शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

[रघुवंश-प्रकाश( रघुवंश महाकाव्य के काव्य-निबद्ध भावानुवाद-अमलदार नीहार) में चयनित श्लोकों की व्याख्या, पृष्ठ-२३-२४ ]

प्रशमस्थितपूर्वपार्थिवं कुलमभ्युद्यतनूतनेश्वरम्।
नभसा निभृतेन्दुना तुलामुदितार्केण समारुरोह तत्।। १५।।(अष्टम सर्ग)

भावार्थ : उस समय सूर्य वंश उस आकाश के समान सुशोभित हो रहा था, जिसमें एक तरफ चन्द्रमा अस्त हो रहे हों और दूसरी ओर सूर्य उदय हो रहे हों, क्योंकि एक ओर राजा रघु संन्यास लेकर शान्तिमय जीवन बिता रहे थे, दूसरी ओर अज राजगद्दी पर विराजमान थे |

दृष्टि-उन्मेष : सारा जग परिवर्तन के हाथों का खिलौना है | यहाँ सब कुछ परिवर्तनशील है | शाश्वत सत्य चिरन्तन तो एक ही है-वह परब्रह्म, विराट चेतना | दृश्यमान संसार का प्रत्येक प्राणी, प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ उसके हाथों की पुतली है-उसी के इशारों पर नर्तन करने वाली कठपुतली और स्वयं वह अदृश्य बना रहता है | उसकी प्रेरणा या इंगित से सब कुछ बदलता रहता है | कलियाँ खिलकर पराग-पूरित पुष्प बन जाती हैं और फिर मुरझाकर धूलि में मिल जाती हैं, फिर नयी कलियाँ-नए फूल | बदलते मौसम के साथ सब कुछ बदलता रहता है-कभी शुष्क रेगिस्तान-सी तपती धरा और कभी शस्य तथा विटप-वनस्पतियों की हरीतिमा से आच्छादित वधू-सी सौन्दर्यमयी पृथ्वी का आँचल | इसी परिवर्तन में प्रगति है | बिना परिवर्तन के प्रगति सम्भव नहीं | इसलिए उल्लासमय बसन्त यदि स्वागत योग्य है तो पतझड़ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है-वह नई कोंपलों की पृष्ठभूमि है, कोकिल की संगीतशाला-लतानिकुंज और आम्र-मंजरियों की पूर्व पीठिका है | सुख का सम्भार दुःखानुभूति से ही सम्भव है, अन्धकार के कारण ही प्रकाश की सत्ता की स्थापना होती है | जीवन और मृत्यु परस्पर अविच्छिन्न भाव में रहते हैं | उदय और अस्त एक ही दृश्य के दो छोर हैं | प्रस्तुत श्लोक की घटना इसी प्रकार की है | महाराज रघु ने राज्य का त्याग करके संन्यास धारण कर लिया है और वे शान्तिमय जीवन बिता रहे हैं | दूसरी ओर पुत्र राजसिंहासन पर विराजमान है | सूर्य कुल इस समय ऐसे आकाश की तरह विद्यमान है, जिसमें चन्द्रमा का अस्त हो रहा है और सूर्योदय की अरुणाभा प्राची दिशा को अलंकृत कर रही है | वृद्धावस्था को प्राप्त संन्यस्त रघु अब अस्ताचलगामी चन्द्रमा प्रतीत हो रहे हैं | चन्द्रमा सूर्य से ही प्रकाशित होता है | सूर्यकुलोत्पन्न होने के कारण रघु  भी कभी सूर्य समान तेजवान थे | अब वे ढल चुके हैं-निष्प्रभ हो चुके हैं | इसलिए चन्द्र तुल्य हो गए हैं | जनता   को नए सूरज का नया प्रकाश चाहिए-नयी आशा और नए सपनों का प्रकाश-पुंज | यह प्रकाश अब अज के रूप-लावण्य और पौरुष-पराक्रम के रूप में विद्यमान है | महाकवि माघ ने भी रैवतक पर्वत के दोनों ओर अस्तंगत चन्द्रमा और उदीयमान सूर्य की शोभा को मत्तगयन्द के दोनों ओर लटकने वाले दो घण्टों के रूप में देखा है | इसी कारण उन्हें 'घण्टामाघ' कहा गया है | कालिदास की यह उपमा कम रमणीय नहीं है | तारुण्य और जरावस्था के लिए दोनों उपमान अधिक अर्थवान हैं |

[रघुवंश-प्रकाश( रघुवंश महाकाव्य के काव्य-निबद्ध भावानुवाद-अमलदार नीहार)  में चयनित श्लोकों की व्याख्या, पृष्ठ-२३-२४ ]
राधा पब्लिकेशंस
४२३१/१, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-110002
प्रकाशन वर्ष : 2014 

बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

कौन बचाये देश?

मक्कारी के मकड़जाल से कौन बचाये देश?
वृक बर्बर की चतुर चाल से कौन बचाये देश?
जालिम झूठे क्रूर काल से कौन बचाये देश ?
दुर्विपाकवाश बुरे हाल से कौन बचाये देश?


