रविवार, 26 नवंबर 2017

कुँवर नारायण को विनम्र श्रद्धांजलि


कवि का इस पृथ्वी-कक्षा से चले जाना
किसी अनाम-अदृश्य पिंड में
दर्शन की भाषा में कहें
तो यह अनंत चेतना की लीला-यात्रा है
या यूँ कहिए कि कायान्तरण एक जीव का,
पंछी का एक डाल से उड़कर
दूसरी डाल पर बैठ जाना ज्यों निस्संग
प्राण-संजीवनी ऑक्सीजन का
जैसे थोड़ा-सा और कम हो जाना
थोड़ा-सा और सहम जाना गंगा का,
शीतल-सुगन्धित मन्द बयार का थम जाना
प्रफुल्ल फूलों का मुरझा जाना
रूठ जाना रंग-भरी तितलियों का
एक और सितारा मानो टूटकर चला गया हो
सावकाश आकाश में |
काल के कराल 'चक्रव्यूह' में अप्रतिहत'आत्मजयी'!
तुम्हारे निर्मित 'आकारों के आसपास' 'कोई दूसरा नहीं'
रक्खा अपने जीवन में सदैव एक आदर्श की तरह
तुमने नचिकेता को 'अपने सामने'
और 'वाजश्रवा के बहाने'
कह डाली इस नश्वर जगत की दुर्दमनीय लिप्सा
'परिवेश : हम-तुम'-यह पातक-परिप्लावित परिदृश्य
'आज और आज से पहले का' जो भी रहा हो,
या फिर 'इन दिनों' जैसी विषमता या विषमयता हो,
हे कविर्मनीषी! परिभू-स्वयंभू-सम्पोषप्राण
कालजयी तुम्हारी कविताएँ साक्षी रहेंगी
तुम्हारी शाश्वत उपस्थिति की
"नास्ति येषां यश:काये जरामरणजं भयम्"
कविकुल-सामाजिक हृदये तव रसाप्यायितपुलकितपंक्तिवलयम्
श्रद्धांजलि विशेषम्  दृगयुगपूरिताश्रुशेषम्।
स्मरामि, भूयो भूयो शिरसा नमामि।

रचनाकाल : १६ नवम्बर, २०१७ 

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

जाग रे पागल बटोही जाग रे

"फिर भी सीना गर्व से छप्पन इंच उतान"

गैस हजारी हो सके, यूँ विकास बेताब |
साहब लिक्खेंगे नयी डेवलेपमेंट-किताब ||

एक निवाले पर करो नब्बे का भुगतान |
जीएसटी को जोड़कर बनता देश महान ||

बीमा कीमा काढ़ ले, कैसा योगक्षेम |
कठिन बुढ़ापे में मिले जमा बराबर क्लेम || 

जीएसटी पर ही मिले नाप-तोलकर साँस |
धुँआ सेंत में घोंट ले, चौराहे पर खाँस ||

दवा दमे की दिल थमा, दुआ करे क्यों काम |
नकली है बाजार में, कर दे काम तमाम ||

सरकारी ये कैंचियाँ हाथ-सफाई खेल |
जेब हमारी कट रही-यह विकास की बेल ||

जार बना बाजार यह, बढ़ा सवाया दाम |
कमर बनी समकोण-सी, घायल पीठ अवाम ||

महँगाई तो मुँह-लगी उनकी बनी रखैल |
आम आदमी हो गया बेगारी का बैल ||

जिसकी सूधी चाकरी भरे टैक्स पर टैक्स |
काले धन का सेठ जो, उसको खुला रिलैक्स || 

जिनगी दूभर हो गयी, समय बड़ा शैतान |
फिर भी सीना गर्व से छप्पन इंच उतान ||

रचना-काल : ०३ नवम्बर, २०१७
[नीहार-नौसई-अमलदार 'नीहार' ]

    

माया मिली न राम (कहानी)

उन दिनों मैं हरिद्वार में नौकरी कर रहा था | सन १९८५ की बात है | रात की पाली में ड्यूटी करता और दिन में अपनी पढ़ाई-लिखाई चलती रहती, मुझे पूरी तरह याद है | उन दिनों अपना दूसरा उपन्यास पूरा करने के बाद पुनर्जन्म पर एक किताब लिखने में लगा हुआ था | सामग्री विशेष तो नहीं थी मेरे पास, लेकिन अक्सर दिन भर गंगा के ही किनारे अपना समय बिता देता | चिंतन करता और लिखता जाता, लिखता और चिंतन करता | लगभग तीन महीने लगे होंगे किताब को पूरा करने में | नीले आकाश के नीचे, पर्वत-उपत्यकाओं के बीच गंगा का अविरल प्रवाह और उसके निर्मल अनंत कल कीर्तन के साक्षी वृक्षों की कतारें | लहरों के लोल नृत्तमय संगीत को सुमधुर ताल देते चौकोर निर्मित पाषाण-खंड, जो बाँध के नीचे उसके तट पर ही रखे गए थे, जिन पर कभी-कभी लेटकर एक अनिर्वच सुख -समाधि में डूब जाता था | उन दिनों परिवार नहीं था मेरे साथ और मैं अध्यात्म-सरणि का साधक था | कह लीजिये कि माया पीछे कहीं छूट गयी थी और मैं राम की तलाश में | वहीं पास में भीमगोडा मोहल्ले में रहता था , तो छुट्टी के दिन इस नैसर्गिक एकान्त और आध्यात्मिक परिवेश का भरपूर लाभ उठाया जाता |

