शुक्रवार, 30 मार्च 2018

"काला अध्याय : कसाई का ठीहा"

न केवल ममता-मूर्ति, अमोघ करुणा की पुत्तलिका,
प्रस्नुत पीयूष-औधस स्नेह-वात्सल्य की सदानीरा
धैर्य-शील-शान्ति-संयम की पराकाष्ठा
तितिक्षा-प्रतीक्षा-पूर्ति, माधुर्य-सौन्दर्य-हिल्लोल,
दीप्ति-कान्ति-क्षमा, भक्ति-शक्ति और जिजीविषा की ज्योति
है वह कराल काल-जिह्वा भी कृतान्त-भृत्या
कृत्या-सी खेलती है मौत-राग-फाग
तमोगुण में लीन नाश-लीला रचाती है,
अनगिन से नाम धरे गए उसके
आख्यानों में-व्याख्यानों में-
की ताड़का, सुरसा, सिंहिका, शूर्पणखा, शर्मिष्ठा वह,
हिडिम्बा, पूतना, मन्थरा,कैकेयी, तिष्यरक्षिता, इन्द्राणी-राधे माँ,
कि चुड़ैल, डायन व कुटनी, विषकन्या, नागिन, नरकद्वार,
कि वामा, विलासिनी, वरवनिता, कालगर्ल, पुंश्चली,
छिनाल-छिन्न नाल, कामिनी, कमीनी भी ।
अजीब विडम्बना है कि औरत होती है
अक्सर औरत की ही दुश्मन बदनाम,
शोषक भी वह, शोषित भी प्रकाम-
पीहर में 'संज्ञा' ससुराल में 'सर्वनाम',
शांतिकाम, अशांति-धाम,
अवसर जो मिले तो क्या से क्या बन सकती है औरत,
उसी की कोख से सृजन-वही पालनहार,
तरणी भी-तारिणी भी, वही पतवार
कर सकती है सर्वनाश-प्रत्यवहार सम्पूर्ण सृष्टि का
सपनों का-अपनों का, पापियों का-परायों का,
वह विष की बुझी छुरी-सी पैनी,
तीखी-तेज कृपाण-कटार, बर्छी-तलवार,
बन्दूक और तोप भी स्त्रीसंज्ञक सारे हथियार,
होती है भगवान् रूप कभी बन डॉक्टर्स व नर्स
बाँटती है हर्ष प्रकर्ष, सच्चे अर्थों में मिस यूनिवर्स,
लेकिन तनिक ठहरिये जनाब-पीतल पर भी चढ़ा है सोने का आब
भगवान् व शैतान के बीच बस थोड़ी-सी फाँक है,
किसी का जिगर चाक है-हलकू हलाक है,
गर है उसमें सेवा का पावन भाव व प्रीति-पूत त्याग तो
कहीं पैसे की भेड़िया भूख, अपरिमित प्यास की धधकती आग,
शहर-दर शहर, मोहल्ले-कसबे में जार बाज़ार
कसाईबाड़े-से खुले हुए नर्सिंग होम, हजारों हेल्थ सेंटर
नीम हकीम फर्जी डिग्रीधारी अयोग्य, कसाइयों के हवाले,
बेहोश शहर, बदहाल गाँव की विश्वास-भावुक असहाय-सी ज़िंदगी
हवाले अपराधियों-संगठित गिरोहों के-रखवाले से कसाई-ठीहे,
न उनको किंचित आँच-झूठ से हारा हुआ साँच,
लीवर, हार्ट, किडनी, डैमेज सब कुछ,
इजाफा कुछ और रोगों का इलाज के बाद
कि 'सेवा' और 'मेवा' के बीच जटिल बीमारियों का बोनस-
'ब्रेन हैमरेज', 'कैंसर', 'हार्ट अटैक'-ज़िंदगी की गाड़ी बिना पावर ब्रेक
क्या कुछ गलत कहा था गाँधी ने-"कि डाक्टर कसाई होता है"?
आदमी न जीता है, न मरता है, बस पैसा फूँकता है और रोता है,
जहाँ जाँच पर जाँच-एक्सपाइरी दवाइयाँ, नकली इंजेक्शन,
नीचे से ऊपर तक, ऊपर से नीचे तक सबका सबसे कनेक्शन,
कौन जाँचेगा इसे कि तमाम नर्सिंग होम
लम्पट बाजार में सभ्य रण्डीखाने हैं या फिर कसाई के ठीहे
कि किश्तों में मिलती मौत की दुकान पर ज़िंदगी का ठेका,
जहाँ पैसे की कातिल छुरी से रेता जाता है गला मुफलिसी का,
पैसा नहीं है आपके पास तो सड़ते रहिये बन ज़िंदा लाश,
ये बड़े-बड़े हॉस्पीटल जागते मसान की मौत-सीढियाँ,
मुमकिन है इलाज मुर्दों का सिर्फ पैसे के लिए
ये कारोबार दहशतगर्दों का सिर्फ पैसे के लिए
आँतों को ये फाड़ देंगे-ज़िंदा ज़मीन में गाड़ देंगे,
भरते घाव उघाड़ देंगे सिर्फ पैसे के लिए
जालिम हाँ, जल्लाद हैं, कसाई हैं ऐसे डाक्टर
सचमुच यमराज के भी बड़े भाई हैं ऐसे डाक्टर
पैसा तो फूँकते हैं लोग, पर न गारंटी किसी बात की
मरना है अगर कल तो आज ही मर जाइये,
दूसरी गरदन हाजिर है ठीहे पर कटाने के लिए ।
ये पटी-पटायी आशा बहुएँ ये घूमते हुए दलाल,
चेहरे पर तैरती मक्कारी, खैरख्वाही गोलमाल,
मिलीभगत, नकली दवा कंपनियों से
कि बँधा हुआ कमीशन जाँच-केंद्रों से
तगड़ी फीस हफ्ता-दर हफ्ता चतुर चाल,
लड़ने को मुस्टंड पोज़ हुए पहलवान, पुलिस को बख्शिश,
राजनेताओं को गुंडा टैक्स, मीडिया को जूठन-खैरात
जालिम बहेलियों का बिछ हुआ जाल-
जहाँ होता है आदमी के हाथों इंसानियत की आत्मा हलाल ।
जिसे बनाया था वसूलों ने धरती का भगवान, और है भी,
न समझ पाए कोई, जहन्नम का शैतान आखिर क्योंकर बना?
मुस्कुराती हुई 'सिस्टर" मसीहा-सी सफेदपोश ये महिला डाक्टर
होती है नहीं क्या देवी-सी अलौकिक ज्योतिर्मयी
नयनों में आत्मविश्वास की आभा-आश्वासन की थपकी-दुलार,
मगर न जाने क्यों पैसे पर नजर पड़ते ही उसकी
वह आदमखोर बाघिन बन जाती है,
बदल जाता है पवित्र पेशे का ईमान,
गर्भाशय का बच्चा 'सौदेबाजी की पोटली' नजर आता है,
मरे या जिए अब उसकी बला से-
किसी की चीख-पुकार व मातम से क्या लेना उसे,
हैं खून साणे हाथ फरिश्तों के भी इस दुनिया में ।
शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक
[मेरी कविताओं में 'स्त्री' : स्त्री का जीवन और जीवन में 'स्त्री' -अमलदार "नीहार"]
२७ मार्च, २०१८

कौन जाने?


(रचनाकाल-११ फरवरी १९९८, बलिया, उत्तर प्रदेश)
रात आधी और उँगली के इशारे कौन जाने?
ज़िंदगी तो बस अँधेरे के सहारे कौन जाने?

