रविवार, 21 जनवरी 2018

स्वामी विवेकानंद


अध्यात्म-अधीति के धवल हिमालय तथा दर्शन-शेमुषी के शिव शिखर से स्रवित ज्ञान-प्रवाह का संगम जिस विराट व्यक्तित्व के महासागर में अनवद्य रूप से दृष्टिगोचर होता है, उसे हम स्वामी विवेकानंद के नाम से जानते हैं, जिसमें मत-मतान्तरों की अनेक महानदियाँ विश्राम करती दिखाई देती हैं । इस महासागर के ह्रदय में भक्ति की उज्ज्वल तरंग क्रीड़ा करती हुई एक ओर कर्म के कठोर कूल का स्पर्श करती है तो दूसरी ओर ज्ञान-गभस्ति से भासमान सत्य के ललाट का उर्मिल चुम्बन करती है, यहाँ द्वैत और अद्वैत प्रतिवादी न होकर प्रतिपूरक हो जाते हैं । प्रवृत्ति और निवृत्ति जिसके चिंतन में परिष्वंगित होकर साँस लेती है । यह महापुरुष वेदान्त का प्रबल पक्षधर भी है और विज्ञान की अपरिहार्य मूल्यवत्ता का समर्थक भी । विवेकानंद को हम श्रीरामकृष्ण परमहंस के मानस का ऐसा हंस मान सकते हैं, जिसने अपने विवेक से वेद-वेदान्त के सार-स्वरूप मोतियों का मोल समझाकर भक्ति से उसके सम्मेल का आनन्द सारे संसार में बिखेर दिया । यद्यपि रामकृष्ण परमहंस भक्तिमय ज्ञान के जिस शिखर पर विराजमान थे, उसे ठीक से देख पाना, उसे छू पाना और वहाँ पहुँच पाना किसी के लिए संभव न था, किन्तु यह भी सत्य है कि यदि उन्हें विवेकानंद जैसा शिष्य न मिलता तो उनके अमृत का कलश ज्यों का त्यों पड़ा ही रह जाता ।
स्वामीजी का जन्म १२ जनवरी १९६३ को कलकत्ता में हुआ था और बचपन का उनका नाम नरेन्द्रदत्त था । सन १८८१ में उनकी श्रीरामकृष्ण परमहंस से पहली भेंट हुई थी और इस अद्भुत गुरु का युवा नरेंद्र के मन पर कुछ ऐसा पड़ा कि जीवन की दिशा ही बदल गई और वे अध्यात्म के मार्ग पर चल पड़े । शिकागो के विश्वधर्म महासभा में ११ सितम्बर १८९३ को २१ वें वक्ता के रूप में वहाँ एकत्रित तमाम धर्मगुरुओं के बीच भारत की तरफ से इस महान सन्देश को प्रसारित किया था-
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमे ही आकर मिल जाते हैं । (शिवमहमन स्तोत्र)
इनका मानना था कि दुष्ट लोग सदा दोष ढूँढते रहते हैं । मक्खियाँ आती है और घाव ढूँढती हैं, किन्तु मधुमक्खियां केवल मधु लेने के लिए आती हैं । मक्खी के नहीं मधुमक्खी के मार्ग पर चलो ।"
गीता में सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जय-पराजय को समदृष्टि से देखने की बात कही गयी है । स्वामीजी कहते हैं-"हमें सुख और दुःख, दोनों ही नहीं चाहिए । ये दोनों ही हमारे प्राकृत स्वरूप को भुला देते हैं । दोनों ही जंजीरे हैं-एक लोहे की, दूसरी सोने की ।"
वे लोगों को उपदेश दिया करते जिस प्रकार पाश्चात्य जाति ने बहिर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व-लाभ प्राप्त किया है, उसी प्रकार प्राच्य जाति ने अंतर्जगत की गवेषणा में । अतः यह ठीक ही है कि जब कभी आध्यात्मिक सामंजस्य की आवश्यकता होती है तो उसका आरम्भ प्राच्य स ही होता है । इसके साथ यह भी ठीक है कि जब कभी प्राच्य को मशीन बनाने के विषय में सीखना हो तो वह पाश्चात्य के पास ही बैठकर सीखे, परन्तु यदि पाश्चात्य ईश्वर, आत्मा तथा विश्व के रहस्य सम्बन्धी बातों को जानना चाहे तो उसे प्राचाय के चरणों के समीप ही आना चाहिए ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-११-०१-२०१७

