शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

ग्रहण [प्रश्नपत्र-प्रादर्श-परिवर्तन और साहित्य का रसभंग]

काल-गुहागत विगतेतिहास-भल्लाहत
प्रयत वेद-वेदांग-सांगोपांग दर्शनायत
तर्कशास्त्र तलवार या विज्ञान-वितर्क-बरछी से
विभ्राट विचारों के टमटम में कविता-कामधेनु नाधेंगे?
भूगोल-बटलोई, अर्थशास्त्र-दाल गणित की कलछी से
लोकायत पसरी संवेदना किस चूल्हे पर राँधेंगे?
बाँधेंगे साहित्य के बछेड़े को-चेतना-चेतक को शैलूषवत !
तिमिर-तोम-पाँव में चाँदनी मंजीर मधुर, किरण प्रत्यूषवत !
चलने को मजबूर करेंगे राजनीति की रस्सी पर?
दिलों को चूर-चूर करेंगे राजनीति की रस्सी पर?
साहित्य में असीम वेदना-हलचल, अरुन्तुद उच्छल करुणा-जल,
श्रृंगार-वीर-हास्य-रौद्र-भयानक-अद्भुत-वीभत्स शांत-शीतल,
शोक-ओक लोकालोक-नियामक तृणाचिकेत आग राग-विराग,
दिगायाम विपर्यस्त शाखाएँ इस अक्षय वट की,
नानाविध विषयों के जल-जंतु, साहित्य-समुद्र का सैलाब,
गंगा-जमुना का द्वाब, संगम सरस्वती का,
साहित्य संकीर्ण पगडंडियों पर चलने का अभ्यासी नहीं
न भोग-भजिष्य, कविता किसी राजा की क्रीत दासी नहीं-
यूँ समझिये कि पिंड से ब्रह्माण्ड तक
विगतागत-अनागत के प्रत्येक प्रकाण्ड तक
जाग्रत चेतना का-महाचिति चिंतन चिरंतन का नवनीत
पृच्छा-विवक्षा-समीक्षा-दिदृक्षा-ममता-करुणा-त्याग-तितिक्षा,
माधुर्य-प्रेम पुनीत परमात्मलीन आत्मा का है सत्यसाक्षी गीत
सृजन की वरिवस्या है, वाणी पश्यन्ती है
रोदसी-आर्त रुत संयुत सावकाश उड्डीयमान कल्पना,
भरे प्राण-निकुंज अमेय आह्लाद, राग जयजयवन्ती है
मेघ-मन्द्र सावन सुहाग, भरे भादो से
मंद-मंद सौरभ-समीर, उर-विरह-पीर बासन्ती है |
न साहित्य को यूँ छेड़िये हुजूर!
शस्य-श्यामल स्वर्गीयाभा वप्र दूर-दूर,
कहाँ जाएगा 'अनभै साँचा' कबीर का
अनहद नाद, सहस्रार-निर्झर का अमृत निनाद-स्वाद,
साखी-सबद-रमैनी का अकथनीय मर्म,
कि ढाई आखर कौन समझेगा-समझायेगा अकथ कहानी प्रेम की?
सामाजिक रूढ़ियों पर चोट क्रांतिचेता कबीर की
कविता और वयनजीवी-करघे का अद्भुत आध्यात्मिक भेद,
नलिनी व कुम्भ-भीतर समरस ब्रह्म-जीव, कि एकरस पानी,
कैसे डालता है कोई 'ज्ञान के हाथी पर सहज का दुलीचा'
कि कैसे बुनी जाती है झीनी-झीनी सी चदरिया ये
कहाँ हुई गुम 'राम' नाम की जेवरी, दुलहिनी का मंगलचार?
कौन पता लगाएगा कबीर-काव्य की महमही कस्तूरी गंध-
सात समंद की मसि करने वाले कबीर का ब्रह्म-विचारसार-
गुरु-गोविन्द की एकता, माया महाठगिनी का कार्य-व्यापार
"आशी-दन्त उखाड़ने वाला काशी का वह जुलहा"
वो अन्तर-कँवल-भँवरा, मानसरोवर का हंसा |
अब नहीं लहरेगा रैदास की कठवत में गंगा का पानी,
राम नाम चन्दन में सुभक्त-मन पावन गंगा का पानी
कि सम्बन्ध बादल और मोर का, दीपक व बाती का,
मोती और धागे का, सोने और सुहागे का
स्वामी और दास का, राम और रैदास का |
जायसी का सुआ किसे बताएगा वह अनिंद्य सौंदर्य-
"नयन जो देखे कँवल भये निरमर नीर सरीर |
हँसत जो देखे हंस भये दसन जोति नग हीर ||"
रह जाएगी पिंजरे में बंद नागमती की वह अबूझ वियोग-व्यथा -
"पिउ से संदेसडा कहने वाले काग-भौंरे" के काले होने का मर्म,
कौन जानेगा एक सती का पावन प्रेम और त्याग-
"यह तन जारौं छार कै कहौ कि पवन उड़ाव |
मकु तेहि मारग उड़ि परै कंत धरैं जहँ पाँव ||"
डूब जाएगा अबकी बार पुष्टिमार्ग का जहाज,
कैसे पियेगा कोई भी जन सूर-सागर का भक्ति-रसायन,
कौन करेगा रसपान कान्हा की बाल-लीलाओं का-
माखन-चोरी का-चींटी काढ़ने का, उपालम्भ-गोपी को छकाने का,
