शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

[रघुवंश-प्रकाश( रघुवंश महाकाव्य के काव्य-निबद्ध भावानुवाद-अमलदार नीहार) में चयनित श्लोकों की व्याख्या, पृष्ठ-२३-२४ ]

प्रशमस्थितपूर्वपार्थिवं कुलमभ्युद्यतनूतनेश्वरम्।
नभसा निभृतेन्दुना तुलामुदितार्केण समारुरोह तत्।। १५।।(अष्टम सर्ग)

भावार्थ : उस समय सूर्य वंश उस आकाश के समान सुशोभित हो रहा था, जिसमें एक तरफ चन्द्रमा अस्त हो रहे हों और दूसरी ओर सूर्य उदय हो रहे हों, क्योंकि एक ओर राजा रघु संन्यास लेकर शान्तिमय जीवन बिता रहे थे, दूसरी ओर अज राजगद्दी पर विराजमान थे |

दृष्टि-उन्मेष : सारा जग परिवर्तन के हाथों का खिलौना है | यहाँ सब कुछ परिवर्तनशील है | शाश्वत सत्य चिरन्तन तो एक ही है-वह परब्रह्म, विराट चेतना | दृश्यमान संसार का प्रत्येक प्राणी, प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ उसके हाथों की पुतली है-उसी के इशारों पर नर्तन करने वाली कठपुतली और स्वयं वह अदृश्य बना रहता है | उसकी प्रेरणा या इंगित से सब कुछ बदलता रहता है | कलियाँ खिलकर पराग-पूरित पुष्प बन जाती हैं और फिर मुरझाकर धूलि में मिल जाती हैं, फिर नयी कलियाँ-नए फूल | बदलते मौसम के साथ सब कुछ बदलता रहता है-कभी शुष्क रेगिस्तान-सी तपती धरा और कभी शस्य तथा विटप-वनस्पतियों की हरीतिमा से आच्छादित वधू-सी सौन्दर्यमयी पृथ्वी का आँचल | इसी परिवर्तन में प्रगति है | बिना परिवर्तन के प्रगति सम्भव नहीं | इसलिए उल्लासमय बसन्त यदि स्वागत योग्य है तो पतझड़ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है-वह नई कोंपलों की पृष्ठभूमि है, कोकिल की संगीतशाला-लतानिकुंज और आम्र-मंजरियों की पूर्व पीठिका है | सुख का सम्भार दुःखानुभूति से ही सम्भव है, अन्धकार के कारण ही प्रकाश की सत्ता की स्थापना होती है | जीवन और मृत्यु परस्पर अविच्छिन्न भाव में रहते हैं | उदय और अस्त एक ही दृश्य के दो छोर हैं | प्रस्तुत श्लोक की घटना इसी प्रकार की है | महाराज रघु ने राज्य का त्याग करके संन्यास धारण कर लिया है और वे शान्तिमय जीवन बिता रहे हैं | दूसरी ओर पुत्र राजसिंहासन पर विराजमान है | सूर्य कुल इस समय ऐसे आकाश की तरह विद्यमान है, जिसमें चन्द्रमा का अस्त हो रहा है और सूर्योदय की अरुणाभा प्राची दिशा को अलंकृत कर रही है | वृद्धावस्था को प्राप्त संन्यस्त रघु अब अस्ताचलगामी चन्द्रमा प्रतीत हो रहे हैं | चन्द्रमा सूर्य से ही प्रकाशित होता है | सूर्यकुलोत्पन्न होने के कारण रघु  भी कभी सूर्य समान तेजवान थे | अब वे ढल चुके हैं-निष्प्रभ हो चुके हैं | इसलिए चन्द्र तुल्य हो गए हैं | जनता   को नए सूरज का नया प्रकाश चाहिए-नयी आशा और नए सपनों का प्रकाश-पुंज | यह प्रकाश अब अज के रूप-लावण्य और पौरुष-पराक्रम के रूप में विद्यमान है | महाकवि माघ ने भी रैवतक पर्वत के दोनों ओर अस्तंगत चन्द्रमा और उदीयमान सूर्य की शोभा को मत्तगयन्द के दोनों ओर लटकने वाले दो घण्टों के रूप में देखा है | इसी कारण उन्हें 'घण्टामाघ' कहा गया है | कालिदास की यह उपमा कम रमणीय नहीं है | तारुण्य और जरावस्था के लिए दोनों उपमान अधिक अर्थवान हैं |

[रघुवंश-प्रकाश( रघुवंश महाकाव्य के काव्य-निबद्ध भावानुवाद-अमलदार नीहार)  में चयनित श्लोकों की व्याख्या, पृष्ठ-२३-२४ ]
राधा पब्लिकेशंस
४२३१/१, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-110002
प्रकाशन वर्ष : 2014 

बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

कौन बचाये देश?

मक्कारी के मकड़जाल से कौन बचाये देश?
वृक बर्बर की चतुर चाल से कौन बचाये देश?
जालिम झूठे क्रूर काल से कौन बचाये देश ?
दुर्विपाकवाश बुरे हाल से कौन बचाये देश?


न्याय भीत, क़ानून खिलौना, गिरवी है ईमान,
कौन कहाँ दे शरण किसे, जब साँसत में भगवान |
चीख रहा है सत्य सड़क पर घायल लहूलुहान,
धर्म सुरक्षित कहो कहाँ फिर, समय बड़ा शैतान ||


आजादी की स्वप्न-सड़क पर लोकतंत्र की लाश,
शासन की बन्दूक, निशाना माँ जब, सत्यानाश |
कल की बिल्ली दिल्ली बाघिन नोच रही है माँस,
झूठ-कपट, आश्वासन-भाषन-पत्ते बिखरे ताश ||


सहमी-सहमी मानवता ज्यों, चहुँ दिशि हाहाकार,
'मारो-काटो' का हल्ला है, लूट रही सरकार |
नहीं सुरक्षित जीवन-वैभव, इज्जत, सब पर मार,
भारत माता द्रुपद-सुता, हरि हरे पीर 'नीहार' ||

रचनाकाल : १३ जनवरी, २०१८
बलिया, उत्तर प्रदेश
[जिजीविषा की यात्रा-अमलदार 'नीहार' ]

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

पैसा! पैसा!! पैसा!!!

पैसा मन की भूख है, पैसा माई-बाप | 
रिश्ते-नाते, बन्धु भी, कपट-कसाई पाप || २२६ ||
रिश्ता रिसकर बह चला, पैसा-पैसा रेत |
दृग-दरिया में बाढ़-सी, सूखे दिल के खेत || २२७ ||
पैसा कैसा हो गया दूषित जमुना-नीर |
रमे प्राण-मन-चेतना रोगी पिंजर-कीर || २२८ ||
पैसा-पानी एक से, सूखे कल्मष-कीच |
दानी-कर में पुण्य-फल लहे पाप जो नीच || २२९ ||
कालानल की आँच में रूपा-रुपया-रूप |
रह जायेंगे एक दिन माटी-पानी-धूप || २३० ||
मृग-मरीचि की प्यास ज्यों दावानल की भूख |
बने दीन-से हंस कुछ वाहन रमा-उलूक || २३१ ||
अन्यायालय हो गए न्याय-सदन शत प्रेत |
सही-गलत हर काम का पैसा ही अभिप्रेत || २३२ ||
सबको सब ही मूँड़ते बगुले-कौए-चील |
साँसें बेदम हो गयीं चलकर अन्धे मील || २३३ ||
पैसा भी तो बह गया, बचा न फिर भी प्यार |
पैसा किसका बन्धु है, पैसा किसका यार || २३४ ||
अमला कमला कीट-सा रचे खेल अभिराम |
खेत किसी के नाम का, चढ़ा किसी के नाम || २३५ ||
छूट लूट की हर जगह, पाले सभी डकैत |
मोटी फ़ाइल-शब्द कुछ, जिनके अर्थ करैत || २३६ ||
ऊपर-नीचे एक लय, रिश्वत की जंजीर |
कठिन कचहरी-पाँव में पैसे की मंजीर || २३७ ||
बचा न कोई प्यार है या जीवित विश्वास ||
बूँद शहद की जीभ पर, कह न जाय संत्रास || २३८ ||
झूठ बहुत बहुरूपिया, सच भी काली जोंक |
सेज पीर-परिरम्भ यह करुणाप्यायित शोक || २३९ ||
अधिकारी अधिकारि-ज्यों बेकाबू-से क्लर्क |
मंत्री मन्त्र-विहीन हैं, कार्यालय सब नर्क || २४० ||
लीला भी क्या राम जी! है असार संसार |
रहे जूझ सब, लेखते निर्निमेष 'नीहार' || २४१ ||
रचनाकाल : ०४ जून, २०१८
बलिया, उत्तर प्रदेश
[नीहार-हज़ारा-अमलदार 'नीहार']

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ

तोड़ तम-कारा हृदय के ज्योति के जय-गीत गाओ। 
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
आँसुओं के स्याह मुखमण्डल रचो मुस्कान-लाली,
रह न जाये तारिका से जन-हृदय का शून्य खाली।
प्राण-तारों में सभी के, प्यार की धड़कन जगाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
व्योम-बाला नव वधू-सी इस धरा पर आ गयी है,
चाँद-तारों की सजी बारात-शोभा छा गयी है।
शर्वरी के पाँव जावक, हाथ में मेहदी रचाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
स्नेह से भीगी हुई यह वर्तिका जलने लगी है,
पी तिमिर-विष, भूतभावन शिव-सरणि चलने लगी है।
प्यार का पीयूष बाँटो, मोहिनी को मत बुलाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
ज्योति गंगा-गीत में यह कल्पना की दीपमाला,
आरती के शब्द, भावों में हृदय का पूत प्याला।
मरु, मनुज के नेह-नातों में नये सरगम सजाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
रचनाकाल : २१ अक्टूबर, १९९६
[ गीत-गंगा(सप्तम तरंग) - अमलदार नीहार ]
प्रकाशन वर्ष : १९९८

"बागों में बहार है"