न्याय भीत, क़ानून खिलौना, गिरवी है ईमान,
कौन कहाँ दे शरण किसे, जब साँसत में भगवान |
चीख रहा है सत्य सड़क पर घायल लहूलुहान,
धर्म सुरक्षित कहो कहाँ फिर, समय बड़ा शैतान ||


आजादी की स्वप्न-सड़क पर लोकतंत्र की लाश,
शासन की बन्दूक, निशाना माँ जब, सत्यानाश |
कल की बिल्ली दिल्ली बाघिन नोच रही है माँस,
झूठ-कपट, आश्वासन-भाषन-पत्ते बिखरे ताश ||


सहमी-सहमी मानवता ज्यों, चहुँ दिशि हाहाकार,
'मारो-काटो' का हल्ला है, लूट रही सरकार |
नहीं सुरक्षित जीवन-वैभव, इज्जत, सब पर मार,
भारत माता द्रुपद-सुता, हरि हरे पीर 'नीहार' ||

रचनाकाल : १३ जनवरी, २०१८
बलिया, उत्तर प्रदेश
[जिजीविषा की यात्रा-अमलदार 'नीहार' ]

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

पैसा! पैसा!! पैसा!!!

पैसा मन की भूख है, पैसा माई-बाप | 
रिश्ते-नाते, बन्धु भी, कपट-कसाई पाप || २२६ ||
रिश्ता रिसकर बह चला, पैसा-पैसा रेत |
दृग-दरिया में बाढ़-सी, सूखे दिल के खेत || २२७ ||
पैसा कैसा हो गया दूषित जमुना-नीर |
रमे प्राण-मन-चेतना रोगी पिंजर-कीर || २२८ ||
पैसा-पानी एक से, सूखे कल्मष-कीच |
दानी-कर में पुण्य-फल लहे पाप जो नीच || २२९ ||
कालानल की आँच में रूपा-रुपया-रूप |
रह जायेंगे एक दिन माटी-पानी-धूप || २३० ||
मृग-मरीचि की प्यास ज्यों दावानल की भूख |
बने दीन-से हंस कुछ वाहन रमा-उलूक || २३१ ||
अन्यायालय हो गए न्याय-सदन शत प्रेत |
सही-गलत हर काम का पैसा ही अभिप्रेत || २३२ ||
सबको सब ही मूँड़ते बगुले-कौए-चील |
साँसें बेदम हो गयीं चलकर अन्धे मील || २३३ ||
पैसा भी तो बह गया, बचा न फिर भी प्यार |
पैसा किसका बन्धु है, पैसा किसका यार || २३४ ||
अमला कमला कीट-सा रचे खेल अभिराम |
खेत किसी के नाम का, चढ़ा किसी के नाम || २३५ ||
छूट लूट की हर जगह, पाले सभी डकैत |
मोटी फ़ाइल-शब्द कुछ, जिनके अर्थ करैत || २३६ ||
ऊपर-नीचे एक लय, रिश्वत की जंजीर |
कठिन कचहरी-पाँव में पैसे की मंजीर || २३७ ||
बचा न कोई प्यार है या जीवित विश्वास ||
बूँद शहद की जीभ पर, कह न जाय संत्रास || २३८ ||
झूठ बहुत बहुरूपिया, सच भी काली जोंक |
सेज पीर-परिरम्भ यह करुणाप्यायित शोक || २३९ ||
अधिकारी अधिकारि-ज्यों बेकाबू-से क्लर्क |
मंत्री मन्त्र-विहीन हैं, कार्यालय सब नर्क || २४० ||
लीला भी क्या राम जी! है असार संसार |
रहे जूझ सब, लेखते निर्निमेष 'नीहार' || २४१ ||
रचनाकाल : ०४ जून, २०१८
बलिया, उत्तर प्रदेश
[नीहार-हज़ारा-अमलदार 'नीहार']

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ

तोड़ तम-कारा हृदय के ज्योति के जय-गीत गाओ। 
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
आँसुओं के स्याह मुखमण्डल रचो मुस्कान-लाली,
रह न जाये तारिका से जन-हृदय का शून्य खाली।
प्राण-तारों में सभी के, प्यार की धड़कन जगाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
व्योम-बाला नव वधू-सी इस धरा पर आ गयी है,
चाँद-तारों की सजी बारात-शोभा छा गयी है।
शर्वरी के पाँव जावक, हाथ में मेहदी रचाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
स्नेह से भीगी हुई यह वर्तिका जलने लगी है,
पी तिमिर-विष, भूतभावन शिव-सरणि चलने लगी है।
प्यार का पीयूष बाँटो, मोहिनी को मत बुलाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
ज्योति गंगा-गीत में यह कल्पना की दीपमाला,
आरती के शब्द, भावों में हृदय का पूत प्याला।
मरु, मनुज के नेह-नातों में नये सरगम सजाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
रचनाकाल : २१ अक्टूबर, १९९६
[ गीत-गंगा(सप्तम तरंग) - अमलदार नीहार ]
प्रकाशन वर्ष : १९९८

"बागों में बहार है"

