रविवार, 11 मार्च 2018

विद्यार्थियों के लिए विशेष सामग्री

'आदि' और 'इत्यादि' में बहुत ही फ़र्क़ है दोस्तों!"
मेरा मानना है कि शब्द सबसे बड़े चुगलखोर(चुगुलखोर) होते हैं, जो अपने आप जाति-धर्म, गुण, शील-स्वभाव, शिक्षा-संस्कार, समाज और देश, समृद्धि और विपन्नता का परिचय दूसरों को देते रहते हैं | लक-दक कपड़ों में सजे-सँवरे, बालों में कंघी, कपड़ों पर इत्र, पॉलिश्ड चमचमाते और मचमचाते जूते, मुँह में गुटखा या पान ठूँसकर 'भले मानुष' आप लग सकते हैं, लेकिन उसकी पीक के साथ जैसे ही मुख से ठेठ गालियों के फव्वारे 'फचर-फचर' फूटने लगते हैं, फिर शराफ़त-शाइस्तगी और सदाक़त का फालतू परिचय देने की जरूरत नहीं | व्याकरण-असंगत भाषा का एक भी शब्द, सदोष उच्चरित एक ध्वनि, घृणा-सनी कोई कटूक्ति, झूठ-फरेब की मीठी चाशनी में लिपटी चतुराई-भरी बात किसी जन्मजात बैरी की भाँति आपकी 'महानता' और 'योग्यता' की कलई उतारने में तनिक भी देर नहीं लगाती | आप सदैव मानव-समाज की आँख, उसकी श्रुति और बुद्धि-विवेक की तुला पर 'बकरे की बोटी' की तरह चढ़े हुए हैं | मन लीजिये किसी का नाम 'अवनींद्र मोहन' है, 'सिद्धार्थ' है, 'करुणेश' है, 'क्षमा शंकर' है, 'सुलोचना', 'साधना', 'सत्यवती', 'नीरजा' या 'मंदाकिनी' है और दूसरी ओर किसी का नाम 'फेंकू', 'सिधारी', 'कतवारू' , 'घुरहू', 'नोखई', 'जोखू' , 'ढुक्कन', 'जोखू','बेचई', 'दुक्खी' अथवा 'छमिया', 'रधिया', 'अनारा', 'कमली', 'सुखिया', 'धनवंती' है तो बिना बताये ही धारणा बहुत कुछ बन जाती है | यद्यपि व्याकरण के अपवाद की तरह क्रमिक सरकारों की बदलती नीतियों और नातियों, युगांतरकारी उदारचेता नायकों तथा सहृदय सामाजिक उन्नायकों के निरंतर प्रयास से स्थितियाँ बहुत कुछ बदली भी हैं और पहले के रखे गए इन मनहूस और मासूम नाम वालों ने भी अपनी निम्नतम दयनीय स्थिति और गुमनामी के अँधेरे को चीरकर पहले से कुछ बेहतर पहचान बनायी है | आज कई लोग ऐसे लाचार नामों को धता बताते हुए अपराजेय प्रतिभा और प्रचण्ड पुरुषार्थ से प्रकाश-पुञ्ज बिखेर सकते हैं |
मेरे एक गुरूदेव थे श्री लुटई राम यादव, बहुत ही नाटे कद के अंग्रेजी के अध्यापक, जो धुँआधार बोलते थे, तेजस्वी थे, मनस्वी थे, पर अकाल ही इस दुनिया से विदा हो गए, मेरे सहकर्मी मित्रों में श्री सोमारू राम बहुत तेज विद्यार्थी रहे थे और इस समय डीईटी के पद पर तैनात हैं, दरसू राम और निहोरी राम भी कहीं नौकरी में हैं | नाम-ग्राम्यता के बावजूद डॉ. नकछेद राम, प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव, पांडेय बेचैन शर्मा 'उग्र', ललई राम और हमारे श्री लहुरी मास्टर कम तेजस्वी नहीं है | खैर, शायद हम इधर-उधर भटक गए और "आदि", "इत्यादि" नामधारी दोनों सगे भाई बेचारे शूलियों पर लटक गए, ऐसा कुछ लोगों को लग सकता है, पर बात ऐसी नहीं है | इतने भोले-भले और प्यारे-से मासूम इनके चेहरों को तनिक ध्यान से देखिये, ये दोनों अपने बारे में खुद इतना चीख-चीखकर सब कुछ बता रहे हैं और लोग हैं कि