मटका फोड़ने का, मुरली-माधुरी का, रीझने का-रिझाने का,
कौन बनेगा विरह-बावरी गोपियों की अबूझ पीर का साक्षी
निर्गुण पर सगुण विजय की निष्कम्प-निर्वात पताका,
कौन लख पायेगा रास-रहस्य राधा और रसिकबिहारी का,
रह जाएगी धरी की धरी लीलामयी बाँसुरी
कि मोहिनी मिठास पर रीझता संसार असार
नटवर नागर की विश्वराट लीलाओं का विस्तार,
रह जायेंगे तुलसी-मानस के सूने चारों घाट,
भटक जायेंगे ज्ञान-भक्ति व कर्मयोग के बाट
सूख जाएगी संत-समाज की गंगा-यमुना और सरस्वती
रह जाएगी अधूरी सी लोकमंगल की साधना
समन्वय की विराट चेष्टा कि अनन्य आराधना,
कौन जान पायेगा राम-नाम का अलौकिक मर्म,
भरत की भायप भक्ति, विनय-शील-धनी राम की शक्ति,
त्याग-तप-तितिक्षा-सिसृक्षा-धैर्य, साहस-विवेक-ज्ञान-वैराग्य-स्थैर्य |
बिहारी का श्रृंगार धरा रह जाएगा, विरह का अंगार धरा रह जाएगा,
बतरस-लालच लाल की मुरली छिपा सहास भौंहों का अनिर्वच सुख
कि नित्य नवोन्मेषशालिनी नवीन बाला का पल-पल सौंदर्य-निखार-
वह राग-रंग, अनंग अंग-अंग, हैरान-परेशान चितेरे गर्वीले हठीले,
कौन लाएगा खींच भरे दरबार में मिर्ज़ा राजा जयसिंह को?
बनेगा बिहारी कौन गागर में सागर उंडेलने वाला-
"कहलाने एकांत बसत अहि-मयूर-मृग-बाघ |
जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ ||"
कि अनमोल हीरा साहित्य का धूलि-धूसरित गुम हो जाएगा
और घनानंद की काव्यभाषा की वह बाँकी छवि !
भंगी भणिति अभिराम-विरोधाभास ललित-ललाम ,
मुँहबोले मुहावरे और रूपक-रूप-लावण्य-
"बिरही विचारन की मौन में पुकार है"-
"अन्तर उदेग दाह आँखिन प्रवाह आँसू"
"देखी अटपटी चाह भीजनि-दहनि है"
"बिरह समीरनि की झकोरनि अधीर, नेह-
नीर भीज्यौ जीव तऊ गुड़ी लौं उड्यौ रहै |"
"भस्मी बिथा पे नित लंघन करने वाली" मतवारी आँखें
'सुजान-ध्यान' में ही भक्ति-प्रेम का विस्तार समेटे
वह प्रेम-पपीहा, चाँद की चाहना करने वाला चकोर
कि जिसके यहाँ रीझ सुजान शची और पटरानी है
तो बेचारी बुद्धि मात्र एक दासी,
मौन के घूँघट में रुचिराभरण से दिपदिपाती
सरस सरसिज निज कोमल अंग समेटे "बनी बात की"
उर के भवन चित्त-सेज पर छिपकर बैठी रहती जो,
कौन चखेगा स्वाद घनानंद की प्रेमरस-सनी श्रृंगार-वधू सी ब्रजभाषा का?
रह जायेंगे धरे के धरे महाकवि भूषण के वीर रस-
रणरंग-रली, भली सरजा शिवाजी की पानीदार तलवार,
किसकी कविता में बहेगी यूँ वीरता की रसधार-
"साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धारि सरजा शिवाजी जंग जीतन चलत हैं "
"जहाँ-जहाँ भागति हैं वीर वधू तेरे त्रास तहाँ-तहाँ मग में त्रिबेनी होति जाति है"
न रहेंगे कबीर अपने ताने-बाने के साथ, न रैदास चन्दन-पानी के,
न जायसी की पदमावती, न रूप-रसमाते खंजन-नैन-सूर की राधा,
न वह तुलसी-कविकुलावतंस मानस का हंस,
न रसिक बिहारी-मुक्तक का गुलदस्ता,
न घनांनद की विरह-पीर, न भूषन का काव्य-रास वीर-
तो क्या बचा रह जाएगा साहित्य में-------?
-------और हमारे नौनिहाल नवागत पीढ़ी का बुरा हाल-
किनारे बैठ 'बिन बूड़े' जो डूब जाने वाले
रह जायेंगे महरूम साहित्य के खजाने से |
न जाने कब तक टलेगा ये ग्रहण, धूमकेतु-क्षण?
छलेगा साहित्य-लोक और साहित्यलोक |
क्रौंची के करुण विलाप पर
कविकण्ठ-समुद्भूत शोकमय श्लोक अरण्य-विलाप
फल रहा, फूल रहा दिगायाम निकुंज लता-प्रतान पाप,
कि छिपे हैं चारों ओर जांगलिक सत्ता के बहेलिये
साधे हुए विषमय विशिख सविशेष प्रक्षिप्त विक्षिप्त जीभ-ज्या से |
[हृदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार']
२८ सितम्बर २०१८