अभिनव द्वारिकाधीश! जगज्जिष्णु! 
हे हरि त्रिपादविक्रम उपेन्द्र!
प्रभविष्णु विष्णु के व्यापक-विराट ! तव चरण-आक्रान्त
शान्त-निश्चल विकल गंगोर्मि-निगमानन्द-सानन्द-
निरानन्द, दिक्काल व्याल से लिपटे पड़े हैं
आधुनिक सभ्यता के पाँव में !
उधार शब्दों में कहूँ जो तर्क-पंचानन जगन्नाथ के -
नराकारं वदन्त्येके निराकारञ्च केचन।
वयं तु दीर्घसम्बन्धाद् नाराकाराम(नीराकाराम्)उपास्महे।।
जो विष्णुनख-निर्गता, विधु-कमण्डलु-निस्सृता
कि धूर्जटि-धम्मिलधृता, जह्नुपीत-प्रस्नुता जाह्नवी
'भागीरथी'- जो मिथक-कोटरों से बह निकली थी कभी
गंगोत्री की गोद से-मोद से,
फाँसी के फन्दे पे सरेआम लटकायी गयी
टिहरी-नरौरा व गंग नहर-रस्सी पर
अनगिन दहेज लाने वाली नववधू-सी-
हमारे सपनों की शहजादी, आस्था की पुत्तलिका
प्राण-प्रिया, श्रद्धा-शालभंजिका
पूजा-देवि लीलोल्लासमयी
ममतालु भवाम्बुधि धेनु-पुच्छ, स्वर्गापवर्ग-सोपान।
शस्य-श्यामल खेतों से समृद्ध किसान ख्वाबों की पूर्ति-हमारी स्वर्गंगा इस मरजीवा धरती पर दिव्यता की सजला-सुफला मूर्ति........
कि जिसे मार डाला कुछ पापियों ने-प्रलापियों ने
पूजा-पाखण्ड के ढोंगियों ने, मुमुक्षु मनोरोगियों ने, भोगियों ने,
चितानल-ज्वाला ने, दूषण-प्रदूषण महोत्सवों की माला ने,
उद्योगधन्धों ने, अन्धों ने, अनियन्त्रित व्यापारों ने-सरकारों ने,
कि आत्मघात कर लिया हमारी संस्कृति ने नव विकास की देहरी पर
हमारे दिलों की तंग कोठरी में उभरते जायज सवालों ने जहर खा लिया
.............और अब ये मंजर सामने है-
कि उपेक्षा की गीली दुर्गन्धयुक्त लकडियांँ,
अपमान की धुँआ भरी आग,
इतिहास-कफन से बाहर निज लम्बे पाँव पसार
हमारी प्रसुप्त चेतना की चिता पर
लेटी है सहस्राब्द पीयूष-प्रवाहिनी देवबाला अधनंगी-सी,
कि सूख चली छातियों में न रहा शेष जीवन का अमृत
न प्राणरसधारा बची निचुडी हुई साँसों में
मृत कलेवर पर बैठा कंस-वंशावतंस रेतमाफिया
झिंझोड़ता है जिसे बारम्बार,
खखोलकर खींचता है गंगा की आँतें-पहाड़ों के पत्थर
कि मुर्दा पड़े जिस्म से व्यभिचार बराबर,
केमिकल-फैक्टरियों के मल-पुरीष भरे नाले
कि सत्ता-रंगशाला में पूँजीवादी प्याले
डालते हैं डकैती दिन-दहाडे़ सृष्टि की सम्पदा पर,
विपदा-आपदा की जनयित्री ये विकास-नीतियाँ-
ईतियाँ-भीतियाँ, नित्य नयी रीतियाँ,
बाढ प्रमाण़-पार्वत्य हिम-निपात-भूकम्प-स्खलन
मानवीय भूलों का प्राकृत उपहार-पुरस्कार-प्रहार
अनगिन अनाम बीमारियाँ ईजाद,
फरियाद किससे-कहाँ-कौन करे?
हिल रही है बुनियाद,क्या भेड़तंत्र की औलाद-
इस देश की जनता मौन धरे?
हत्या हमारी नदियों की नहीं है ये,
हत्या है चराचर जीवन-जगत की, खूबसूरत सृष्टि की
व अपनी आँखों पे शीतल पट्टी बाँधे लोगों की दृष्टि की।
पूतना बना दिया हमारी भोली नदियों को पाप-पूतों ने,
कपूतों ने कपोतों के अरमानों के पंख कतर दिये
और ऊँची उड़ान भरने का संदेश लिए फिरते हैं,
बगुले भी आजकल हंसों का वेश लिए फिरते हैं-
"हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती हैं"
भूल जाओ अब ये कहना कि"हमारा देश दुनिया का गहना"
सच पूछिए तो गंगा सलीब पर लटकी है ईसा की तरह,
गोली खाये गाँधी की तरह, विष पिये दयानन्द की तरह, स्वीकार जहर सुकरात की तरह, बोटी-बोटी मंसूर की तरह।
मस्त मगन मीरा को विष-प्याला दिया राणाओं ने,
आधुनिक सभ्यता-विकास के दुर्दान्त ठेकेदार रक्त-पिपासुओं ने
और हमारे जोंकधर्मी रहनुमाओं की सत्ता-ख्वाहिशों ने।
एक बात बताओगे प्यारे देशवासियों!
ये तमाम बदमाशियाँ समझ में नहीं आतीं?
कब तक पूजोगे राजा-महाराजाओं के पन्नाती-
फैले हुए देश में, बदले हुए वेश में,
अपराधी-गुण्डे और मवाली,
नहीं उभरता है आँखों में कोई सवाली?
नीम हकीमों की दुकानों से बडे अस्पतालों तक!
पीजीआई, एम्स,मेदान्ता गुर्बत में बन्द तालों तक!
नंगे पाँव दौड़ते हो खेत-बारी बेचकर!
घर-द्वार बेचकर, गहना-गुरिया नोचकर!
कैंसर का करिश्मा-हार्ट अटैक-किडनी फेल!
पीते हो पानी जो खूब जहरीला धकापेल।
किसकी है देन सब, किसका उपहार है?
मर भी जाओ प्यारे! उनके बागों में बहार है!!
रचनाकाल : 13 अक्टूबर, 2018
सन्त नगर, नयी दिल्ली
अमलदार नीहार

