काल-गुहागत विगतेतिहास-भल्लाहत
प्रयत वेद-वेदांग-सांगोपांग दर्शनायत
प्रयत वेद-वेदांग-सांगोपांग दर्शनायत
तर्कशास्त्र तलवार या विज्ञान-वितर्क-बरछी से
विभ्राट विचारों के टमटम में कविता-कामधेनु नाधेंगे?
भूगोल-बटलोई, अर्थशास्त्र-दाल गणित की कलछी से
लोकायत पसरी संवेदना किस चूल्हे पर राँधेंगे?
बाँधेंगे साहित्य के बछेड़े को-चेतना-चेतक को शैलूषवत !
तिमिर-तोम-पाँव में चाँदनी मंजीर मधुर, किरण प्रत्यूषवत !
चलने को मजबूर करेंगे राजनीति की रस्सी पर?
दिलों को चूर-चूर करेंगे राजनीति की रस्सी पर?
साहित्य में असीम वेदना-हलचल, अरुन्तुद उच्छल करुणा-जल,
श्रृंगार-वीर-हास्य-रौद्र-भयानक-अद्भुत-वीभत्स शांत-शीतल,
शोक-ओक लोकालोक-नियामक तृणाचिकेत आग राग-विराग,
दिगायाम विपर्यस्त शाखाएँ इस अक्षय वट की,
नानाविध विषयों के जल-जंतु, साहित्य-समुद्र का सैलाब,
गंगा-जमुना का द्वाब, संगम सरस्वती का,
साहित्य संकीर्ण पगडंडियों पर चलने का अभ्यासी नहीं
न भोग-भजिष्य, कविता किसी राजा की क्रीत दासी नहीं-
यूँ समझिये कि पिंड से ब्रह्माण्ड तक
विगतागत-अनागत के प्रत्येक प्रकाण्ड तक
जाग्रत चेतना का-महाचिति चिंतन चिरंतन का नवनीत
पृच्छा-विवक्षा-समीक्षा-दिदृक्षा-ममता-करुणा-त्याग-तितिक्षा,
माधुर्य-प्रेम पुनीत परमात्मलीन आत्मा का है सत्यसाक्षी गीत
सृजन की वरिवस्या है, वाणी पश्यन्ती है
रोदसी-आर्त रुत संयुत सावकाश उड्डीयमान कल्पना,
भरे प्राण-निकुंज अमेय आह्लाद, राग जयजयवन्ती है
मेघ-मन्द्र सावन सुहाग, भरे भादो से
मंद-मंद सौरभ-समीर, उर-विरह-पीर बासन्ती है |
विभ्राट विचारों के टमटम में कविता-कामधेनु नाधेंगे?
भूगोल-बटलोई, अर्थशास्त्र-दाल गणित की कलछी से
लोकायत पसरी संवेदना किस चूल्हे पर राँधेंगे?
बाँधेंगे साहित्य के बछेड़े को-चेतना-चेतक को शैलूषवत !
तिमिर-तोम-पाँव में चाँदनी मंजीर मधुर, किरण प्रत्यूषवत !
चलने को मजबूर करेंगे राजनीति की रस्सी पर?
दिलों को चूर-चूर करेंगे राजनीति की रस्सी पर?
साहित्य में असीम वेदना-हलचल, अरुन्तुद उच्छल करुणा-जल,
श्रृंगार-वीर-हास्य-रौद्र-भयानक-अद्भुत-वीभत्स शांत-शीतल,
शोक-ओक लोकालोक-नियामक तृणाचिकेत आग राग-विराग,
दिगायाम विपर्यस्त शाखाएँ इस अक्षय वट की,
नानाविध विषयों के जल-जंतु, साहित्य-समुद्र का सैलाब,
गंगा-जमुना का द्वाब, संगम सरस्वती का,
साहित्य संकीर्ण पगडंडियों पर चलने का अभ्यासी नहीं
न भोग-भजिष्य, कविता किसी राजा की क्रीत दासी नहीं-
यूँ समझिये कि पिंड से ब्रह्माण्ड तक
विगतागत-अनागत के प्रत्येक प्रकाण्ड तक
जाग्रत चेतना का-महाचिति चिंतन चिरंतन का नवनीत
पृच्छा-विवक्षा-समीक्षा-दिदृक्षा-ममता-करुणा-त्याग-तितिक्षा,
माधुर्य-प्रेम पुनीत परमात्मलीन आत्मा का है सत्यसाक्षी गीत
सृजन की वरिवस्या है, वाणी पश्यन्ती है
रोदसी-आर्त रुत संयुत सावकाश उड्डीयमान कल्पना,
भरे प्राण-निकुंज अमेय आह्लाद, राग जयजयवन्ती है
मेघ-मन्द्र सावन सुहाग, भरे भादो से
मंद-मंद सौरभ-समीर, उर-विरह-पीर बासन्ती है |
न साहित्य को यूँ छेड़िये हुजूर!