बुधवार, 26 सितंबर 2018

क़ानून खुदा के ढीले हैं

छाया चारों ओर अँधेरा, अन्धों की बन आयी है,
है कर्तव्य नपुंसक औ अधिकार जहाँ अन्यायी है ।
हर चेहरे पर एक मुखौटा, अपना कौन पराया है,
जीना हमको भी आता, कवि होता ही विषपायी है ।
जहाँ सभ्यता डरी हुई अभिमान एक बड़बोला है,
जड़ता की दृढ पकड़, प्रकृति में आडम्बर का चोला है ।
नीति जहाँ की निपट आसुरी, मुँह खोले क्या बोले कोई?
छल जाता है स्वार्थ मधुर, विश्वास बहुत ही भोला है ।
सदाचार तक घायल है, जो सज्जनता वह पंक सनी है,
दुरभिसंधि में मेधा जिनकी नागिन-सी लगती चिकनी है ।
विषकन्या की रसना-जैसी जहर-बुझी कटार-सी विद्या
पाशव प्रकृति वृत्ति मिथ्या मद दुरित दोषमय बुद्धि घनी है ।
साँपों की संतान मनुज में कुछ इतने जहरीले हैं,
डरते सॉँप, मनुजता के भी नेत्र नीर से गीले हैं ।
ऐसी बस्ती छोड़ त्वरित "नीहार", जहाँ पर देर बहुत
हो न भले, अन्धेर मगर, क़ानून खुदा के ढीले हैं ।
रचनाकाल-२८-०२-१०९२ (हरिद्वार-उत्तर प्रदेश, अब उत्तराखण्ड)
[इन्द्रधनुष(चतुर्थ रंग)अमलदार "नीहार" , वी0 एल ० मीडिया सोलूशन्स, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-२०११ ]

रविवार, 23 सितंबर 2018

नफरत के खिलाफ

"विधवा शहीद की"