आँसुओं का रूप दरिया, ज़िंदगी भी रेत जैसी
प्यास की किश्ती हमारी कब किनारे, कौन जाने?
चुप हवा की मुट्ठियों में कैद खुशबू रूह की है,
इस चिता की राख में कितने शरारे, कौन जाने?
हो गयीं बौनी यहाँ पर पेड़ की परछाइयाँ क्यों?
फिर क्षितिज कोई नया सूरज उतारे, कौन जाने ?
चाँदनी को लीलने में है लगा कला ग्रहन यह
हाय बेबस आसमाँ के हैं सितारे, कौन जाने?
रू-ब-रू नीहार के हैं प्रश्न जैसे क्रौंच घायल
प्यार में पागल पपीहा पिउ पुकारे, कौन जाने?

[ आईनः-ए-ज़ीस्त-अमलदार "नीहार"]
प्रकाशन वर्ष २०१५
नमन प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली

स्मार्ट फोन के दौर में कविता-पाठ उर्फ़ संवेदना का संकट


साहित्यिक-सुधी-सामाजिक-प्रमाता बीच बैठ
सहृदय सन्मित्र संस्कारित जनों के ह्रदय पैठ
नए दौर में कविता सुनाना कठिन काम है,
स्मार्ट फोन पर उँगलियों का ठिठक जाना हराम है |
जिस समय मरोड़ी जा रही हो गर्दन इतिहास-तोते की,
लहूलुहान माथा हो रहा हो तमाम मुल्कों के भूगोल का,
हवा में घोले जा रहे हों फास्जीन जैसे ज़हरीले विचार
दिशाओं में घुप्प धुँधलापन, सुरंगें बारूदी आसमान में,
हो रही हो बाँझ धरती की कोख सदा-सदा के लिए,
चुराने में लगा हो कोई चुपके से नदियों की तरलता,
सघन शाख जंगल-वृक्षों से पैदा नैसर्गिक आक्सीजन,
आम जनों की सुख की नींद, सरलता जीवन की,
न्याय के आँगन से दिन-दोपहर ईमान का अपहरण
और लोकतंत्र के मंदिर में सत्यनिष्ठा सँग
रँडुआ आश्वासनों से जघन्य बलात्कार लगातार,
चुरा ले गए संस्कृति की आँख से सभ्यता का काजल,
भरी पंचायत में आत्मा के चबूतरे पर वचन का गंगाजल,
मछलियाँ पहाड़ पर चढने को आतुर
और आदमी की ही करनी पर
शर्म से पछाड़ खाते धसकते पहाड़,
दिशाओं के कानों में घोलती मधुर संगीत
वह हरी-हरी पाँत तोतों की
हो चुकी हो गायब आकाश-धान के खेतों से
उजले पाँखों वाले विहंग बलाक-माल पावस के-
केवल हमारी बाल सुधियों में सुरक्षित |
गौरैया की गरदन पर आधुनिक विकास का कहर,
अब न मुँडेरों पर स्वजनों का सनेस लाता कौआ-
सुनहली चोंच करने का आश्वासन व जादुई भाषन
इतिहास की अटारी पर चुनाव-गीतों की मंजूषा में कैद,
उड़ा ले गए अदृश्य हाथ गिद्धों को,
दिखायी दे रहा है सिर्फ सिद्धों के सीस पर गर्वीला मुकुट
बाकी सब कुछ गायब हो रहा हो-
जीने की ख्वाहिश, ख़्वाब, खुशबू
और चटकती कली-सी बहार, बुलबुलो-गुलशन |
दीवार से और दिल के कोने-अँतरों से गायब है
सत्याग्रह-अहिंसा का वह चमकदार प्रतीक-अधनंगा सा चित्र और विचार भी,
सिर्फ वोट के लिए
'जयन्तियाँ' जय-जयकार करती हैं कैलेंडरों में
और जाति-विहीन नेताजी सुभाष बाबू की जयन्ती
विस्मृति के तहखाने में धूल फाँकती
अवसरानुकूल टिप्पणियों के लिए सुरक्षित,
चैधरी चोखेलालों की अखंड देशभक्ति के हुक्के हैं-भगत सिंह
व पटेल सियासी सिक्के हैं टकसाल में अपने अनुरूप,
राणा प्रताप और वीर शिवा अब कवच बनेंगे और ढाल भी |
----हो चुका है पूँजी -निवेश अयोध्या और काशी का
सत्ता की तिज़ारत में,
आस्था के कोठे पर मोलभाव
मनुष्य की आँख के पानी की तरह मरती गंगा का,
कामधेनु-नंदिनी तक विपर्यस्त मातृत्व का मोहक व्यापार-
जब उसी के बछड़े को कसाई और भाई को भाई काट रहा है,
जो मिला रहा हो हाथ गर्मजोशी से विश्व-मंचों पर
सरहदों पर सियासी दाँव-जूझते जवानों का लहू चाट रहा है
------और उस लहू में चुपड़ी हुई रोटियाँ वैश्विक राजनीति की-
"कि हम शान्ति और अमन का पैगाम देंगे"
"कि बनायेंगे इस धरती को इक्कीसवीं सदी में"
"कि नष्ट कर देंगे परमाणुओं का जखीरा"
निरस्त्रीकरण की तमाम संधियाँ और विनाश के निरंतर अनुसंधान-
विनाशक पनडुब्बियाँ परमाणुवाहक विमान
संहारक क्षमताओं से लैस-सभी देशों में साथ-साथ चलेंगे"
"कि हम सब बनेंगे एक दूसरे से शक्तिशाली
और उदारता का मानदंड भी"
"वसुधैव कुटुंबकम के आकाशभेदी नारे
ऐसे ही कठिन काल में
अतीत का दंश,वर्तमान की जद्दोजहद
और भविष्य की आशंकाएँ हजार
बेचैन रातों की अश्रु-बोझिल जागती पलकों पर डाल
जब कोई कवि दर्द को उतार पाता है कविता की सीपी में
तो आबदार मोती बन जाते हैं विचार,
पर सिसकता सवाल यह कि
"आखिर, मोती का मोल कौन लगाए?
कि जहाँ सब कुछ हो चुका है बाज़ार
समय का बहेलिया जार पूँजीवाद का हथियार
स्मार्ट मोबाइलों की रंग-विरंगी दुनिया में
भटकती आत्माओं की तरह
विलासिता की परछाइयों-तथाकथित श्रोताओं के बीच?
जो मर्मज्ञ हैं मूर्धन्य मनीषी, विशारद हैं-नारद हैं,
विद्या-बुद्धि-वारिधि, विवेक-चूड़ामणि, ज्ञान-विज्ञान-मार्तण्ड
पूज्यपाद आचार्य पंडित पोंगेलाल और मंत्री तोताराम
"खुसुर-पुसुर" से पहुँच जाते हैं-"अथ अनन्त वार्ताः श्रूयन्ताम" तक
ठीक , कवि अकिञ्चनदास का जब काव्य-पाठ होता है-
हिलाता हुआ उन दीवारों को नैतिक सवालों के गोले से
जो दिलों के बीच हजारों साल से खडी की गयी है
-सामंतों की दुर्नाम ताकतों द्वारा-
एक खुजलाता है कान तो दूसरा 'हलका होने' की फिराक में
तीसरे की उँगलियाँ मोबाइल की स्क्रीन पर
कुछ ढूँढती रहती हैं व्याकुल अविराम
किसी बान्धवी को मिलाता है फोन ठीक उसी वक़्त-
"हैलो रूपा! कैसी हो? तुम्हारी मिस्ड कॉल थी कल की"
"नो, नथिंग, थैंक्स" जवाब उधर से |
दोस्तों! हमें दुश्मनों की मिसाइलों से उतना खतरा नहीं,
जितना कि अपनों की प्रायोजित बेदिली-बेरुखी से,
"ब्रह्मानन्द-सहोदर" के तथाकथित साधकों!
वाग्देवी सरस्वती के अनन्य आराधकों!
मेरी बातें गौर से सुनो-
"काल-विपञ्ची के तार न बजेंगे फिर कभी ऐसे
बह जाएगा समय बाढ़ के पानी की तरह जीवन से
और तुम दिल के खाली कोनों में
इंसानियत की एक बूँद से महरूम
तरस जाओगे अंतरात्मा की पुकार सुनने को,
जब आत्मकेंद्रित सभ्यता, वेदना की पीठ पर
विडम्बनाओं के नुकीले पंजों के खौफनाक खरोंच अनदेखा करती है,
तब वह लक्ष्य-भ्रष्ट मन्त्र की तरह
प्रणव के छंदों से छलकते जीवनानंद से दूर
'पश्यन्ती' का तिरस्कार करती हुई
विराट चेतना से विमुख हो जाती है,
दरअस्ल यही है संवेदना असली संकट आज के दौर में |
रचनाकाल : ०१ फरवरी, २०१७
(बसंत पंचमी, सारस्वत महापर्व)
बलिया, उत्तर प्रदेश
शीघ्र प्रकाश्य कृति
[ह्रदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार ]