शस्य-श्यामल स्वर्गीयाभा वप्र दूर-दूर,
कहाँ जाएगा 'अनभै साँचा' कबीर का
अनहद नाद, सहस्रार-निर्झर का अमृत निनाद-स्वाद,
साखी-सबद-रमैनी का अकथनीय मर्म,
कि ढाई आखर कौन समझेगा-समझायेगा अकथ कहानी प्रेम की?
सामाजिक रूढ़ियों पर चोट क्रांतिचेता कबीर की
कविता और वयनजीवी-करघे का अद्भुत आध्यात्मिक भेद,
नलिनी व कुम्भ-भीतर समरस ब्रह्म-जीव, कि एकरस पानी,
कैसे डालता है कोई 'ज्ञान के हाथी पर सहज का दुलीचा'
कि कैसे बुनी जाती है झीनी-झीनी सी चदरिया ये
कहाँ हुई गुम 'राम' नाम की जेवरी, दुलहिनी का मंगलचार?
कौन पता लगाएगा कबीर-काव्य की महमही कस्तूरी गंध-
सात समंद की मसि करने वाले कबीर का ब्रह्म-विचारसार-
गुरु-गोविन्द की एकता, माया महाठगिनी का कार्य-व्यापार
"आशी-दन्त उखाड़ने वाला काशी का वह जुलहा"
वो अन्तर-कँवल-भँवरा, मानसरोवर का हंसा |
अब नहीं लहरेगा रैदास की कठवत में गंगा का पानी,
राम नाम चन्दन में सुभक्त-मन पावन गंगा का पानी
कि सम्बन्ध बादल और मोर का, दीपक व बाती का,
मोती और धागे का, सोने और सुहागे का
स्वामी और दास का, राम और रैदास का |
शस्य-श्यामल स्वर्गीयाभा वप्र दूर-दूर,
कहाँ जाएगा 'अनभै साँचा' कबीर का
अनहद नाद, सहस्रार-निर्झर का अमृत निनाद-स्वाद,
साखी-सबद-रमैनी का अकथनीय मर्म,
कि ढाई आखर कौन समझेगा-समझायेगा अकथ कहानी प्रेम की?
सामाजिक रूढ़ियों पर चोट क्रांतिचेता कबीर की
कविता और वयनजीवी-करघे का अद्भुत आध्यात्मिक भेद,
नलिनी व कुम्भ-भीतर समरस ब्रह्म-जीव, कि एकरस पानी,
कैसे डालता है कोई 'ज्ञान के हाथी पर सहज का दुलीचा'
कि कैसे बुनी जाती है झीनी-झीनी सी चदरिया ये
कहाँ हुई गुम 'राम' नाम की जेवरी, दुलहिनी का मंगलचार?