अभिनव द्वारिकाधीश! जगज्जिष्णु! 
हे हरि त्रिपादविक्रम उपेन्द्र!
प्रभविष्णु विष्णु के व्यापक-विराट ! तव चरण-आक्रान्त
शान्त-निश्चल विकल गंगोर्मि-निगमानन्द-सानन्द-
निरानन्द, दिक्काल व्याल से लिपटे पड़े हैं
आधुनिक सभ्यता के पाँव में !
उधार शब्दों में कहूँ जो तर्क-पंचानन जगन्नाथ के -
नराकारं वदन्त्येके निराकारञ्च केचन।
वयं तु दीर्घसम्बन्धाद् नाराकाराम(नीराकाराम्)उपास्महे।।
जो विष्णुनख-निर्गता, विधु-कमण्डलु-निस्सृता
कि धूर्जटि-धम्मिलधृता, जह्नुपीत-प्रस्नुता जाह्नवी
'भागीरथी'- जो मिथक-कोटरों से बह निकली थी कभी
गंगोत्री की गोद से-मोद से,
फाँसी के फन्दे पे सरेआम लटकायी गयी
टिहरी-नरौरा व गंग नहर-रस्सी पर
अनगिन दहेज लाने वाली नववधू-सी-
हमारे सपनों की शहजादी, आस्था की पुत्तलिका
प्राण-प्रिया, श्रद्धा-शालभंजिका
पूजा-देवि लीलोल्लासमयी
ममतालु भवाम्बुधि धेनु-पुच्छ, स्वर्गापवर्ग-सोपान।
शस्य-श्यामल खेतों से समृद्ध किसान ख्वाबों की पूर्ति-हमारी स्वर्गंगा इस मरजीवा धरती पर दिव्यता की सजला-सुफला मूर्ति........
कि जिसे मार डाला कुछ पापियों ने-प्रलापियों ने
पूजा-पाखण्ड के ढोंगियों ने, मुमुक्षु मनोरोगियों ने, भोगियों ने,
चितानल-ज्वाला ने, दूषण-प्रदूषण महोत्सवों की माला ने,
उद्योगधन्धों ने, अन्धों ने, अनियन्त्रित व्यापारों ने-सरकारों ने,
कि आत्मघात कर लिया हमारी संस्कृति ने नव विकास की देहरी पर
हमारे दिलों की तंग कोठरी में उभरते जायज सवालों ने जहर खा लिया
.............और अब ये मंजर सामने है-
कि उपेक्षा की गीली दुर्गन्धयुक्त लकडियांँ,
अपमान की धुँआ भरी आग,
इतिहास-कफन से बाहर निज लम्बे पाँव पसार
हमारी प्रसुप्त चेतना की चिता पर
लेटी है सहस्राब्द पीयूष-प्रवाहिनी देवबाला अधनंगी-सी,
कि सूख चली छातियों में न रहा शेष जीवन का अमृत
न प्राणरसधारा बची निचुडी हुई साँसों में
मृत कलेवर पर बैठा कंस-वंशावतंस रेतमाफिया
झिंझोड़ता है जिसे बारम्बार,
खखोलकर खींचता है गंगा की आँतें-पहाड़ों के पत्थर
कि मुर्दा पड़े जिस्म से व्यभिचार बराबर,
केमिकल-फैक्टरियों के मल-पुरीष भरे नाले
कि सत्ता-रंगशाला में पूँजीवादी प्याले
डालते हैं डकैती दिन-दहाडे़ सृष्टि की सम्पदा पर,
विपदा-आपदा की जनयित्री ये विकास-नीतियाँ-
ईतियाँ-भीतियाँ, नित्य नयी रीतियाँ,
बाढ प्रमाण़-पार्वत्य हिम-निपात-भूकम्प-स्खलन
मानवीय भूलों का प्राकृत उपहार-पुरस्कार-प्रहार
अनगिन अनाम बीमारियाँ ईजाद,
फरियाद किससे-कहाँ-कौन करे?
हिल रही है बुनियाद,क्या भेड़तंत्र की औलाद-
इस देश की जनता मौन धरे?
हत्या हमारी नदियों की नहीं है ये,
हत्या है चराचर जीवन-जगत की, खूबसूरत सृष्टि की
व अपनी आँखों पे शीतल पट्टी बाँधे लोगों की दृष्टि की।
पूतना बना दिया हमारी भोली नदियों को पाप-पूतों ने,
कपूतों ने कपोतों के अरमानों के पंख कतर दिये
और ऊँची उड़ान भरने का संदेश लिए फिरते हैं,
बगुले भी आजकल हंसों का वेश लिए फिरते हैं-
"हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती हैं"
भूल जाओ अब ये कहना कि"हमारा देश दुनिया का गहना"
सच पूछिए तो गंगा सलीब पर लटकी है ईसा की तरह,
गोली खाये गाँधी की तरह, विष पिये दयानन्द की तरह, स्वीकार जहर सुकरात की तरह, बोटी-बोटी मंसूर की तरह।
मस्त मगन मीरा को विष-प्याला दिया राणाओं ने,
आधुनिक सभ्यता-विकास के दुर्दान्त ठेकेदार रक्त-पिपासुओं ने
और हमारे जोंकधर्मी रहनुमाओं की सत्ता-ख्वाहिशों ने।
एक बात बताओगे प्यारे देशवासियों!
ये तमाम बदमाशियाँ समझ में नहीं आतीं?
कब तक पूजोगे राजा-महाराजाओं के पन्नाती-
फैले हुए देश में, बदले हुए वेश में,
अपराधी-गुण्डे और मवाली,
नहीं उभरता है आँखों में कोई सवाली?
नीम हकीमों की दुकानों से बडे अस्पतालों तक!
पीजीआई, एम्स,मेदान्ता गुर्बत में बन्द तालों तक!
नंगे पाँव दौड़ते हो खेत-बारी बेचकर!
घर-द्वार बेचकर, गहना-गुरिया नोचकर!
कैंसर का करिश्मा-हार्ट अटैक-किडनी फेल!
पीते हो पानी जो खूब जहरीला धकापेल।
किसकी है देन सब, किसका उपहार है?
मर भी जाओ प्यारे! उनके बागों में बहार है!!
रचनाकाल : 13 अक्टूबर, 2018
सन्त नगर, नयी दिल्ली
अमलदार नीहार

नेह-गेह, जिसमें रमा रमे, वहीं नीहार

कश्मल रावन राजता, राम चले वनवास। 
आत्म-अयोध्या आज भी सूनी पड़ी उदास।। ६४१।।
कैसी मन की मन्थरा, कैकेयी दुर्बुद्धि।
दशरथ नृप दस द्वार के, फिर भी प्रीति-अशुद्धि।। ६४२।।
देवासुर-संग्राम मन-भीतर प्रत्यह देख।
कौन भला वर-दान वे प्रत्यय के आलेख।। ६४३।।
कैकेयी के मुख-वचन सायक, सोच सचान।
मोह-प्रणय की डार पर पारावत से प्रान।। ६४४।।
तरे तरी दो पाँव रख, भँवर भरे मझधार।
दशरथ की जो दुर्दशा, जीव-दशा संसार।। ६४५।।
वन में लछिमन-राम सँग संयम-शुचिता शील।
धैर्य-त्याग, तप-तेज का भाव-प्रभाव सलील।। ६४६।।
माया को भी ठग सके माया का मारीच।
कनक हिरन-छवि छोह-छल माधव को ले खींच।। ६४७।।
अच्छ सरोवर जानकी-उर संशय के प्रेत!
लांछित लछिमन के चरित, चारु कथा-अभिप्रेत।। ६४८।।
मन में साँची प्रीति जो, काँची रही प्रतीति!
कैसी लीला जानकी! कथा-निबन्धन-नीति।। ६४९।।
स्वर्णनखा के नेह का नवल निमन्त्रण देख।
कहीं राम ने रच दिया कथा-सूत्र नव लेख।। ६५०।।
रावन-भगिनी! तू बता कटे नाक औ कान!
या फिर इंगित आर्य के हुआ घोर अपमान।। ६५१।।
उर-अन्तस् में जानकी प्रति विद्वेष-दुराव।
राग-आग भी राम लख, स्वाभिमान का भाव।। ६५२।।
खर-दूषन-त्रिशिरादि की शक्ति तमस् निर्मूल।
फिर भी नहीं प्रबोध लव, कैसी थी यह भूल।। ६५३।।
रावन में जो 'काम' था दुर्जय शत्रु महान।
चिनगारी तू ले गयी, जला दिया खलिहान।। ६५४।।
थी अनादि जड़ वासना, अहंकार-मद चूर।
अन्तर दुर्दम भोग के भावों से भरपूर।। ६५५।।
छल-बल पाशव पूर्ति का मूर्तिमान प्रतिमान।
पाप-शाप का बोझ भी सीस लिए वरदान।। ६५६।।
आगम-निगम-पुराण का पण्डित वह मूर्धन्य।
दर्शन-भेद-कलादिगत विद्यावान अनन्य।। ६५७।।
हरि से जिसने हर लिया जाया-छाया रूप।
काल-अनल की नाशमय सीता शिखा अनूप।। ६५८।।
उस रावन को क्या कहूँ, जो इतना बलवान।
पराभूत सब देवता किंकर क्रीत समान।। ६५९।।
लंका-उपवन जानकी राम-विरह के शोक।
पहरे में दस मास जो रिपु रावन के ओक।। ६६०।।
सीता-शुचिता मूर्ति का किया सभी ने मान।
रावन भैरव भय दिखा, रखता था सम्मान।। ६६१।।
उसे राम ने जीतकर भेज दिया निज लोक।
ओर सूर्य के वंश का फैला यश- आलोक।। ६६२।।
उसी राम के सामने है नतसीस- सवाल।
जो आत्मा की छाँह-सी क्या सीता का हाल।। ६६३।।
तुमने संशय जो किया अनल-दाह अपमान।
सीता-धोबिन एक सी, राजा-रजक समान।। ६६४।।
सीताएँ इस देश की छली गयीं हे राम!
सहने में अभिशाप सी, कीर्ति-कथा अभिराम।। ६६५।।
रहे नरोत्तम तुम सदा मर्यादा की लीक।
सीता है निर्वासिता, राजा सभी अलीक।। ६६६।।
दहे चितानल सर्वदा नारी का यह भाग्य।
या कि भुजिष्या भोग की, या कारण वैराग्य।।६६७।।
सृष्टि सींचकर निज लहू, कोमल कर से पोष।
शासित-शोषित, त्याज्य भी, मढे़ मूढ़ सौ दोष।। ६६८।।
मैं पीड़ित के साथ हूँ, मैं शोषित के साथ।
मेरी माता जानकी सिर पर उनका हाथ।। ६६९।।
राजा राघव! बूझ लो रिश्तों का भी प्यार।।
नेह-गेह, जिसमें रमा रमे, वहीं नीहार।। ६७०।।
रचनाकाल : १९ अक्टूबर, २०१८
[नीहार-हजारा-अमलदार नीहार ]

बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

मेरी भोली दादी माँ

नेह-दया-ममता की दानी मेरी भोली दादी माँ ।
थी जैसे परियों की रानी मेरी भोली दादी माँ ॥
स्नेह-सुधारस की बरसातें, अनुभव-रस में भीगी बातें,
कहती थी नित नयी कहानी मेरी भोली दादी माँ ।
आँखों में करुणा लहराती, जैसे खोयी मणि पा जाती
लाल-सदृश मुझको, थी ध्यानी मेरी भोली दादी माँ ।
इन्द्रधनुष के मेरे सपने थे जैसे उसके ही अपने,
देती थी सपनों को पानी मेरी भोली दादी माँ ।
मैं भूखा तो भूखी सोयी, मैं प्यासा तो प्यासी रोयी,
ममता मूर्तिमती पहचानी मेरी भोली दादी माँ ।
जैसे व्योम उसी का आँचल, सुखदायक, शुभकारी शीतल,
थी वह स्वयं यशोदा रानी मेरी भोली दादी माँ ।
रह सकता कब कैसे रोता? उसका ममता-ओज अनूठा,
भर लेती आँखों में पानी मेरी भोली दादी माँ ।
थी कुंकुम केशर-कस्तूरी, उस देही से यद्यपि दूरी,
जीवित जिससे कविता-बानी मेरी भोली दादी माँ ॥
[आईनः-ए-ज़ीस्त-अमलदार "नीहार"]
नमन प्रकाशन
४२३१/१, अंसारी रोड, दरिया गंज
नई दिल्ली-११०००२
दूरभाष- ०११-२३२४७००३,२३२५४३००६

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

रघुवंश महाकाव्य में "दिलीपस्य गो-सेवा" [ द्वितीय सर्ग -श्लोक सं ० १८ से २४ तक]

पीन-पुष्ट आपीन-भार पग धीरे-धीरे धरती थी,
सुता सुरभि की गृष्टि मनोहर, चितवन सुध-बुध हरती थी ।
वैसे स्थूल कलेवर नृप भी तब कुटिया की ओर चले,
दोनों की गति मन्द सुशोभन, पन्थ तपोवन लगे भले ।
ऋषिवर गो के पीछे-पीछे चलकर पार्थिव आये थे,
भाल कलाधर तुल्य सुशोभन, गोरज मण्डित छाये थे ।
वन से लौटे कान्त, मनोहर सुदाक्षिणा को लगते थे,
प्यासे निर्निमेष नयनों में प्रेम-दीप ज्यों जगते थे ।
पार्थिव से जो पथ में हुई पुरस्कृत धेनु विलसती थी,
अगवानी की रानी ने, वह शोभा मन यों धँसती थी ।
उन दोनों के बीच उपस्थित सुन्दरता की आभा ज्यों,
दिवस-निशा के मध्य अवस्थित सन्ध्या की अरुणाभा ज्यों ।
सुदाक्षिणा ने साक्षत भाजन कर में लिए प्रणाम किया,
प्रदक्षिणा की पयस्विनी की, पूजन तथा प्रकाम किया ।
पृथुल सुरभिजा-भाल, श्रृंग दो, मध्य भाग की पूजा की,
मान मनोरथ-सिद्धि-द्वार उस भाल भाग की पूजा की ।
जाग रही उत्कंठा गो-मन-निज नन्दन को प्यार करे,
हृष्टरोम उसके ललाट पर ममता की पुचकार भरे ।
फिर भी निश्छल सदय मुदित मन , शुचि पूजन स्वीकार किया,
"निश्चय फल का हेतु उपस्थित" यह प्रत्यय साकार किया ।
भुजबल-विजित सकल रिपु जिसके, नृप दिलीप वे विक्रमशील,
अरुन्धती संग ऋषि वशिष्ठ को कर प्रणाम वे संयमशील ।
कृत्य निखिल कर सायंकालिक सुस्थिर मन हो सम्यक शान्त,
गो-सेवा में लगे, वहाँ जो बैठी दोहन के उपरान्त ।
जलती दीपशिखा के अन्तिक रखे सभी पूजन-उपहार,
प्रजाजनों के रंजक राजा निकट नन्दिनी बैठ सदार ।
करके सकल सपर्या उसकी वे दोनों सुख पाते थे,
उसके सोने पर सोते थे, जगने पर उठ जाते थे ।
[ रघुवंश-प्रकाश-अमलदार "नीहार" ]
दिनांक-१५-१०-२०१८

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

कालिका-स्तवन

रसना काल-कराली की जय ! दुष्ट-दलन करवाली की जय !!
बोलो खप्पर वाली की जय ! दृग युग प्रभा निराली की जय !!
भक्त-भीति-रुजघाली की जय ! दुःख-पीनाखु-बिडाली की जय !!
ममता में मतवाली की जय ! जय माँ-जय माँ काली की जय !!
जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
श्यामा शक्ति-प्रवर्तन करती-प्रलयताल पर नर्तन करती,
मेघमन्द्र रव नर्दन करती-आसुरवृत्ति-विमर्दन करती ।
संगर रंग तरंग तरंगिणि-अहंकार-अरि-निकुर-निकंदिनि,
वक्र भृकुटि-फूत्कार भुजंगिनि-रंगिणि शोभाशाली की जय !
जय माँ-जय माँ काली की जय !! जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
चामुण्डे ! हे मुण्डमालिनी ! रक्तबीज-अस्तित्त्व-घालिनी !
कलि-कल्मष-क्षय-वचनपालिनी ! भक्तों के अघओघ-क्षालिनी !
रक्तबीज के बीज-तिमिंगिल फैले संसृति-सागर में हैं ,
प्रलय तुमुलतम मेतो रविकर प्रखर चाल भूचाली की जय !
जय माँ-जय माँ काली की की जय! जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
शक्ति-शिवा हे उमा-मृडानी ! रमा-गिरा जगदम्ब भवानी !
दुर्गति-नाशिनि दुर्गा-काली ! जग किंकर तू जग की रानी !
कालिदास-वागर्थ सुपावनि, रामकृष्ण गुरु-माँ मनभावनि !
सर्जन-संस्थिति-प्रलय प्रधावनि ! दीन-हीन की आली की जय !
जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
ममता में मतवाली की जय ! जय माँ ! जय माँ काली की जय !!
जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
रचनाकाल-१७-०३-२००२
[इन्द्रधनुष-अमलदार "नीहार"(तृतीय रंग), पृष्ठ-५७ ]

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2018

नयनों में 'नीहार' भरा है

भजूँ सूर-मन कृष्न कन्हैया, वही चराये मेरी गैया,
छपक ताल उच्छल जल, खेलूँ सँग कान्हा, ज्यों देखे मैया। 
कोकिल-विद्यापति बन गाऊँ, शंकर बन हरिदास रिझाऊँ,
दण्डी-सा लालित्य मिले माँ! और माघ-सा मैं बन जाऊँ।।
वाणी-नन्द निराला हूँ मैं, कहीं-कहीं मधुशाला हूँ मैं,
पिया-न जीवन भर जो उतरे, हालाहल का प्याला हूँ मैं।
कुछ तुलसी हूँ, कुछ कबीर हूँ, मीरा की भी प्रीति-पीर हूँ,
कालिदास की जूठन खायी, लोकदर्द गाकर नज़ीर हूँ।।
घनानन्द-सा प्रेम-पपीहा, छोड़ूँ क्यों ठाकुर का ठीहा?
देव और मतिराम-बिहारी, छन्द रचूँ रमणीय समीहा।
कुछ प्रसाद हूँ, पन्त तनिक-सा, महादेवि-उर- अन्तस विकसा।
दिनकर-नागार्जुन या धूमिल, मन किसान केदारी सरसा।।
भाषा की तलवार दुधारी-कुछ केशव, आचार्य भिखारी,
मुक्तिबोध, कुछ सर्वेश्वर भी, बच्चन-नीरज से भी यारी।
नारी-मन की पीर पिरोयी, दलित-दंश लख कविता रोयी,
वारवधू-सी राजनीति यह, फिर भी भारत -जनता सोयी।।
बाहु उठाये व्यास न कोई, प्राचेतस का दास न कोई,
मेरी बातें कौन सुनेगा, शासन-तिमिर प्रकाश न कोई।
मन में अमित दुलार भरा है, माँ के मन में प्यार भरा है।
सजग भारती का सुत होकर नयनों में 'नीहार' भरा है।।
रचनाकाल : १५ अगस्त २०१७
[ हृदय के खण्डहर- अमलदार 'नीहार'
११ अक्टूबर २०१८

चापलूसी हजार नियामत है

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

चमचा-चालीसा के कुछ दोहे-

चमचे की किस्मत भली जाता छींका टूट । 
"म्याऊँ -म्याऊँ" बोलकर मटका लेता लूट ॥ १ ॥
बैल-गधा-कुत्ता कहो, कह लो रँगा सियार ।
कुछ भी कह लो, क्यों सुने पाये पैसे चार ॥ २ ॥
चमचे चाँदी काटते पड़े सुहागा सोन ।
साहब चाईं हो भले कहीं अभागा सो न ॥ ३ ॥
चमचे की चूँ-चूँ भली दिल का वही दलाल ।
साहब को क्या चाहिए जाने सच्चा हाल ॥ ४ ॥
चमचा हो बगुला भले हंसों का सरदार ।
कण्ठी बन सरकार की, मछली कण्ठ उतार ॥ ५ ॥
प्रोफ़ेसर हैरान क्यों मंत्री इण्टर पास ।
धरती अब बंजर बनी आसमान पर घास ॥ ६ ॥
जनता का बजा बजे राजा जुमलेबाज ।
पौ बारह चमचे भले, छले नए अंदाज ॥ ७ ॥
विज्ञापन चमचा बने, बने मीडिया ढोल ।
पूँजी अंडा फूटकर "कूँ-कूँ-कुँकड़ूँ" बोल ॥ ८ ॥
अमलदार "नीहार"