रविवार, 11 मार्च 2018

'निमंत्रित' और 'आमंत्रित' के बीच बिखरे सम्बन्धों की मीमांसा

डॉ. अमलदार 'नीहार'
संदेह की सृष्टि हो जाती है अनेकधा किसी शब्द विशेष को लेकर मित्र-बंधुओं के मन में और बहुत सावधानी के बावजूद मुझे भी विचार करना पड़ जाता है | ऐसे ही दो शब्द हैं "निमंत्रण" और "आमंत्रण" और इनसे ही बनते हैं "निमंत्रित" और "आमंत्रित" भी | इन शब्दों के विषय में देख रहा हूँ कि कोशों के पास कोई संतोषजनक मंत्र या उत्तर नहीं है | दोनों घाल-मेल हैं-दोनों का चूल्हा एक, अर्थान्विति का भोज-भात भी एक दूसरे की रसोई में मजे में चल रहा है | आइये, कुछ चिंतन-मन्थन करते हैं अलग ढंग से | मुझे लगता है कि शब्द भी लोगों से आत्मीय जान-पहचान के भूखे-प्यासे होते हैं और सतत उपेक्षा के कारण बड़ी व्यथा का अनुभव करते हैं | इस कठिन कलिकाल में इन बेचारे शब्दों से अंतरंगता के साथ बोलने-बतियाने वालों का निरन्तर अभाव ही दिखायी देता है | शास्त्रज्ञों ने भले ही लिख दिया हो-"एको शब्दः सम्यक ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे-लोके च कामधुक भवति |" अर्थात एक ही शब्द को यदि भलीभाँति जान लिया जाय और बहुत ठोंक-बजाकर इस्तेमाल किया जाय तो वह स्वर्ग लोक तथा इह लोक में कामधेनु के समान मनोवांछित फल प्रदान करने वाला हो जाता है | अभिप्राय यह कि एक शब्द के सम्यक भाव को समझ लेने और उसके व्यावहारिक समुचित प्रयोग से ऐहिक-आमुष्मिक सिद्धि प्राप्त हो सकती है, किन्तु इक्कीसवीं सदी में निर्वसन नैतिकता जहाँ बीच चौराहे अथवा लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में भी न जाने कब नीलाम होने के लिए विवश हो जाय, वहाँ ज़ुबाँ से फिसले भू-लुण्ठित इन बेचारे शब्दों को कौन मान-सम्मान दे? मेरी समझ से भाषा की अदालत में मात्र शब्द ही सत्य के सबसे बड़े प्रवक्ता हैं, जिनकी पैरवी को अब न्याय भी नज़र अंदाज़ करने लगा है | वैसे मर्मज्ञ और सदाचारी व्यक्ति के लिए किसी महार्घ मणि के समान महत्वपूर्ण है शास्त्र-सुवेत्ता का वह रमणीय कथन | उस कथन के आलोक में "निमंत्रित" और "आमंत्रित" शब्द पर साहित्य-प्राण रसज्ञ सुजनों को विचार करना ही चाहिए |
तनिक ध्यान से इन दोनों शब्दों को निरखिये -दोनों में एक ही मन्त्र है, किन्तु 'उपसर्ग' दोनों के भिन्न हैं | जब उपसर्ग भिन्न हैं तो निसर्ग में भी यत्किंचित अंतर अवश्य होना चाहिए | "उपसर्ग" का अर्थ ही होता है-विकार, रोग अथवा बीमारी | बीमारियाँ दोनों की दो हैं | दो तरह के ताप हैं, दो तरह के संताप हैं और हम होम्योपैथ पद्धति की एक औषधि मात्र "नक्सवोमिका" से काम चलाना चाहते हैं | निश्चित रूप से आसंग और पासंग अन्य औषधियों का भी प्रयोग किया जाना चाहिए | एक शब्द में "नि" और दूसरे में "आ" उपसर्ग लगा हुआ है | "नि" अतिशय तीव्रता, भारीपन अथवा सान्द्रता के द्योतन के लिए प्रयुक्त हो सकता है और "आ" अधिकार जताने, सीमा निर्धारित करने अथवा व्यापकता के बोध के लिए किया जा सकता है एक में नेह की प्रगाढ़ता है, त्वरा का ताप है, आग्रह की प्रबलता है तो दूसरे में छोह का विस्तार, अंतरंग की आत्मीयता और उत्तर-दायित्व का प्रबोधन भी | जिनके साथ सम्बन्ध कुछ दूर का है, उन्हें "निमंत्रित" किया जाता है, जो बहुत सगे हैं-बिलकुल अपने हैं, उन्हें "आमंत्रित" किया जाता है | मंच पर आमंत्रित किया जाता है, प्रपंच में निमंत्रित किया जाता है, पारिवारिक प्रीति-भोज में "आमंत्रित" किया जा सकता है, किन्तु "बहू-भोज" में ढेर सारे लोगों को "निमंत्रित" किया जाता है | "निमंत्रित" व्यक्ति खा-पीकर किनारे हो लेता है, किन्तु "आमंत्रित" की जिम्मेदारी आरम्भ से अंत तक होती ही है (पर्यन्त का भाव होता है) | वह "मंत्रणा" में भी योगदान दे सकता है | निमंत्रित व्यक्ति "आहूत" होता है, किन्तु आमंत्रित "समाहूत" होता है | 'आमन्त्रित' बारह बरस की बिछुड़ी आली-सा दौड़कर लिपट जाता है हृदय-प्राण के पोर-पोर से और लिपटा लेता है भूली-बिसरी मधुमय यादों को भी, 'नियन्त्रित' रूप-कृमि गाहकों से निपटती रूपाजीवा की तरह निपट लेता है स-त्वर और निपटा भी देता है। कुछ उदाहरण भी दोनों उपसर्गों के देख लेना जरूरी है | घन आनंद कवि ने लिखा है-
"देखिये दसा असाध जू अँखिया "निपेटनि" की भस्मी बिथा पै नित लंघन करति हैं"
विरहिणी बाला की आँखों को "भस्मक रोग" हो गया है | इस रोग का यह लक्षण होता है कि बीमार आदमी खाता बहुत है, लेकिन उसका पेट जैसे भरता ही नहीं | भूख मिटती ही नहीं, बुभुक्षा की तीव्र पीड़ा से खिन्न रहता है | उपचार करते समय उसे खूब खिलाया जाता है और औषधि भी दी जाती है भोजन के साथ-साथ | प्रिय-रूप की दर्शनेप्सु ये मतवारी आँखें भी मानो नितराम पेटू हो गयी हैं, प्रिय को बस, एक नज़र देख लेना चाहती हैं और प्रिय इतना निष्ठुर कि एक बार भी अपनी झलक नहीं दिखाना चाहता | इस दशा में ये लंघन(उपवास) कर रही हैं | फिर रोग दूर हो तो कैसे? इन आँखों में भूख की जो तीव्रता है, उसे व्यंजित करने के लिए "निपटानि"(निपेटू) शब्द का प्रयोग किया गया | इसी प्रकार बहुत सारे शब्द बनते हैं और वे शब्दगत भाव की तीव्रता को व्यञ्जित करते हैं, जैसे 'निशात' या 'निशित', 'निबंधन', 'नियोजन', 'नियम' , 'नियामक', 'निदर्शन', 'निधुवन' , 'निपात', 'निरत', 'निचय', 'निदेशक' आदि | "आ" उपसर्ग का भी इसी प्रकार वह महत्त्व है, जिसका उल्लेख किया जा चुका है | ध्यान कीजिये "रघुवंश" महाकाव्य में "आसमुद्रक्षितीशानां", "आनाकरथवर्त्मनाम" | "आगुल्फ शीर्ष", "आकर्ण", "आपादमस्तक", "आजानुभुज", "आस्फालन", "आकीर्ण", "आजीवन", "आलेख", "आमरण", "आलोक"("प्रकाश" भी अर्थ द्योतित होगा और इसके साथ "लोकपर्यन्त" भी ) , "आनर्तन", "आकलन", "आसंग", "आलोचन" आदि इसी प्रकार के शब्द हैं | दोनों शब्द हमारे जीवन में व्यवहृत होते रहे हैं और बेहद सूक्ष्म अंतर के कारण लोग अर्थ-ध्वनि को ठीक से नहीं पकड़ पाते | दोनों शब्दों को समाज ने स्वीकार कर लिया है, बस उन्हें ठीक से पहचानने की आवश्यकता है | सामाजिक समरसता की साधना के लिए गैरों को भी बड़ी उत्सुकता, स्नेह की तरलता के साथ अवश्य "निमंत्रित" करना चाहिए, पर अपनों को "आमंत्रित" करते हुए ममतामृत की प्याली थोड़ी-सी छलक ही जाय तो वाह, क्या बात है!
शब्द-शब्द मकरन्दमय अर्थ सरस रमणीय |
परिभू की नव कल्पना-कामधेनु कमनीय ||
[नीहार-सतसई-अमलदार 'नीहार']
[शब्दों की आलोक-यात्रा-डॉ. अमलदार 'नीहार]