कभी-कभी ऐसा होता  कि कोई यायावर घूमता-टहलता चला आता | कोई दूर-दूर बैठकर चला जाता, कोई जिज्ञासु  मुझे विद्यार्थी समझ समीप भी चला आता | मेरी उम्र  भी देखने में एक विद्यार्थी जितनी ही थी-यही कोई चौबीस बरस | एक दिन की बात है, कोई तरुण संन्यासी उधर नहाने चले आये | मैं भी कभी-कभी बैठने की जगह बदल लेता था | उस दिन  मैं जहाँ बैठा था, अट्ठाईस-तीस बरस के तरुण संन्यासी ने स्नान-ध्यान किया और मेरे पास आ चुपचाप बैठ गए | उन्हें कुछ  जिज्ञासा हुई तो बातचीत आगे बढ़ी और कुछ अध्यात्म-चर्चा कर वे उस दिन चले गए | फिर कई दिनों तक वे आते रहे और मेरे पास बैठकर चले जाते | शायद पूवर्जन्म जैसे विषय पर चर्चा करने से उन्हें कुछ आनन्द आया हो या जो भी कारण रहा हो | एक दिन उन्होंने अपने वैराग्य का कारण बताते हुए मुझसे निवेदन किया कि मैं उनके साथ उनके घर चलूँ और उनके बड़े भाई को समझाऊँ कि वह उनकी जोरू और ज़मीन उन्हें  वापस दे दे | उनका मन वैराग्य में तनिक भी नहीं लगता था | वे मुझ जैसे संसारी जीव की सेवा तक करने को तत्पर हो गए | यह मेरे लिए बड़ी हास्यास्पद बात थी | उन्हें इस प्रकार का कोई भरोसा दे पाना मेरे लिए संभव न था | कदाचित मेरे प्रति उनका व्यामोह निरर्थक और क्षणिक था | उन्होंने कई वैरागियों और उनके आश्रमों की 'मधुरोपासना' की लीला-भरी कहानियाँ मुझे सुनाईं, जिनसे मैं यत्किंचित परिचित भी था | मेरा मन  खिन्न हो गया | साधु-समाज के प्रति जो आदर-भाव था, उसे धक्का लगा था | हरिद्वार रहकर यह भलीभाँति जान पाया कि यह गेरुआ वस्त्र बहुत-से पाप-दोषों का आवरण भी है | यद्यपि ऐसा भी नहीं है कि सबके सब एक जैसे हों, लेकिन हंसों और परमहंसों के बीच अपने आपको छिपाए कई बगुले और गिद्ध भी दूर-दूर से आकर यहाँ बस गए हैं |

एक दिन की बात है | शाम के समय कुछ घरेलू सामान खरीदने आया हुआ था | देखा कि जयराम आश्रम के पास सड़क पर कुछ साधुवेशधारी इकट्ठे थे और वहीं दो-तीन महिलायें उनसे विहँसकर बतिया रही थीं | बतिया नहीं, लसिया रही थीं -
"बड़ा कष्ट है बाबा!" शरीर की भाव-भंगिमा में थोड़ी शरारत भरी थी | होठों पर खिलती हँसी कामदेव के रसमय संगीत का पहला मादक आलाप |
"क्या कष्ट है तुम्हें, बाबा सब ठीक कर देंगे |" उनमें से एक बाबा बोला, जो शायद उन बाबाओं का चेला था | बाबाओं की उम्र ज्यादा नहीं थी | तीस-बत्तीस बरस के चार मुस्टण्ड | ऊपर से नीचे तक गेरुए वस्त्र में जैसे वैराग्य की केंचुल में अतृप्त वासना की मूर्तियाँ | आँखों में खेलती चमक उन वारबालाओं के चरणों में लोट रही थी |
"बाबा! हमको बच्चा चाहिए |" महिलाओं में सभ्यता का कोई संस्कार नहीं | आँखों में वही जानलेवा शरारत |
"शाम को आ जाना आश्रम पर, प्रसाद मिल जाएगा |"बाबा के वचन में बेहयाई कुलाँचे मार रही थी | सोचता हूँ-वे बाबा लोग माया की तलाश में थे या राम की | राम तो उन्हें मिलने से रहे और माया? माया ने उन्हें किसी लायक छोड़ा ही नहीं | बेचारे न घर के रहे न घाट के |

[शब्दों का इंटरव्यू(लघु कथा-संग्रह' में संगृहीत)-अमलदार 'नीहार' ]
प्रकाशन वर्ष : २०१५
नमन प्रकाशन
४२३१/१, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-११०००२
दूरभाष : २३२४७००३, २३२५४३०६

ज़िन्दगी के साथ अपनी मौत भी सफर में है 'मेरी दिल्ली यात्रा' का लघु अंश (यात्रा-संस्मरण)

"देखिये तो सही, यह विशुद्ध भारतीय रेल, जिसमें सफर करने में निकल गया बड़े-बड़ों का तेल | आज तो  इस  पर  प्रभु सुरेश जी की छाया है-या कि लगता है अनजाने असुरेश की ही सब माया है, पर मैं जब से इस रेल को देख रहा हूँ-तेल की धार को और तेल को देख रहा हूँ, राजनीतिक खिलाड़ियों के फरेबी खेल को देख रहा हूँ, किराया चलीस गुना, धकापेल को देख रहा हूँ | आरंभिक जीवन के बीस वर्ष बाद सन १९८१ के मई या जून महीने में रेल का पहला सफर शुरू किया था और तब से आज तक भीड़ निरंतर बढ़ती ही गयी है-रेल की छतों पर यात्रा करने वाले लोग, डिब्बों के खुले जोड़ पर पैर टिकाकर सफर करने वाले लोग-भेड़-बकरियों की तरह ठुँसे हुए या लारियों पर गाय-बैलों की तरह लदे हुए लोग, हलाल किये जाने वाले मुर्गे-बत्तखों की तरह लटके हुए लोग-ये सबके सब भारतीय रेल के यात्री हैं, कभी भी किसी घटना-दुर्घटना का शिकार बनने को अभिशप्त, प्रत्येक पाँचवे वर्ष और कभी-कभी मध्यावधि में भी  अपने कीमती वोटों से निज भाग्य-विधाताओं की सरकार बनाते हैं और सत्ता के प्रशिक्षित  मक्कार मंत्रियों के आश्वासन पर शवासन साधे चुपचाप पड़े रहते हैं | सन 1981 में जौनपुर से लखनऊ और फिर लखनऊ से सहारनपुर की पहली उस यात्रा में अपने मित्र के साथ कई ट्रेनों को मैंने इसलिए छोड़ दिया की उन डिब्बों में घुस पाने की नौबत ही नहीं बन पायी | उसके बाद की कई यात्राएँ जौनपुर से हरिद्वार तक मैंने या तो खड़े होकर की या बेसुध की दशा में  फर्श पर पड़े-पड़े-लोगों के पैरों की ठोकरें खाते हुए | गाँव के इस भुच्चड़ देहाती के पास दीन विनम्रता के अलावा कोई ऐसी योग्यता नहीं, जो यात्रा के दौरान काम आती | फिर धीरे-धीरे बोलना सीख लिया, जहाँ जैसी पड़े, बातें बनाना, गप्पें हाँकना और मौक़ा मिलने पर कुछ को शागिर्द बनाना भी सीख गया, पर ईमान की बात यह कि विनम्र चतुराई के मन्त्र भी सदैव कारगर नहीं साबित हो सकते |