निरर्थक शब्दों की धमाचौकड़ी और शोर-शराबे में इनकी बात ही नहीं सुनते | संस्कृत का 'प्रभृति' और अरबी का 'वगैरह' शब्द भी यदा-कदा हिंदी में प्रयुक्त होता है इसी आशय की अभिव्यक्ति के लिए | हिंदी में 'आदि' और 'इत्यादि' का इस्तेमाल भाषा की रसोई में खूब किया जाता है | किसी को 'आदि' बहुत पसंद है तो किसी को 'इत्यादि' बहुत प्यारा लगता है | अनेक जनपदों के महान साहित्यकार-कवि और लेखक 'आधि कारणों' (व्याधि है शारीरिक बीमारी तो 'आधि' मानसिक रोग को कहते हैं) से अपनी खरोष्ठी गोष्ठी ('खरोष्ठी' शब्द यहाँ श्लेशपरक और स्वनिर्मित है | 'खर' गधे को भी कहते हैं और उन्हें भी, जो तेज-तर्रार हैं, प्रखर हैं, प्रतिभाशाली हैं | 'खर' दण्डकारण्य में राक्षसराज रावण के स्कन्धावार का प्रमुख सेनापति था, जिसे श्री राम के अलक्ष्यच्युत अमोघ वाणों ने खर-पतवार की तरह कुछ ही पलों में भस्मीभूत कर दिया था | इसलिए विध्वंसक 'खर' तत्वों का सुस्थिर निवास तथा उनका सामूहिक समाह्वय भी 'खरोष्ठी' ही है | विचार-विमर्श हेतु विद्वानों-विचारकों अथवा कवियों-लेखकों, सामाजिक-राजनीतिक अधिकारियों-कर्मचारियों-कार्यकर्ताओं की बैठक के लिए प्रायः 'गोष्ठी' शब्द प्रयुक्त होता है | वैसे जहाँ गाय अथवा बैल बाँधे जाते हैं, उस स्थान को 'गोशाला' के अलावा 'गोष्ठ' या 'गोष्ठी' भी कह सकते हैं |) से दुष्पाच्य तेजस्वी कवियों को प्रायः इसी खाते में धकेल देते रहे हैं और पण्य-जीवी अखबारों में जनपदीय पृष्ठों पर वे "वाक्य-पदीयम" की तरह "भादो बारह मास" छाए रहते हैं |
आप यदि किसी संस्था में दमदार नहीं हैं या सामाजिक "स्वयंभू प्रतिष्ठा" के पहरेदार नहीं तो "बैलेंस-शीट" से बाहर बकाया कर्ज़दार महोद्योगपतियों की तरह विलोमी तर्ज़ पर "आदि-इत्यादि" के फुटकल खाते में फेंके जा सकते हैं | ये दोनों शब्द उपेक्षा के बहुत बड़े हथियार की तरह भी इस्तेमाल किये जा सकते हैं | इन्हें परशुराम के फरसे से कम धारदार न समझिये | शब्दों के रूप में यही 'हाशिये का समाज' है भाई! विडम्बना यह कि 'लावित्र(हँसिया)-धारक का भी यही समाज है | घर की बड़ी मालकिन का हुक्म हुआ कि "तनखा देइ अधिकारी, चाहे उफ्फर के मड़ई जाय, आज बज़ार जायँ अउर जरूरी समान(हल्दी-नमक, साबुन-तेल आदि-आदि) आवै के चाही |" पिछले दो महीने से हमारा वेतन व्यवस्था के गर्भाशय में लावारिस शिशु की तरह अँडस गया था और सच्चाई की साख पर उधार का आधार आखिर कब तक बना रहे? अब अपुन को समझना है कि इस 'आदि' के पेट में वेतन का कितना हिस्सा समा सकता है | यह 'आदि' कोई मामूली शब्द नहीं है | इसके पेट में जरूरतों का विपुल विस्तार है, यह रबर का सबसे बड़ा तम्बू है | इसी में गृहथी के सैकड़ों जंजाल समाये हुए हैं, जिसकी लम्बी सूची प्रस्तुत तो नहीं की गयी, लेकिन मियाँ ! पढ़े-लिखे हो, इतना तो समझ जाओ | इस "आदि" में बूढ़ी अम्मा की दवा भी है, बाबूजी का मोतियाबिंद का आपरेशन भी है तो चिंटू की चड्ढी, मोनू की लम्बी फीस और संस्कृति के लिए नया खिलौना भी है, बहू