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

चुनावनामा (नीहार के चुभते चोखे चौपदे)

बीस ग्राम नमकीन पचाकर पेट चला पाताल। 
ब्रेकफास्ट यह, जीभ फेरकर चलो बुलटिया चाल।।
मक्खीचूस व्यवस्था को भी मिलता पानी-खाद।
जोड़-घटाना, गुणा-भाग में गणित खूब उस्ताद।। १।।
नथुनी-नग से परवल-कन सँग आलू के छह फाँक।
भोजन में हिस्से में आयी सब्जी एक छटाँक।।
दो तोले की एक कचौड़ी, वह भी केवल चार।
लोन लबालब गुटको प्यारे! बोला भूखा यार।। २।।
'इनका हिस्सा, उनका हिस्सा-पिछला किस्सा' देख
पढ़ता है अधिकारी पहले, लिखता किस्मत-लेख।।
मस्ती में छुटभैये देखो बजा रहे हैं बीन।
कुछ कागज़ पर, कुछ बाहर हैं-कहीं न तेरह-तीन।। ३।।
आगे-पीछे, अगल-बगल में सजा रहे दरबार।
चौदह चमचे, बीस बजनियाँ-'हाँ जी, हाँ सरकार'।।
भोले-भाले जो कि बिना मुँह-सिनर सीनियर चार।
ड्यूटी पर तैनात सिपाही, नैया की पतवार।। ४।।
जाने कितने विद्या-मन्दिर ऐसे ही काॅलेज।
दिल का दिया बुझा देते हैं, जो दिमाग के तेज।।
जिनकी दुनिया में दौलत, जो दौलत के ही राव।
कागज़ पर घोड़े दौड़ाते चिरकुट-चाल चुनाव।। ५।।
खजड़ी एक बनाकर मोटे सौ चूहों के चाम।
चरण चाँपकर कजरी गाओ बाबू रामगुलाम।।
जाने वह लाचारी कैसी पूजो पातक-पाँव?
गुरु-गौरव तो केसर-क्यारी क्यों कौड़ी के भाव।। ६।।
[ जिजीविषा की यात्रा-अमलदार 'नीहार' ]
०७ अक्टूबर २०१७

मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा

मेरा राम, रहीम वही तो, सतगुरु है वह प्यारा । 
मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा ॥
मैं हिन्दू या सिक्ख मुसलमाँ और न मैं ईसाई,
मन्दिर में पूजा की, मस्जिद में आवाज़ लगाईं ।
गीता-गुरुबानी-कुरान का सार एक ही पाया-
"एक पिता परमात्मा सबका, आपस में सब भाई ।"
धरती एक, गगन है सबका सूरज-चन्दा-तारा ।
मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा ॥
रंग लहू का एक सभी का, सुख-दुःख की सम भाषा;
स्नेह-दया की, प्यास-भूख की वही एक परिभाषा ।
सम है जीवन, जिजीविषा भी, जीवन-अंत सभी का;
बचपन-यौवन, सम है जर्जर ज़रा, सौख्य-अभिलाषा ।
चाहे जिस नौका पर बैठो, मिलता वही किनारा ।
मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा ॥
शोषण कर दुर्बल का सबने वैभव यहाँ समेटा,
पर जीवन से विदा-समय में केवल कफ़न लपेटा ।
सने हुए क्यों हाथ लहू में, ऐहिक छोडो स्वार्थ सकल;
कौन किसी की भार्या-भगिनी, भाई या फिर बेटा?
सुनता उसकी, जिसने व्याकुल चातक-सदृश पुकारा ।
मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा ॥
रचनाकाल-१० सितम्बर सन १९९२ (फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश )
[गीतगंगा(सप्तम तरंग)-अमलदार "नीहार" ]

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

"गूँगी चीख"

आज़ाद हिन्दुस्तान में चौराहे-चौपालों पर 
आज भी कचहरी दुः शासन की
होता है कच-हरण, चीर-हरण
पांचाली-सा दलित अबला का
(होती है अबला दलित ही दुर्योधनों की द्यूत क्रीडा में )
पग-पग प्रत्येक रंगशाला में कुदृष्टि कीचकों की
आये दिन देखने को मिलती
आततायियों की पाशव बर्बरता से लहूलुहान
आत्मा की तिलमिलाती तस्वीरें।
अपनी ही चीख की अनुगूँज से थर्राती हैं
गुमनाम अन्धी घाटियाँ अंतर्मन की,
न निकल पाता है सूरज कई दिनों तक,
चेतना चट्टान बन जाती है
और सोख लेती है सरसता जीवन की।
रिसते जख्मों को खरोंचते से सवाल जिज्ञासु जनों के-
शुभचिंतकों-सलाहकारों-सरकारी हाकिमों के-
" हाँ, तो फिर क्या हुआ आगे?"
कुरेदते हैं जर्राह की भाँति अधभरे घावों को,
बलात्कार का काल्पनिक सुख लूटने के लोभी
उतारते हैं जिस्म से बार-बार तार-तार कपडे
और अवश लाचार कोमलता निर्ममता पूर्वक
क्रूर यातनानुभूति के अन्धे गलियारे में ढकेल दी जाती है ।
एक मुर्दा आश्वासन कि " अब कुछ नहीं होगा"-
(बौखलाता सवाल कि होने को बचा है क्या कुछ अब भी?)
" कुछ नहीं करना है, बस पहना देना है
यह छल्ला उस भयानक साँड की सींग में,
जिसकी आँखों में देखी थी खूनी लालसा पहली बार"
उसके पैरों में बेबसी की बेडी -
न कहीं भाग सकती है, न रो सकती है,
न जाग सकती है, न सो सकती है,
सच उगलवाने के लिए खींची जा रही है जुबान उसकी।
उसने देखा कि जज, वकील व गवाह सारे
साँड की शक्ल में बदलते जा रहे हैं,
खूंख्वार कुछ भेड़िये-से,
छुट्टे सब के सब, टूट पड़ने को बेताब-बेआब।
थपथपाया किसी ने जैसे प्यार से पीठ बलात्कारी की,
बौखलाए बाघ की, दुराचारी की।
ईर्ष्या की धार से देखा किसी ने नराकार पशु को
और यह कैसी है अबला? क्या इसकी औकात?
किसी की आँख में उग आये काँटे, नुकीले दाँत ।
एक दुःखान्त दृश्य जो गुजर चुका है ,
कैंसर-सा एहसास दिल में उतर चुका है,
फिर उसी के रिहर्सल की तैयारी है,
भेड़िये आज़ाद हैं, न जाने किसकी बारी है?
"रोक सको तो रोक लो तुम सब,
न कलंकित करो कोख निज माताओं की"
गूँजती है आज भी धृतराष्ट्रों के सामने
उस अनाम अबला की गूँगी चीख।
रचनाकाल-१२-१०-२००२
[इन्द्रधनुष(साप्तम तरंग)-अमलदार "नीहार", पृष्ठ-१३६-१३७, प्रकाशन-२०११ ]

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

लालकिले का किराया

विराट व्यक्तित्व गाँधी का और उनका विलोम

भारत भा-रत अब कहाँ, गुजर गया गुजरात | 
झूठ-घृणा-हिंसा लता-तरु-प्रसून-फल-पात ||

गाँधी तेरे देश में अब आँधी-तूफ़ान | 
मिथ्याग्रह-आराधना, ठगना साधु समान ||

नीयत खोटी हो गयी दिल-दिमाग पाखण्ड | 
नए दौर व्यक्तित्व वह चमके सूर्य प्रचण्ड ||

भीतर-बाहर एक तू, जैसा चरित विचार |
अब विचार कुछ और है और पृथक व्यवहार ||

पका हुआ जीवन सतत सत्याग्रह की आँच |
आज सियासत में चले खेल तीन औ पाँच ||

नहीं किसी की चाह अब साधन-शुचिता-खोज | 
सबको सिद्धि-तलाश है, सच को फाँसी रोज ||

तन से तू कंगाल था, मन से मालामाल | 
उर-अंतस परमात्म-प्रभु, जीवन जिया कमाल ||

सच का दामन थाम दो कदम चले कुछ राह | 
जल्पक जिह्वा नीति को क्यों गाँधी की चाह ||

सत्याग्रह की मूर्ति नव बने सदी में एक | 
चरखा चक्र सँभालकर साधे सिद्धि विवेक ||

ब्रिटिश हुकूमत हिल गयी गाँधी नंग-धडंग | 
डरे नहीं जो काल से निस्पृह साधु मलंग ||

गाँधी सरल-सुजान अति, निष्ठुर-दया निधान | 
तपोपूत संयमधनी बनना क्या आसान ||

पावन जिसकी आत्मा पीड़ित जन-जन-प्रेम | 
मानवता सद्धर्म है वैश्विक मंगल-क्षेम ||


[ नीहार-नौसई-अमलदार 'नीहार' ]
०२ अक्टूबर २०१७

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

ग्रहण [प्रश्नपत्र-प्रादर्श-परिवर्तन और साहित्य का रसभंग]