 यह कविता तीन खण्डों में विभाजित है, इसका दूसरा भाग पढ़िए, जो  मौजूद भी है |

"सपनों के सिसकते साज : ड्योढ़ी पर जनाज़ा साजन का"
तुम्हारे गर्म होठों के पवित्र चुम्बन का एहसास बाकी है 
मेरे माथे पे बिंदिया की तरह, मेरे साजन!
सुवासित साँसें अभी तक-
मन-प्राण बसे प्यार की वह कस्तूरी गंध, 
एकांत क्षणों के सजीले मोती-
महकती यादों में छनकती चूड़ियों का संगीत, 
मेखला की मोहक तान, सुहाग-नूपुर की कलरव-लय, 
मेरे प्रियतम! बस एक बार छूना चाहती हूँ 
तुम्हारे वे तपते हुए गर्म होंठ, 
जिनसे आखिरी क्षणों में फूटा था 
"वन्दे मातरम" का गौरव-गीत कल प्रपात-सा | 
सो रहा है यह न जाने क्यों बच्चों का "टिक-टिक घोड़ा" 
न जाने कितनी 'किस्सी ' उधार बाकी है बचपन से 
वे तुम्हे चूमना चाहते हैं फिर एक बार-
देखो 'ना' मत कहना, 
उनकी आखों में रेगिस्तान का बवण्डर है 
और हिचकियों में सूनामी कोई, 
बहनों की वीरान आँखों से बहे जमुना और गंगा 
कँपकँपाते हाथों में लिए वो नेह का रेशमी धागा, 
बुरा हाल है बूढ़े माँ-बाप का-
चूमना चाहते हैं वे भी बेटे के स्वाभिमान का माथा, 
नहीं झुका सका जो दुश्मन कोई -
कि नहीं रहा अब कंधे पर, 
एक बात बताओ युग-पुरुष ! राजनीति-समर-शार्दूल!! 
तुम्हारा अकुंठित कंठ आज क्यों मौन है?
तुम्हारे ही सुप्त स्वाभिमान की तरह 
गायब है सीस मेरे स्वामी का, 
अब किन होठों का ताप महसूस करूँ अपनी उँगलियों से, 
किन बाँहों में आंसुओं के अंगारे बुझाऊँ?
सिसकियों के साज पर कौन-सा गीत गाऊँ?
कि अन्धी घाटियों में कौन सुनेगा पिक-प्राणों की पुकार?
किस झूले पर पेंगें भरूँगी अबकी बार सावन में?
बच्चों की उधार 'किस्सी' अब कौन चुकाएगा प्यार की?
फटते कलेजे का दर्द लिए बूढ़े माँ-बाप अब किसका माथा चूमें?
सिवान पूछते हैं गाँव का हाल कि लोगों की आँखों में सुलगते सवाल | 
चिता की गर्म राख अटी पड़ी है मेरे रेशमी कुन्तल में, 
मेरी मुट्ठी में बीते लम्हों की गर्म रेत, 
गुंजायमान जिस दालान में किलकारी, ठहाके, रसभरे चुटकुले-
उमंग-मृगछौनों की उत्फुल्ल छलाँग-जो घायल कराह में तब्दील,
कि बुझ चुका है ज़िंदगी के अँधेरे का जलता हुआ चराग 
पसरा है मातम चीख-पुकार, क्रंदन हजार कंठों का | 
इतने आँसुओं की चीत्कार-दिल की पुकार सब-
सो नहीं सका है यह कवि भी पूरी-पूरी रात, 
कानों के परदे फटे जा रहे इसके 
सुनकर टूटती चूड़ियों का वज्रघोष 
और अब बदल रहा है यह भी अपने को
ध्वनिधर्मा आकाश, सर्वंसहा रसा, गन्धवह पवन-प्राण 
की पावन पावक जीवन-जलदेवता साक्षी 
"राष्ट्रकवि" की पदवी हेतु योग्यता की चाह में-निज नायक की राह में |
संयमधना शुचितापस ! हे कीर्तिकूट नीति-विशारद ! चिरयुवा हे राष्ट्रऋषि! 
तुम्हारी यह चुनी हुई चुप्पी अहले-वतन के सीने पे दाग है 
कि हमारे दिलों में दहकती हुई हकीकत-उल्फत की आग है,
कैसे कर लें यकीं कि नूरे-नज़र सब्ज शजर हमारा चाक हुआ 
कि हैवानियत के हाथों सरज़मीं हिन्द का ये बेटा हलाक़ हुआ?
सुना है किसी विधवा का गूँगा विलाप तुमने
कि जीवन भर का संचित अभिशाप देखा हैं?
महसूस किया है लम्पट ज़माने का ज्वालामुखी संताप? 
कहूँ क्या मैं कवि को रवि से खद्योत तक पसरा हुआ चारण है, 
जाग उठे तो ब्रह्माण्ड उसकी मुट्ठी में, सोये तो पराजितप्रण है, 
क्या माफ़ करेगी भारतमाता ऐसे महाकवि को, 
या पसारेगी आँचल ममता का, भारती भी कभी?
धिक्कार है! धिक्कार है!! धिक्कार है !!!
वाग्भट्ट शिरोमणि ऐसे महाकवि को
और मूर्धाभिषिक्त आडम्बर-प्रतिमानों को???

रचनाकाल : ०३ मई, २०१७ 
[मेरी कविताओं में स्त्री-अमलदार "नीहार"| 
शीघ्र प्रकाश्य 

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

कौन भला इन्साफ करेगा?, रोटी की दरकार



बदलते समय की छाती पर अंकित काले इतिहास को यदि ठीक-ठीक निरखना और समझना हो तो इतिहास की पुस्तक नहीं उनका साहित्य पढ़िए, जो सत्ता के तलबगार नहीं, मतलब के बीमार नहीं, बल्कि आम आदमी के दुःख-दर्द के साझीदार है |

अमलदार 'नीहार' की दो रचनाएँ :

१५ नवम्बर २०१६ की रचना-
             {1}
कौन भला इन्साफ करेगा?

काला जादू, "ला-ल्या जादू"
और "विजय की माल्या" जादू,
जादू ठीक ठिकाने का है
जन-धन सब हथियाने का है |

बीबी के बटुए से निकला,
दादी के तकिये से निकला,
गुल्लू के गुल्लक से निकला,
दादा के रल्लक से निकला |

साड़ी के बक्शे से निकला,
चिल्लर कितना! कैसे निकला?
सींग सभी के, सबके थी दुम
सभी चोर थे गुमसुम-गुमसुम |

जो लाइन में लगे हुए हैं,
बेईमान सब, ठगे हुए हैं-
जनसेवक परधान चुना था,
छैलछबीला, जान चुना था |

चार बार परिधान जो बदले,
कहा-सुना ईमान जो बदले |
नहीं ग़रीबों का वह बाबू!
मीत सेठ का, मन बेकाबू !