आज के लिए विचार -

पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढाः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ॥

[पुराना होने से ही न तो सब अच्छे हो जाते हैं, न नया होने से सब बुरे हो जाते हैं । समझदार लोग तो दोनों के गुण-दोषों की पूर्ण रूप से विवेचना करके उनमें से जो अच्छा होता है, उसे अपना लेते हैं और जिनके पास अपनी समझ नहीं होती, उन्हें जो जैसा दूसरे समझा देते हैं, उसे ही वे ठीक मान लेते हैं ।
[मालविकाग्निमित्रम-प्रथम अंक-श्लोक संख्या २ ]

मेरी टिप्पणी-
इस उक्ति को पलटकर भी देखेंगे तो यही आशय प्रकट होगा, जैसे "पुराना होने से ही न तो सब बुरे हो जाते हैं और न नया होने से सब अच्छे । समझदार लोग तो दोनों के गुण-दोषों की पूर्ण रूप से विवेचना करके उनमें से जो अच्छा होता है, उसे अपना लेते हैं, किन्तु जिनके पास अपनी समझ नहीं होती या जिनकी बुद्धि उलटी होती हैं वे अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा भी मान सकते हैं ।
अमलदार नीहार"


जगमगाना सीख लो

तुम हमारी चेतना के ज्योतिवाही दीपधर्मा,
तम तुमुल के भाल पर भी जगमगाना सीख लो ।


गिरि-गुहा-वन पन्थ दुर्गम, क्रुद्ध सरिताएँ मिलें,
क्षुब्ध सागर, मेघ-मारुत, लाख बाधाएँ मिलें ।


शूल में भी फूल-सा खिल खिलखिलाना सीख लो ।
तम तुमुल के भाल पर भी जगमगाना सीख लो ।

तुम हमारी प्राण-ज्वाला, आत्मा के पूत स्वर,
तुम हमारे ज्ञान-औरस छू सफलता के शिखर ।

कीच-कर्दम से कलुष पर तिलमिलाना सीख लो ।
तम तुमुल के भाल पर भी जगमगाना सीख लो ।

तुम हमारी कीर्ति-गंगा की शिवालक श्रेणियाँ,
हो सजल सब काट दो मरु मनुजता की बेड़ियाँ ।

इस कुहू की कोख नव सूरज उगाना सीख लो ।
तम तुमुल के भाल पर भी जगमगाना सीख लो ।

सीपियों की आँख सपनों के सजल मोती भरे,
स्वाति बादल बन सदा सौभाग्य भी अमृत झरे ।

भारती की आरती के गीत गाना सीख लो ।
तम तुमुल के भाल पर भी जगमगाना सीख लो ।

[जिजीविषा की यात्रा-अमलदार "नीहार"]


खतरे में हिन्दुस्तान

वृक बर्बर की चतुर चाल से कौन बचाये देश?
जालिम झूठे क्रूर काल से कौन बचाये देश?
दुर्विपाकवश बुरे हाल से कौन बचाये देश?

न्याय भीत, कानून खिलौना, गिरवी जब ईमान,
कौन कहाँ दे शरण किसे, जब साँसत में भगवान।
चीख रहा है सत्य सड़क पर घायल लहूलुहान।
धर्म सुरक्षित कहाँ कहो फिर, समय बड़ा शैतान।।

आजादी की स्वप्न-सड़क पर लोकतंत्र की लाश,
शासन की बन्दूक, निशाना माँ जब, सत्यानाश।
कल की बिल्ली दिल्ली बाघिन नोच रही है माँस,
झूठ-कपट आश्वासन भाषन-पत्ते बिखरे ताश।