काल-गुहागत विगतेतिहास-भल्लाहत
प्रयत वेद-वेदांग-सांगोपांग दर्शनायत
तर्कशास्त्र तलवार या विज्ञान-वितर्क-बरछी से
विभ्राट विचारों के टमटम में कविता-कामधेनु नाधेंगे?
भूगोल-बटलोई, अर्थशास्त्र-दाल गणित की कलछी से
लोकायत पसरी संवेदना किस चूल्हे पर राँधेंगे?
बाँधेंगे साहित्य के बछेड़े को-चेतना-चेतक को शैलूषवत !
तिमिर-तोम-पाँव में चाँदनी मंजीर मधुर, किरण प्रत्यूषवत !
चलने को मजबूर करेंगे राजनीति की रस्सी पर?
दिलों को चूर-चूर करेंगे राजनीति की रस्सी पर?
साहित्य में असीम वेदना-हलचल, अरुन्तुद उच्छल करुणा-जल,
श्रृंगार-वीर-हास्य-रौद्र-भयानक-अद्भुत-वीभत्स शांत-शीतल,
शोक-ओक लोकालोक-नियामक तृणाचिकेत आग राग-विराग,
दिगायाम विपर्यस्त शाखाएँ इस अक्षय वट की,
नानाविध विषयों के जल-जंतु, साहित्य-समुद्र का सैलाब,
गंगा-जमुना का द्वाब, संगम सरस्वती का,
साहित्य संकीर्ण पगडंडियों पर चलने का अभ्यासी नहीं
न भोग-भजिष्य, कविता किसी राजा की क्रीत दासी नहीं-
यूँ समझिये कि पिंड से ब्रह्माण्ड तक
विगतागत-अनागत के प्रत्येक प्रकाण्ड तक
जाग्रत चेतना का-महाचिति चिंतन चिरंतन का नवनीत
पृच्छा-विवक्षा-समीक्षा-दिदृक्षा-ममता-करुणा-त्याग-तितिक्षा,
माधुर्य-प्रेम पुनीत परमात्मलीन आत्मा का है सत्यसाक्षी गीत
सृजन की वरिवस्या है, वाणी पश्यन्ती है
रोदसी-आर्त रुत संयुत सावकाश उड्डीयमान कल्पना,
भरे प्राण-निकुंज अमेय आह्लाद, राग जयजयवन्ती है
मेघ-मन्द्र सावन सुहाग, भरे भादो से
मंद-मंद सौरभ-समीर, उर-विरह-पीर बासन्ती है |
न साहित्य को यूँ छेड़िये हुजूर!
शस्य-श्यामल स्वर्गीयाभा वप्र दूर-दूर,
कहाँ जाएगा 'अनभै साँचा' कबीर का
अनहद नाद, सहस्रार-निर्झर का अमृत निनाद-स्वाद,
साखी-सबद-रमैनी का अकथनीय मर्म,
कि ढाई आखर कौन समझेगा-समझायेगा अकथ कहानी प्रेम की?
सामाजिक रूढ़ियों पर चोट क्रांतिचेता कबीर की
कविता और वयनजीवी-करघे का अद्भुत आध्यात्मिक भेद,
नलिनी व कुम्भ-भीतर समरस ब्रह्म-जीव, कि एकरस पानी,
कैसे डालता है कोई 'ज्ञान के हाथी पर सहज का दुलीचा'
कि कैसे बुनी जाती है झीनी-झीनी सी चदरिया ये
कहाँ हुई गुम 'राम' नाम की जेवरी, दुलहिनी का मंगलचार?
कौन पता लगाएगा कबीर-काव्य की महमही कस्तूरी गंध-
सात समंद की मसि करने वाले कबीर का ब्रह्म-विचारसार-
गुरु-गोविन्द की एकता, माया महाठगिनी का कार्य-व्यापार
"आशी-दन्त उखाड़ने वाला काशी का वह जुलहा"
वो अन्तर-कँवल-भँवरा, मानसरोवर का हंसा |
अब नहीं लहरेगा रैदास की कठवत में गंगा का पानी,
राम नाम चन्दन में सुभक्त-मन पावन गंगा का पानी
कि सम्बन्ध बादल और मोर का, दीपक व बाती का,
मोती और धागे का, सोने और सुहागे का
स्वामी और दास का, राम और रैदास का |
जायसी का सुआ किसे बताएगा वह अनिंद्य सौंदर्य-
"नयन जो देखे कँवल भये निरमर नीर सरीर |
हँसत जो देखे हंस भये दसन जोति नग हीर ||"
रह जाएगी पिंजरे में बंद नागमती की वह अबूझ वियोग-व्यथा -
"पिउ से संदेसडा कहने वाले काग-भौंरे" के काले होने का मर्म,
कौन जानेगा एक सती का पावन प्रेम और त्याग-
"यह तन जारौं छार कै कहौ कि पवन उड़ाव |
मकु तेहि मारग उड़ि परै कंत धरैं जहँ पाँव ||"
डूब जाएगा अबकी बार पुष्टिमार्ग का जहाज,
कैसे पियेगा कोई भी जन सूर-सागर का भक्ति-रसायन,
कौन करेगा रसपान कान्हा की बाल-लीलाओं का-
माखन-चोरी का-चींटी काढ़ने का, उपालम्भ-गोपी को छकाने का,
मटका फोड़ने का, मुरली-माधुरी का, रीझने का-रिझाने का,
कौन बनेगा विरह-बावरी गोपियों की अबूझ पीर का साक्षी
निर्गुण पर सगुण विजय की निष्कम्प-निर्वात पताका,
कौन लख पायेगा रास-रहस्य राधा और रसिकबिहारी का,
रह जाएगी धरी की धरी लीलामयी बाँसुरी
कि मोहिनी मिठास पर रीझता संसार असार
नटवर नागर की विश्वराट लीलाओं का विस्तार,
रह जायेंगे तुलसी-मानस के सूने चारों घाट,
भटक जायेंगे ज्ञान-भक्ति व कर्मयोग के बाट
सूख जाएगी संत-समाज की गंगा-यमुना और सरस्वती
रह जाएगी अधूरी सी लोकमंगल की साधना
समन्वय की विराट चेष्टा कि अनन्य आराधना,
कौन जान पायेगा राम-नाम का अलौकिक मर्म,
भरत की भायप भक्ति, विनय-शील-धनी राम की शक्ति,
त्याग-तप-तितिक्षा-सिसृक्षा-धैर्य, साहस-विवेक-ज्ञान-वैराग्य-स्थैर्य |
बिहारी का श्रृंगार धरा रह जाएगा, विरह का अंगार धरा रह जाएगा,
बतरस-लालच लाल की मुरली छिपा सहास भौंहों का अनिर्वच सुख
कि नित्य नवोन्मेषशालिनी नवीन बाला का पल-पल सौंदर्य-निखार-
वह राग-रंग, अनंग अंग-अंग, हैरान-परेशान चितेरे गर्वीले हठीले,
कौन लाएगा खींच भरे दरबार में मिर्ज़ा राजा जयसिंह को?
बनेगा बिहारी कौन गागर में सागर उंडेलने वाला-
"कहलाने एकांत बसत अहि-मयूर-मृग-बाघ |
जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ ||"
कि अनमोल हीरा साहित्य का धूलि-धूसरित गुम हो जाएगा
और घनानंद की काव्यभाषा की वह बाँकी छवि !
भंगी भणिति अभिराम-विरोधाभास ललित-ललाम ,
मुँहबोले मुहावरे और रूपक-रूप-लावण्य-
"बिरही विचारन की मौन में पुकार है"-
"अन्तर उदेग दाह आँखिन प्रवाह आँसू"
"देखी अटपटी चाह भीजनि-दहनि है"
"बिरह समीरनि की झकोरनि अधीर, नेह-
नीर भीज्यौ जीव तऊ गुड़ी लौं उड्यौ रहै |"
"भस्मी बिथा पे नित लंघन करने वाली" मतवारी आँखें
'सुजान-ध्यान' में ही भक्ति-प्रेम का विस्तार समेटे
वह प्रेम-पपीहा, चाँद की चाहना करने वाला चकोर
कि जिसके यहाँ रीझ सुजान शची और पटरानी है
तो बेचारी बुद्धि मात्र एक दासी,
मौन के घूँघट में रुचिराभरण से दिपदिपाती
सरस सरसिज निज कोमल अंग समेटे "बनी बात की"
उर के भवन चित्त-सेज पर छिपकर बैठी रहती जो,
कौन चखेगा स्वाद घनानंद की प्रेमरस-सनी श्रृंगार-वधू सी ब्रजभाषा का?
रह जायेंगे धरे के धरे महाकवि भूषण के वीर रस-
रणरंग-रली, भली सरजा शिवाजी की पानीदार तलवार,
किसकी कविता में बहेगी यूँ वीरता की रसधार-
"साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धारि सरजा शिवाजी जंग जीतन चलत हैं "
"जहाँ-जहाँ भागति हैं वीर वधू तेरे त्रास तहाँ-तहाँ मग में त्रिबेनी होति जाति है"
न रहेंगे कबीर अपने ताने-बाने के साथ, न रैदास चन्दन-पानी के,
न जायसी की पदमावती, न रूप-रसमाते खंजन-नैन-सूर की राधा,
न वह तुलसी-कविकुलावतंस मानस का हंस,
न रसिक बिहारी-मुक्तक का गुलदस्ता,
न घनांनद की विरह-पीर, न भूषन का काव्य-रास वीर-
तो क्या बचा रह जाएगा साहित्य में-------?
-------और हमारे नौनिहाल नवागत पीढ़ी का बुरा हाल-
किनारे बैठ 'बिन बूड़े' जो डूब जाने वाले
रह जायेंगे महरूम साहित्य के खजाने से |
न जाने कब तक टलेगा ये ग्रहण, धूमकेतु-क्षण?
छलेगा साहित्य-लोक और साहित्यलोक |
क्रौंची के करुण विलाप पर
कविकण्ठ-समुद्भूत शोकमय श्लोक अरण्य-विलाप
फल रहा, फूल रहा दिगायाम निकुंज लता-प्रतान पाप,
कि छिपे हैं चारों ओर जांगलिक सत्ता के बहेलिये
साधे हुए विषमय विशिख सविशेष प्रक्षिप्त विक्षिप्त जीभ-ज्या से |
[हृदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार']
२८ सितम्बर २०१८