नेह-गेह, जिसमें रमा रमे, वहीं नीहार

कश्मल रावन राजता, राम चले वनवास। 
आत्म-अयोध्या आज भी सूनी पड़ी उदास।। ६४१।।
कैसी मन की मन्थरा, कैकेयी दुर्बुद्धि।
दशरथ नृप दस द्वार के, फिर भी प्रीति-अशुद्धि।। ६४२।।
देवासुर-संग्राम मन-भीतर प्रत्यह देख।
कौन भला वर-दान वे प्रत्यय के आलेख।। ६४३।।
कैकेयी के मुख-वचन सायक, सोच सचान।
मोह-प्रणय की डार पर पारावत से प्रान।। ६४४।।
तरे तरी दो पाँव रख, भँवर भरे मझधार।
दशरथ की जो दुर्दशा, जीव-दशा संसार।। ६४५।।
वन में लछिमन-राम सँग संयम-शुचिता शील।
धैर्य-त्याग, तप-तेज का भाव-प्रभाव सलील।। ६४६।।
माया को भी ठग सके माया का मारीच।
कनक हिरन-छवि छोह-छल माधव को ले खींच।। ६४७।।
अच्छ सरोवर जानकी-उर संशय के प्रेत!
लांछित लछिमन के चरित, चारु कथा-अभिप्रेत।। ६४८।।
मन में साँची प्रीति जो, काँची रही प्रतीति!
कैसी लीला जानकी! कथा-निबन्धन-नीति।। ६४९।।
स्वर्णनखा के नेह का नवल निमन्त्रण देख।
कहीं राम ने रच दिया कथा-सूत्र नव लेख।। ६५०।।
रावन-भगिनी! तू बता कटे नाक औ कान!
या फिर इंगित आर्य के हुआ घोर अपमान।। ६५१।।
उर-अन्तस् में जानकी प्रति विद्वेष-दुराव।
राग-आग भी राम लख, स्वाभिमान का भाव।। ६५२।।
खर-दूषन-त्रिशिरादि की शक्ति तमस् निर्मूल।
फिर भी नहीं प्रबोध लव, कैसी थी यह भूल।। ६५३।।
रावन में जो 'काम' था दुर्जय शत्रु महान।
चिनगारी तू ले गयी, जला दिया खलिहान।। ६५४।।
थी अनादि जड़ वासना, अहंकार-मद चूर।
अन्तर दुर्दम भोग के भावों से भरपूर।। ६५५।।
छल-बल पाशव पूर्ति का मूर्तिमान प्रतिमान।
पाप-शाप का बोझ भी सीस लिए वरदान।। ६५६।।
आगम-निगम-पुराण का पण्डित वह मूर्धन्य।
दर्शन-भेद-कलादिगत विद्यावान अनन्य।। ६५७।।
हरि से जिसने हर लिया जाया-छाया रूप।
काल-अनल की नाशमय सीता शिखा अनूप।। ६५८।।
उस रावन को क्या कहूँ, जो इतना बलवान।
पराभूत सब देवता किंकर क्रीत समान।। ६५९।।
लंका-उपवन जानकी राम-विरह के शोक।
पहरे में दस मास जो रिपु रावन के ओक।। ६६०।।
सीता-शुचिता मूर्ति का किया सभी ने मान।
रावन भैरव भय दिखा, रखता था सम्मान।। ६६१।।
उसे राम ने जीतकर भेज दिया निज लोक।
ओर सूर्य के वंश का फैला यश- आलोक।। ६६२।।
उसी राम के सामने है नतसीस- सवाल।
जो आत्मा की छाँह-सी क्या सीता का हाल।। ६६३।।
तुमने संशय जो किया अनल-दाह अपमान।
सीता-धोबिन एक सी, राजा-रजक समान।। ६६४।।
सीताएँ इस देश की छली गयीं हे राम!
सहने में अभिशाप सी, कीर्ति-कथा अभिराम।। ६६५।।
रहे नरोत्तम तुम सदा मर्यादा की लीक।
सीता है निर्वासिता, राजा सभी अलीक।। ६६६।।
दहे चितानल सर्वदा नारी का यह भाग्य।
या कि भुजिष्या भोग की, या कारण वैराग्य।।६६७।।
सृष्टि सींचकर निज लहू, कोमल कर से पोष।
शासित-शोषित, त्याज्य भी, मढे़ मूढ़ सौ दोष।। ६६८।।
मैं पीड़ित के साथ हूँ, मैं शोषित के साथ।
मेरी माता जानकी सिर पर उनका हाथ।। ६६९।।
राजा राघव! बूझ लो रिश्तों का भी प्यार।।
नेह-गेह, जिसमें रमा रमे, वहीं नीहार।। ६७०।।
रचनाकाल : १९ अक्टूबर, २०१८
[नीहार-हजारा-अमलदार नीहार ]

बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

मेरी भोली दादी माँ

नेह-दया-ममता की दानी मेरी भोली दादी माँ ।
थी जैसे परियों की रानी मेरी भोली दादी माँ ॥
स्नेह-सुधारस की बरसातें, अनुभव-रस में भीगी बातें,
कहती थी नित नयी कहानी मेरी भोली दादी माँ ।
आँखों में करुणा लहराती, जैसे खोयी मणि पा जाती
लाल-सदृश मुझको, थी ध्यानी मेरी भोली दादी माँ ।
इन्द्रधनुष के मेरे सपने थे जैसे उसके ही अपने,
देती थी सपनों को पानी मेरी भोली दादी माँ ।
मैं भूखा तो भूखी सोयी, मैं प्यासा तो प्यासी रोयी,
ममता मूर्तिमती पहचानी मेरी भोली दादी माँ ।
जैसे व्योम उसी का आँचल, सुखदायक, शुभकारी शीतल,
थी वह स्वयं यशोदा रानी मेरी भोली दादी माँ ।
रह सकता कब कैसे रोता? उसका ममता-ओज अनूठा,
भर लेती आँखों में पानी मेरी भोली दादी माँ ।
थी कुंकुम केशर-कस्तूरी, उस देही से यद्यपि दूरी,
जीवित जिससे कविता-बानी मेरी भोली दादी माँ ॥
[आईनः-ए-ज़ीस्त-अमलदार "नीहार"]
नमन प्रकाशन
४२३१/१, अंसारी रोड, दरिया गंज
नई दिल्ली-११०००२
दूरभाष- ०११-२३२४७००३,२३२५४३००६

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

रघुवंश महाकाव्य में "दिलीपस्य गो-सेवा" [ द्वितीय सर्ग -श्लोक सं ० १८ से २४ तक]

पीन-पुष्ट आपीन-भार पग धीरे-धीरे धरती थी,
सुता सुरभि की गृष्टि मनोहर, चितवन सुध-बुध हरती थी ।
वैसे स्थूल कलेवर नृप भी तब कुटिया की ओर चले,
दोनों की गति मन्द सुशोभन, पन्थ तपोवन लगे भले ।
ऋषिवर गो के पीछे-पीछे चलकर पार्थिव आये थे,
भाल कलाधर तुल्य सुशोभन, गोरज मण्डित छाये थे ।
वन से लौटे कान्त, मनोहर सुदाक्षिणा को लगते थे,
प्यासे निर्निमेष नयनों में प्रेम-दीप ज्यों जगते थे ।
पार्थिव से जो पथ में हुई पुरस्कृत धेनु विलसती थी,
अगवानी की रानी ने, वह शोभा मन यों धँसती थी ।
उन दोनों के बीच उपस्थित सुन्दरता की आभा ज्यों,
दिवस-निशा के मध्य अवस्थित सन्ध्या की अरुणाभा ज्यों ।
सुदाक्षिणा ने साक्षत भाजन कर में लिए प्रणाम किया,
प्रदक्षिणा की पयस्विनी की, पूजन तथा प्रकाम किया ।
पृथुल सुरभिजा-भाल, श्रृंग दो, मध्य भाग की पूजा की,
मान मनोरथ-सिद्धि-द्वार उस भाल भाग की पूजा की ।
जाग रही उत्कंठा गो-मन-निज नन्दन को प्यार करे,
हृष्टरोम उसके ललाट पर ममता की पुचकार भरे ।
फिर भी निश्छल सदय मुदित मन , शुचि पूजन स्वीकार किया,
"निश्चय फल का हेतु उपस्थित" यह प्रत्यय साकार किया ।
भुजबल-विजित सकल रिपु जिसके, नृप दिलीप वे विक्रमशील,
अरुन्धती संग ऋषि वशिष्ठ को कर प्रणाम वे संयमशील ।
कृत्य निखिल कर सायंकालिक सुस्थिर मन हो सम्यक शान्त,
गो-सेवा में लगे, वहाँ जो बैठी दोहन के उपरान्त ।
जलती दीपशिखा के अन्तिक रखे सभी पूजन-उपहार,
प्रजाजनों के रंजक राजा निकट नन्दिनी बैठ सदार ।
करके सकल सपर्या उसकी वे दोनों सुख पाते थे,
उसके सोने पर सोते थे, जगने पर उठ जाते थे ।
[ रघुवंश-प्रकाश-अमलदार "नीहार" ]
दिनांक-१५-१०-२०१८