कौन पता लगाएगा कबीर-काव्य की महमही कस्तूरी गंध-
सात समंद की मसि करने वाले कबीर का ब्रह्म-विचारसार-
गुरु-गोविन्द की एकता, माया महाठगिनी का कार्य-व्यापार
"आशी-दन्त उखाड़ने वाला काशी का वह जुलहा"
वो अन्तर-कँवल-भँवरा, मानसरोवर का हंसा |
अब नहीं लहरेगा रैदास की कठवत में गंगा का पानी,
राम नाम चन्दन में सुभक्त-मन पावन गंगा का पानी
कि सम्बन्ध बादल और मोर का, दीपक व बाती का,
मोती और धागे का, सोने और सुहागे का
स्वामी और दास का, राम और रैदास का |
जायसी का सुआ किसे बताएगा वह अनिंद्य सौंदर्य-
"नयन जो देखे कँवल भये निरमर नीर सरीर |
हँसत जो देखे हंस भये दसन जोति नग हीर ||"
रह जाएगी पिंजरे में बंद नागमती की वह अबूझ वियोग-व्यथा -
"पिउ से संदेसडा कहने वाले काग-भौंरे" के काले होने का मर्म,
कौन जानेगा एक सती का पावन प्रेम और त्याग-
"यह तन जारौं छार कै कहौ कि पवन उड़ाव |
मकु तेहि मारग उड़ि परै कंत धरैं जहँ पाँव ||"
डूब जाएगा अबकी बार पुष्टिमार्ग का जहाज,
कैसे पियेगा कोई भी जन सूर-सागर का भक्ति-रसायन,
कौन करेगा रसपान कान्हा की बाल-लीलाओं का-
माखन-चोरी का-चींटी काढ़ने का, उपालम्भ-गोपी को छकाने का,
मटका फोड़ने का, मुरली-माधुरी का, रीझने का-रिझाने का,
कौन बनेगा विरह-बावरी गोपियों की अबूझ पीर का साक्षी
निर्गुण पर सगुण विजय की निष्कम्प-निर्वात पताका,
कौन लख पायेगा रास-रहस्य राधा और रसिकबिहारी का,
रह जाएगी धरी की धरी लीलामयी बाँसुरी
कि मोहिनी मिठास पर रीझता संसार असार
नटवर नागर की विश्वराट लीलाओं का विस्तार,
रह जायेंगे तुलसी-मानस के सूने चारों घाट,
भटक जायेंगे ज्ञान-भक्ति व कर्मयोग के बाट
सूख जाएगी संत-समाज की गंगा-यमुना और सरस्वती
रह जाएगी अधूरी सी लोकमंगल की साधना
समन्वय की विराट चेष्टा कि अनन्य आराधना,
कौन जान पायेगा राम-नाम का अलौकिक मर्म,
भरत की भायप भक्ति, विनय-शील-धनी राम की शक्ति,
त्याग-तप-तितिक्षा-सिसृक्षा-धैर्य, साहस-विवेक-ज्ञान-वैराग्य-स्थैर्य |
"नयन जो देखे कँवल भये निरमर नीर सरीर |
हँसत जो देखे हंस भये दसन जोति नग हीर ||"
रह जाएगी पिंजरे में बंद नागमती की वह अबूझ वियोग-व्यथा -
"पिउ से संदेसडा कहने वाले काग-भौंरे" के काले होने का मर्म,
कौन जानेगा एक सती का पावन प्रेम और त्याग-
"यह तन जारौं छार कै कहौ कि पवन उड़ाव |
मकु तेहि मारग उड़ि परै कंत धरैं जहँ पाँव ||"
डूब जाएगा अबकी बार पुष्टिमार्ग का जहाज,
कैसे पियेगा कोई भी जन सूर-सागर का भक्ति-रसायन,
कौन करेगा रसपान कान्हा की बाल-लीलाओं का-
माखन-चोरी का-चींटी काढ़ने का, उपालम्भ-गोपी को छकाने का,
मटका फोड़ने का, मुरली-माधुरी का, रीझने का-रिझाने का,
कौन बनेगा विरह-बावरी गोपियों की अबूझ पीर का साक्षी
निर्गुण पर सगुण विजय की निष्कम्प-निर्वात पताका,
कौन लख पायेगा रास-रहस्य राधा और रसिकबिहारी का,
रह जाएगी धरी की धरी लीलामयी बाँसुरी
कि मोहिनी मिठास पर रीझता संसार असार
नटवर नागर की विश्वराट लीलाओं का विस्तार,
रह जायेंगे तुलसी-मानस के सूने चारों घाट,
भटक जायेंगे ज्ञान-भक्ति व कर्मयोग के बाट
सूख जाएगी संत-समाज की गंगा-यमुना और सरस्वती
रह जाएगी अधूरी सी लोकमंगल की साधना
समन्वय की विराट चेष्टा कि अनन्य आराधना,
कौन जान पायेगा राम-नाम का अलौकिक मर्म,
भरत की भायप भक्ति, विनय-शील-धनी राम की शक्ति,
त्याग-तप-तितिक्षा-सिसृक्षा-धैर्य, साहस-विवेक-ज्ञान-वैराग्य-स्थैर्य |
बिहारी का श्रृंगार धरा रह जाएगा, विरह का अंगार धरा रह जाएगा,
बतरस-लालच लाल की मुरली छिपा सहास भौंहों का अनिर्वच सुख
कि नित्य नवोन्मेषशालिनी नवीन बाला का पल-पल सौंदर्य-निखार-
वह राग-रंग, अनंग अंग-अंग, हैरान-परेशान चितेरे गर्वीले हठीले,
कौन लाएगा खींच भरे दरबार में मिर्ज़ा राजा जयसिंह को?