अपनी कुछ रचनाओं के प्रकाशन के सन्दर्भ इधर विगत ६ नवम्बर 2015 को दिल्ली की यात्रा आरम्भ की तो मैं पूरी उमंग में था, लेकिन 'सद्भावना' ने अपनी दुर्भावना का परिचय पहले ही दे दिया था-लगभग तीन घंटे विलम्ब से पहुँची ट्रेन ने अपने चारित्रिक लांछन से मेरे मन को बेचैन कर दिया, लेकिन जैसे चुनाव बहुधा बेचारी जनता के पास कोई विकल्प नहीं दिखायी देता और वह दुविधा में फँसी रहती है कि किसे चुने और किसे चूने, मैं भी 'व्याकुल भारत' बना हुआ था |  मेरे पास चुनने और चूनने( चूना लगाने या नोटा का बटन दबाने) के विकल्प का सवाल कहाँ था? उम्र का डूबता हुआ सूरज और उस पार पहुँचाने वाली जो भी नाव मिल जाय, उसी पर सवार हो जाने की स्थिति में किसी तरह अपनी निर्धारित जगह मिल गयी थी-शयनयान इस-9 में सीट नंबर-४-एकदम नीचे की सीट | abaapki सीट bhale ही आरक्षित हो, प्रतिदिन ghar से दूर नौकरी बजाने वाले बेकाबू बाबुओं, छूटा घूमते  घंट बाबाओं और बे-टिकट-बाटिकट चलने वाले जनरल बोगी के हेकड़ यात्री-गदह पचीसी के रंगरूटों तथा नारेबाजी-नारीबाजी में मशगूल उभरती रेख वाले पट्ठों-'विद्या-रथियों' से पटी हुई सीटों पर दिन के समय आप दोयम दर्जे के ही नागरिक ठहराए जा सकते हैं, बैठे-बैठे कमर में दर्द हो गया, काफी देर बाद अपनी ही सीट पर लेट पाने की सहूलियत मिली | बीच वाली सीट को उपयोगी स्थिति में टाँगने वाली सीकड़ इतनी ढीली की काफी समय तक उसके गिर जाने का डर बना रहा ज़ेहन में | समझ में नहीं आया कि यह रेलगाड़ी है या बैलगाड़ी, जो जब जहाँ चाहे 'नाथ' पकड़कर बैल के आगे खड़ा हो जाय | अब इसे 'चेन-पुलिंग' समझिये या 'चैन-पुलिंग' |


'सद्भावना' नाम की इस दुश्चरित्र ट्रेन के दिल्ली पहुँचने का समय सुबह के लगभग साधी-चार या पाँच बजे और इसने हमारे धीरज और धी-रज(बुद्धि-कण, निर्णय लेने की क्षमता), दोनों को बैगन का भुर्ता बनाकर छोड़ दिया-लखनऊ पहुँचने में ही लगा कि ननिहाल की दूरी नौ सौ कोस की | अखबार में पढ़ा था कि ट्रेनों में पानी की जो बोतलें सप्लाई की जाती हैं, उसमें करोड़ों का घोटाला हुआ है, यात्रियों को शुद्धता के मानक पर जो पानी पिलाने के लिए अनुमन्य है, उस 'रेल-नीर' का तो पता नहीं, पर किसिम-किसिम की बोतलें दिखायी दे रही है,अन्य जरूरी खाद्य पदार्थों के साथ दिव्यता के लोक में विचरण कराने वाला गुटखा-युवा प्राणों की 'पुकार' की विक्री जोरों पर है, सरकारी तौर पर यह प्रतिबंधित है, लेकिन 'तरकारी' (नीचे से छिपाकर कार्यान्वित होने वाली)  तौर पर भलीभाँति  अनुबंधित, उपस्थित है यह कैंसर की प्रेम-पुड़िया | 


[ ज़िंदगी के साथ अपनी मौत भी सफर में है(यात्रा-संस्मरण)-अमलदार 'नीहार' ]
२७ अक्टूबर, २०१७ 

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

बेटी : पाषाण-पीठ पर कुसुमित कल्पलता

नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः |
यद् यच्छरीरमादत्ते तेन-तेन स युज्यते ||

(श्वेताश्वतरोपनिषद-५/१०)

अन्तर्राष्ट्रीय बेटी-दिवस पर 

दीक्षांत समारोह में सम्मानित बेटियों के लिए 

(भ्रूण-ह्त्या के खिलाफ)

बेटी : पाषाण-पीठ पर कुसुमित कल्पलता
(जिसे कविता न समझ में आये, वह इसका तीन पाठ करे)