सहमी-सहमी मानवता ज्यों, चहुँ दिशि हाहाकार,
'मारो-काटो' का हल्ला है, लूट रही सरकार।
नहीं सुरक्षित जीवन-वैभव, इज्जत, सब पर मार,
भारत माता द्रुपद-सुता, हरि! हरे पीर 'नीहार'।

[ जिजीविषा की यात्रा-अमलदार 'नीहार' ]




एक संस्मरण विगत वर्ष का
अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग

"सुन दर्द भरे मेरे नाले"
उर्फ़
वकालत का इम्तहान

विधि-वधू की पालकी ढोने वाले 'कहारों' अर्थात एल. एल बी (अधिवक्ता उपाधि) तृतीय सेमेस्टर की आज परीक्षा थी । किस कालेज के विद्यार्थी थे वे, यह मत पूछिए । उस कालेज के प्रबंधक-प्राचार्य और उसके अध्यापकों की भी प्रतिष्ठा का सवाल हो सकता है, पर हमारे दर्द को कौन बूझ सकता है भला, जो हर जगह, हर मोर्चे पर मुकम्मल ड्यूटी करना चाहता है । यदि ईमानदारी से कोई काम न किया जा सके तो उसकी घुटन का पता उसे जरूर होगा, जो ईमानदार होगा । मेरा मानना है, मानना क्या, यह मेरा अनुभव है कि वर्तमान समय में विश्वविद्यालय-महाविद्यालय सिर्फ कामधेनु दुहने में विश्वास करते हैं, बाकी सब यंत्रवत होता रहता है । विधि से सम्बंधित बहुत सारे परीक्षार्थी, जिनमें ३०, ३५ और ४० बरस तक के 'हुरहुड' भी मौजूद थे, मेरे पल्ले पड़ गए या यूँ कह लीजिये कि मुझे उनके हवाले कर दिया गया था । उन्हें सँभालते हुए मुझे "दो आँखें बारह हाथ" नाम की पुरानी फिल्म की याद आ गयी । उसका लीड रोल मुझे ही निभाना था आज । कम से कम सात-आठ ऐसे कि जिनके बीच उस फिल्म का वह नरम दिल जेलर भी खुदा को याद करके रोने लगता । महाविद्यालय-विश्वविद्यालय का प्रशासन-अनुशासन जब ढीला होता है तो उसकी प्रतिष्ठा कैसे बच सकती है? वे सबके सब(सात-आठ की संख्या में) पूरे तीन घंटे गुटखा और पान चबाते हुए, एक दूसरे से पूछते या उनकी कापियों में ताक-झाँक करते परीक्षा की शुचिता से व्यभिचार करते रहे । ईश्वर की कृपा से मेरी वाणी कमजोर नहीं है और न आत्मबल ही, किन्तु जब दूर तक सोचना पड़ता है तो विरक्ति का भाव पैदा होता है और तनाव भी होता है, जो मेरे लिए हानिकारक है (और सर्जना की दृष्टि से लाभदायक भी) । इस प्रकार रोकने-टोकने का कोई असर नहीं हुआ । बार-बार गुटखा थूकते, फिर मुंह में डाल चुभलाते और कुछ कहने पर चभुआते । मुँह में गुटखा और दिमाग में गोबर ही गोबर । बार-बार बिना पूछे बाहर चले जाना लघुशंका के बहाने और तीन घंटे में लगभग आठ-दस बार यह बाहर-भीतर चलता रहा । समझाने-बुझाने का असर नहीं । अध्यापक ने कमांडो की ट्रेनिंग नहीं प्राप्त की है । उसके पास वाणी का बल होता है और उसी से वह विद्यार्थी के भीतर छिपे मनुष्य को जगाने की कोशिश करता है-कभी पुचकार कर, कभी डाँट-फटकार कर, कभी उपदेश के माध्यम से, किन्तु उनमें से कुछ ऐसे कि बेहद उजड्ड, बद्तमीज और नियंत्रण से बाहर थे । वे मुझे हड़काने और डराने की कोशिश कर रहे थे और मैं उन्हें परीक्षार्थी के रूप में बने रहने की नसीहत देता रहा । एक नक़ल में पकड़ा भी गया, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था । जब प्रोफेसरों की स्थिति इतनी दयनीय हो तो साथ लगे बाबू बेचारा क्या करे ? यदि कालेज-प्रशासन विशेष रूचि लेता तो आठ-दस निकाले जा सकते थे, लेकिन "छू-छा" से काम चल ही जाता है । ईमान से कहता हूँ, यदि नक़ल टीपकर, गुरुजनों के साथ बदसलूकी करके विश्वविद्यालय में मूल्यांकन की "झारखंडी विधि" से वे विधि की परीक्षा उत्तीर्ण करके भविष्य में वे वकील बन भी गए तो समझिए "क्राइम जिंदाबाद" ही होगा, क्योंकि उनमें क्रिमिनल जैसे लक्षण मुझे दिखायी दे रहे थे । कल्पना कीजिये कि कटघरे में खड़ा खूँख्वार अपराधी और उसे निर्दोष साबित करने वाला भी यदि उसी मानसिकता का हो जाए तो? आखिर महात्मा गाँधी ने क्यों इस पेशे की निंदा की थी ? माफ़ कीजिये, शायद मेरी शब्दावली अच्छी न लग रही हो, पर मुझे बेहद कष्ट हुआ आज, मानो मुझे ही कोई सजा दी गयी हो । मेरी आँख के सामने यदि कोई परीक्षार्थी गुटखा मुँह में दबाये परीक्षा-कक्ष में बदअमली पैदा करने की कोशिश करे और मेरी गरिमा का मजाक उड़ाए तो यह मेरे लिए असह्य है । न जाने कैसे यह सब सहन कर लिया, लेकिन अब इस प्रकार के कक्ष-निरीक्षण से बाज आया-जिसे जोड़ना हो, जोड़ता रहे कौड़ी-कौड़ी माया ।


