रविवार, 11 मार्च 2018

'निमंत्रित' और 'आमंत्रित' के बीच बिखरे सम्बन्धों की मीमांसा

डॉ. अमलदार 'नीहार'
संदेह की सृष्टि हो जाती है अनेकधा किसी शब्द विशेष को लेकर मित्र-बंधुओं के मन में और बहुत सावधानी के बावजूद मुझे भी विचार करना पड़ जाता है | ऐसे ही दो शब्द हैं "निमंत्रण" और "आमंत्रण" और इनसे ही बनते हैं "निमंत्रित" और "आमंत्रित" भी | इन शब्दों के विषय में देख रहा हूँ कि कोशों के पास कोई संतोषजनक मंत्र या उत्तर नहीं है | दोनों घाल-मेल हैं-दोनों का चूल्हा एक, अर्थान्विति का भोज-भात भी एक दूसरे की रसोई में मजे में चल रहा है | आइये, कुछ चिंतन-मन्थन करते हैं अलग ढंग से | मुझे लगता है कि शब्द भी लोगों से आत्मीय जान-पहचान के भूखे-प्यासे होते हैं और सतत उपेक्षा के कारण बड़ी व्यथा का अनुभव करते हैं | इस कठिन कलिकाल में इन बेचारे शब्दों से अंतरंगता के साथ बोलने-बतियाने वालों का निरन्तर अभाव ही दिखायी देता है | शास्त्रज्ञों ने भले ही लिख दिया हो-"एको शब्दः सम्यक ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे-लोके च कामधुक भवति |" अर्थात एक ही शब्द को यदि भलीभाँति जान लिया जाय और बहुत ठोंक-बजाकर इस्तेमाल किया जाय तो वह स्वर्ग लोक तथा इह लोक में कामधेनु के समान मनोवांछित फल प्रदान करने वाला हो जाता है | अभिप्राय यह कि एक शब्द के सम्यक भाव को समझ लेने और उसके व्यावहारिक समुचित प्रयोग से ऐहिक-आमुष्मिक सिद्धि प्राप्त हो सकती है, किन्तु इक्कीसवीं सदी में निर्वसन नैतिकता जहाँ बीच चौराहे अथवा लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में भी न जाने कब नीलाम होने के लिए विवश हो जाय, वहाँ ज़ुबाँ से फिसले भू-लुण्ठित इन बेचारे शब्दों को कौन मान-सम्मान दे? मेरी समझ से भाषा की अदालत में मात्र शब्द ही सत्य के सबसे बड़े प्रवक्ता हैं, जिनकी पैरवी को अब न्याय भी नज़र अंदाज़ करने लगा है | वैसे मर्मज्ञ और सदाचारी व्यक्ति के लिए किसी महार्घ मणि के समान महत्वपूर्ण है शास्त्र-सुवेत्ता का वह रमणीय कथन | उस कथन के आलोक में "निमंत्रित" और "आमंत्रित" शब्द पर साहित्य-प्राण रसज्ञ सुजनों को विचार करना ही चाहिए |
तनिक ध्यान से इन दोनों शब्दों को निरखिये -दोनों में एक ही मन्त्र है, किन्तु 'उपसर्ग' दोनों के भिन्न हैं | जब उपसर्ग भिन्न हैं तो निसर्ग में भी यत्किंचित अंतर अवश्य होना चाहिए | "उपसर्ग" का अर्थ ही होता है-विकार, रोग अथवा बीमारी | बीमारियाँ दोनों की दो हैं | दो तरह के ताप हैं, दो तरह के संताप हैं और हम होम्योपैथ पद्धति की एक औषधि मात्र "नक्सवोमिका" से काम चलाना चाहते हैं | निश्चित रूप से आसंग और पासंग अन्य औषधियों का भी प्रयोग किया जाना चाहिए | एक शब्द में "नि" और दूसरे में "आ" उपसर्ग लगा हुआ है | "नि" अतिशय तीव्रता, भारीपन अथवा सान्द्रता के द्योतन के लिए प्रयुक्त हो सकता है और "आ" अधिकार जताने, सीमा निर्धारित करने अथवा व्यापकता के बोध के लिए किया जा सकता है एक में नेह की प्रगाढ़ता है, त्वरा का ताप है, आग्रह की प्रबलता है तो दूसरे में छोह का विस्तार, अंतरंग की आत्मीयता और उत्तर-दायित्व का प्रबोधन भी | जिनके साथ सम्बन्ध कुछ दूर का है, उन्हें "निमंत्रित" किया