बुधवार, 26 सितंबर 2018

क़ानून खुदा के ढीले हैं

छाया चारों ओर अँधेरा, अन्धों की बन आयी है,
है कर्तव्य नपुंसक औ अधिकार जहाँ अन्यायी है ।
हर चेहरे पर एक मुखौटा, अपना कौन पराया है,
जीना हमको भी आता, कवि होता ही विषपायी है ।
जहाँ सभ्यता डरी हुई अभिमान एक बड़बोला है,
जड़ता की दृढ पकड़, प्रकृति में आडम्बर का चोला है ।
नीति जहाँ की निपट आसुरी, मुँह खोले क्या बोले कोई?
छल जाता है स्वार्थ मधुर, विश्वास बहुत ही भोला है ।
सदाचार तक घायल है, जो सज्जनता वह पंक सनी है,
दुरभिसंधि में मेधा जिनकी नागिन-सी लगती चिकनी है ।
विषकन्या की रसना-जैसी जहर-बुझी कटार-सी विद्या
पाशव प्रकृति वृत्ति मिथ्या मद दुरित दोषमय बुद्धि घनी है ।
साँपों की संतान मनुज में कुछ इतने जहरीले हैं,
डरते सॉँप, मनुजता के भी नेत्र नीर से गीले हैं ।
ऐसी बस्ती छोड़ त्वरित "नीहार", जहाँ पर देर बहुत
हो न भले, अन्धेर मगर, क़ानून खुदा के ढीले हैं ।
रचनाकाल-२८-०२-१०९२ (हरिद्वार-उत्तर प्रदेश, अब उत्तराखण्ड)
[इन्द्रधनुष(चतुर्थ रंग)अमलदार "नीहार" , वी0 एल ० मीडिया सोलूशन्स, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-२०११ ]

रविवार, 23 सितंबर 2018

नफरत के खिलाफ

"विधवा शहीद की"

 यह कविता तीन खण्डों में विभाजित है, इसका दूसरा भाग पढ़िए, जो  मौजूद भी है |

"सपनों के सिसकते साज : ड्योढ़ी पर जनाज़ा साजन का"
तुम्हारे गर्म होठों के पवित्र चुम्बन का एहसास बाकी है 
मेरे माथे पे बिंदिया की तरह, मेरे साजन!
सुवासित साँसें अभी तक-
मन-प्राण बसे प्यार की वह कस्तूरी गंध, 
एकांत क्षणों के सजीले मोती-
महकती यादों में छनकती चूड़ियों का संगीत, 
मेखला की मोहक तान, सुहाग-नूपुर की कलरव-लय, 
मेरे प्रियतम! बस एक बार छूना चाहती हूँ 
तुम्हारे वे तपते हुए गर्म होंठ, 
जिनसे आखिरी क्षणों में फूटा था 
"वन्दे मातरम" का गौरव-गीत कल प्रपात-सा | 
सो रहा है यह न जाने क्यों बच्चों का "टिक-टिक घोड़ा" 
न जाने कितनी 'किस्सी ' उधार बाकी है बचपन से 
वे तुम्हे चूमना चाहते हैं फिर एक बार-
देखो 'ना' मत कहना, 
उनकी आखों में रेगिस्तान का बवण्डर है 
और हिचकियों में सूनामी कोई, 
बहनों की वीरान आँखों से बहे जमुना और गंगा 
कँपकँपाते हाथों में लिए वो नेह का रेशमी धागा, 
बुरा हाल है बूढ़े माँ-बाप का-
चूमना चाहते हैं वे भी बेटे के स्वाभिमान का माथा, 
नहीं झुका सका जो दुश्मन कोई -
कि नहीं रहा अब कंधे पर, 
एक बात बताओ युग-पुरुष ! राजनीति-समर-शार्दूल!! 
तुम्हारा अकुंठित कंठ आज क्यों मौन है?
तुम्हारे ही सुप्त स्वाभिमान की तरह 
गायब है सीस मेरे स्वामी का, 
अब किन होठों का ताप महसूस करूँ अपनी उँगलियों से, 
किन बाँहों में आंसुओं के अंगारे बुझाऊँ?
सिसकियों के साज पर कौन-सा गीत गाऊँ?
कि अन्धी घाटियों में कौन सुनेगा पिक-प्राणों की पुकार?
किस झूले पर पेंगें भरूँगी अबकी बार सावन में?
बच्चों की उधार 'किस्सी' अब कौन चुकाएगा प्यार की?
फटते कलेजे का दर्द लिए बूढ़े माँ-बाप अब किसका माथा चूमें?
सिवान पूछते हैं गाँव का हाल कि लोगों की आँखों में सुलगते सवाल | 
चिता की गर्म राख अटी पड़ी है मेरे रेशमी कुन्तल में, 
मेरी मुट्ठी में बीते लम्हों की गर्म रेत, 
गुंजायमान जिस दालान में किलकारी, ठहाके, रसभरे चुटकुले-
उमंग-मृगछौनों की उत्फुल्ल छलाँग-जो घायल कराह में तब्दील,
कि बुझ चुका है ज़िंदगी के अँधेरे का जलता हुआ चराग 
पसरा है मातम चीख-पुकार, क्रंदन हजार कंठों का | 
इतने आँसुओं की चीत्कार-दिल की पुकार सब-
सो नहीं सका है यह कवि भी पूरी-पूरी रात, 
कानों के परदे फटे जा रहे इसके 
सुनकर टूटती चूड़ियों का वज्रघोष 
और अब बदल रहा है यह भी अपने को
ध्वनिधर्मा आकाश, सर्वंसहा रसा, गन्धवह पवन-प्राण 
की पावन पावक जीवन-जलदेवता साक्षी 
"राष्ट्रकवि" की पदवी हेतु योग्यता की चाह में-निज नायक की राह में |
संयमधना शुचितापस ! हे कीर्तिकूट नीति-विशारद ! चिरयुवा हे राष्ट्रऋषि! 
तुम्हारी यह चुनी हुई चुप्पी अहले-वतन के सीने पे दाग है 
कि हमारे दिलों में दहकती हुई हकीकत-उल्फत की आग है,
कैसे कर लें यकीं कि नूरे-नज़र सब्ज शजर हमारा चाक हुआ 
कि हैवानियत के हाथों सरज़मीं हिन्द का ये बेटा हलाक़ हुआ?
सुना है किसी विधवा का गूँगा विलाप तुमने
कि जीवन भर का संचित अभिशाप देखा हैं?
महसूस किया है लम्पट ज़माने का ज्वालामुखी संताप? 
कहूँ क्या मैं कवि को रवि से खद्योत तक पसरा हुआ चारण है, 
जाग उठे तो ब्रह्माण्ड उसकी मुट्ठी में, सोये तो पराजितप्रण है, 
क्या माफ़ करेगी भारतमाता ऐसे महाकवि को, 
या पसारेगी आँचल ममता का, भारती भी कभी?
धिक्कार है! धिक्कार है!! धिक्कार है !!!
वाग्भट्ट शिरोमणि ऐसे महाकवि को
और मूर्धाभिषिक्त आडम्बर-प्रतिमानों को???

रचनाकाल : ०३ मई, २०१७ 
[मेरी कविताओं में स्त्री-अमलदार "नीहार"| 
शीघ्र प्रकाश्य 

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

कौन भला इन्साफ करेगा?, रोटी की दरकार



बदलते समय की छाती पर अंकित काले इतिहास को यदि ठीक-ठीक निरखना और समझना हो तो इतिहास की पुस्तक नहीं उनका साहित्य पढ़िए, जो सत्ता के तलबगार नहीं, मतलब के बीमार नहीं, बल्कि आम आदमी के दुःख-दर्द के साझीदार है |

अमलदार 'नीहार' की दो रचनाएँ :

१५ नवम्बर २०१६ की रचना-
             {1}
कौन भला इन्साफ करेगा?

काला जादू, "ला-ल्या जादू"
और "विजय की माल्या" जादू,
जादू ठीक ठिकाने का है
जन-धन सब हथियाने का है |

बीबी के बटुए से निकला,
दादी के तकिये से निकला,
गुल्लू के गुल्लक से निकला,
दादा के रल्लक से निकला |

साड़ी के बक्शे से निकला,
चिल्लर कितना! कैसे निकला?
सींग सभी के, सबके थी दुम
सभी चोर थे गुमसुम-गुमसुम |

जो लाइन में लगे हुए हैं,
बेईमान सब, ठगे हुए हैं-
जनसेवक परधान चुना था,
छैलछबीला, जान चुना था |

चार बार परिधान जो बदले,
कहा-सुना ईमान जो बदले |
नहीं ग़रीबों का वह बाबू!
मीत सेठ का, मन बेकाबू !

पीठ तुम्हारी चाबुक मारे
बार-बार डण्डा फटकारे |
बहुरुपिया बहुरुपया पीटे,
हमें बनाकर मूर्ख घसीटे |

आँखों पर जाले हैं सबके,
रोटी के लाले हैं सबके |
रोजी या रोजगार कहाँ है,
सुख-सुकून का सार कहाँ है ?

बोलो ये रखवाले किसके?
कहाँ जुड़े हैं प्याले किसके?
किसके संग ठिठोली किसकी?
हमदम या हमजोलो किसकी ?

अब तो कुछ पहचानो भाई!
कब तक थिगली, वही रजाई!
कब तक आँसू, कब तक आहें?
सुन लो पीड़ा भरी कराहें ?