हे माँ !
मैं तुम्हारी भूमि-कक्षा में न जाने कब, कहाँ से
व्योम-तल की तारिका-सी
कामना की वह्नि-लहरों में
सहज तिरती हुई-सी ज्योति कोई
युग्म रेतस-पुष्परज से जो विनिर्मित
पिण्ड वह पिशितांश-कारा, वन्दिनी-सी
कर उठी चीत्कार सहसा
मैं तुम्हारे मधु सृजन की सेज दोलित जलपरी-सी
लीन लीलोल्लास-पुलकित
खेल जीवन का निरखती |


फिर अचानक देखती क्या?
थरथराती-सी थिरकती काल की विकराल छाया
किस त्वरा के साथ अपनी क्रूरता के पग उठाती
आ रही है, छा रही है भीति-शंका-शूल-सिहरन
सनसनी-सी, कँपकँपायी, क्या करूँ मैं?
थम गयी सहमी हुई खर डंक-पीड़ित
डूबती आतंक-तम के पंक-मीडित
फूटता है लाल लोहू, काटता प्रत्यंग प्रतिपल
हाय! कैसा छल हमारे साथ कितना क्रूर-निर्मम !
यह तुम्हारी प्रीति का या पाप का है पारितोषिक?


मैं अमर हूँ-चेतना की अग्निपाखी, जान ले तू
रे अभागे मर्त्य मानव! शक्ति को पहचान ले तू
प्राण की दुहिता तुम्हारी त्राण देती अम्बिका भी,
चुलबुली यामी यमी भी, स्वप्न-संगम-नायिका भी |
माँ ! तुम्हारी दीनता का दंश मुझको है पता,
माँ! पिता का डूबता है वंश, मुझको है पता,
चेतना की ज्योति मुझमें, कामना का ज्वाल मैं भी
मैं सृजन की बेल जग की, फैलती दिक्काल मैं भी |

[शीघ्र प्रकाश्य कृति "मेरी कविताओं में स्त्री : स्त्री का जीवन और जीवन में स्त्री" में संगृहीत-अमलदार 'नीहार' ] 

शब्द कठिन सरलार्थ-प्रकाश

भूमि-कक्षा= माँ का गर्भ | व्योमतल की तारिका= अकल्पित, कल्पना से परे, अलौकिक, दिव्य शक्ति, जीवन के लिए मूलयवान और चमकदार | कामना की वह्नि-लहर=जलती हुई(अतृप्त) इच्छाओं-वासनाओं की आग की लहर | रेतस=पुरुष तत्व | पुष्परज=स्त्री तत्व | पिशितांश-कारा=मांस के लोथड़े का कारागार | दोलित=झूलती हुई-सी, अर्थात बड़े ही मौज में | त्वरा=तीव्रता | खर=तीक्ष्ण, तेज धारदार | लोहू=खून | अग्निपाखी=एक कल्पित पक्षी, जो अग्नि-दग्ध भस्म-राशि से पुनः जीवित हो उठता है | मर्त्य=मरणशील, मरणधर्मा | दुहिता=बेटी, दोहन करने वाली(प्राचीन काल में गायों को दुहने  के कारण 'दुहिता' कहलायी, किन्तु आज दहेज़-प्रथा की जटिलता के कारण निधन माँ-बाप के लिए 'दुहिता' साबित हो रही है, जो प्राणों को भी दुह लेती है(प्राण की दुहिता से यह भी तात्पर्य होगा कि प्राणों में रमने वाली बेटी, अर्थात अत्यंत प्रिय) | अम्बिका=माँ, जगज्जननी, सृजन की देवी, मातृशक्ति | यामी= छोटी बहिन | यमी=यमराज की भगिनी (तारने वाली यमुना) | दिक्काल=सभी दिशाओं और कालों में |

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"अपने समय का तिरस्कृत साहित्यकार भी निर्मम समाज की कोख में अवांछित भ्रूण कन्या की ही तरह संकट में होता है | "
अमलदार नीहार
१२ अक्टूबर, २०१७ 

प्राण वायु और आयु का सम्बन्ध

                           


श्रुति में प्राण को प्रत्यक्ष मानकर उसका अभिनन्दन किया गया है-वायो त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि (ऋग्वेद) | अर्थात प्राणवायु! आप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं | प्राण ही जगत का कारण-ब्रह्म है | मन्त्र ज्ञान तथा पञ्च कोश प्राण पर ही आधारित हैं | प्राण को ही ऋषि माना गया है | मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को उनके शरीर के आधार पर नहीं वरन प्राण के ही आधार पर 'ऋषित्व' प्राप्त हुआ है | यही कारण है कि विभिन्न ऋषियों के नाम से उसका ही उल्लेख हुआ है | उदाहरणार्थ इन्द्रियों के नियंत्रण को 'गृत्स' और कामदेव को 'मद' कहते हैं, ये दोनों ही कार्य प्राण शक्ति के द्वारा संपन्न होते हैं, इसलिए उन ऋषि को 'गृत्समद' कहते हैं | 'विश्वं मित्रं यस्य असौ विश्वामित्रम' | तात्पर्य यह कि प्राण का अवलम्बन होने से यह समस्त विश्व मित्र है, इसलिए 'विश्वामित्र' कहा गया | इसी प्रकार वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ आदि प्राण के अनेक नाम ऋषि-बोधक हैं |

काया-नगरी में प्राणवायु ही राजा है-"कायानगरमध्ये तु मारुतः क्षितिपालकः |"अर्थात देवता, मनुष्य, पशु और समस्त प्राणी प्राण से ही अनुशासित हैं | प्राण ही जीवन है | इस प्राण शक्ति का एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण विज्ञान है | योग-साधना से इस विज्ञान को प्रत्यक्ष अनुभूत किया जाता है | जिसने  अपने सोते हुए प्राण को जगा लिया, उसके लिए सब ओर जाग्रत ऊर्जा का स्रोत प्रवाहित होने लगा |