पीठ तुम्हारी चाबुक मारे
बार-बार डण्डा फटकारे |
बहुरुपिया बहुरुपया पीटे,
हमें बनाकर मूर्ख घसीटे |

आँखों पर जाले हैं सबके,
रोटी के लाले हैं सबके |
रोजी या रोजगार कहाँ है,
सुख-सुकून का सार कहाँ है ?

बोलो ये रखवाले किसके?
कहाँ जुड़े हैं प्याले किसके?
किसके संग ठिठोली किसकी?
हमदम या हमजोलो किसकी ?

अब तो कुछ पहचानो भाई!
कब तक थिगली, वही रजाई!
कब तक आँसू, कब तक आहें?
सुन लो पीड़ा भरी कराहें ?

बहुत बुरे दिन आने वाले,
हिम्मतवाले! ओ मतवाले!
तेरा भी घर 'साफ़' करेगा,
कौन भला इन्साफ करेगा?
[हृदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार']

                    {2}
रचनाकाल : २८ जनवरी, २०१७


                     रोटी की दरकार

दूर------जहाँ तक दृष्टि, वहाँ तक, उसके भी जो पार,
महाकाय यह सृष्टि निरखता अविरल पलक पसार |
सृष्टि एक थाली हो मानो, उसमें ठण्डा भात-
चटक चाँदनी पसरी, लगती तारों की बारात ||

माखन-चुपड़ा गोल-गोल यह रोटी जैसा चाँद,
सिरका-कटहल-आम फाँक-से काले हैं एकाध |
बिखरे तारे बुनिया जैसे, दुनिया भी  रमणीक,
जाग रहे कलुआ का सपना-आयी तब तक छींक ||

कालू के बेटे 'कलुआ' को लगी हुई थी भूख,
थिगली लुगरी-लिपटी 'रधिया' काँटे जैसी सूख |
बथुआ-सरसों खोंट-खाट ले आयी बड़के खेत,
रूह काँपते थर-थर, लगते बड़के ठाकुर प्रेत ||

सुबरन के कौडे से लाया कालू आलू चार,
राख लगे से कच्चे-पक्के चोरी का उपहार |
तालू जले 'सपर-सपर' तब दो आलू चटकार,
कलुआ बोला-"बापू ! इसमें माई हिस्सेदार ||"

हिये हूल-सी भर-भर आँसू रोये रधिया-आँख,
"मरें भूख से निपट मजूरे, टूटि गए सब पाँख |
पेट गरीबी जनम-जनम कै बुझै न जइसे आग,
नींद न रतियौ भोरहरियै से चिरई-चुनमुन भाग ||"

"डाग्डर बाबू के बिल्डिंग में किहे काम दिन बीस,
दिए न फूटी कौड़ी फुटकर लगे निपोरै खीस |
पाँच-पाँच सौ नोट पुराना, लाग करेजे चोट,
ओढ़ी याकि बिछाईं ओकराँ, छलिया जइसन नोट ||

लिए हाथ में नोट, हजारों लोग शहर या गाँव,
किसे मुरौव्वत कौन करै का? नहीं ठिकाना-ठाँव |
आठ दिना तक चक्कर काटे, मेला लागै बैंक,
बैंक न कउनो काम क रधिया, जैसे पैटन टैंक |

बहुरुपिया ऊ टेसुआ गारै किसिम-किसिम कै सूट,
देस-बिदेस उड़न-छू, हम सब कीड़ा ओकरे बूट ||
केहू हमरा रकत पियत बा, हम तो माहुर-घूँट,
जब से आया झूठ-लबारी, मची है बमचक-लूट ||

लगा-लगा भर दिन लाइन में अपना जोड़ीदार,
रमुआ सुबह-सबेरे मरिगै, तड़प रहा परिवार |
ई जिनगी से छुट्टी पाएस", रधिया-उँगली होठ,
लगा कलेजे कलुआ-कालू-जीवन-धन, क्या खोट ||

"फिर अब ऐसन बात न कहिया, किरिया खाउ हमार,
कलुआ हमरा हीरा-मोती, बाघिन ई सरकार |
जमा न कौड़ी जनधन-खाता, करबै भ्रष्टाचार?
चाँद-चकोरी हम का जानी, रोटी की दरकार ||"

[ह्रदय के खण्डहर-अमलदार "नीहार"]

शनिवार, 8 सितंबर 2018

'लोहा'