बहुत बुरे दिन आने वाले,
हिम्मतवाले! ओ मतवाले!
तेरा भी घर 'साफ़' करेगा,
कौन भला इन्साफ करेगा?
[हृदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार']

                    {2}
रचनाकाल : २८ जनवरी, २०१७


                     रोटी की दरकार

दूर------जहाँ तक दृष्टि, वहाँ तक, उसके भी जो पार,
महाकाय यह सृष्टि निरखता अविरल पलक पसार |
सृष्टि एक थाली हो मानो, उसमें ठण्डा भात-
चटक चाँदनी पसरी, लगती तारों की बारात ||

माखन-चुपड़ा गोल-गोल यह रोटी जैसा चाँद,
सिरका-कटहल-आम फाँक-से काले हैं एकाध |
बिखरे तारे बुनिया जैसे, दुनिया भी  रमणीक,
जाग रहे कलुआ का सपना-आयी तब तक छींक ||

कालू के बेटे 'कलुआ' को लगी हुई थी भूख,
थिगली लुगरी-लिपटी 'रधिया' काँटे जैसी सूख |
बथुआ-सरसों खोंट-खाट ले आयी बड़के खेत,
रूह काँपते थर-थर, लगते बड़के ठाकुर प्रेत ||

सुबरन के कौडे से लाया कालू आलू चार,
राख लगे से कच्चे-पक्के चोरी का उपहार |
तालू जले 'सपर-सपर' तब दो आलू चटकार,
कलुआ बोला-"बापू ! इसमें माई हिस्सेदार ||"

हिये हूल-सी भर-भर आँसू रोये रधिया-आँख,
"मरें भूख से निपट मजूरे, टूटि गए सब पाँख |
पेट गरीबी जनम-जनम कै बुझै न जइसे आग,
नींद न रतियौ भोरहरियै से चिरई-चुनमुन भाग ||"

"डाग्डर बाबू के बिल्डिंग में किहे काम दिन बीस,
दिए न फूटी कौड़ी फुटकर लगे निपोरै खीस |
पाँच-पाँच सौ नोट पुराना, लाग करेजे चोट,
ओढ़ी याकि बिछाईं ओकराँ, छलिया जइसन नोट ||

लिए हाथ में नोट, हजारों लोग शहर या गाँव,
किसे मुरौव्वत कौन करै का? नहीं ठिकाना-ठाँव |
आठ दिना तक चक्कर काटे, मेला लागै बैंक,
बैंक न कउनो काम क रधिया, जैसे पैटन टैंक |

बहुरुपिया ऊ टेसुआ गारै किसिम-किसिम कै सूट,
देस-बिदेस उड़न-छू, हम सब कीड़ा ओकरे बूट ||
केहू हमरा रकत पियत बा, हम तो माहुर-घूँट,
जब से आया झूठ-लबारी, मची है बमचक-लूट ||

लगा-लगा भर दिन लाइन में अपना जोड़ीदार,
रमुआ सुबह-सबेरे मरिगै, तड़प रहा परिवार |
ई जिनगी से छुट्टी पाएस", रधिया-उँगली होठ,
लगा कलेजे कलुआ-कालू-जीवन-धन, क्या खोट ||

"फिर अब ऐसन बात न कहिया, किरिया खाउ हमार,
कलुआ हमरा हीरा-मोती, बाघिन ई सरकार |
जमा न कौड़ी जनधन-खाता, करबै भ्रष्टाचार?
चाँद-चकोरी हम का जानी, रोटी की दरकार ||"

[ह्रदय के खण्डहर-अमलदार "नीहार"]

शनिवार, 8 सितंबर 2018

'लोहा'

धूप-सँवलायी ज़िंदगी की राह में
चुटकी भर सुकूँ-सम्मान की चाह में-
उम्र-थके पाँव, अश्रु-छके भाव,
मगर इस जिद्दी घोड़े ने मुख नहीं मोड़े
न कभी दम तोड़ेगा मंज़िल चूमने से पहले,
चखा है खूब 'लोहे' का स्वाद छककर
न रुका पल एक भी विश्राम को, थककर |
घुल चुका है 'लोहा' लहू में-बेकली भी,
दिलरुबा-सी कोई दिल में, दिलजली भी,
बहुत विनम्र प्रार्थना है मेरी
कि दोपाये भी न जाने कितने जीते हैं
इस घोड़े से बदतर ज़िंदगी
व पालते हैं ख़्वाब बेबुनियाद,
जानते हैं वे भी खूब 'लोहे' का स्वाद-
कि घोड़े में-लुहार में और रचनाकार में बहुत फर्क नहीं,
ये तीनों ही जानते हैं भलीभाँति लोहे का स्वाद,
लोहा लेते हैं-बेरहम ज़माने का प्रसाद |
लुहार भी धधकती आग में सँग लोहे के
पिघलता-तपता-खपता-दहता-सहता
रोम-रोम स्वेद-सीकर-लथपथ अविरत
उगलती हैं शिराएँ लहू का नमक होठों तक
धार-धार माथे से बार-बार बरौनियों में उलझी हुई बूँद
टप........ टप टपकती ही जाती है धरती पर
जीवन की परती पर
बँधा हुआ गुर्बत का गर्वीला हाथी,
उखड़ती हुई साँस ज्यों मुई खाल की भाथी-
जिसके इस्पाती जिस्म की किणांकित सधी मुट्ठियाँ
हथौड़े का वजन जानती हैं और वज्रबाहु भी विशाल घन का
तपती हुई भट्ठी में-दहती हुई भट्ठी में
लकालक गर्म सुर्ख लोहे पर
कहाँ-कहाँ कितनी बार छिटकती गर्म चिनगारियों के बीच
कैसी-कैसी चोट खानी पड़ती है-
देनी पड़ती है चोट दाँतों के बल, उसे ही मालूम है.......
मनोवांछित आकारों में ढलता-उसी के पसीने से पिघलता
लोहा भी जानता है बहुत खूब
उस लुहार की मेहनत और मेहनत का प्रतिफल भी
वही है, जो लोहे को निज लहू-पसीने से
पानीदार तलवार बना सकता है
तो बूढी दादी की टक-टक आँखों की सधी सूई भी,
जिसके छेद से प्रेम के धागे ही नहीं
रेगिस्तानी जहाज और मुसीबत के पहाड़ भी
पार हो जाते हैं कभी-कभी |
लुहार लोहे से बन्दूक भी बना सकता है और फाल भी,
आखिर इस कठिन काल में
देश को जरूरत किस चीज की है-
बन्दूक की या हल के फाल की?
भाले की-बर्छी की, कटार की या खुरपी की?
हँसिये की-फावड़े-कुदाल की?
धनुष के वाण की या तनुत्राण की?
विनाश की या लोक-कल्याण की?
तलवार की या सूई की,
जो निकाल सके काँटे जनम-जनम के
इंसानियत के पाँव के-जंगल के घाव के |
रचनाकार भी इक घोड़ा है और लुहार भी
जानता है पेट की भूख और पीठ सहलाते हाथ का प्यार भी,
जो बिना नाल-ठुके घोड़े की तरह
निर्मम त्रिकाल लम्बी सड़क पर दौड़ लगाता है अविराम,
कविका-विहीन नहीं है कवि भी, आठो याम
उदीयमान रवि-सा, धधकती संवेदना-भट्ठी में
लुहार की तरह अजस्र वेदना-ताप तपता-खपता-दहता-सहता
शब्दों के गर्म लोहे को नया आकार देता है
अंतस की आँच में अनुभव-अयस साँच पकता है-
आँवे-सा, पुटपाक-संकाश बनाने को व्यंजना-रसायन |
वह सयानी बेटियों के कर्जखोर बाप की
जागती उदास आँखों में बीमार ख़्वाब की बुनावट पढ़ता है-
गढ़ता है एक मार्मिक छवि दृग-निर्झर की तूलिका से,
सुनता है दहेज़-लोभियों के बेमुरौव्वत जवाब दो टूक,
महसूसता है बाढ़-डूबी फसल निहारते
निहोरी के किसान कलेजे की उछाल मारती हूक,
भोली भावुक कैशोर्य-लता चम्पा की अधकचरी चूक-
दोनों के दिमागी गुहांधकार में
रेंगते साँप-बिच्छुओं की डंक-डूबी चीत्कार,
फाँसी के फन्दे की मजबूती निरखती डबडबायी आँखों में
भीतर से बाहर असीम उमड़ता हाहाकार
व फूल से सुकुमार सपनों की मौत का निर्व्याज साक्षी,
वह बेबस रूहों की लाचार अबूझ तड़प जानता है
और आँखों से अनायास बह आये, कपोलों पर ठहरे
तप्त बेहिसाब आँसुओं का वजन भी |
लोहा लेता है भीतर के घूर्णावर्त दबावों से
बाहर के दिगायाम क्रूर-कातिल हवावों से,
पर अपने किरदार को कभी अकेला नहीं छोड़ता,
वह बलात्कार का शिकार मासूम कोमलता के
अशब्द बयान का अकेला श्रोता,
अश्रु-बोझिल साँस की डूबती साँझ का चितेरा-
उसके वजूद के अछोर पोर-पोर दर्द का व्याख्याता |
वह अस्पताल के नंगे फर्श पर छटपटाती बीबी के लिए
बढ़ी धड़कनों के साथ कल्पान्त लम्बी कतार में
सूखे मुँह-मजूरे की टूटती लय-ज़िंदगी का मूक द्रष्टा,
आदमखोर व्यवस्था की ठेकेदार बाघिन
और स्वर्ग-नरक के बीच अधबने भ्रष्टाचार-पुल-नीचे दबी
पिचकी-सी गाड़ियों में दबी हँसती-खेलती दुनिया को
लोथड़ों में तब्दील होते देखता है-
जी नहीं सकता रचनाकार कोई भी सच्चा-इंसानियत का बच्चा
पल-दो पल जीवन के-चैन से ऐसे दृश्यों के रू-ब-रू |
रचता है भले ही स्वान्तः सुखाय "घर-घर अनाथ-गाथा",
पर बच पाता है केवल 'लोकहिताय' बनकर सुरसरि-समान |
मैली गंगा को उपमान बनाकर
किसी की नीयत का मजाक उड़ाना
हो सकता है अपराध इस दौर में-
कि प्रकृति के पाँव में बेड़ियाँ डालने वालों ने
गंगा का गला घोंट दिया है,
कवि का एक-एक शब्द विप्लव के बीज बो सकता है-
वह जानता है अपने सुख को, मगर दुःख में सानता है,
लोहा लेता है डरे हुए लोगों से-मिट्टी के शेरों से-
सियासत-सरदारों से-कैतवकला-प्रवीण किलेदारों से,
चालाक लोमड़ियों से-रँगे हुए सियारों से,
सत्ता की रखैल निष्ठा से, पुरस्कार-प्रतिष्ठा से |
सच सलीब है ईसा की, सुकरात का हेमलाक-साजिश खौफनाक
महात्मा बुद्ध की वाणी, गाँधी का-अब्राहम लिंकन का आत्मनिर्णय,
सचाई के लोहे को शब्दों के साँचे में ढालना
और पश्यन्ती को वैखरी बनाना
इस ज़माने में बहुत ही मुश्किल काम है और खतरनाक भी |
कबीर का करघा नज़रबंद है, प्रेमचंद पर टेढ़ी नज़र,
मंटों पर मुकदमे तमाम, मुक्तिबोध पर पाबंदी
किशोरीदास वाजपेयी, उग्र, निराला गुस्ताख़,
अब बुलबुल के गीतों की कहाँ बची साख,
गाँव-गली, शहर-शहर, नदियों में, वादियों में
उड़ रही आदमी के वादों की अस्थिशेष राख,
लैली पे सवार भूषण का छंद कितना आत्मघाती-
की "सौ-सौ चूहे खाइ के बिलाइ बैठी तप को"
करता न रहे आवारा कोई तुकबंदी,
नाम दूसरे के ज़मीन-आयी चकबंदी-
'कातिल-कसाई-क्रूर कलिकाल जप को'
यही युग-सत्य है-विनाश का अपत्य है,
क़ानून की नसबन्दी और हमारी हदबन्दी |
हमारी चादर को कुतर रहे हैं दो चूहे श्वेत-श्याम
और मैं साँसो के बीमार धागे से
करता ही जाता हूँ रफू उसे बारम्बार,
हमारे आस-पास पसरे हैं कुछ बहुत ही खूँख्वार शब्द
कि शब्दों के रेशमी छिलकों में जहरीले अर्थों के अन्धे वायरस
जो फैलते ही चले जाते हैं समाज की नस-नस में,
उन शब्दों को घूँटने के सिवा कोई चारा नहीं,
पर कोई भी शब्द-बीज
बिना अंकुरित हुए रह नहीं सकता-
फूट निकलते हैं फफोलों-से,
रिसते हुए अनगिन घावों से रक्त-मवाद की तरह
कि दिल में कोई नासूर हो जैसे,
टीसता हुआ दर्द भरपूर हो जैसे,
शब्दों के मरहम लगता हूँ,
शब्दानुशासन के गीत जाता हूँ,
शब्दों का रेशा-रेशा हमारे काम आता है,
शब्दों की दुनिया में दर्द बेदाम आता है |
शब्दों के इस महाजंगल में
कुछ शब्द भेड़-बकरी-से बन गए पालतू,
कुछ कुत्ते और बिल्ली-से शेखचिल्ली से,
कोई रंगा और बिल्ला, किकियता हुआ पिल्ला,
कुछ शब्द खूँख्वार भेड़िये-से तो कुछ दरिन्दे-से
कुछ तो हैं चील और बाज-से, घायल परिन्दे-से-
फाड़ खाते हुए, गुर्राते हुए, चीखते हुए-चिचियाते हुए
दाँत निपोरते, सलाम ठोंकते, नाक रगड़ते, शेखियाँ बघारते-
........और इन सभी संशयग्रत खौफनाक ध्वनियों से
लोहा लेते हुए, लोहे का स्वाद चखते हुए
मुझे तो अकेले खड़े रहना है उन्नतग्रीव
भर स्वाभिमान सीने में, स्थिर टाँगों पर
अविचल धैर्य और तितिक्षा के साथ ताकयामत
कमजोर कन्धों के साथ निज धर्मरत-कर्मरत,
यही तो निज जीवन-संसार, जीने का सार
बिन लोहे के भी है ज़िंदगी बेकार |
हमारी आह में लोहा, हमारी राह में लोहा,
हमारी भूख भी लोहा, हमारी प्यास भी लोहा,
लोहा-लोहा, सिर्फ लोहा |
[ह्रदय के खँडहर-अमलदार 'नीहार']
शीघ्र प्रकाश्य

