शुक्रवार, 2 मार्च 2018

पच्चीस वर्ष पहले की रचना


२७ फरवरी १९९३ (फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश)

बावरे! हैं अभिराम नैन उसके जो बड़े
रूप-महाकानन में चौकड़ी कुरंग की,
अटके हो कहाँ तुम मरु की मरीचि बीच
प्यासी मति, लालसा है अंग में अनंग की |
माना मेघ उसके कलाप केश, मुख-चंद्र-
सुधा की सुराही भरी यौवन-उमंग की,
शकल सुमेरु चारु गोरे हैं कपोल गोल,
गति यही सत्य-ज्यों चकोर-चोंच-भंग की || १ ||

मधु मुस्कान, अधमुँदी पलकों के दृश्य
प्यारे मतवारे ! ये तुम्हारे लिए नहीं हैं,
वेणियों में गुँथे फूल, सीमन्त-सिन्दूर देख
नैन कजरारे ये तुम्हारे लिए नहीं हैं |
दृगजल-बिंदु एक ठहरा कपोल पर
शबनम शरारे-ये तुम्हारे लिए नहीं हैं,
खड़े हो 'नीहार' जहाँ पाँव पंक-सने हुए
व्योम के सितारे ये तुम्हारे लिए नहीं हैं || २ ||

[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८



२७  वर्ष पहले की रचना

नयनों के द्वार नंदलाल उर पैठ गए 
कहूँ क्या री हाय! पनघट की डगर को,
एक बार घूँघट उठाया, सुध-बुध गयी
घट कहाँ, घाट कहाँ, भूल गयी घर को |
अम्बर सुनील, थल-जल-जहाँ-जहाँ दृष्टि
एक ही तो श्याम धरे मुरली अधर को,
बावरी-सी फिरूँ आज, लाज के ही भार-दबी
कहूँ क्या मैं सखि! ऐसे धराधरधर को? || १ ||

रस-भरी  बाँसुरी है, रसिक-सुजान श्याम
चारु चितवन रस-बरसात आयी हो,
छवि अवदात गात, सिर केकी-शिखापीड़
अम्बर-सुपीत घन-दामिनी सुहाई हो |
रोम-रोम मेरे मनमोहन जो रम गए
ऐसी जीव-दशा को बधाई हो, बधाई हो,
'रस' नाम नन्द-नन्द, विरस 'नीहार' कैसे
मेरी जिजीविषा में तुम्हारी ही समाई हो || २ ||

[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८


पच्चीस वर्ष पहले की रचना 

कर धरे वंशी-छोर एक, अधरोष्ठ पर 
बाँकी चितवन शोभा रही लोट-पोट री! 
पिच्छ प्रचालाकिन है शोभमानापीड़ रूप 
कटि पीतपट बाँधे दामिनी लँगोट री ! 
खड़े जीव-जड़ जहाँ-तहाँ, सखि! बावरी-सी 
छिपी छवि देखने तमाल तरु-ओट री! 
उर की विभूति हारी, हाय! बचूँ कौन विधि 
लगे श्याम-अंक मुझे काजर की कोठरी || १ || 

मन्द-मन्द यमुना की वीचि बहती है, शिखी-
कोकिल-कपिंजल के कूक-हूक फीके हैं,
वृन्दावन-कुञ्ज-कुञ्ज मधुप मिलिंद-वृन्द 
रंग और कंज-कर्णिकार-केतकी के हैं | 
मोद-मुरली-तरंग बहे ज्यों गगन-गंग 
आलि ! बड़े भाग्य गाँव गोकुल-गली के हैं,
जग-मनमोहन जो, उसको रिझाये कौन 
कवित्त-'नीहार', दोनों नंदलाल जी के हैं || २ || 

[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८ 


आज से २८ वर्ष पहले की रचना 

खेलो श्याम-संग होरी डूब उसी रंग में 
रचनाकाल-१४ मार्च, १९९० 
हरिद्वार(उत्तर प्रदेश, सम्प्रति उत्तराखण्ड) 

उमंग-पगे हैं व्रजबाला, ग्वाल-बाल-वृन्द 
सभी करते हैं बात हँसी की, ठिठोली की, 
ऎसी पिचकारी मारी मोहन मुरारी ने कि
आली-पीछे छिपी, रँग उठी चोली भोली की | 
रूप-रस-सागरी सी नागरी-निपुण राधा 
बाधा-बिना उलटी अबीर सारी झोली की,
डाला रंग, मोहिनी-मधुर चितवन देख 
ठगे रह गए ठग, जय-जय होली की || १ || 

आद्या शक्ति राधाराध्य मोहिनी-मोहन-अंश 
विश्व की विमोहिनी है, माया की पहेली है,
वृन्दावन-कुञ्ज बीच लसे रस-रूप-रङ्ग
संग श्याम खेल रही राधा ससहेली है | 
रँगे लाल ही के रंग, ग्वाल भी गुलाल लिए 
मस्ती भरी बस्ती बन गयी अलबेली है,
ऋतुराज फूल उठे केतकी-गुलाब-जूही,
कंज-कर्णिकार और चम्पा है, चमेली है || २ || 

'नन्द के किशोर श्याम खेल रहे होरी हे री! 
श्याम-रंग-बोरी वृषभानु की किशोरी भी, 
चली मिलने को मानो नक्त से प्रभात-प्रभा 
विभावरी विभा-भरी साँवरी-सी, गोरी भी | 
देख सुस्मिति ही सरोज खिलते हैं सारे
तारे, हँसी देख फिर चंद्र भी-चकोरी भी,
भीगे हरि जिस-जिस रंग, हँसी व्रजबाला 
कोई दन्त अंचल दे, कोई चोरी-चोरी भी || ३ || 

खेले जहाँ ब्रह्म जीव-संग होली लीलामयी
कैसी है उमंग उमड़ी-सी अंग-अंग में,
दिया सबको ही ढेर प्रीति का प्रसाद मानो 
रँग डाला चराचर प्रीति के ही ढंग में | 
भावना में भक्त-संग खेलता है वही हरि
जिसकी प्रभा है तारे-चन्द्रमा-पतंग में,
सारे ज्ञान-गागर में सागर की एक बूँद 
खेलो श्याम-संग होरी डूब उसी रंग में || ४ ||  

[कवित्त-कौमुदी-अमलदार 'नीहार' ]
रंगभरी-०२ फरवरी, २०१८

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