विद्यार्थियों के लिए विशेष सामग्री

'आदि' और 'इत्यादि' में बहुत ही फ़र्क़ है दोस्तों!"
मेरा मानना है कि शब्द सबसे बड़े चुगलखोर(चुगुलखोर) होते हैं, जो अपने आप जाति-धर्म, गुण, शील-स्वभाव, शिक्षा-संस्कार, समाज और देश, समृद्धि और विपन्नता का परिचय दूसरों को देते रहते हैं | लक-दक कपड़ों में सजे-सँवरे, बालों में कंघी, कपड़ों पर इत्र, पॉलिश्ड चमचमाते और मचमचाते जूते, मुँह में गुटखा या पान ठूँसकर 'भले मानुष' आप लग सकते हैं, लेकिन उसकी पीक के साथ जैसे ही मुख से ठेठ गालियों के फव्वारे 'फचर-फचर' फूटने लगते हैं, फिर शराफ़त-शाइस्तगी और सदाक़त का फालतू परिचय देने की जरूरत नहीं | व्याकरण-असंगत भाषा का एक भी शब्द, सदोष उच्चरित एक ध्वनि, घृणा-सनी कोई कटूक्ति, झूठ-फरेब की मीठी चाशनी में लिपटी चतुराई-भरी बात किसी जन्मजात बैरी की भाँति आपकी 'महानता' और 'योग्यता' की कलई उतारने में तनिक भी देर नहीं लगाती | आप सदैव मानव-समाज की आँख, उसकी श्रुति और बुद्धि-विवेक की तुला पर 'बकरे की बोटी' की तरह चढ़े हुए हैं | मन लीजिये किसी का नाम 'अवनींद्र मोहन' है, 'सिद्धार्थ' है, 'करुणेश' है, 'क्षमा शंकर' है, 'सुलोचना', 'साधना', 'सत्यवती', 'नीरजा' या 'मंदाकिनी' है और दूसरी ओर किसी का नाम 'फेंकू', 'सिधारी', 'कतवारू' , 'घुरहू', 'नोखई', 'जोखू' , 'ढुक्कन', 'जोखू','बेचई', 'दुक्खी' अथवा 'छमिया', 'रधिया', 'अनारा', 'कमली', 'सुखिया', 'धनवंती' है तो बिना बताये ही धारणा बहुत कुछ बन जाती है | यद्यपि व्याकरण के अपवाद की तरह क्रमिक सरकारों की बदलती नीतियों और नातियों, युगांतरकारी उदारचेता नायकों तथा सहृदय सामाजिक उन्नायकों के निरंतर प्रयास से स्थितियाँ बहुत कुछ बदली भी हैं और पहले के रखे गए इन मनहूस और मासूम नाम वालों ने भी अपनी निम्नतम दयनीय स्थिति और गुमनामी के अँधेरे को चीरकर पहले से कुछ बेहतर पहचान बनायी है | आज कई लोग ऐसे लाचार नामों को धता बताते हुए अपराजेय प्रतिभा और प्रचण्ड पुरुषार्थ से प्रकाश-पुञ्ज बिखेर सकते हैं |
मेरे एक गुरूदेव थे श्री लुटई राम यादव, बहुत ही नाटे कद के अंग्रेजी के अध्यापक, जो धुँआधार बोलते थे, तेजस्वी थे, मनस्वी थे, पर अकाल ही इस दुनिया से विदा हो गए, मेरे सहकर्मी मित्रों में श्री सोमारू राम बहुत तेज विद्यार्थी रहे थे और इस समय डीईटी के पद पर तैनात हैं, दरसू राम और निहोरी राम भी कहीं नौकरी में हैं | नाम-ग्राम्यता के बावजूद डॉ. नकछेद राम, प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव, पांडेय बेचैन शर्मा 'उग्र', ललई राम और हमारे श्री लहुरी मास्टर कम तेजस्वी नहीं है | खैर, शायद हम इधर-उधर भटक गए और "आदि", "इत्यादि" नामधारी दोनों सगे भाई बेचारे शूलियों पर लटक गए, ऐसा कुछ लोगों को लग सकता है, पर बात ऐसी नहीं है | इतने भोले-भले और प्यारे-से मासूम इनके चेहरों को तनिक ध्यान से देखिये, ये दोनों अपने बारे में खुद इतना चीख-चीखकर सब कुछ बता रहे हैं और लोग हैं कि निरर्थक शब्दों की धमाचौकड़ी और शोर-शराबे में इनकी बात ही नहीं सुनते | संस्कृत का 'प्रभृति' और अरबी का 'वगैरह' शब्द भी यदा-कदा हिंदी में प्रयुक्त होता है इसी आशय की अभिव्यक्ति के लिए | हिंदी में 'आदि' और 'इत्यादि' का इस्तेमाल भाषा की रसोई में खूब किया जाता है | किसी को 'आदि' बहुत पसंद है तो किसी को 'इत्यादि' बहुत प्यारा लगता है | अनेक जनपदों के महान साहित्यकार-कवि और लेखक 'आधि कारणों' (व्याधि है शारीरिक बीमारी तो 'आधि' मानसिक रोग को कहते हैं) से अपनी खरोष्ठी गोष्ठी ('खरोष्ठी' शब्द यहाँ श्लेशपरक और स्वनिर्मित है | 'खर' गधे को भी कहते हैं और उन्हें भी, जो तेज-तर्रार हैं, प्रखर हैं, प्रतिभाशाली हैं | 'खर' दण्डकारण्य में राक्षसराज रावण के स्कन्धावार का प्रमुख सेनापति था, जिसे श्री राम के अलक्ष्यच्युत अमोघ वाणों ने खर-पतवार की तरह कुछ ही पलों में भस्मीभूत कर दिया था | इसलिए विध्वंसक 'खर' तत्वों का सुस्थिर निवास तथा उनका सामूहिक समाह्वय भी 'खरोष्ठी' ही है | विचार-विमर्श हेतु विद्वानों-विचारकों अथवा कवियों-लेखकों, सामाजिक-राजनीतिक अधिकारियों-कर्मचारियों-कार्यकर्ताओं की बैठक के लिए प्रायः 'गोष्ठी' शब्द प्रयुक्त होता है | वैसे जहाँ गाय अथवा बैल बाँधे जाते हैं, उस स्थान को 'गोशाला' के अलावा 'गोष्ठ' या 'गोष्ठी' भी कह सकते हैं |) से दुष्पाच्य तेजस्वी कवियों को प्रायः इसी खाते में धकेल देते रहे हैं और पण्य-जीवी अखबारों में जनपदीय पृष्ठों पर वे "वाक्य-पदीयम" की तरह "भादो बारह मास" छाए रहते हैं |
आप यदि किसी संस्था में दमदार नहीं हैं या सामाजिक "स्वयंभू प्रतिष्ठा" के पहरेदार नहीं तो "बैलेंस-शीट" से बाहर बकाया कर्ज़दार महोद्योगपतियों की तरह विलोमी तर्ज़ पर "आदि-इत्यादि" के फुटकल खाते में फेंके जा सकते हैं | ये दोनों शब्द उपेक्षा के बहुत बड़े हथियार की तरह भी इस्तेमाल किये जा सकते हैं | इन्हें परशुराम के फरसे से कम धारदार न समझिये | शब्दों के रूप में यही 'हाशिये का समाज' है भाई! विडम्बना यह कि 'लावित्र(हँसिया)-धारक का भी यही समाज है | घर की बड़ी मालकिन का हुक्म हुआ कि "तनखा देइ अधिकारी, चाहे उफ्फर के मड़ई जाय, आज बज़ार जायँ अउर जरूरी समान(हल्दी-नमक, साबुन-तेल आदि-आदि) आवै के चाही |" पिछले दो महीने से हमारा वेतन व्यवस्था के गर्भाशय में लावारिस शिशु की तरह अँडस गया था और सच्चाई की साख पर उधार का आधार आखिर कब तक बना रहे? अब अपुन को समझना है कि इस 'आदि' के पेट में वेतन का कितना हिस्सा समा सकता है | यह 'आदि' कोई मामूली शब्द नहीं है | इसके पेट में जरूरतों का विपुल विस्तार है, यह रबर का सबसे बड़ा तम्बू है | इसी में गृहथी के सैकड़ों जंजाल समाये हुए हैं, जिसकी लम्बी सूची प्रस्तुत तो नहीं की गयी, लेकिन मियाँ ! पढ़े-लिखे हो, इतना तो समझ जाओ | इस "आदि" में बूढ़ी अम्मा की दवा भी है, बाबूजी का मोतियाबिंद का आपरेशन भी है तो चिंटू की चड्ढी, मोनू की लम्बी