जाता है, जो बहुत सगे हैं-बिलकुल अपने हैं, उन्हें "आमंत्रित" किया जाता है | मंच पर आमंत्रित किया जाता है, प्रपंच में निमंत्रित किया जाता है, पारिवारिक प्रीति-भोज में "आमंत्रित" किया जा सकता है, किन्तु "बहू-भोज" में ढेर सारे लोगों को "निमंत्रित" किया जाता है | "निमंत्रित" व्यक्ति खा-पीकर किनारे हो लेता है, किन्तु "आमंत्रित" की जिम्मेदारी आरम्भ से अंत तक होती ही है (पर्यन्त का भाव होता है) | वह "मंत्रणा" में भी योगदान दे सकता है | निमंत्रित व्यक्ति "आहूत" होता है, किन्तु आमंत्रित "समाहूत" होता है | 'आमन्त्रित' बारह बरस की बिछुड़ी आली-सा दौड़कर लिपट जाता है हृदय-प्राण के पोर-पोर से और लिपटा लेता है भूली-बिसरी मधुमय यादों को भी, 'नियन्त्रित' रूप-कृमि गाहकों से निपटती रूपाजीवा की तरह निपट लेता है स-त्वर और निपटा भी देता है। कुछ उदाहरण भी दोनों उपसर्गों के देख लेना जरूरी है | घन आनंद कवि ने लिखा है-
"देखिये दसा असाध जू अँखिया "निपेटनि" की भस्मी बिथा पै नित लंघन करति हैं"
विरहिणी बाला की आँखों को "भस्मक रोग" हो गया है | इस रोग का यह लक्षण होता है कि बीमार आदमी खाता बहुत है, लेकिन उसका पेट जैसे भरता ही नहीं | भूख मिटती ही नहीं, बुभुक्षा की तीव्र पीड़ा से खिन्न रहता है | उपचार करते समय उसे खूब खिलाया जाता है और औषधि भी दी जाती है भोजन के साथ-साथ | प्रिय-रूप की दर्शनेप्सु ये मतवारी आँखें भी मानो नितराम पेटू हो गयी हैं, प्रिय को बस, एक नज़र देख लेना चाहती हैं और प्रिय इतना निष्ठुर कि एक बार भी अपनी झलक नहीं दिखाना चाहता | इस दशा में ये लंघन(उपवास) कर रही हैं | फिर रोग दूर हो तो कैसे? इन आँखों में भूख की जो तीव्रता है, उसे व्यंजित करने के लिए "निपटानि"(निपेटू) शब्द का प्रयोग किया गया | इसी प्रकार बहुत सारे शब्द बनते हैं और वे शब्दगत भाव की तीव्रता को व्यञ्जित करते हैं, जैसे 'निशात' या 'निशित', 'निबंधन', 'नियोजन', 'नियम' , 'नियामक', 'निदर्शन', 'निधुवन' , 'निपात', 'निरत', 'निचय', 'निदेशक' आदि | "आ" उपसर्ग का भी इसी प्रकार वह महत्त्व है, जिसका उल्लेख किया जा चुका है | ध्यान कीजिये "रघुवंश" महाकाव्य में "आसमुद्रक्षितीशानां", "आनाकरथवर्त्मनाम" | "आगुल्फ शीर्ष", "आकर्ण", "आपादमस्तक", "आजानुभुज", "आस्फालन", "आकीर्ण", "आजीवन", "आलेख", "आमरण", "आलोक"("प्रकाश" भी अर्थ द्योतित होगा और इसके साथ "लोकपर्यन्त" भी ) , "आनर्तन", "आकलन", "आसंग", "आलोचन" आदि इसी प्रकार के शब्द हैं | दोनों शब्द हमारे जीवन में व्यवहृत होते रहे हैं और बेहद सूक्ष्म अंतर के कारण लोग अर्थ-ध्वनि को ठीक से नहीं पकड़ पाते | दोनों शब्दों को समाज ने स्वीकार कर लिया है, बस उन्हें ठीक से पहचानने की आवश्यकता है | सामाजिक समरसता की साधना के लिए गैरों को भी बड़ी उत्सुकता, स्नेह की तरलता के साथ अवश्य "निमंत्रित" करना चाहिए, पर अपनों को "आमंत्रित" करते हुए ममतामृत की प्याली थोड़ी-सी छलक ही जाय तो वाह, क्या बात है!
शब्द-शब्द मकरन्दमय अर्थ सरस रमणीय |
परिभू की नव कल्पना-कामधेनु कमनीय ||
[नीहार-सतसई-अमलदार 'नीहार']
[शब्दों की आलोक-यात्रा-डॉ. अमलदार 'नीहार]

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें