शुक्रवार, 30 मार्च 2018

स्मार्ट फोन के दौर में कविता-पाठ उर्फ़ संवेदना का संकट


साहित्यिक-सुधी-सामाजिक-प्रमाता बीच बैठ
सहृदय सन्मित्र संस्कारित जनों के ह्रदय पैठ
नए दौर में कविता सुनाना कठिन काम है,
स्मार्ट फोन पर उँगलियों का ठिठक जाना हराम है |
जिस समय मरोड़ी जा रही हो गर्दन इतिहास-तोते की,
लहूलुहान माथा हो रहा हो तमाम मुल्कों के भूगोल का,
हवा में घोले जा रहे हों फास्जीन जैसे ज़हरीले विचार
दिशाओं में घुप्प धुँधलापन, सुरंगें बारूदी आसमान में,
हो रही हो बाँझ धरती की कोख सदा-सदा के लिए,
चुराने में लगा हो कोई चुपके से नदियों की तरलता,
सघन शाख जंगल-वृक्षों से पैदा नैसर्गिक आक्सीजन,
आम जनों की सुख की नींद, सरलता जीवन की,
न्याय के आँगन से दिन-दोपहर ईमान का अपहरण
और लोकतंत्र के मंदिर में सत्यनिष्ठा सँग
रँडुआ आश्वासनों से जघन्य बलात्कार लगातार,
चुरा ले गए संस्कृति की आँख से सभ्यता का काजल,
भरी पंचायत में आत्मा के चबूतरे पर वचन का गंगाजल,
मछलियाँ पहाड़ पर चढने को आतुर
और आदमी की ही करनी पर
शर्म से पछाड़ खाते धसकते पहाड़,
दिशाओं के कानों में घोलती मधुर संगीत
वह हरी-हरी पाँत तोतों की
हो चुकी हो गायब आकाश-धान के खेतों से
उजले पाँखों वाले विहंग बलाक-माल पावस के-
केवल हमारी बाल सुधियों में सुरक्षित |
गौरैया की गरदन पर आधुनिक विकास का कहर,
अब न मुँडेरों पर स्वजनों का सनेस लाता कौआ-
सुनहली चोंच करने का आश्वासन व जादुई भाषन
इतिहास की अटारी पर चुनाव-गीतों की मंजूषा में कैद,
उड़ा ले गए अदृश्य हाथ गिद्धों को,
दिखायी दे रहा है सिर्फ सिद्धों के सीस पर गर्वीला मुकुट
बाकी सब कुछ गायब हो रहा हो-
जीने की ख्वाहिश, ख़्वाब, खुशबू
और चटकती कली-सी बहार, बुलबुलो-गुलशन |
दीवार से और दिल के कोने-अँतरों से गायब है
सत्याग्रह-अहिंसा का वह चमकदार प्रतीक-अधनंगा सा चित्र और विचार भी,
सिर्फ वोट के लिए
'जयन्तियाँ' जय-जयकार करती हैं कैलेंडरों में
और जाति-विहीन नेताजी सुभाष बाबू की जयन्ती
विस्मृति के तहखाने में धूल फाँकती
अवसरानुकूल टिप्पणियों के लिए सुरक्षित,
चैधरी चोखेलालों की अखंड देशभक्ति के हुक्के हैं-भगत सिंह
व पटेल सियासी सिक्के हैं टकसाल में अपने अनुरूप,
राणा प्रताप और वीर शिवा अब कवच बनेंगे और ढाल भी |
----हो चुका है पूँजी -निवेश अयोध्या और काशी का
सत्ता की तिज़ारत में,
आस्था के कोठे पर मोलभाव
मनुष्य की आँख के पानी की तरह मरती गंगा का,
कामधेनु-नंदिनी तक विपर्यस्त मातृत्व का मोहक व्यापार-
जब उसी के बछड़े को कसाई और भाई को भाई काट रहा है,
जो मिला रहा हो हाथ गर्मजोशी से विश्व-मंचों पर
सरहदों पर सियासी दाँव-जूझते जवानों का लहू चाट रहा है
------और उस लहू में चुपड़ी हुई रोटियाँ वैश्विक राजनीति की-