मानव-शरीर में वृत्ति के कार्य-भेद से इस प्राणवायु को मुख्यतया दस भिन्न-भिन्न नामों से विभक्त किया गया है-

प्राणोअपानः समानश्चोदानव्यानौ च वायवः |
नागः कूर्मोाअथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ||
(गोरक्षसंहिता)

अर्थात प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय-ये दस प्रकार के प्राण-वायु हैं |

श्वास को अंदर ले जाना और बाहर निकालना, मुख और नासिका द्वारा उसे गतिशील करना, भुक्त अन्न-जल को पचाना और अलग करना, अन्न को पुरीष तथा पानी को पसीना और मूत्र तथा रसादि को वीर्य बनाना प्राणवायु का ही कार्य है | यह ह्रदय से लेकर नासिका पर्यन्त शरीर के ऊपरी भाग में वर्तमान है | ऊपर की इन्द्रियों का काम इसके आश्रित है | अपानवायु का कार्य गुदा से मल, उपस्थ से मूत्र और अंडकोश से वीर्य निकालना तथा गर्भ आदि को नीचे ले जाना एवं कमर, घुटने और जाँघ कार्य करना है | समान वायु देह के मध्य भाग में नाभि से ह्रदय तक वर्तमान है | पचे हुए रस आदि को सब अंगों और नाड़ियों में बराबर बाँटना इसका कार्य है | कण्ठ में रहता हुआ उदान वायु सिर पर्यन्त गति करने वाला है | शरीर को उठाये रखना इसका काम है | इसके द्वारा शरीर के व्यष्टि प्राण का समष्टि प्राण से सम्बन्ध होता है | उदान द्वारा ही मृत्यु के समय सूक्ष्म शरीर को स्थूल शरीर से बाहर निकालना तथा सूक्ष्म शरीर के कर्म, गुण, वासनाओं और संस्कारों के अनुसार गर्भ में प्रवेश होना है | योगिजन इसी के द्वारा स्थूल शरीर से निकलकर लोक-लोकांतर में घूम सकते हैं | व्यान का मुख्य स्थान उपस्थ मूल से ऊपर है | सम्पूर्ण सूक्ष्म और स्थूल नाड़ियों में गति करता हुआ यह शरीर के सभी अंगों में रुधिर-संचार करता है | नागवायु उदगार(छींकना) आदि, कूर्म वायु संकोचन, कृकर वायु क्षुधा-तृष्णादि , देवदत्त वायु निद्रा-तंद्रा आदि और धनञ्जय वायु पोषण आदि का कार्य करता है |

[ कल्याण के आरोग्य अंक में संगृहीत आचार्य पंडित श्रीचन्द्रभूषणजी ओझा का आलेख-प्राणवायु और आयु का सम्बन्ध ]

शेष फिर कभी

प्रस्तुति
अमलदार 'नीहार'     

बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

अज-विलाप


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cU/ku   VwVk]   /khjt   NwVk]   n`x  vkiwfjr  vJq  gq,]
djus  yx  foyki  ogk¡   vt]  tu&laosnu&rkj  Nq,A
ykSg vpsru fi?ky&fi?ky  cg  tkrk  ridj vfXuf”k[kk
fQj  psru  lUrIr  “kksd&fog~oy  izk.kh dk dguk D;k\AA 43AA

gk;  fo/kkrk!  Ikq’i  lqdksey  fxjdj  fiz;k&dysoj ij
izk.kksa ds xzkgd cu  ldrs]  D;ksa u dgkss fQj dky iz[kj\
dkSu nwljh  oLrq  u  tx  esa  gj ldrh fQj izk.k ;gk¡
fof/k bPNk o”k(  dgdj  ;g  vt djus yxs foyki ogk¡AA 44AA

^;k LoHkko ls  dksey  fof/k  dksey fo/kku  gh  djrk gS
dkseykUrfgr  og  d`rkUr  Hkh  dksey  vk;q/k  ojrk gSA
fgedj lhdj  e`nq  uhgkj  lqdksey  ufyuh&feyu ;Fkk
foxfyr  fdly;  fonfyr  lqny  lqUnjrk&lagkj dFkkAA 45AA

^iq’igkj  ;fn  Øwjdky&lk  izk.kksa  dks   gj  ldrk  gS]
D;ksa u ân;  ls  yx  esjs  Hkh  lkS VqdM+s  dj ldrk gS\
gUr  gk;A  bZ’oj   dh   bPNk] lcls  cM+k  fo/kkrk  gSA
fo’k  curk  ih;w’k  vkSj   ih;w’k   xjy  cu  tkrk  gS^AA 46AA

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dksey  dqlqeksa  dh  ekyk  ls  fo/f/k  u  otz cuk;k gSA
voyfEcr  og  yrk  xrk;q’k  ikfrr  ikni  ugha dgha]
bUnqerh  ds  fcuk  “kwU;&lk  thou&vEcj   vkSj  eghAA 47AA

—rkijk/k  vfpau  vt  dk  fd;k  ugha  vieku  dHkh]
Ikzk.kkf/kd  fiz;  bUnqerh  esa  {kek&”khy&xq.k&eku  lHkhA
nf;rs!  vkt   vpkud  ;ksa  vijk/kh&tSlk   yxrk  gw¡]
e/kqj Hkkf’k.kh  ekSu   Hkyk  D;ksa\ dkSrwgy&lk  txrk  gw¡AA 48AA