के लिए होली की नई साडी भी है, बिटिया के लिए सूट भी है, होली का पूरा सामान, मेवा-मिठाई, टूट हुई टोंटी की मरम्मत, आर. ओ. मशीन की सफाई भी है, मोटर साइकिल का पेट्रोल, मोबाइल-इंटरनेट का खर्चा और मुफलिसी के आलम में बजट का पूरा "होलिका-दहन" है | इन फरमाइशों के अलावा पचास मील लम्बी फेहरिश्त होती है | इस अघोषित "आदि" ने हमारे भीतर पूरा घमासान मचा रखा है , लेकिन "इत्यादि" में अधिक स्पष्टता रहती है | उसमें पूरा व्योरा छपा-छपाया पड़ा रहता है | बेटे-बेटियों के ब्याह में या बाबा की तेरही में "आदि" से काम नहीं चल सकता | उपयोग-सामग्री की पूरी डेढ़ हाथ लम्बी सूची हवा में फरफराती दिखायी देती है और "आदि" मलिकार की जेब का छोटा-सा पुर्जा है, जो पाणिनि के सूत्र की तरह संकेत मात्र देता है, बाक़ी आप समझ लीजिये | पुराने ज़माने में जब कोई चिट्ठी-पाती लिखता था तो अंत में इतना जरूर टाँक देता कि-"बाक़ी सब ठीक-ठाक है, अपना ख़याल रखना |" यानी दुखड़े का अनंत विस्तार है भइया, अब का-का लिखा जाय? जो नहीं लिखा जा सका, वह असीम है-पूरा महासागर है,ताई जी का पुराना बतास है, रग्घू काका की दमा-खाँसी है, पड़ोसी चाचा से नया-नया झगड़ा है, उसमें नई बहुरिया के बिछोह का दर्द भी है-"सुनत पथिक-मुँह माह निसि चलत लुऐं उहि गाम | बिनु पूछे बिन ही कहे जियति बिचारी बाम ||"(बिहारी-सतसई) थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना | आप तो खुद समझदार हैं |
'इत्यादि' पूरी तरह बकबकाता है | सब कुछ लिखने के बाद वाक्य के अंत में कुछ साहित्यिक गोष्ठियों में मुख्य अतिथि अथवा अध्यक्ष बने विधायक जी या मजिस्ट्रेट साहब की तरह बिराजता है | "आदि" विस्तार के आरम्भ की घोषणा करता है तो "इत्यादि" उसके अंत की | किसी गोष्ठी के समापन के समय जो 'रिपोर्टिंग' तैयार की जाती है, उसमें बारह-चौदह नाम देने के बाद "इत्यादि" का प्रयोग करना चाहिए और जब एक-दो ही नाम देने की गुंजाइश बचती हो तो समाचार के सुरम्य ललाट पर "आदि" का मंगल-टीका लगा दीजिये | "इत्यादि" का मतलब है-"सब कुछ लिख तो दिया है, हाँ ! भूल-चूक से एक-दो छूट भी सकते हैं | "आदि" शब्द बेचारा चिंतामग्न अकेला है, लेकिन "इत्यादि" में "इति" नाम की छोटी बहन भी संग-साथ लगी है -इति+आदि | 'इति' का अर्थ है कि "समझ लीजिये, बात पूरी हो चुकी है, जो कहना था, कहा जा चुका है |" "इति+ह+आस" =ऐसा ही हुआ था, यही इतिहास है, अर्थात सारी बातें बीत चुकी हैं | "इत्यादि" व्यतीत अतीत का आख्यान है, "आदि" वर्तमान के विस्तार का व्यंजना-सत्य | "इत्यादि" बाप की वीर-गाथा है तो "आदि" उत्तर आधुनिक बेटों की बेहिसाब फरमाइश | "आदि" का अभिप्राय यह कि "सूची बड़ी लम्बी है भाई! अब किस-किसका नाम लिखा जाय, सब कुछ बिना कहे-सुने आप समझ जाइये | किसी फिल्म की कहानी में कौन नायक-नायिका है, कौन खलनायक, कौन विदूषक है अथवा नायक-खलनायक के और कितने साथी-संगी हैं, गायक हैं, गीतकार हैं, तबलची-संगतकार हैं, पूरी सूची परदे पर अंकित है, लेकिन बोरे में बंद जो बेचारा चुपचाप गुमनाम-सा बहती नदी में फेंका जा रहा है, वह "इत्यादि" के खाते में कराह रहा है | गोष्ठियों में जिन्हें किनारे लगाना होता है,उन्हें "आदि-इत्यादि" के बोरे में लाश की तरह सिलकर फेंक दिया जाता है | वैसे "आदि" बिस्तरबंद खोलकर फैलाने का नाम है, जो "अण्डरस्टुड" है, तो "इत्यादि" बिस्तरबंद समेटने का, जिसका प्रकरण लगभग "दी एन्ड" है |
