२७ फरवरी १९९३ (फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश)
बावरे! हैं अभिराम नैन उसके जो बड़े
रूप-महाकानन में चौकड़ी कुरंग की,
अटके हो कहाँ तुम मरु की मरीचि बीच
प्यासी मति, लालसा है अंग में अनंग की |
माना मेघ उसके कलाप केश, मुख-चंद्र-
सुधा की सुराही भरी यौवन-उमंग की,
शकल सुमेरु चारु गोरे हैं कपोल गोल,
गति यही सत्य-ज्यों चकोर-चोंच-भंग की || १ ||
मधु मुस्कान, अधमुँदी पलकों के दृश्य
प्यारे मतवारे ! ये तुम्हारे लिए नहीं हैं,
वेणियों में गुँथे फूल, सीमन्त-सिन्दूर देख
नैन कजरारे ये तुम्हारे लिए नहीं हैं |
दृगजल-बिंदु एक ठहरा कपोल पर
शबनम शरारे-ये तुम्हारे लिए नहीं हैं,
खड़े हो 'नीहार' जहाँ पाँव पंक-सने हुए
व्योम के सितारे ये तुम्हारे लिए नहीं हैं || २ ||
[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८
२७ वर्ष पहले की रचना
नयनों के द्वार नंदलाल उर पैठ गए
कहूँ क्या री हाय! पनघट की डगर को,
एक बार घूँघट उठाया, सुध-बुध गयी
घट कहाँ, घाट कहाँ, भूल गयी घर को |
अम्बर सुनील, थल-जल-जहाँ-जहाँ दृष्टि
एक ही तो श्याम धरे मुरली अधर को,
बावरी-सी फिरूँ आज, लाज के ही भार-दबी
कहूँ क्या मैं सखि! ऐसे धराधरधर को? || १ ||
रस-भरी बाँसुरी है, रसिक-सुजान श्याम
चारु चितवन रस-बरसात आयी हो,
छवि अवदात गात, सिर केकी-शिखापीड़
अम्बर-सुपीत घन-दामिनी सुहाई हो |
रोम-रोम मेरे मनमोहन जो रम गए
ऐसी जीव-दशा को बधाई हो, बधाई हो,
'रस' नाम नन्द-नन्द, विरस 'नीहार' कैसे
मेरी जिजीविषा में तुम्हारी ही समाई हो || २ ||
[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८
पच्चीस वर्ष पहले की रचना
कर धरे वंशी-छोर एक, अधरोष्ठ पर
बाँकी चितवन शोभा रही लोट-पोट री!
पिच्छ प्रचालाकिन है शोभमानापीड़ रूप
कटि पीतपट बाँधे दामिनी लँगोट री !
खड़े जीव-जड़ जहाँ-तहाँ, सखि! बावरी-सी
छिपी छवि देखने तमाल तरु-ओट री!
उर की विभूति हारी, हाय! बचूँ कौन विधि
लगे श्याम-अंक मुझे काजर की कोठरी || १ ||
मन्द-मन्द यमुना की वीचि बहती है, शिखी-
कोकिल-कपिंजल के कूक-हूक फीके हैं,
वृन्दावन-कुञ्ज-कुञ्ज मधुप मिलिंद-वृन्द
रंग और कंज-कर्णिकार-केतकी के हैं |
मोद-मुरली-तरंग बहे ज्यों गगन-गंग
आलि ! बड़े भाग्य गाँव गोकुल-गली के हैं,
जग-मनमोहन जो, उसको रिझाये कौन
कवित्त-'नीहार', दोनों नंदलाल जी के हैं || २ ||
[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८
आज से २८ वर्ष पहले की रचना
खेलो श्याम-संग होरी डूब उसी रंग में
रचनाकाल-१४ मार्च, १९९०
हरिद्वार(उत्तर प्रदेश, सम्प्रति उत्तराखण्ड)
उमंग-पगे हैं व्रजबाला, ग्वाल-बाल-वृन्द
सभी करते हैं बात हँसी की, ठिठोली की,
ऎसी पिचकारी मारी मोहन मुरारी ने कि
आली-पीछे छिपी, रँग उठी चोली भोली की |
रूप-रस-सागरी सी नागरी-निपुण राधा
बाधा-बिना उलटी अबीर सारी झोली की,
डाला रंग, मोहिनी-मधुर चितवन देख
ठगे रह गए ठग, जय-जय होली की || १ ||
आद्या शक्ति राधाराध्य मोहिनी-मोहन-अंश
विश्व की विमोहिनी है, माया की पहेली है,
वृन्दावन-कुञ्ज बीच लसे रस-रूप-रङ्ग
संग श्याम खेल रही राधा ससहेली है |
रँगे लाल ही के रंग, ग्वाल भी गुलाल लिए
मस्ती भरी बस्ती बन गयी अलबेली है,
ऋतुराज फूल उठे केतकी-गुलाब-जूही,
कंज-कर्णिकार और चम्पा है, चमेली है || २ ||
'नन्द के किशोर श्याम खेल रहे होरी हे री!
श्याम-रंग-बोरी वृषभानु की किशोरी भी,
चली मिलने को मानो नक्त से प्रभात-प्रभा
विभावरी विभा-भरी साँवरी-सी, गोरी भी |
देख सुस्मिति ही सरोज खिलते हैं सारे
तारे, हँसी देख फिर चंद्र भी-चकोरी भी,
भीगे हरि जिस-जिस रंग, हँसी व्रजबाला
कोई दन्त अंचल दे, कोई चोरी-चोरी भी || ३ ||
खेले जहाँ ब्रह्म जीव-संग होली लीलामयी
कैसी है उमंग उमड़ी-सी अंग-अंग में,
दिया सबको ही ढेर प्रीति का प्रसाद मानो
रँग डाला चराचर प्रीति के ही ढंग में |
भावना में भक्त-संग खेलता है वही हरि
जिसकी प्रभा है तारे-चन्द्रमा-पतंग में,
सारे ज्ञान-गागर में सागर की एक बूँद
खेलो श्याम-संग होरी डूब उसी रंग में || ४ ||
[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८
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