धूप-सँवलायी ज़िंदगी की राह में
चुटकी भर सुकूँ-सम्मान की चाह में-
उम्र-थके पाँव, अश्रु-छके भाव,
मगर इस जिद्दी घोड़े ने मुख नहीं मोड़े
न कभी दम तोड़ेगा मंज़िल चूमने से पहले,
चखा है खूब 'लोहे' का स्वाद छककर
न रुका पल एक भी विश्राम को, थककर |
घुल चुका है 'लोहा' लहू में-बेकली भी,
दिलरुबा-सी कोई दिल में, दिलजली भी,
बहुत विनम्र प्रार्थना है मेरी
कि दोपाये भी न जाने कितने जीते हैं
इस घोड़े से बदतर ज़िंदगी
व पालते हैं ख़्वाब बेबुनियाद,
जानते हैं वे भी खूब 'लोहे' का स्वाद-
कि घोड़े में-लुहार में और रचनाकार में बहुत फर्क नहीं,
ये तीनों ही जानते हैं भलीभाँति लोहे का स्वाद,
लोहा लेते हैं-बेरहम ज़माने का प्रसाद |
लुहार भी धधकती आग में सँग लोहे के
पिघलता-तपता-खपता-दहता-सहता
रोम-रोम स्वेद-सीकर-लथपथ अविरत
उगलती हैं शिराएँ लहू का नमक होठों तक
धार-धार माथे से बार-बार बरौनियों में उलझी हुई बूँद
टप........ टप टपकती ही जाती है धरती पर
जीवन की परती पर
बँधा हुआ गुर्बत का गर्वीला हाथी,
उखड़ती हुई साँस ज्यों मुई खाल की भाथी-
जिसके इस्पाती जिस्म की किणांकित सधी मुट्ठियाँ
हथौड़े का वजन जानती हैं और वज्रबाहु भी विशाल घन का
तपती हुई भट्ठी में-दहती हुई भट्ठी में
लकालक गर्म सुर्ख लोहे पर
कहाँ-कहाँ कितनी बार छिटकती गर्म चिनगारियों के बीच
कैसी-कैसी चोट खानी पड़ती है-
देनी पड़ती है चोट दाँतों के बल, उसे ही मालूम है.......
मनोवांछित आकारों में ढलता-उसी के पसीने से पिघलता
लोहा भी जानता है बहुत खूब
उस लुहार की मेहनत और मेहनत का प्रतिफल भी
वही है, जो लोहे को निज लहू-पसीने से
पानीदार तलवार बना सकता है
तो बूढी दादी की टक-टक आँखों की सधी सूई भी,
जिसके छेद से प्रेम के धागे ही नहीं
रेगिस्तानी जहाज और मुसीबत के पहाड़ भी
पार हो जाते हैं कभी-कभी |
लुहार लोहे से बन्दूक भी बना सकता है और फाल भी,
आखिर इस कठिन काल में
देश को जरूरत किस चीज की है-
बन्दूक की या हल के फाल की?
भाले की-बर्छी की, कटार की या खुरपी की?
हँसिये की-फावड़े-कुदाल की?
धनुष के वाण की या तनुत्राण की?
विनाश की या लोक-कल्याण की?
तलवार की या सूई की,
जो निकाल सके काँटे जनम-जनम के
इंसानियत के पाँव के-जंगल के घाव के |
रचनाकार भी इक घोड़ा है और लुहार भी
जानता है पेट की भूख और पीठ सहलाते हाथ का प्यार भी,
जो बिना नाल-ठुके घोड़े की तरह
निर्मम त्रिकाल लम्बी सड़क पर दौड़ लगाता है अविराम,
कविका-विहीन नहीं है कवि भी, आठो याम
उदीयमान रवि-सा, धधकती संवेदना-भट्ठी में
लुहार की तरह अजस्र वेदना-ताप तपता-खपता-दहता-सहता
शब्दों के गर्म लोहे को नया आकार देता है
अंतस की आँच में अनुभव-अयस साँच पकता है-
आँवे-सा, पुटपाक-संकाश बनाने को व्यंजना-रसायन |
वह सयानी बेटियों के कर्जखोर बाप की
जागती उदास आँखों में बीमार ख़्वाब की बुनावट पढ़ता है-
गढ़ता है एक मार्मिक छवि दृग-निर्झर की तूलिका से,
सुनता है दहेज़-लोभियों के बेमुरौव्वत जवाब दो टूक,
महसूसता है बाढ़-डूबी फसल निहारते
निहोरी के किसान कलेजे की उछाल मारती हूक,
भोली भावुक कैशोर्य-लता चम्पा की अधकचरी चूक-
दोनों के दिमागी गुहांधकार में
रेंगते साँप-बिच्छुओं की डंक-डूबी चीत्कार,
फाँसी के फन्दे की मजबूती निरखती डबडबायी आँखों में
भीतर से बाहर असीम उमड़ता हाहाकार
व फूल से सुकुमार सपनों की मौत का निर्व्याज साक्षी,
वह बेबस रूहों की लाचार अबूझ तड़प जानता है
और आँखों से अनायास बह आये, कपोलों पर ठहरे
तप्त बेहिसाब आँसुओं का वजन भी |
लोहा लेता है भीतर के घूर्णावर्त दबावों से
बाहर के दिगायाम क्रूर-कातिल हवावों से,
पर अपने किरदार को कभी अकेला नहीं छोड़ता,
वह बलात्कार का शिकार मासूम कोमलता के
अशब्द बयान का अकेला श्रोता,
अश्रु-बोझिल साँस की डूबती साँझ का चितेरा-
