रविवार, 23 सितंबर 2018

"विधवा शहीद की"

 यह कविता तीन खण्डों में विभाजित है, इसका दूसरा भाग पढ़िए, जो  मौजूद भी है |

"सपनों के सिसकते साज : ड्योढ़ी पर जनाज़ा साजन का"
तुम्हारे गर्म होठों के पवित्र चुम्बन का एहसास बाकी है 
मेरे माथे पे बिंदिया की तरह, मेरे साजन!
सुवासित साँसें अभी तक-
मन-प्राण बसे प्यार की वह कस्तूरी गंध, 
एकांत क्षणों के सजीले मोती-
महकती यादों में छनकती चूड़ियों का संगीत, 
मेखला की मोहक तान, सुहाग-नूपुर की कलरव-लय, 
मेरे प्रियतम! बस एक बार छूना चाहती हूँ 
तुम्हारे वे तपते हुए गर्म होंठ, 
जिनसे आखिरी क्षणों में फूटा था 
"वन्दे मातरम" का गौरव-गीत कल प्रपात-सा | 
सो रहा है यह न जाने क्यों बच्चों का "टिक-टिक घोड़ा" 
न जाने कितनी 'किस्सी ' उधार बाकी है बचपन से 
वे तुम्हे चूमना चाहते हैं फिर एक बार-
देखो 'ना' मत कहना, 
उनकी आखों में रेगिस्तान का बवण्डर है 
और हिचकियों में सूनामी कोई, 
बहनों की वीरान आँखों से बहे जमुना और गंगा 
कँपकँपाते हाथों में लिए वो नेह का रेशमी धागा, 
बुरा हाल है बूढ़े माँ-बाप का-
चूमना चाहते हैं वे भी बेटे के स्वाभिमान का माथा, 
नहीं झुका सका जो दुश्मन कोई -
कि नहीं रहा अब कंधे पर, 
एक बात बताओ युग-पुरुष ! राजनीति-समर-शार्दूल!! 
तुम्हारा अकुंठित कंठ आज क्यों मौन है?
तुम्हारे ही सुप्त स्वाभिमान की तरह 
गायब है सीस मेरे स्वामी का, 
अब किन होठों का ताप महसूस करूँ अपनी उँगलियों से, 
किन बाँहों में आंसुओं के अंगारे बुझाऊँ?
सिसकियों के साज पर कौन-सा गीत गाऊँ?
कि अन्धी घाटियों में कौन सुनेगा पिक-प्राणों की पुकार?
किस झूले पर पेंगें भरूँगी अबकी बार सावन में?
बच्चों की उधार 'किस्सी' अब कौन चुकाएगा प्यार की?
फटते कलेजे का दर्द लिए बूढ़े माँ-बाप अब किसका माथा चूमें?
सिवान पूछते हैं गाँव का हाल कि लोगों की आँखों में सुलगते सवाल | 
चिता की गर्म राख अटी पड़ी है मेरे रेशमी कुन्तल में, 
मेरी मुट्ठी में बीते लम्हों की गर्म रेत, 
गुंजायमान जिस दालान में किलकारी, ठहाके, रसभरे चुटकुले-
उमंग-मृगछौनों की उत्फुल्ल छलाँग-जो घायल कराह में तब्दील,
कि बुझ चुका है ज़िंदगी के अँधेरे का जलता हुआ चराग 
पसरा है मातम चीख-पुकार, क्रंदन हजार कंठों का | 
इतने आँसुओं की चीत्कार-दिल की पुकार सब-
सो नहीं सका है यह कवि भी पूरी-पूरी रात, 
कानों के परदे फटे जा रहे इसके 
सुनकर टूटती चूड़ियों का वज्रघोष 
और अब बदल रहा है यह भी अपने को
ध्वनिधर्मा आकाश, सर्वंसहा रसा, गन्धवह पवन-प्राण 
की पावन पावक जीवन-जलदेवता साक्षी 
"राष्ट्रकवि" की पदवी हेतु योग्यता की चाह में-निज नायक की राह में |
संयमधना शुचितापस ! हे कीर्तिकूट नीति-विशारद ! चिरयुवा हे राष्ट्रऋषि! 
तुम्हारी यह चुनी हुई चुप्पी अहले-वतन के सीने पे दाग है 
कि हमारे दिलों में दहकती हुई हकीकत-उल्फत की आग है,
कैसे कर लें यकीं कि नूरे-नज़र सब्ज शजर हमारा चाक हुआ 
कि हैवानियत के हाथों सरज़मीं हिन्द का ये बेटा हलाक़ हुआ?
सुना है किसी विधवा का गूँगा विलाप तुमने
कि जीवन भर का संचित अभिशाप देखा हैं?
महसूस किया है लम्पट ज़माने का ज्वालामुखी संताप? 
कहूँ क्या मैं कवि को रवि से खद्योत तक पसरा हुआ चारण है, 
जाग उठे तो ब्रह्माण्ड उसकी मुट्ठी में, सोये तो पराजितप्रण है, 
क्या माफ़ करेगी भारतमाता ऐसे महाकवि को, 
या पसारेगी आँचल ममता का, भारती भी कभी?
धिक्कार है! धिक्कार है!! धिक्कार है !!!
वाग्भट्ट शिरोमणि ऐसे महाकवि को
और मूर्धाभिषिक्त आडम्बर-प्रतिमानों को???

रचनाकाल : ०३ मई, २०१७ 
[मेरी कविताओं में स्त्री-अमलदार "नीहार"| 
शीघ्र प्रकाश्य 

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