकते हैं, वे जनहित की बात किये बिना पैसा लेते हैं ।) और उसी जनता को सींग फटकारते हैं, जिसकी खून-पसीने की कमाई पर ऐश करते हैं ।
रुपया अभी तक छापा नहीं और पुराने नोट बन्द, एटीएम बन्द, पैसे बैंक तक पर्याप्त पहुँचे नहीं अवाम के लिए और वे नोट थोक में टहलने लगे बाहर । ६० दिन नहीं हुए, पर ६० बार से अधिक नियम बदले गए परिधान की तरह--------फिर कैशलेस का प्रचार । बाजार में सन्नाटा, कल-कारखाने मरणासन्न, अनाज मंडी, फल-मंडी सब पोस्ट मार्टम की जाने वाली लाश की तरह खामोश, कहीं कोई किसान टमाटर सड़क पर फेंकने को लाचार तो कहीं गाय-भैस को खिलाने को मजबूर । दिहाड़ी मजदूर को काम नहीं, जिसके पास दो हजार का नोट तो दूसरे के पास खुले नहीं(समाचार चैनलों में दिखाया जा रहा है) दूसरे प्रकार से पैसे लेने का कोई साधन नहीं । बहुत से किसानों-मजदूरों के पास खाते तक नहीं, खाते हैं तो उसमें पैसे नहीं और कुछ पैसे हैं भी तो स्मार्ट फोन नहीं, यदि तुर्रम खान के मित्र खुर्रम सेठ सबको गिफ्ट दे भी दें तो उसे तकनीक का नहीं पता एबीसीडी क्या होता है और सबसे बड़ी बात कि छल-फरेब करने वालों पर विश्वास कौन करेगा? क्यों करे वह विश्वास? आज तक कौन सा वादा निभाया है? वादा तेरा वादा, वादे पे मारा गया । पेटीएम में भी खराबी सुनने में आ रही हैं, यह सुनने को मिल रहा है । क्या तुम्हारे कहने से सब भाँग खा लें और कपडे उतारकर नाचना शुरू कर दें---------
तो पहले देशवासियों को पढ़ाओ-लिखाओ बाबू! इन गरीबों के पास आपकी तरह दिल्ली विश्वविद्यालय वाली कंप्यूटर छाप न तो वह हवाई डिग्री है न बोलने की मटक्केदार वह नैन नचाने और अभिनय-कला की कुव्वत । कितने बेचारे तो सेर भर गेहूँ के आँटे के लिए तरस जाते हैं, दाल का दाना देखे इन्हें ढाई-तीन साल गुजर गए । काजू का आँटा सपने में भी नहीं देख सकते, तीस हजार रुपये किलो वाले मशरूम का नाम भी नहीं सुना होगा । इनके बच्चे दस लाख का सूट पहनने क्या देखने के विषय में भी नहीं सोच सकते । कथरी-गुदड़ी में किसी तरह से गुजर-बसर करते हैं । गाँव का प्रधान भी इनके साथ भेदभाव करता है, कोटेदार इन्हें बिना खबर किये इनके हिस्से का राशन बेच खाता है, इनके बच्चे स्कूल के मिड डे मील खाकर किसी प्रकार मरने से बचे हैं । न्यायालय ने जब कहा कि अधिकारियों-मंत्रियों के लडके भी प्राइमरी पाठशालाओं में पढ़ेंगे तो इनकी आँखों में विश्वास जाग उठा था, पर इन्हें जल्दी ही पता चल गया कि ये और इनके बच्चे आदमी की शक्ल-सूरत भले रखते हों, पर आपकी बरबरी नहीं कर सकते । इनकी अम्मा और इनके बप्पा तो बैंकों की लाइन में लगकर मर गए । वे इतने भाग्यशाली कहाँ कि ९०-९२ साल वाली वीआईपी अम्माजी की तरह लाइन में लगकर साबुत निकल जायँ ।
ये अभागे केंचुए की तरह ज़िन्दगी की पटरी पर रेंगते हुए जीव, भला क्या खाकर आप लोगों की बराबरी करेंगे? पहले इनके आर्थिक स्तर को सुधारो साहब!, शायद यही काम नहीं कर सकते-करना भी नहीं चाहते । ये अब जान गए हैं कि इनकी दुर्दशा को सुधारने के लिए नहीं आये हो यहाँ, और अब यह सबको समझ में आ जाना चाहिए । जिसके स्तर को सुधारना चाहते थे, वह वायदा तो लेन-देन के फार्मूले से पूरा कर ही दिया है । जिन लोगों ने 'साहब' बनाया, उनके प्रति फ़र्ज़ अदा कर ही दिया है । इस देश के गरीबों को अपने ढंग से जीने दो बाबू! उन्हें कैश से लेस करके कौन सा पुण्य मिल जाएगा ? अगर सचमुच देश का भला करना चाहते हो तो राजनीति के पोखरे में डुबकी मारने वाले भैंसों को बाहर निकाल दो, सारा पानी गँदला कर दिया है । बड़ा पुण्य मिलेगा, तुम्हारे बाल-बच्चे फूले-------------ओह सारी ! सारी! सारी! इन्हें नहीं मालूम कि दया का स्रोत क्यों सूखा हुआ है ।
अमलदार "नीहार"
२७ दिसंबर, २०१६