फीस और संस्कृति के लिए नया खिलौना भी है, बहू के लिए होली की नई साडी भी है, बिटिया के लिए सूट भी है, होली का पूरा सामान, मेवा-मिठाई, टूट हुई टोंटी की मरम्मत, आर. ओ. मशीन की सफाई भी है, मोटर साइकिल का पेट्रोल, मोबाइल-इंटरनेट का खर्चा और मुफलिसी के आलम में बजट का पूरा "होलिका-दहन" है | इन फरमाइशों के अलावा पचास मील लम्बी फेहरिश्त होती है | इस अघोषित "आदि" ने हमारे भीतर पूरा घमासान मचा रखा है , लेकिन "इत्यादि" में अधिक स्पष्टता रहती है | उसमें पूरा व्योरा छपा-छपाया पड़ा रहता है | बेटे-बेटियों के ब्याह में या बाबा की तेरही में "आदि" से काम नहीं चल सकता | उपयोग-सामग्री की पूरी डेढ़ हाथ लम्बी सूची हवा में फरफराती दिखायी देती है और "आदि" मलिकार की जेब का छोटा-सा पुर्जा है, जो पाणिनि के सूत्र की तरह संकेत मात्र देता है, बाक़ी आप समझ लीजिये | पुराने ज़माने में जब कोई चिट्ठी-पाती लिखता था तो अंत में इतना जरूर टाँक देता कि-"बाक़ी सब ठीक-ठाक है, अपना ख़याल रखना |" यानी दुखड़े का अनंत विस्तार है भइया, अब का-का लिखा जाय? जो नहीं लिखा जा सका, वह असीम है-पूरा महासागर है,ताई जी का पुराना बतास है, रग्घू काका की दमा-खाँसी है, पड़ोसी चाचा से नया-नया झगड़ा है, उसमें नई बहुरिया के बिछोह का दर्द भी है-"सुनत पथिक-मुँह माह निसि चलत लुऐं उहि गाम | बिनु पूछे बिन ही कहे जियति बिचारी बाम ||"(बिहारी-सतसई) थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना | आप तो खुद समझदार हैं |
'इत्यादि' पूरी तरह बकबकाता है | सब कुछ लिखने के बाद वाक्य के अंत में कुछ साहित्यिक गोष्ठियों में मुख्य अतिथि अथवा अध्यक्ष बने विधायक जी या मजिस्ट्रेट साहब की तरह बिराजता है | "आदि" विस्तार के आरम्भ की घोषणा करता है तो "इत्यादि" उसके अंत की | किसी गोष्ठी के समापन के समय जो 'रिपोर्टिंग' तैयार की जाती है, उसमें बारह-चौदह नाम देने के बाद "इत्यादि" का प्रयोग करना चाहिए और जब एक-दो ही नाम देने की गुंजाइश बचती हो तो समाचार के सुरम्य ललाट पर "आदि" का मंगल-टीका लगा दीजिये | "इत्यादि" का मतलब है-"सब कुछ लिख तो दिया है, हाँ ! भूल-चूक से एक-दो छूट भी सकते हैं | "आदि" शब्द बेचारा चिंतामग्न अकेला है, लेकिन "इत्यादि" में "इति" नाम की छोटी बहन भी संग-साथ लगी है -इति+आदि | 'इति' का अर्थ है कि "समझ लीजिये, बात पूरी हो चुकी है, जो कहना था, कहा जा चुका है |" "इति+ह+आस" =ऐसा ही हुआ था, यही इतिहास है, अर्थात सारी बातें बीत चुकी हैं | "इत्यादि" व्यतीत अतीत का आख्यान है, "आदि" वर्तमान के विस्तार का व्यंजना-सत्य | "इत्यादि" बाप की वीर-गाथा है तो "आदि" उत्तर आधुनिक बेटों की बेहिसाब फरमाइश | "आदि" का अभिप्राय यह कि "सूची बड़ी लम्बी है भाई! अब किस-किसका नाम लिखा जाय, सब कुछ बिना कहे-सुने आप समझ जाइये | किसी फिल्म की कहानी में कौन नायक-नायिका है, कौन खलनायक, कौन विदूषक है अथवा नायक-खलनायक के और कितने साथी-संगी हैं, गायक हैं, गीतकार हैं, तबलची-संगतकार हैं, पूरी सूची परदे पर अंकित है, लेकिन बोरे में बंद जो बेचारा चुपचाप गुमनाम-सा बहती नदी में फेंका जा रहा है, वह "इत्यादि" के खाते में कराह रहा है | गोष्ठियों में जिन्हें किनारे लगाना होता है,उन्हें "आदि-इत्यादि" के बोरे में लाश की तरह सिलकर फेंक दिया जाता है | वैसे "आदि" बिस्तरबंद खोलकर फैलाने का नाम है, जो "अण्डरस्टुड" है, तो "इत्यादि" बिस्तरबंद समेटने का, जिसका प्रकरण लगभग "दी एन्ड" है |
"आदि-आदि" की अघोषित श्रेणी में, सामाजिक दुदुराहट रुपी कूड़े के ढेर में फेंके गए कोहनूर जैसे आम्बेडकर महापुरुष पैदा हो गए तो "इत्यादि" के खाते में विलास-कीट अनगिन राजा-महाराजा तथा नवाब, जिन्हें आज कम लोग ही जानते-पहचानते हैं | "आदि" के खाते में दिन-रात रोती पछाड़ खाती गंगा-यमुना जैसी कई नदियाँ हैं तो "इत्यादि" झूठे सपनों के हिंडोले पर भिनभिनाती मक्खियों से घिरा हुआ किलकारियाँ भरता "विकास का बच्चा" है | "इत्यादि" खुली हुई किताब है-श्याम नारायण पांडेय की "हल्दीघाटी" है, सुभद्रा कुमारी चौहान की "झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई" है , मीरा की पगली पीर है तो "आदि" कबीर का रहसयवाद है, कुण्डलिनी-जागरण में षड्चक्रों का भेदन है, 'सून्य षिषिर गढ़' में पहुँच छककर अमृत का रस-पान है | वन-वल्लरियों को सहेली मानने वाली निसर्ग-दुहिता शकुंतला का वन्य हिरण-शावक के प्रति सहज मातृ-वात्सल्य का सा भाव और वन-कुंजर के संघट्टन से देवदारु की छाल छूट जाने पर देवासुर-संग्राम में घायल पुत्र की पीड़ा-स्मृति से आहत स्कन्द-माता पार्वती का विशाल ह्रदय भी "इत्यादि" की श्रेणी में परिगणित माना जा सकता है, किन्तु रवींद्र-कविता-कानन में पेशल प्रकृति-आभोग में विलसित विराट ब्रह्म की रहस्यमयी लीला की समाई तो "आदि" में ही मानी जाय, तभी ठीक है | प्रसाद जी की संक्षिप्त अबूझ-सी आत्मकथा "आलिंगन में आते-आते मुसक्याकर भाग जाने वाली" प्रियतमा की मर्यादा-पोटली (सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा? अभी समय भी नहीं, थकी सोयी हैं मेरी मौन व्यथा |" को "आदि" की रहस्य-मंजूषा में रहने दीजिये | निराला की "सरोज-स्मृति" का शोक-गीत-"दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही" तो "राम की शक्ति-पूजा" में "धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध" और यह कैसी विडम्बना कि "अन्याय जिधर, है उधर शक्ति?" शोक-संविग्न ये सारी बातें "इत्यादि" के सूत्र में पिरोयी हुई मानिये |
इंद्रधनुषी मन के आँचल में माँ-बाप तथा शुभैषियों की हज़ार दुआएँ लिए महकते अरमानों की डोली है "आदि" तो आलमे-ग़ैब की चाहत में फानी ज़हान से कूच करने वाले इंसान का जनाज़ा है यह "इत्यादि" | एक शब्द से सृष्टि की सृजन की यजन क्रिया का अथ हो सकता है तो दूसरे से महालूत विश्व-कर्त्ता की लीला का पटाक्षेप-उसकी मायावी निर्मिति का प्रत्यवहार |