“kqfp vUrj  izfrfcEc  g¡lh  ro] ljy ân;! Er #Bks ;ksa]
:Bks  er  jkuh  ;ksa] rqeus   eq>dks   ekuk  diVh  D;ksa\
>wBk  izse  fn[kkus  okyk  eSa  u  dHkh  Fkk]  eSa  u dHkh]
eq>ls  iwNs  fcuk  x;h  ijyksd  e/kqj  lqf/k  Hkwy lHkhAA 49AA

cM+s  vHkkxs  izk.k]  fiz;k  ml  bUnqerh  fcu  ykSVs D;ksa\
D;ksa  tkxs  ;s  izk.k  =k.k  fcu]  lpeqp  cM+s vHkkx ;ksaA
budh djuh] fd;s  gq,  dk  Qy  Hkksxsssa]  nq[k  lgu djsaA
D;k dj  ldrk  eSa  izk.kksa  fgr] ihM+k  dk vc oj.k djsaAA 50AA

fu/kqouJe&lEHkwr  Losn  ds  lhdj  eq[k  ij  ef.Mr gSa]
f>yfey  eksrh  dh  vkHkk  r#&ny  uhgkj  foef.Mr gSa
vkSj xrklq fiz;k]  vt  ofpar  izfr  ;g  dSlk I;kj dgks\
;g  vlkj  lalkj  e`’kk  lkS  ckj   bls   f/kDdkj  vgk!AA 51AA

Eku ls Hkh u vfiz; pkgk]  fQj  NksM+  jgh D;ksa funZ;&lh\
bUnqerh!  gs  fiz;s!  crkvksa   eerk  mj  dh  dgk¡  clh\
uke  ek=  ls  i`Fohifr  eSa]  lp dk f druk  Hkkx Hkyk\
>wB  u  dgrk vt&vUrj  esa  rqels  gh  vuqjkx  HkykAA 52AA

fodp  dqlqe  xw¡Fks  vydksa  dh  ?kVk&NVk  ?kq¡?kjkyh&lh
iou  izpkfyr   dkyh&dkyh   vfy&leku  erokyh&lhA
ns[k&ns[k  vk”kk   dh  txrh  eu  esa  T;ksfr  fujkyh gS&
esjh  ;g   djHkks#  izdfEir   cl   vc  mBus  okyh  gSAA 53AA

T;ksfr  tkxrh  vkS’kf/k;k¡  T;ksa  frfej  xqgk  dk  gjrh gSa
Rkq’kkjkfnz  ij  fufoM+  fu”kk  esa  txex&txex  djrh gSaA
Tkhou  dh   uoizHkk   oykfdr   vkyksfdr   Hkjiwj  djks]
mBks&mBks gs  fiz;s! ân;  dk  vt&fo’kkn  rqe  nwj  djks]AA 54AA

fgyrs  ?kq¡?kjkys   vydksa  ls  oyf;r  eq[k&vjfoUn  vjs!
Ekqdqfyr  lqjfHk  lqokflr  lEiqV  dSnh  e/kqi fefyUn vjsA
e/kqe;  og   xqatkj   Hkzej&lk   fu”kk  ?kksj]  dkrjrk gSA
fiz;s! rqEgkjk eqdqfyr  eq[k  ;g  eq>dks  ihfM+r  djrk gSAA 55AA

dqgw  iqu%  jkds”k   oj.k   dj   e/kqjkdk  cu  tkrh  gS
vkSj  m’kk   Hkh   pdok&pdoh&foNqM+s   ehr  feykrh  gSA
feyuegksnf/k&ygj  ikl   gks fQj fo;ksx  esa  lguk  D;k\
“khryrk   lEHkkj   tkxrh   vk”kk]  nks  iy  nguk  D;k\
fpjfufnzr   gs   fiz;s!  crkvks   dSls   /kS;Z   c¡/kkÅ¡   eSa\
D;ksa  u  rqEgkj  fojg&vuy  dh  Tokyk  esa ng tkÅ¡ eSa\AA 56AA

Qwyksa&lk  lqdqekj   dysoj   ftldk   lqHkx  euksgj  gS]
Ekl`.k e`nqy jEHkks#  fiz;k fgr  lg~; u  fdly;&lzLrj gSA
Dqfy”k  ân;  ls  gk;!  fprk  ij]  ogh  lqyk;h  tk;sxhAA
ân;ghu  og  yiV  fprk  dh]  dSls  fQj  lg  ik;sxhAA 57AA

gko&Hkko&foHkze&foyklxfr    ls    vfHkK    ,dkUrl[kh
fdruh  pqi&pqi  eq[kfjr  jgus  okyh  gS  ;g  j”kuk  HkhA
lxh   lgsyh   lks;h]   uhjo   blhfy,   jg   ysrh   gS
;k  fd   “kksd  esa  ejh  gqbZ  lh  Lo;a  fn[kk;h  nsrh  gSAA 58AA

LoxZxeu  ds  le;   fiz;k  us  fn;k  eq>s  vk”oklu&lk&
Ek/ko&nwrh   e/kqj   dksfdyk&Loj   mldk  dydwtu&lkA
infoU;kl  mlh  dk  ;g  xfr  eUn  ejfyfu  pyrh  gS
vkSj e`xh  n`x&papyrk  esa   fprou   ogh   epyrh   gSA
ioukUnksfyr  e/kqj  yrkvksa   esa   foykl  xq.k  ogh]  ogh
NksM+   x;h   rqe   lqokflr  fn”kkdk”k  oiq&lqjfHk   dgha
;s  ikfFkZo  midj.k]  ân;  ds  nq%[k  ugha  gj  ldr s gSa
Eksjs   Hkhrj   dk   lwukiu  dHkh  ugha   Hkj   ldrs   gSaAA 59&60AA

e/kqe;   l`f’V   ekudj   rqeus   ;qXe   :Ik  igpkuk  Fkk
bl  jlky  o   fiz;axqyrk   dks   lqUnj  tksM+h  ekuk  FkkA
budk  ifj.k;  fd;s  fcuk  D;k  vuqfpr  ;g  vU;k; ugha\
eq>s   vdsyk   NksM+]  rksM+dj   cU/ku]   cSBh   vkSj   dghaAA 61AA