बनेगा बिहारी कौन गागर में सागर उंडेलने वाला-
"कहलाने एकांत बसत अहि-मयूर-मृग-बाघ |
जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ ||"
कि अनमोल हीरा साहित्य का धूलि-धूसरित गुम हो जाएगा
और घनानंद की काव्यभाषा की वह बाँकी छवि !
भंगी भणिति अभिराम-विरोधाभास ललित-ललाम ,
मुँहबोले मुहावरे और रूपक-रूप-लावण्य-
"बिरही विचारन की मौन में पुकार है"-
"अन्तर उदेग दाह आँखिन प्रवाह आँसू"
"देखी अटपटी चाह भीजनि-दहनि है"
"बिरह समीरनि की झकोरनि अधीर, नेह-
नीर भीज्यौ जीव तऊ गुड़ी लौं उड्यौ रहै |"
"भस्मी बिथा पे नित लंघन करने वाली" मतवारी आँखें
'सुजान-ध्यान' में ही भक्ति-प्रेम का विस्तार समेटे
वह प्रेम-पपीहा, चाँद की चाहना करने वाला चकोर
कि जिसके यहाँ रीझ सुजान शची और पटरानी है
तो बेचारी बुद्धि मात्र एक दासी,
मौन के घूँघट में रुचिराभरण से दिपदिपाती
सरस सरसिज निज कोमल अंग समेटे "बनी बात की"
उर के भवन चित्त-सेज पर छिपकर बैठी रहती जो,
कौन चखेगा स्वाद घनानंद की प्रेमरस-सनी श्रृंगार-वधू सी ब्रजभाषा का?
रह जायेंगे धरे के धरे महाकवि भूषण के वीर रस-
रणरंग-रली, भली सरजा शिवाजी की पानीदार तलवार,
किसकी कविता में बहेगी यूँ वीरता की रसधार-
"साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धारि सरजा शिवाजी जंग जीतन चलत हैं "
"जहाँ-जहाँ भागति हैं वीर वधू तेरे त्रास तहाँ-तहाँ मग में त्रिबेनी होति जाति है"
बतरस-लालच लाल की मुरली छिपा सहास भौंहों का अनिर्वच सुख
कि नित्य नवोन्मेषशालिनी नवीन बाला का पल-पल सौंदर्य-निखार-
वह राग-रंग, अनंग अंग-अंग, हैरान-परेशान चितेरे गर्वीले हठीले,
कौन लाएगा खींच भरे दरबार में मिर्ज़ा राजा जयसिंह को?
बनेगा बिहारी कौन गागर में सागर उंडेलने वाला-
"कहलाने एकांत बसत अहि-मयूर-मृग-बाघ |
जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ ||"
कि अनमोल हीरा साहित्य का धूलि-धूसरित गुम हो जाएगा
और घनानंद की काव्यभाषा की वह बाँकी छवि !