"कि हम शान्ति और अमन का पैगाम देंगे"
"कि बनायेंगे इस धरती को इक्कीसवीं सदी में"
"कि नष्ट कर देंगे परमाणुओं का जखीरा"
निरस्त्रीकरण की तमाम संधियाँ और विनाश के निरंतर अनुसंधान-
विनाशक पनडुब्बियाँ परमाणुवाहक विमान
संहारक क्षमताओं से लैस-सभी देशों में साथ-साथ चलेंगे"
"कि हम सब बनेंगे एक दूसरे से शक्तिशाली
और उदारता का मानदंड भी"
"वसुधैव कुटुंबकम के आकाशभेदी नारे
ऐसे ही कठिन काल में
अतीत का दंश,वर्तमान की जद्दोजहद
और भविष्य की आशंकाएँ हजार
बेचैन रातों की अश्रु-बोझिल जागती पलकों पर डाल
जब कोई कवि दर्द को उतार पाता है कविता की सीपी में
तो आबदार मोती बन जाते हैं विचार,
पर सिसकता सवाल यह कि
"आखिर, मोती का मोल कौन लगाए?
कि जहाँ सब कुछ हो चुका है बाज़ार
समय का बहेलिया जार पूँजीवाद का हथियार
स्मार्ट मोबाइलों की रंग-विरंगी दुनिया में
भटकती आत्माओं की तरह
विलासिता की परछाइयों-तथाकथित श्रोताओं के बीच?
जो मर्मज्ञ हैं मूर्धन्य मनीषी, विशारद हैं-नारद हैं,
विद्या-बुद्धि-वारिधि, विवेक-चूड़ामणि, ज्ञान-विज्ञान-मार्तण्ड
पूज्यपाद आचार्य पंडित पोंगेलाल और मंत्री तोताराम
"खुसुर-पुसुर" से पहुँच जाते हैं-"अथ अनन्त वार्ताः श्रूयन्ताम" तक
ठीक , कवि अकिञ्चनदास का जब काव्य-पाठ होता है-
हिलाता हुआ उन दीवारों को नैतिक सवालों के गोले से
जो दिलों के बीच हजारों साल से खडी की गयी है
-सामंतों की दुर्नाम ताकतों द्वारा-
एक खुजलाता है कान तो दूसरा 'हलका होने' की फिराक में
तीसरे की उँगलियाँ मोबाइल की स्क्रीन पर
कुछ ढूँढती रहती हैं व्याकुल अविराम
किसी बान्धवी को मिलाता है फोन ठीक उसी वक़्त-
"हैलो रूपा! कैसी हो? तुम्हारी मिस्ड कॉल थी कल की"
"नो, नथिंग, थैंक्स" जवाब उधर से |
दोस्तों! हमें दुश्मनों की मिसाइलों से उतना खतरा नहीं,
जितना कि अपनों की प्रायोजित बेदिली-बेरुखी से,
"ब्रह्मानन्द-सहोदर" के तथाकथित साधकों!
वाग्देवी सरस्वती के अनन्य आराधकों!
मेरी बातें गौर से सुनो-
"काल-विपञ्ची के तार न बजेंगे फिर कभी ऐसे
बह जाएगा समय बाढ़ के पानी की तरह जीवन से
और तुम दिल के खाली कोनों में
इंसानियत की एक बूँद से महरूम
तरस जाओगे अंतरात्मा की पुकार सुनने को,
जब आत्मकेंद्रित सभ्यता, वेदना की पीठ पर
विडम्बनाओं के नुकीले पंजों के खौफनाक खरोंच अनदेखा करती है,
तब वह लक्ष्य-भ्रष्ट मन्त्र की तरह
प्रणव के छंदों से छलकते जीवनानंद से दूर
'पश्यन्ती' का तिरस्कार करती हुई
विराट चेतना से विमुख हो जाती है,
दरअस्ल यही है संवेदना असली संकट आज के दौर में |
रचनाकाल : ०१ फरवरी, २०१७
(बसंत पंचमी, सारस्वत महापर्व)
बलिया, उत्तर प्रदेश
शीघ्र प्रकाश्य कृति
[ह्रदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार ]

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