[शब्दों की आलोक-यात्रा-डॉ. अमलदार 'नीहार']
अमलदार 'नीहार'

सुभाष चंद्र बोस को पढ़ते हुए

अमलदार 'नीहार
हिंदी विभाग

स्वाधीनता-आंदोलन के आलोक-पर्व
यूरोप प्रवास के दौरान सुभाष चंद्र ने अपनी वृहद् कृति 'द इंडियन स्ट्रगल' का प्रथम और प्रमुख खंड लिख डाला था | इसे पूरा करने में उन्हें साल भर से कुछ ऊपर लगा, और इस दौरान उनका स्वास्थ्य कत्तई संतोषजनक नहीं था | उस पर भी वह पुस्तक-जो ऐतिहासिक आख्यान थी-लिखते समय पर्याप्त सन्दर्भ-सामग्री उपलब्ध नहीं थी और अपनी स्मृति पर ही बेहद बोझ डालना पड़ा था | वह पुस्तक जनवरी, 1935 में लन्दन में प्रकाशित हुई | भारत की ब्रिटिश सरकार ने बिना वक़्त गँवाए लंदन में भारत-सचिव से मंजूरी लेकर पुस्तक के भारत में उपलब्ध होने पर रोक लगा दी | दलील थी कि यह पुस्तक "आतंकवादी तौर-तरीकों तथा सीधी कार्रवाई को प्रोत्साहन देती है |"
यह अनुमान का ही विषय है कि भारतीय पाठकों पर इसने क्या प्रभाव डाला होता | अलबत्ता, ब्रिटेन में इसकी खासतौर पर प्रशंसा हुई और यूरोप के राजनीतिक एवं साहित्यिक क्षेत्रों में खूब गर्मजोशी से इसका स्वागत किया गया | इंग्लैण्ड के "मैनचेस्टर गार्जियन" ने लिखा-"किसी भारतीय राजनीतिज्ञ द्वारा भारतीय राजनीति पर अभी तक लिखी गयी यह संभवतया सर्वाधिक रोचक पुस्तक है-------बेशक इसका महत्त्व इसलिए बेहद बढ़ जाता है कि लेखक भातीय राजनीति की तीन सबसे दिलचस्प विभूतियों में सबसे काम उम्र है -----पिछले चौदह वर्षों के इतिहास का उसका आकलन घोषित रूप से यद्यपि वामपंथी दृष्टिकोण से किया गया है, लेकिन प्रत्येक दल एवं व्यक्ति के प्रति लगभग उतना ही खरा है, जितने की अपेक्षा, युक्तिसंगत रूप से, एक सक्रिय राजनीतिज्ञ से की जा सकती है-----"
"सण्डे टाइम्स" ने कहा : " विचारादि को धार देने के लिए "द इंडियन स्ट्रगल" एक मूल्यवान पुस्तक है |" " डेली हेराल्ड" के राजनयिक संवाददाता का मत था : "यह शान्त, स्थिर और निरावेगी है | मेरे ख़याल से समकालीन भारतीय राजनीति पर यह मेरी नज़र से गुजरी सर्वाधिक सक्षम पुस्तक है ------यह किसी मतान्ध व्यक्ति की नहीं, विलक्षण रूप से समर्थ मस्तिष्क की रचना है----कुशाग्र, विचारशील एवं रचनाशील मस्तिष्क की, ऐसे आदमी की जो चालीस से कम की अपनी मौजूदा उम्र में किसी भी देश की राजनीति के लिए उपयोगी और शोभनीय हो सकता है |""न्यू क्रॉनिकल" ने टिपण्णी की : " क्रांतिकारी के रूप में वह असाधारण रूप से विवेकी है-------उसके साक्ष्य का महत्त्व वही है जो किसी अत्यंत स्पष्टभाषी प्रत्यक्षदर्शी गवाह के बयान का हो सकता है |"पुस्तक को भारत में प्रतिबन्धित करने पर ब्रिटेन के वामपन्थी राजनीतिज्ञों तथा साहित्यिक हलकों में खलबली मच गयी | जार्ज लांसबरी ने एक सन्देश में कहा : "उसे(सुभाष को) धन्यवाद दो उसकी पुस्तक के लिए, जिसे मैं अत्यंत रूचि से पढ़ रहा हूँ और जिससे बहुत कुछ सीख रहा हूँ -----" फ़्रांसीसी विद्वान रोमाँ रोला ने सुभाष को एक पत्र में लिखा : " भारत के आंदोलन के बारे में यह इतिहास की एक अनिवार्य पुस्तक है | इसमें आप इतिहासकार के सर्वोच्च गुणों के साथ नज़र आते हैं-प्रांजलता तथा उच्च कोटि की तटस्थ मानसिकता के साथ----मैं आपके उच्च राजनीतिक बोध की सराहना करता हूँ ------" आयरलैंड के राष्ट्रपति 'डि वैलेरा' (ऐमन डि वैलेरा (१८८२-१९७५), जन्म (संयुक्त राज्य अमरीका) | १९३७-४८, १९५१-५४ तथा १९५७-५९ के दौरान आयरलैंड के प्रधानमंत्री | फिर १९५९ से १९७३ तक आयरलैंड के राष्ट्रपति | पात्र लिखते समय वे संभवतया प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं थे |) ने सुभाष को लिखा : " आशा करता हूँ कि निकट भविष्य में भारतीय जनता स्वाधीनता और सौभाग्य प्राप्त कर लेगी |"रोम में सुभाष ने स्वयं मुसोलिनी को अपनी पुस्तक की प्रति भेंट की थी और मुसोलिनी ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रति संवेदना व्यक्त की थी |
यूरोप के तमाम देशों की अपेक्षा भारतीय स्वाधीनता में आयरलैंड की सर्वाधिक रूचि थी | उधर भारत में राष्ट्रवादियों, खासकर बंगाल के क्रांतिकारियों को भी आयरलैंडवासियों के संघर्ष ने बहुत प्रेरित किया था, क्योंकि उनका शत्रु भी ब्रिटेन था | यूरोप प्रवास के दौरान सुभाष चंद्र को आयरिश अनुभव को बहुत निकट से समझने का अवसर मिला था | प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अन्य देशों का, विशेषतया महाद्वीप में ब्रिटेन के पारम्परिक विपक्षी जर्मनी का समर्थन जुटाने के लिए आयरिश क्रांतिकारियों द्वारा अपनाये गए तरीकों का उन्होंने बड़ी बारीकी से जायजा लिया | तुलना करने पर सुभाष ने पाया, और संपुष्ट भी किया कि आयरलैंड और भारत के स्वाधीनता-संग्रामों की राजनीतिक प्रवृत्तियों में दिलचस्प समानताएँ हैं | डि वैलेरा से अपनी मुलाक़ात की दिशा में पहला कदम उठाते समय सुभाष बर्लिन में थे | १९३६ के प्रारम्भ में दोनों नेता डबलिन में मिले थे और आपसी हितों के अनेक मामलों पर उनमें लम्बी बातचीत हुई थी | अंतर्राष्ट्रीय प्रेस को आयरलैंड से वितरित करने के लिए सुभाष ने तीन भाषाओं-अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन में भारत सम्बन्धी बुलेटिन प्रकाशित करने का प्रबन्ध किया | किंवदंत आयरिश क्रान्तिवीरांगना मैडम मॉड गन मैकब्राइड की देखरेख में चलने वाली इंडो-आयरिश इंडिपेंडेंस लीग की गतिविधियों में सुभाष चंद्र बोस की आयरलैंड यात्रा से भारी सरगरमी आ गयी |