उसके वजूद के अछोर पोर-पोर दर्द का व्याख्याता |
वह अस्पताल के नंगे फर्श पर छटपटाती बीबी के लिए
बढ़ी धड़कनों के साथ कल्पान्त लम्बी कतार में
सूखे मुँह-मजूरे की टूटती लय-ज़िंदगी का मूक द्रष्टा,
आदमखोर व्यवस्था की ठेकेदार बाघिन
और स्वर्ग-नरक के बीच अधबने भ्रष्टाचार-पुल-नीचे दबी
पिचकी-सी गाड़ियों में दबी हँसती-खेलती दुनिया को
लोथड़ों में तब्दील होते देखता है-
जी नहीं सकता रचनाकार कोई भी सच्चा-इंसानियत का बच्चा
पल-दो पल जीवन के-चैन से ऐसे दृश्यों के रू-ब-रू |
रचता है भले ही स्वान्तः सुखाय "घर-घर अनाथ-गाथा",
पर बच पाता है केवल 'लोकहिताय' बनकर सुरसरि-समान |
मैली गंगा को उपमान बनाकर
किसी की नीयत का मजाक उड़ाना
हो सकता है अपराध इस दौर में-
कि प्रकृति के पाँव में बेड़ियाँ डालने वालों ने
गंगा का गला घोंट दिया है,
कवि का एक-एक शब्द विप्लव के बीज बो सकता है-
वह जानता है अपने सुख को, मगर दुःख में सानता है,
लोहा लेता है डरे हुए लोगों से-मिट्टी के शेरों से-
सियासत-सरदारों से-कैतवकला-प्रवीण किलेदारों से,
चालाक लोमड़ियों से-रँगे हुए सियारों से,
सत्ता की रखैल निष्ठा से, पुरस्कार-प्रतिष्ठा से |
सच सलीब है ईसा की, सुकरात का हेमलाक-साजिश खौफनाक
महात्मा बुद्ध की वाणी, गाँधी का-अब्राहम लिंकन का आत्मनिर्णय,
सचाई के लोहे को शब्दों के साँचे में ढालना
और पश्यन्ती को वैखरी बनाना
इस ज़माने में बहुत ही मुश्किल काम है और खतरनाक भी |
कबीर का करघा नज़रबंद है, प्रेमचंद पर टेढ़ी नज़र,
मंटों पर मुकदमे तमाम, मुक्तिबोध पर पाबंदी
किशोरीदास वाजपेयी, उग्र, निराला गुस्ताख़,
अब बुलबुल के गीतों की कहाँ बची साख,
गाँव-गली, शहर-शहर, नदियों में, वादियों में
उड़ रही आदमी के वादों की अस्थिशेष राख,
लैली पे सवार भूषण का छंद कितना आत्मघाती-
की "सौ-सौ चूहे खाइ के बिलाइ बैठी तप को"
करता न रहे आवारा कोई तुकबंदी,
नाम दूसरे के ज़मीन-आयी चकबंदी-
'कातिल-कसाई-क्रूर कलिकाल जप को'
यही युग-सत्य है-विनाश का अपत्य है,
क़ानून की नसबन्दी और हमारी हदबन्दी |
हमारी चादर को कुतर रहे हैं दो चूहे श्वेत-श्याम
और मैं साँसो के बीमार धागे से
करता ही जाता हूँ रफू उसे बारम्बार,
हमारे आस-पास पसरे हैं कुछ बहुत ही खूँख्वार शब्द
कि शब्दों के रेशमी छिलकों में जहरीले अर्थों के अन्धे वायरस
जो फैलते ही चले जाते हैं समाज की नस-नस में,
उन शब्दों को घूँटने के सिवा कोई चारा नहीं,
पर कोई भी शब्द-बीज
बिना अंकुरित हुए रह नहीं सकता-
फूट निकलते हैं फफोलों-से,
रिसते हुए अनगिन घावों से रक्त-मवाद की तरह
कि दिल में कोई नासूर हो जैसे,
टीसता हुआ दर्द भरपूर हो जैसे,
शब्दों के मरहम लगता हूँ,
शब्दानुशासन के गीत जाता हूँ,
शब्दों का रेशा-रेशा हमारे काम आता है,
शब्दों की दुनिया में दर्द बेदाम आता है |
शब्दों के इस महाजंगल में
कुछ शब्द भेड़-बकरी-से बन गए पालतू,
कुछ कुत्ते और बिल्ली-से शेखचिल्ली से,
कोई रंगा और बिल्ला, किकियता हुआ पिल्ला,
कुछ शब्द खूँख्वार भेड़िये-से तो कुछ दरिन्दे-से
कुछ तो हैं चील और बाज-से, घायल परिन्दे-से-
फाड़ खाते हुए, गुर्राते हुए, चीखते हुए-चिचियाते हुए
दाँत निपोरते, सलाम ठोंकते, नाक रगड़ते, शेखियाँ बघारते-
........और इन सभी संशयग्रत खौफनाक ध्वनियों से
लोहा लेते हुए, लोहे का स्वाद चखते हुए
मुझे तो अकेले खड़े रहना है उन्नतग्रीव
भर स्वाभिमान सीने में, स्थिर टाँगों पर
अविचल धैर्य और तितिक्षा के साथ ताकयामत
कमजोर कन्धों के साथ निज धर्मरत-कर्मरत,
यही तो निज जीवन-संसार, जीने का सार
बिन लोहे के भी है ज़िंदगी बेकार |
हमारी आह में लोहा, हमारी राह में लोहा,
हमारी भूख भी लोहा, हमारी प्यास भी लोहा,
लोहा-लोहा, सिर्फ लोहा |
[ह्रदय के खँडहर-अमलदार 'नीहार']
शीघ्र प्रकाश्य