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

कालिका-स्तवन

रसना काल-कराली की जय ! दुष्ट-दलन करवाली की जय !!
बोलो खप्पर वाली की जय ! दृग युग प्रभा निराली की जय !!
भक्त-भीति-रुजघाली की जय ! दुःख-पीनाखु-बिडाली की जय !!
ममता में मतवाली की जय ! जय माँ-जय माँ काली की जय !!
जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
श्यामा शक्ति-प्रवर्तन करती-प्रलयताल पर नर्तन करती,
मेघमन्द्र रव नर्दन करती-आसुरवृत्ति-विमर्दन करती ।
संगर रंग तरंग तरंगिणि-अहंकार-अरि-निकुर-निकंदिनि,
वक्र भृकुटि-फूत्कार भुजंगिनि-रंगिणि शोभाशाली की जय !
जय माँ-जय माँ काली की जय !! जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
चामुण्डे ! हे मुण्डमालिनी ! रक्तबीज-अस्तित्त्व-घालिनी !
कलि-कल्मष-क्षय-वचनपालिनी ! भक्तों के अघओघ-क्षालिनी !
रक्तबीज के बीज-तिमिंगिल फैले संसृति-सागर में हैं ,
प्रलय तुमुलतम मेतो रविकर प्रखर चाल भूचाली की जय !
जय माँ-जय माँ काली की की जय! जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
शक्ति-शिवा हे उमा-मृडानी ! रमा-गिरा जगदम्ब भवानी !
दुर्गति-नाशिनि दुर्गा-काली ! जग किंकर तू जग की रानी !
कालिदास-वागर्थ सुपावनि, रामकृष्ण गुरु-माँ मनभावनि !
सर्जन-संस्थिति-प्रलय प्रधावनि ! दीन-हीन की आली की जय !
जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
ममता में मतवाली की जय ! जय माँ ! जय माँ काली की जय !!
जय हो, जय हो ! जय हो, जय हो !!
रचनाकाल-१७-०३-२००२
[इन्द्रधनुष-अमलदार "नीहार"(तृतीय रंग), पृष्ठ-५७ ]

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2018

नयनों में 'नीहार' भरा है

भजूँ सूर-मन कृष्न कन्हैया, वही चराये मेरी गैया,
छपक ताल उच्छल जल, खेलूँ सँग कान्हा, ज्यों देखे मैया। 
कोकिल-विद्यापति बन गाऊँ, शंकर बन हरिदास रिझाऊँ,
दण्डी-सा लालित्य मिले माँ! और माघ-सा मैं बन जाऊँ।।
वाणी-नन्द निराला हूँ मैं, कहीं-कहीं मधुशाला हूँ मैं,
पिया-न जीवन भर जो उतरे, हालाहल का प्याला हूँ मैं।
कुछ तुलसी हूँ, कुछ कबीर हूँ, मीरा की भी प्रीति-पीर हूँ,
कालिदास की जूठन खायी, लोकदर्द गाकर नज़ीर हूँ।।
घनानन्द-सा प्रेम-पपीहा, छोड़ूँ क्यों ठाकुर का ठीहा?
देव और मतिराम-बिहारी, छन्द रचूँ रमणीय समीहा।
कुछ प्रसाद हूँ, पन्त तनिक-सा, महादेवि-उर- अन्तस विकसा।
दिनकर-नागार्जुन या धूमिल, मन किसान केदारी सरसा।।
भाषा की तलवार दुधारी-कुछ केशव, आचार्य भिखारी,
मुक्तिबोध, कुछ सर्वेश्वर भी, बच्चन-नीरज से भी यारी।
नारी-मन की पीर पिरोयी, दलित-दंश लख कविता रोयी,
वारवधू-सी राजनीति यह, फिर भी भारत -जनता सोयी।।
बाहु उठाये व्यास न कोई, प्राचेतस का दास न कोई,
मेरी बातें कौन सुनेगा, शासन-तिमिर प्रकाश न कोई।
मन में अमित दुलार भरा है, माँ के मन में प्यार भरा है।
सजग भारती का सुत होकर नयनों में 'नीहार' भरा है।।
रचनाकाल : १५ अगस्त २०१७
[ हृदय के खण्डहर- अमलदार 'नीहार'
११ अक्टूबर २०१८