भंगी भणिति अभिराम-विरोधाभास ललित-ललाम ,
मुँहबोले मुहावरे और रूपक-रूप-लावण्य-
"बिरही विचारन की मौन में पुकार है"-
"अन्तर उदेग दाह आँखिन प्रवाह आँसू"
"देखी अटपटी चाह भीजनि-दहनि है"
"बिरह समीरनि की झकोरनि अधीर, नेह-
नीर भीज्यौ जीव तऊ गुड़ी लौं उड्यौ रहै |"
"भस्मी बिथा पे नित लंघन करने वाली" मतवारी आँखें
'सुजान-ध्यान' में ही भक्ति-प्रेम का विस्तार समेटे
वह प्रेम-पपीहा, चाँद की चाहना करने वाला चकोर
कि जिसके यहाँ रीझ सुजान शची और पटरानी है
तो बेचारी बुद्धि मात्र एक दासी,
मौन के घूँघट में रुचिराभरण से दिपदिपाती
सरस सरसिज निज कोमल अंग समेटे "बनी बात की"
उर के भवन चित्त-सेज पर छिपकर बैठी रहती जो,
कौन चखेगा स्वाद घनानंद की प्रेमरस-सनी श्रृंगार-वधू सी ब्रजभाषा का?
रह जायेंगे धरे के धरे महाकवि भूषण के वीर रस-
रणरंग-रली, भली सरजा शिवाजी की पानीदार तलवार,
किसकी कविता में बहेगी यूँ वीरता की रसधार-
"साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धारि सरजा शिवाजी जंग जीतन चलत हैं "
"जहाँ-जहाँ भागति हैं वीर वधू तेरे त्रास तहाँ-तहाँ मग में त्रिबेनी होति जाति है"
न रहेंगे कबीर अपने ताने-बाने के साथ, न रैदास चन्दन-पानी के,
न जायसी की पदमावती, न रूप-रसमाते खंजन-नैन-सूर की राधा,
न वह तुलसी-कविकुलावतंस मानस का हंस,
न रसिक बिहारी-मुक्तक का गुलदस्ता,
न घनांनद की विरह-पीर, न भूषन का काव्य-रास वीर-
तो क्या बचा रह जाएगा साहित्य में-------?
-------और हमारे नौनिहाल नवागत पीढ़ी का बुरा हाल-
किनारे बैठ 'बिन बूड़े' जो डूब जाने वाले
रह जायेंगे महरूम साहित्य के खजाने से |
न जाने कब तक टलेगा ये ग्रहण, धूमकेतु-क्षण?
छलेगा साहित्य-लोक और साहित्यलोक |
क्रौंची के करुण विलाप पर
कविकण्ठ-समुद्भूत शोकमय श्लोक अरण्य-विलाप
फल रहा, फूल रहा दिगायाम निकुंज लता-प्रतान पाप,
कि छिपे हैं चारों ओर जांगलिक सत्ता के बहेलिये
साधे हुए विषमय विशिख सविशेष प्रक्षिप्त विक्षिप्त जीभ-ज्या से |
न जायसी की पदमावती, न रूप-रसमाते खंजन-नैन-सूर की राधा,
न वह तुलसी-कविकुलावतंस मानस का हंस,
न रसिक बिहारी-मुक्तक का गुलदस्ता,
न घनांनद की विरह-पीर, न भूषन का काव्य-रास वीर-
तो क्या बचा रह जाएगा साहित्य में-------?
-------और हमारे नौनिहाल नवागत पीढ़ी का बुरा हाल-
किनारे बैठ 'बिन बूड़े' जो डूब जाने वाले
रह जायेंगे महरूम साहित्य के खजाने से |
न जाने कब तक टलेगा ये ग्रहण, धूमकेतु-क्षण?
छलेगा साहित्य-लोक और साहित्यलोक |
क्रौंची के करुण विलाप पर
कविकण्ठ-समुद्भूत शोकमय श्लोक अरण्य-विलाप
फल रहा, फूल रहा दिगायाम निकुंज लता-प्रतान पाप,
कि छिपे हैं चारों ओर जांगलिक सत्ता के बहेलिये
साधे हुए विषमय विशिख सविशेष प्रक्षिप्त विक्षिप्त जीभ-ज्या से |
[हृदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार']
२८ सितम्बर २०१८
२८ सितम्बर २०१८
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