eTtqy   oatqy   ink?kkr   ds   ijl   e/kqj  d;k  Hkwysxk\
vkSj   le;   ij   uke  fujFkZd  ;g  ^v”kksd*  lk  QwysxkA
crk  fiz;s!  mu  Qwykas   ls  fQj   fdlds   ds”k  ltkÅ¡xk
;k   fuokie;   vatfyHkj    Qwykasa    dk   v?;Z   p<+kÅ¡xkAA 62AA

dy&dy   dk   laxhrukn   cg  pyh  epyrh  ,d  unh
cM+h  —ik  dj  bl  v”kksd  dks  pj.kksa  dh  tks  Bksdj nhA
nqyZHk   og   >adkj&lq/kk&lqf/k&iku   fd;s   r#   gksrk  gS
“kksHkukf³~x  rc  iq’iksa  ds  fel  lkS&lkS   vk¡lw   jksrk   gSAA 63AA

ge  nksuksa   fey  xw¡Fk  jgs   Fks   yhyk   iwoZd  ;gha  dgha
“okl&lqjfHk  ro  cdqy  iq’Ik  dh  eatq  es[kyk  xq¡Fkh  ughaA
Tkhou&lh  gh   jgh  v/kwjh]   iw.kZ   fd;s   fcu  lksrh  gksA
fdUuj  dyjo&df.B  fiz;s!  D;ksa  rqe  v/khj  lh  gksrh gksAA 64AA

lq[k&nq[k  dh  leHkko   l[khtu   “kksdkqy  gks  ;gk¡  [kM+h
izrhdk”k   izfrin    pUnk]   lqr&thou&Fkkrh   ikl   iM+hA
vkSj  ,d  jl   izseh   vt   dh  vk¡[kksa   esa   vuqjkx  ogh
LoxZxeu   ;g   fiz;s!  rqEgkjk   D;k  fu’Bqj   O;ogkj  ugha\AA 65AA

/khjt  NwVk]   ân;&f{kfrt   ij   dgha   ekssn&mRlkg  ugha]
fiz;s!  rqEgkjs  fcuk   fojl   ;g  thou  dfBUk]  izokg  ughaA
“kkyk,¡    laxhr&xhr    dh    uhjo]    _rq,¡    lwuh   gSa
;k   ifj/kku&vkHkj.k&lTtk    dh    #fp;ksas  a ls  Åuh   gSaA
lwuh    lk¡lsa]    lwuh    /kM+du]   esjh    lwuh   lst   ;gk¡]
fcuk  iz;kstu  lc  dqN  nf;rs!  thou   esa   mYykl   dgk¡\AA 66AA

x`g  dh  e/kqj  dYiuk   rqels]  eU=&lfpo    ,dkUr   l[kh
yfyr   dyk   dyxku   fo”kkjn  rqe  esjh  fiz;  f”k’;k  FkhA
rq>s   gj.k   dj  funZ;   vUrj   us   esjk  lc  Nhu  fy;k]
eq>s  fiz;k  ls  lfpo&l[kh  ls   f”k’;k   ls   gS  nhu  fd;kAA 67AA

efnj  ykspus!  fprou&efnjk  l¡x   tks  vklo   iku   fd;k]
esjk    e|p’kd   og   rqeus   cM+s   pko   ls   dHkh   fi;kA
ogh    rqEgkjk    fiz;re    vt   eSa   nwf’kr   vJq   cgkÅ¡xk]
iku    djksxh    fiz;s    LoxZ    esa    n`xty&v?;Z&p<+kÅ¡xkAA 68AA
  
Hko  dk  oSHko  lq[k&lk/ku   lc&lk/k  u   dqN   Hkh ckdh gSA
fiz;s!    rqEgkjs    fcuk    u   thou&lkxj    esa   rSjkdh   gSA
lq[k   dk   mn~xe&lax   Fkh   rqe]  vc   gS  dksbZ   jkg  ugha
vkSj   vHkkxs   vt    esa   ckdh   ftthfo’kk   dh   pkg   ughaAA 69AA

vt   dk   ogk¡   v#Urqn   jksnUk  lqudj   d#.kk   jksbZ   Hkh]
o`{k&ouLifr    yfrdk   Hkh     “kksdygj    esa     [kksbZ   FkhaA
miou   ds   r#  lzfor   “kk[k&jl   fody  Hkko  esa  gksrs  Fks
vt   dks   jksrs    ns[k&ns[kdj   ekuks    os    Hkh   jksrs   FksAA 70AA

jksr  vt  ds   vax  vkSj   mRlax   dfBu   ls   vyx   fd;k]
fiz;re  ds  izk.kksa  dh   iqryh   dks   Lotuksa  ls   foyx  fd;k
fdlh   rjg]  ml   iq’ieky   ls   vfUre   Fkk   J`xkaj   fd;k
jksrs&jksrs]   vx#&ey;    dh    fprk    nkg&laLdkj    fd;kAA 71AA

^xq.k&xkSjo&xq#]   izK   u`ifr   esa   rqeqy   rjafxf.k  “kksd&unh]
Ikzenk   ds   ihNs   ikxy   gk  s ;ksa   izk.kksa   dh   vkgqfr   nhA
bl   dBksj    yksdkiokn    ds   Hk;   us  mudks   jksdk   Fkk
vfXulkr  gksus  ls]  vk”kk   dk   u   dgha   Hkh   >ksadk   FkkAA 72AA

fof/k&fo/kku   lEiUUk   “kkL=   dk   jktk   us  lEeku   fd;k]
Lo;a  fo”kkjn  dhfrZ”ks’k   ml  Hkkfefu   dks   Hkh   eku   fn;kA
“kkfir   miou    eas    n”kkg   ds   ckn   fØ;k,¡   iwjh   dh]
bl    izdkj    cl   yksdosn     dh   e;kZnk,¡    iwjh    dhAA 73AA