चापलूसी हजार नियामत है

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

चमचा-चालीसा के कुछ दोहे-

चमचे की किस्मत भली जाता छींका टूट । 
"म्याऊँ -म्याऊँ" बोलकर मटका लेता लूट ॥ १ ॥
बैल-गधा-कुत्ता कहो, कह लो रँगा सियार ।
कुछ भी कह लो, क्यों सुने पाये पैसे चार ॥ २ ॥
चमचे चाँदी काटते पड़े सुहागा सोन ।
साहब चाईं हो भले कहीं अभागा सो न ॥ ३ ॥
चमचे की चूँ-चूँ भली दिल का वही दलाल ।
साहब को क्या चाहिए जाने सच्चा हाल ॥ ४ ॥
चमचा हो बगुला भले हंसों का सरदार ।
कण्ठी बन सरकार की, मछली कण्ठ उतार ॥ ५ ॥
प्रोफ़ेसर हैरान क्यों मंत्री इण्टर पास ।
धरती अब बंजर बनी आसमान पर घास ॥ ६ ॥
जनता का बजा बजे राजा जुमलेबाज ।
पौ बारह चमचे भले, छले नए अंदाज ॥ ७ ॥
विज्ञापन चमचा बने, बने मीडिया ढोल ।
पूँजी अंडा फूटकर "कूँ-कूँ-कुँकड़ूँ" बोल ॥ ८ ॥
अमलदार "नीहार"

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

चुनावनामा (नीहार के चुभते चोखे चौपदे)

बीस ग्राम नमकीन पचाकर पेट चला पाताल। 
ब्रेकफास्ट यह, जीभ फेरकर चलो बुलटिया चाल।।
मक्खीचूस व्यवस्था को भी मिलता पानी-खाद।
जोड़-घटाना, गुणा-भाग में गणित खूब उस्ताद।। १।।
नथुनी-नग से परवल-कन सँग आलू के छह फाँक।
भोजन में हिस्से में आयी सब्जी एक छटाँक।।
दो तोले की एक कचौड़ी, वह भी केवल चार।
लोन लबालब गुटको प्यारे! बोला भूखा यार।। २।।
'इनका हिस्सा, उनका हिस्सा-पिछला किस्सा' देख
पढ़ता है अधिकारी पहले, लिखता किस्मत-लेख।।
मस्ती में छुटभैये देखो बजा रहे हैं बीन।
कुछ कागज़ पर, कुछ बाहर हैं-कहीं न तेरह-तीन।। ३।।
आगे-पीछे, अगल-बगल में सजा रहे दरबार।
चौदह चमचे, बीस बजनियाँ-'हाँ जी, हाँ सरकार'।।
भोले-भाले जो कि बिना मुँह-सिनर सीनियर चार।
ड्यूटी पर तैनात सिपाही, नैया की पतवार।। ४।।
जाने कितने विद्या-मन्दिर ऐसे ही काॅलेज।
दिल का दिया बुझा देते हैं, जो दिमाग के तेज।।
जिनकी दुनिया में दौलत, जो दौलत के ही राव।
कागज़ पर घोड़े दौड़ाते चिरकुट-चाल चुनाव।। ५।।
खजड़ी एक बनाकर मोटे सौ चूहों के चाम।
चरण चाँपकर कजरी गाओ बाबू रामगुलाम।।
जाने वह लाचारी कैसी पूजो पातक-पाँव?
गुरु-गौरव तो केसर-क्यारी क्यों कौड़ी के भाव।। ६।।
[ जिजीविषा की यात्रा-अमलदार 'नीहार' ]
०७ अक्टूबर २०१७

मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा

मेरा राम, रहीम वही तो, सतगुरु है वह प्यारा । 
मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा ॥
मैं हिन्दू या सिक्ख मुसलमाँ और न मैं ईसाई,
मन्दिर में पूजा की, मस्जिद में आवाज़ लगाईं ।
गीता-गुरुबानी-कुरान का सार एक ही पाया-
"एक पिता परमात्मा सबका, आपस में सब भाई ।"
धरती एक, गगन है सबका सूरज-चन्दा-तारा ।
मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा ॥
रंग लहू का एक सभी का, सुख-दुःख की सम भाषा;
स्नेह-दया की, प्यास-भूख की वही एक परिभाषा ।
सम है जीवन, जिजीविषा भी, जीवन-अंत सभी का;
बचपन-यौवन, सम है जर्जर ज़रा, सौख्य-अभिलाषा ।
चाहे जिस नौका पर बैठो, मिलता वही किनारा ।
मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा ॥
शोषण कर दुर्बल का सबने वैभव यहाँ समेटा,
पर जीवन से विदा-समय में केवल कफ़न लपेटा ।
सने हुए क्यों हाथ लहू में, ऐहिक छोडो स्वार्थ सकल;
कौन किसी की भार्या-भगिनी, भाई या फिर बेटा?
सुनता उसकी, जिसने व्याकुल चातक-सदृश पुकारा ।
मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा है गुरुद्वारा ॥
रचनाकाल-१० सितम्बर सन १९९२ (फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश )
[गीतगंगा(सप्तम तरंग)-अमलदार "नीहार" ]

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

"गूँगी चीख"