'जगमगाना सीख लो'

बुधवार, 5 सितंबर 2018

गुरु-गरिमा

सकल विश्व में व्याप्त समुज्ज्वल जिसकी गौरव-गाथा,
पद-पंकज पर नत है जिसके देवाधिप का माथा ।
बाँट रहा आलोक अनिर्वच, कुहू शारदी राका,
दिग-दिगंत में गगन-भाल पर उसकी ज्ञान-पताका ।
छँटी कालिमा भीतर तक के तम सब दूर भगाए,
'जिसकी महिमा से ज्योतिर्मय जग सबने ही गाये ।
ज्ञान-शिखा को आत्म-स्नेह से सिंचित जो कर जाता,
अन्वयगत निज न्यास ज्ञान को धरती पर धर जाता ।
माया-मोह कुटिल कल्मष तक जितने, सब धो देता,
निर्विकार कर मन में शुचिता धी-विवेक बो देता ।
जीव-जगत औ परम ब्रह्म की तत्व-गाँठ जो देता खोल
वाणी सदा अक्षरा उसकी होती सम पीयूष अमोल ।
बिना ज्ञान व्यक्तित्व मनुज का होता जैसे जड़-पाषाण,
शिष्य-मूर्ति है रचना उसकी, भरता है वह जिसमें प्राण ।
निज प्रज्ञा की छेनी से जो देता रूप रंग-आकार,
बाहर-भीतर समरस गुरु वह, मानवता जिसने साकार ।
जो था शिष्ट वशिष्ठ कभी, जो ऋषि था निर्मल पावन
जिसके सारे कार्य लोक-हित, करुणा के अनुधावन ।
कालांतर में कौशिक-भार्गव और द्रोण तक आयी,
परम्परा जो धीरे-धीर लगती खोट दिखाई ।
गुरु-गरिमा भी हुई कलंकित, विद्या-प्रतिभा क्रीता,
कह पायेगा और कौन जो एकलव्य पर बीता ।
या फिर सूर्यतनय की आहत अविचल श्रद्धा-पीड़ा
छला जिसे था सबने, कितवा स्वयं जननि की व्रीड़ा ।
कालपुरुष कौटिल्य कुलाल ने गढा सुभाजन एक,
तिरस्कार की मिट्टी से जनरंजन राजन एक ।
चन्द्रगुप्त व्यक्तित्व सुगढ़ थी परिणति जिसकी प्रज्ञा की
देश-दुर्ग-प्राचीर प्रांशु जो रोके छल-बल आँधी ॥
शंकर, स्वामी दयानंद थे, रामकृष्ण गुरु ऐसे,
सकल विश्व को दिए विवेकानंद विभूति वे जैसे ।
गुरु वह, तिमिर-भाल पर निश्चय ऐसी ज्योति जलाये,
जो जीवन को नयी दिशा दे, झंझा झोंका खाए ।
कृपामोघ मिल जाए जिसको, कालपुरुष बन जाता,
कृपाकन्द गुरु बिंदु-योग से सागर-सा लहराता ।
कवि-कोविद की वाणी में है गुरु की बहुत बड़ाई,
गुरु है स्वयं जनार्दन, जिसकी जग ने गरिमा गाई ।
गुरु है गुरु, 'नीहार' ब्रह्म भी बौने जिसके आगे
बुनते शिव-सुन्दर समाज ऋत सदाचार के धागे ।
वह गुरु भौतिक भोगों के हित जब पूरा बिक जाएगा
समझो मानवता अपंग, नर कहीं नहीं टिक पायेगा
रचनाकाल-११ फरवरी १९९४
[इन्द्रधनुष-अमलदार 'नीहार]
दिनांक ०५०९-२०१८