"आदि-आदि" की अघोषित श्रेणी में, सामाजिक दुदुराहट रुपी कूड़े के ढेर में फेंके गए कोहनूर जैसे आम्बेडकर महापुरुष पैदा हो गए तो "इत्यादि" के खाते में विलास-कीट अनगिन राजा-महाराजा तथा नवाब, जिन्हें आज कम लोग ही जानते-पहचानते हैं | "आदि" के खाते में दिन-रात रोती पछाड़ खाती गंगा-यमुना जैसी कई नदियाँ हैं तो "इत्यादि" झूठे सपनों के हिंडोले पर भिनभिनाती मक्खियों से घिरा हुआ किलकारियाँ भरता "विकास का बच्चा" है | "इत्यादि" खुली हुई किताब है-श्याम नारायण पांडेय की "हल्दीघाटी" है, सुभद्रा कुमारी चौहान की "झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई" है , मीरा की पगली पीर है तो "आदि" कबीर का रहसयवाद है, कुण्डलिनी-जागरण में षड्चक्रों का भेदन है, 'सून्य षिषिर गढ़' में पहुँच छककर अमृत का रस-पान है | वन-वल्लरियों को सहेली मानने वाली निसर्ग-दुहिता शकुंतला का वन्य हिरण-शावक के प्रति सहज मातृ-वात्सल्य का सा भाव और वन-कुंजर के संघट्टन से देवदारु की छाल छूट जाने पर देवासुर-संग्राम में घायल पुत्र की पीड़ा-स्मृति से आहत स्कन्द-माता पार्वती का विशाल ह्रदय भी "इत्यादि" की श्रेणी में परिगणित माना जा सकता है, किन्तु रवींद्र-कविता-कानन में पेशल प्रकृति-आभोग में विलसित विराट ब्रह्म की रहस्यमयी लीला की समाई तो "आदि" में ही मानी जाय, तभी ठीक है | प्रसाद जी की संक्षिप्त अबूझ-सी आत्मकथा "आलिंगन में आते-आते मुसक्याकर भाग जाने वाली" प्रियतमा की मर्यादा-पोटली (सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा? अभी समय भी नहीं, थकी सोयी हैं मेरी मौन व्यथा |" को "आदि" की रहस्य-मंजूषा में रहने दीजिये | निराला की "सरोज-स्मृति" का शोक-गीत-"दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही" तो "राम की शक्ति-पूजा" में "धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध" और यह कैसी विडम्बना कि "अन्याय जिधर, है उधर शक्ति?" शोक-संविग्न ये सारी बातें "इत्यादि" के सूत्र में पिरोयी हुई मानिये |
इंद्रधनुषी मन के आँचल में माँ-बाप तथा शुभैषियों की हज़ार दुआएँ लिए महकते अरमानों की डोली है "आदि" तो आलमे-ग़ैब की चाहत में फानी ज़हान से कूच करने वाले इंसान का जनाज़ा है यह "इत्यादि" | एक शब्द से सृष्टि की सृजन की यजन क्रिया का अथ हो सकता है तो दूसरे से महालूत विश्व-कर्त्ता की लीला का पटाक्षेप-उसकी मायावी निर्मिति का प्रत्यवहार |

[शब्दों की आलोक-यात्रा-डॉ. अमलदार 'नीहार']
अमलदार 'नीहार'

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