डॉ0 अमलदार "नीहार"




विश्वधर्म-महासभा,शिकागो, ११ सितम्बर १८९३ ई ०

अमेरिकावासी बहनों तथा भाइयों !
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा ह्रदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है । संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिंदुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ ।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं । मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है । हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विशवास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं । मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है । मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है । भाइयों, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृत्ति मैं अपने बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृत्ति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं ।

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥

"जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं । "

यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा है :

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

"जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ । लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं ।"

साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं । वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं । यदि ये बीभत्स दानवी न होतीं, तो मानव-समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटाध्वनि हुई है, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ऑर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं का मृत्यु-निनाद सिद्ध हो ।

[स्वागत के उत्तर में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिया गया भाषण ]






डूबे कितने पात्र अधूरे

रूप-सड़क पर प्रेम-सुरा पी, डगमग पाँव जवानी के ।
डूबे कितने पात्र अधूरे आधी शेष कहानी के ॥

आवारा-सी दृष्टि, ह्रदय की प्यास सींचती आई है,
जिसके मन में जाग रही कुसुमायुध की अँगड़ाई है ।

समझ न पाया छूट गए कब साँस-डोर सैलानी के ।
डूबे कितने पात्र अधूरे आधी शेष कहानी के ॥

जातरूप की रात रँगीली, सपने सबके खो जाते,
जीवन-पंछी पिंजरे से उड़ जग के नैन भिगो जाते ।

चाट चुकी है लपट चिता की यौवन राजा-रानी के ।
डूबे कितने पात्र अधूरे आधी शेष कहानी के ॥

जिसने उसका खेल न जाना, मान किया सो झेला है,
सौंप दिया सब उसे, वही निश्चिन्त बाल-सम खेला है ।

छाया उसकी-सृष्टि, सभी में रंग मिले ज्यों पानी के ।
डूबे कितने पात्र अधूरे आधी शेष कहानी के ॥

[गीत-गंगा(द्वितीय तरंग)-अमलदार "नीहार" ]