¼^j?kqoa”k* egkdkO; ds dkO;e; Hkkokuqokn ^j?kqoa”k&izdk”k* ds vkBosa lxZ ls lax`ghr½
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nwjHkk"k&011&23247003] 011&23254306

वैश्वीकरण और संस्कृति का संकट



         ^vkReor~ loZHkwrs"kq* dh ftl egku nk'kZfud psruk us vkSnk;Z ds vk;r Qyd ij ^olq/kSo dqVqEcde* dk mn~?kks"k fd;k Fkk] mls Hkkjrh; fpUru dk pje fcUnq dgk tk ldrk gSA ;gh vkReokn Hkkjrh; euh"kk ds mnkÙk Lo:i dks izdV djrk gS vkSj nwljksa ds Kku&xok{k ls >k¡drh jks'kuh dks lgtrk ls ipkdj ekuork dk ekxZ iz'kLr djrk gSA rHkh rks og foosdkuUn ds Loj esa mn~?kks"k djrk gS vkSj 11flrEcj] 1893 dks f'kdkxks dh fo'o/keZ egklHkk esa Hkkjrh; fpUru dh fot;oSt;Urh QgjkrkgS&
#phuka oSfp«;kn`tqdqfVy ukukiFktq"kke~A
u`.kkesdks xE;LRoefl  i;lke.kZo  boa
        vFkkZr~ gs ije~ izHkq! fHké&fHké #fp;ksa ds vuqlkj yksx lh/ks vFkok Vs<+s vusd ekxks± ls rq>esa vkdj mlh izdkj fey tkrs gaS] tSls vusd ufn;k¡ fHké&fHké lzksrksa ls fudydj leqælekxe dks izkIr gksrh gSaA ^olq/kSo dqVqEcde~* dh mnkjHkkouk vkSj ,d gh ijekRerRo dh y{;yhu lk/kuk esa ,dRo dk fopkj vkt ds nkSj esa cgqpfpZr Hkwe.Myhdj.k] oS'ohdj.k] fo'ocktkjokn vFkok fo'oxzke dh dYiuk ls iwjh rjg i`Fkd~ gSA ;g oS'ohdj.k lPps vFkks± esa fo'o&cktkjokn dk gh i;kZ; gS] ftls fodflr ns'kksa dh iw¡thoknh ekufldrk ls [ksyk tkus okyk nq"V [ksy dgk tk ldrk gSA bl [ksy esa fodkl'khy ns'kksa dh vfLerk nk¡o ij yxh gqbZ gSA lkezkT;oknh laLÑfr dh jDr'kks"kh ftºok dk izlkj ,slk fd nqfu;k ds reke ns'k ifraxs dh rjg f'kdkj cuus dks rS;kj gSaA bl cktkj ds ikl laosnuk ugha gSA blus 'kCnksa ds vFkZ cny fn;s gSaA 'kCnksa ds eksgd latky foHkze iSnk djus okys gSaA ;gk¡ mnkjhdj.k okLro esa m/kkjhdj.k gSA ^_.ka ÑRok ?k`ra ihosr* ds laLdkj ls flafpr djus okyh uhfr;ksa us vkt iwjh nqfu;k dks eUnh dh vU/kh lqjax esa <dsy fn;k gSA
             vkpk;Z gtkjh izlkn f}osnh euq"; ds Js"B fpUru dks gh laLÑfr ekurs gSaA muds 'kCnksa esa] ^^eSa mudks gh Hkkjrh; laLÑfr esa fxurk gw¡] tks loksZÙke gSaA vFkkZr~ euq"; dks i'kq lqyHk /kjkry ls vf/kd ls vf/kd Åij mBkus esa vkSj ekuork ds flagklu ij vf/kd ls vf/kd n`<+rkiwoZd cSBkus esa leFkZ gSaA tks ckrsa euq"; dks tM+rk dh vksj vkSj i'kq lqyHk LokFkZ yksHk] eksg vkSj tqxqfIlr vkpj.k dh vksj ys tkus okyh gSa] mUgsa eSa laLÑfr dk izfriUFkh ekurk gw¡A bl Js"B ekuoh; izkfIr dks Hkkjrh; laLÑfr blfy, dgrk gw¡ fd ;s Hkkjrh; lanHkZ esa Hkkjrh; euhf"k;ksa }kjk iqjLÑr gSaA**1 okLro esa lkfgR; vkSj laLÑfr dh dksf'k'kksa ds ewy esa euq"; ds vUr%dj.k ds vk;ru dks foLrkj nsus dk ladYi gksrk gSA lkfgR; vkSj laLÑfr ls tqM+s yksxksa ds fy, bl ckr dks le>uk t:jh gS] D;ksafd mUgsa euq"; ds eu dks cjruk gksrk gSA ,tkt vgen ds vuqlkj] ^^laLÑfr dk loky oLrqr% /keZ ;k ijEijk ls de vkSj oxZ ls T;knk tqM+k gqvk gksrk gS] exj fQj Hkkjr tSls ns'k esa laLÑfr vkSj oxZ] nksuksa ds lokyksa dk fu/kkZj.k eq[;r;k mifuos'k vkSj lkezkT; ds loky djrs gSaA bl fLFkfr dh foMEcuk ;g gS fd ns'k ds Hkhrj tks laLÑfr vUn:uh rkSj ij opZLo'kkyh gksrh gS] ml ij lkezkT;oknh laLÑfr dk opZLo dke djrk gS] ftls vkyadkfjd <ax ls Hkwe.Myhdj.k dgrs gSaA**2
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(2016 में प्रकाशित पुस्तक 'साहित्य : संवेदना और विचारधारा' का पहला आलेख )

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