'जगमगाना सीख लो'

बुधवार, 5 सितंबर 2018

गुरु-गरिमा

सकल विश्व में व्याप्त समुज्ज्वल जिसकी गौरव-गाथा,
पद-पंकज पर नत है जिसके देवाधिप का माथा ।
बाँट रहा आलोक अनिर्वच, कुहू शारदी राका,
दिग-दिगंत में गगन-भाल पर उसकी ज्ञान-पताका ।
छँटी कालिमा भीतर तक के तम सब दूर भगाए,
'जिसकी महिमा से ज्योतिर्मय जग सबने ही गाये ।
ज्ञान-शिखा को आत्म-स्नेह से सिंचित जो कर जाता,
अन्वयगत निज न्यास ज्ञान को धरती पर धर जाता ।
माया-मोह कुटिल कल्मष तक जितने, सब धो देता,
निर्विकार कर मन में शुचिता धी-विवेक बो देता ।
जीव-जगत औ परम ब्रह्म की तत्व-गाँठ जो देता खोल
वाणी सदा अक्षरा उसकी होती सम पीयूष अमोल ।
बिना ज्ञान व्यक्तित्व मनुज का होता जैसे जड़-पाषाण,
शिष्य-मूर्ति है रचना उसकी, भरता है वह जिसमें प्राण ।
निज प्रज्ञा की छेनी से जो देता रूप रंग-आकार,
बाहर-भीतर समरस गुरु वह, मानवता जिसने साकार ।
जो था शिष्ट वशिष्ठ कभी, जो ऋषि था निर्मल पावन
जिसके सारे कार्य लोक-हित, करुणा के अनुधावन ।
कालांतर में कौशिक-भार्गव और द्रोण तक आयी,
परम्परा जो धीरे-धीर लगती खोट दिखाई ।
गुरु-गरिमा भी हुई कलंकित, विद्या-प्रतिभा क्रीता,
कह पायेगा और कौन जो एकलव्य पर बीता ।
या फिर सूर्यतनय की आहत अविचल श्रद्धा-पीड़ा
छला जिसे था सबने, कितवा स्वयं जननि की व्रीड़ा ।
कालपुरुष कौटिल्य कुलाल ने गढा सुभाजन एक,
तिरस्कार की मिट्टी से जनरंजन राजन एक ।
चन्द्रगुप्त व्यक्तित्व सुगढ़ थी परिणति जिसकी प्रज्ञा की
देश-दुर्ग-प्राचीर प्रांशु जो रोके छल-बल आँधी ॥
शंकर, स्वामी दयानंद थे, रामकृष्ण गुरु ऐसे,
सकल विश्व को दिए विवेकानंद विभूति वे जैसे ।
गुरु वह, तिमिर-भाल पर निश्चय ऐसी ज्योति जलाये,
जो जीवन को नयी दिशा दे, झंझा झोंका खाए ।
कृपामोघ मिल जाए जिसको, कालपुरुष बन जाता,
कृपाकन्द गुरु बिंदु-योग से सागर-सा लहराता ।
कवि-कोविद की वाणी में है गुरु की बहुत बड़ाई,
गुरु है स्वयं जनार्दन, जिसकी जग ने गरिमा गाई ।
गुरु है गुरु, 'नीहार' ब्रह्म भी बौने जिसके आगे
बुनते शिव-सुन्दर समाज ऋत सदाचार के धागे ।
वह गुरु भौतिक भोगों के हित जब पूरा बिक जाएगा
समझो मानवता अपंग, नर कहीं नहीं टिक पायेगा
रचनाकाल-११ फरवरी १९९४
[इन्द्रधनुष-अमलदार 'नीहार]
दिनांक ०५०९-२०१८

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

नीहार-हज़ारा के दोहे-

कौन बने मल्लाह?

बलात्कार की बाढ़ में टूट चुके सब बाँध।
डूब मरी है सभ्यता, भरे भँवर अपराध।। ४२० ||


मानवता की लाज की टुकडे़-टुकडे़ नाव।
छीज गयी संवेदना, बँटा हुआ सद्भाव।। ४२१ ||


बिका हुआ ईमान हो, कातिल करुणा-प्रेम।
रक्षक भक्षक हो चले, कहाँ कुशल, कब क्षेम।। ४२२ ||


राजनीति के दुर्ग में मिले ठिकाना-ठौर।
फल रसाल के खा सको, तरु बबूल के बौर।। ४२३ ||


मंत्री साझीदार जब, चकलाघर आबाद।
ओले जैसे आ गिरे, खड़ी फसँ बर्बाद।। ४२४ ||


गिरी ताड़ से आ लगी अटकी पेड़ खजूर।
कोठा-कोठी एक से रक्षित कहाँ हुजूर।। ४२५ ||


तुमने पूजे पाँव भी, दिये कठिनतम घाव।
इस मानव का, हे प्रभो! कितना जटिल स्वभाव।। ४२६ ||


मानव दानव हो गया, बिच्छू बना समाज।
कुछ विषधर भी पा गये सत्ता के सुख-साज।। ४२७ ||


चिकने-चुपडे़ चेहरे, रूह मगर शैतान।
जतन हजारों हो गये, नहीं बना इन्सान।। ४२८ ||


कहाँ सुरक्षा मिल सके, हम तो पिंजर-कीर।
रूह दफा कब की हुई, केवल कीच शरीर।। ४२९ ||


जो अबोध-सी बालिका, उस पर गिरे पहाड़।
राजनीति निर्लज्ज -सी, सजी-धजी ज्यों राँड़।। ४३० ||


आँसू दृग में अब कहाँ, सूख चले अरमान।
सजे कलाई, कौन फिर उसका भाईजान।। ४३१ ||


जहाँ सुरक्षा मिल सके, मिटे सकल संत्रास।
प्रेत वहाँ पर डोलते संरक्षण-आवास।। ४३२ ||


यू-पी एम-पी या कहूँ बिगड़ा हुआ बिहार |
दो नारों के बीच में नारी का संहार || ४३३ ||

मचा हुआ है देश में कैसा हाहाकार।
पीड़ा-पारावार की लहर लोल, नीहार।। ४३४ ||


जो विकास की वल्लरी, जिससे सृष्टि-वितान |
बचपन संकट से घिरा, तृणावर्त तूफ़ान || ४३५ ||

रुद्ध काल-गति युद्धमय, क्यों बुद्धत्व-विकास |
मानवता के ह्रास का यह नूतन इतिहास || ४३६ ||

कौन सहारा दे सके, कातर करुण कराह।
कठिन काल विश्वासमय कौन बने मल्लाह।। ४३७ ||

[नीहार-हजारा-अमलदार नीहार]