आज़ाद हिन्दुस्तान में चौराहे-चौपालों पर 
आज भी कचहरी दुः शासन की
होता है कच-हरण, चीर-हरण
पांचाली-सा दलित अबला का
(होती है अबला दलित ही दुर्योधनों की द्यूत क्रीडा में )
पग-पग प्रत्येक रंगशाला में कुदृष्टि कीचकों की
आये दिन देखने को मिलती
आततायियों की पाशव बर्बरता से लहूलुहान
आत्मा की तिलमिलाती तस्वीरें।
अपनी ही चीख की अनुगूँज से थर्राती हैं
गुमनाम अन्धी घाटियाँ अंतर्मन की,
न निकल पाता है सूरज कई दिनों तक,
चेतना चट्टान बन जाती है
और सोख लेती है सरसता जीवन की।
रिसते जख्मों को खरोंचते से सवाल जिज्ञासु जनों के-
शुभचिंतकों-सलाहकारों-सरकारी हाकिमों के-
" हाँ, तो फिर क्या हुआ आगे?"
कुरेदते हैं जर्राह की भाँति अधभरे घावों को,
बलात्कार का काल्पनिक सुख लूटने के लोभी
उतारते हैं जिस्म से बार-बार तार-तार कपडे
और अवश लाचार कोमलता निर्ममता पूर्वक
क्रूर यातनानुभूति के अन्धे गलियारे में ढकेल दी जाती है ।
एक मुर्दा आश्वासन कि " अब कुछ नहीं होगा"-
(बौखलाता सवाल कि होने को बचा है क्या कुछ अब भी?)
" कुछ नहीं करना है, बस पहना देना है
यह छल्ला उस भयानक साँड की सींग में,
जिसकी आँखों में देखी थी खूनी लालसा पहली बार"
उसके पैरों में बेबसी की बेडी -
न कहीं भाग सकती है, न रो सकती है,
न जाग सकती है, न सो सकती है,
सच उगलवाने के लिए खींची जा रही है जुबान उसकी।
उसने देखा कि जज, वकील व गवाह सारे
साँड की शक्ल में बदलते जा रहे हैं,
खूंख्वार कुछ भेड़िये-से,
छुट्टे सब के सब, टूट पड़ने को बेताब-बेआब।
थपथपाया किसी ने जैसे प्यार से पीठ बलात्कारी की,
बौखलाए बाघ की, दुराचारी की।
ईर्ष्या की धार से देखा किसी ने नराकार पशु को
और यह कैसी है अबला? क्या इसकी औकात?
किसी की आँख में उग आये काँटे, नुकीले दाँत ।
एक दुःखान्त दृश्य जो गुजर चुका है ,
कैंसर-सा एहसास दिल में उतर चुका है,
फिर उसी के रिहर्सल की तैयारी है,
भेड़िये आज़ाद हैं, न जाने किसकी बारी है?
"रोक सको तो रोक लो तुम सब,
न कलंकित करो कोख निज माताओं की"
गूँजती है आज भी धृतराष्ट्रों के सामने
उस अनाम अबला की गूँगी चीख।
रचनाकाल-१२-१०-२००२
[इन्द्रधनुष(साप्तम तरंग)-अमलदार "नीहार", पृष्ठ-१३६-१३७, प्रकाशन-२०११ ]

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

लालकिले का किराया

विराट व्यक्तित्व गाँधी का और उनका विलोम

भारत भा-रत अब कहाँ, गुजर गया गुजरात | 
झूठ-घृणा-हिंसा लता-तरु-प्रसून-फल-पात ||

गाँधी तेरे देश में अब आँधी-तूफ़ान | 
मिथ्याग्रह-आराधना, ठगना साधु समान ||

नीयत खोटी हो गयी दिल-दिमाग पाखण्ड | 
नए दौर व्यक्तित्व वह चमके सूर्य प्रचण्ड ||

भीतर-बाहर एक तू, जैसा चरित विचार |
अब विचार कुछ और है और पृथक व्यवहार ||

पका हुआ जीवन सतत सत्याग्रह की आँच |
आज सियासत में चले खेल तीन औ पाँच ||

नहीं किसी की चाह अब साधन-शुचिता-खोज | 
सबको सिद्धि-तलाश है, सच को फाँसी रोज ||

तन से तू कंगाल था, मन से मालामाल | 
उर-अंतस परमात्म-प्रभु, जीवन जिया कमाल ||

सच का दामन थाम दो कदम चले कुछ राह | 
जल्पक जिह्वा नीति को क्यों गाँधी की चाह ||

सत्याग्रह की मूर्ति नव बने सदी में एक | 
चरखा चक्र सँभालकर साधे सिद्धि विवेक ||

ब्रिटिश हुकूमत हिल गयी गाँधी नंग-धडंग | 
डरे नहीं जो काल से निस्पृह साधु मलंग ||

गाँधी सरल-सुजान अति, निष्ठुर-दया निधान | 
तपोपूत संयमधनी बनना क्या आसान ||

पावन जिसकी आत्मा पीड़ित जन-जन-प्रेम | 
मानवता सद्धर्म है वैश्विक मंगल-क्षेम ||


[ नीहार-नौसई-अमलदार 'नीहार' ]
०२ अक्टूबर २०१७