सन 1934 में, जब राष्ट्रमंच पर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी उदित हुई तो सुभाष यूरोप में थे | भारतीय राजनीति में इस वामपंथी धारा के आगमन पर उन्हें प्रसन्नता हुई, क्योंकि वे समझते थे कि जिस सहज आवेश के परिणामस्वरूप यह पार्टी गठित की गयी है, वह ऐतिहासिक दृष्टि से सही है | लेकिन सुभाष का मत यह भी था कि सोशलिस्टों में एकरूपता नहीं है, उनके कई एक विचार घिस-पिट चुके हैं और उन्हें जरूरत है एक स्पष्ट विचारधारा, कार्यक्रम और योजनाबद्ध कार्रवाई की | इसका खुलासा करते हुए सुभाष चंद्र ने कहा कि भावी भारत का दारोमदार बनाने वाली पार्टी को जनसाधारण के हितों का पक्ष लेना होगा, न की निहित स्वार्थों का
इसे भारतीय जनता की सम्पूर्ण राजनीतिक एवं आर्थिक स्वाधीनता का ही पक्ष साधना होगा | चरम लक्ष्य के रूप में इसे भारत के लिए संघीय सरकार की ही पैरवी करनी होगी, लेकिन देश को स्वावलम्बी बनाने के लिए कुछ वर्षों तक केंद्र में तानाशाही अधिकारों वाली शक्तिशाली सरकार की अनिवार्यता भी समझ लेनी होगी | इसे एक विशवस्नीय राजकीय योजना प्रणाली पर निर्भर करना पडेगा और देश के कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्रों के पुनर्गठन के लिए पसीना बहाना होगा | इसे जात-पाँत जैसी सामाजिक बंदिशें तोड़नी होंगी और ग्रामीण बिरादरियों अथवा अतीत की पंच-पंचायतों के आधार पर समाज का नया ढाँचा खड़ा करना होगा | इसे जमींदारी मिटाकर समूचे भारत में पट्टेदारी की एक जैसी व्यवस्था लागू करनी पड़ेगी | पार्टी, मध्य विक्टोरियाकालीन शैली के लोकतंत्र की वकालत नहीं करेगी, बल्कि भारत को अखंड रखने और अव्यवस्था रोकने के एकमात्र साधन के रूप में सैन्य अनुशासन में बंधी एक सशक्त पार्टी की सरकार की हिमायत करेगी | पार्टी को सारे परिवर्तनकामी संगठनों को एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अंतर्गत एकसूत्र करने का प्रयास करना होगा, ताकि राष्ट्रीय जीवन में कई मंचों पर एक साथ मिली-जुली कोशिशें हों |
सुभाष चंद्र की धारणा थी की कई कारणों से भारत में साम्यवाद (कम्युनिज्म) कभी नहीं अपनाया जा सकेगा | भारत का आंदोलन अनिवार्यतया एक राष्ट्रवादी आंदोलन था-भारतीय जनता की राष्ट्रीय मुक्ति का आंदोलन | उनका मत था की भारत को "एक संयोजनशील अथवा समानतापरक सिद्धांत" का सृजन करना होगा, जिस पर भावी भारतीय समाज की नीं रखी जा सके | इस सिद्धांत को वे "साम्यवाद" कहते थे, प्राचीन भारत में यह शब्द सामाजिक विरोधाभास मिटाकर उपलब्ध स्वरूप स्थिति को अभिव्यक्त करता था |
वर्ष १९३५ में सुभाष चंद्र को अपना विकारग्रस्त पित्ताशय निकलवाने के लिए एक गंभीर ऑपरेशन करवाना पड़ा | डाक्टरों ने आखिर उनकी बीमारी की जड़ पकड़ ली थी | बड़े आपरेशनों में आज की अपेक्षा उन दिनों बहुत ज्यादा जोखिम था, और सुभाष को यह जोखिम एक दूरस्थ देश में, परिजनों-प्रियजनों की अनुपस्थिति में उठाना था | इसलिए उनसे कहा गया की अनहोनी के मद्देनजर वे अपनी अंतिम इच्छा या अंतिम सन्देश लिख डालें | सुभाष ने एक छोटे से कागज़ पर लिखा : " मेरी जायदाद मेरे देशवासियों के हिस्से, मेरे क़र्ज़ मेरे भाई शरत के जिम्मे |"
यूरोप घूमते हुए सुभाष चंद्र स्विटजरलैंड भी गए, वहाँ जिनेवा में लीग ऑफ नेशंस-राष्ट्रसंघ-के गलियारों में द्वार-द्वार दस्तक देकर उन्होंने दलीलें दीं की स्वाधीनता उनके देश का अधिकार है | मगर यह देखकर उन्हें बड़ी निराशा हुई की लीग के अधिकारों पर शक्ति हावी है और उसके सभा-परामर्शों में पराधीनों की आवाज़ कत्तई नहीं सुनी जाती |
यूरोप के जिन बौद्धिकों से सुभाष मिले, उनमें से एक थे महान फ़्रांसीसी विद्वान और भारत-मित्र रोमा रोलाँ रोला | सुभाष चंद्र से मिलने के बाद रोलाँ ने अपनी डायरी में एक विमृत दूर देश के अनजान युवा यात्री का दिलचस्प वर्णन किया है | रोलाँ ने पाया की "सुभाष अत्यंत गंभी, विचारशील और कुशाग्र है-जो हाल ही में छपी उसकी पुस्तक से साबित हो चुका है | घटनाओं और व्यक्तियों को उसने ठेठ राजनीतिक की दृष्टि और असाधारण निष्पक्षता से जाँचा-परखा है-------आतंकवाद को वह कोई स्वस्थ नीति नहीं समझता, लेकिन प्रतिरोध का समर्थक है, जिसमें हिंसा वर्जित नहीं है( और यदि संघर्ष के लिए यह जरूरी हो जाए तो निश्चय ही वह इसका समर्थन भी करेगा | ), वह निश्छल है, और यूरोपीय युद्ध पर टिकी इस उम्मीद को नहीं छिपाता की इंग्लैण्ड उसमें फँसा होगा, तो भारत की जीत की संभावना सुनिश्चित हो जाएगी------सोवियत संघ भारत के स्वाधीन होने में मदद करे, इसमें उसे निश्चय ही कोई हर्ज़ नज़र नहीं आया -----"
[नेताजी सुभाष चंद्र बोस-शिशिर कुमार बोष, पृष्ठ-६३-६६ ]
प्रस्तुति
अमलदार 'नीहार'








शुक्रवार, 2 मार्च 2018

पच्चीस वर्ष पहले की रचना


२७ फरवरी १९९३ (फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश)

बावरे! हैं अभिराम नैन उसके जो बड़े
रूप-महाकानन में चौकड़ी कुरंग की,
अटके हो कहाँ तुम मरु की मरीचि बीच
प्यासी मति, लालसा है अंग में अनंग की |
माना मेघ उसके कलाप केश, मुख-चंद्र-
सुधा की सुराही भरी यौवन-उमंग की,
शकल सुमेरु चारु गोरे हैं कपोल गोल,
गति यही सत्य-ज्यों चकोर-चोंच-भंग की || १ ||

मधु मुस्कान, अधमुँदी पलकों के दृश्य
प्यारे मतवारे ! ये तुम्हारे लिए नहीं हैं,
वेणियों में गुँथे फूल, सीमन्त-सिन्दूर देख
नैन कजरारे ये तुम्हारे लिए नहीं हैं |
दृगजल-बिंदु एक ठहरा कपोल पर
शबनम शरारे-ये तुम्हारे लिए नहीं हैं,
खड़े हो 'नीहार' जहाँ पाँव पंक-सने हुए
व्योम के सितारे ये तुम्हारे लिए नहीं हैं || २ ||

[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८



२७  वर्ष पहले की रचना

नयनों के द्वार नंदलाल उर पैठ गए 
कहूँ क्या री हाय! पनघट की डगर को,
एक बार घूँघट उठाया, सुध-बुध गयी
घट कहाँ, घाट कहाँ, भूल गयी घर को |
अम्बर सुनील, थल-जल-जहाँ-जहाँ दृष्टि
एक ही तो श्याम धरे मुरली अधर को,
बावरी-सी फिरूँ आज, लाज के ही भार-दबी
कहूँ क्या मैं सखि! ऐसे धराधरधर को? || १ ||

रस-भरी  बाँसुरी है, रसिक-सुजान श्याम
चारु चितवन रस-बरसात आयी हो,
छवि अवदात गात, सिर केकी-शिखापीड़
अम्बर-सुपीत घन-दामिनी सुहाई हो |
रोम-रोम मेरे मनमोहन जो रम गए
ऐसी जीव-दशा को बधाई हो, बधाई हो,
'रस' नाम नन्द-नन्द, विरस 'नीहार' कैसे
मेरी जिजीविषा में तुम्हारी ही समाई हो || २ ||

[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८


पच्चीस वर्ष पहले की रचना 

कर धरे वंशी-छोर एक, अधरोष्ठ पर 
बाँकी चितवन शोभा रही लोट-पोट री! 
पिच्छ प्रचालाकिन है शोभमानापीड़ रूप 
कटि पीतपट बाँधे दामिनी लँगोट री ! 
खड़े जीव-जड़ जहाँ-तहाँ, सखि! बावरी-सी 
छिपी छवि देखने तमाल तरु-ओट री! 
उर की विभूति हारी, हाय! बचूँ कौन विधि 
लगे श्याम-अंक मुझे काजर की कोठरी || १ || 

मन्द-मन्द यमुना की वीचि बहती है, शिखी-
कोकिल-कपिंजल के कूक-हूक फीके हैं,
वृन्दावन-कुञ्ज-कुञ्ज मधुप मिलिंद-वृन्द 
रंग और कंज-कर्णिकार-केतकी के हैं | 
मोद-मुरली-तरंग बहे ज्यों गगन-गंग 
आलि ! बड़े भाग्य गाँव गोकुल-गली के हैं,
जग-मनमोहन जो, उसको रिझाये कौन 
कवित्त-'नीहार', दोनों नंदलाल जी के हैं || २ || 

[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८ 


आज से २८ वर्ष पहले की रचना 

खेलो श्याम-संग होरी डूब उसी रंग में 
रचनाकाल-१४ मार्च, १९९० 
हरिद्वार(उत्तर प्रदेश, सम्प्रति उत्तराखण्ड) 

उमंग-पगे हैं व्रजबाला, ग्वाल-बाल-वृन्द 
सभी करते हैं बात हँसी की, ठिठोली की, 
ऎसी पिचकारी मारी मोहन मुरारी ने कि
आली-पीछे छिपी, रँग उठी चोली भोली की | 
रूप-रस-सागरी सी नागरी-निपुण राधा 
बाधा-बिना उलटी अबीर सारी झोली की,
डाला रंग, मोहिनी-मधुर चितवन देख 
ठगे रह गए ठग, जय-जय होली की || १ || 

आद्या शक्ति राधाराध्य मोहिनी-मोहन-अंश 
विश्व की विमोहिनी है, माया की पहेली है,
वृन्दावन-कुञ्ज बीच लसे रस-रूप-रङ्ग
संग श्याम खेल रही राधा ससहेली है | 
रँगे लाल ही के रंग, ग्वाल भी गुलाल लिए 
मस्ती भरी बस्ती बन गयी अलबेली है,
ऋतुराज फूल उठे केतकी-गुलाब-जूही,
कंज-कर्णिकार और चम्पा है, चमेली है || २ || 

'नन्द के किशोर श्याम खेल रहे होरी हे री! 
श्याम-रंग-बोरी वृषभानु की किशोरी भी, 
चली मिलने को मानो नक्त से प्रभात-प्रभा 
विभावरी विभा-भरी साँवरी-सी, गोरी भी | 
देख सुस्मिति ही सरोज खिलते हैं सारे
तारे, हँसी देख फिर चंद्र भी-चकोरी भी,
भीगे हरि जिस-जिस रंग, हँसी व्रजबाला 
कोई दन्त अंचल दे, कोई चोरी-चोरी भी || ३ || 

खेले जहाँ ब्रह्म जीव-संग होली लीलामयी
कैसी है उमंग उमड़ी-सी अंग-अंग में,
दिया सबको ही ढेर प्रीति का प्रसाद मानो 
रँग डाला चराचर प्रीति के ही ढंग में | 
भावना में भक्त-संग खेलता है वही हरि
जिसकी प्रभा है तारे-चन्द्रमा-पतंग में,
सारे ज्ञान-गागर में सागर की एक बूँद 
खेलो श्याम-संग होरी डूब उसी रंग में || ४ ||  

[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८