बुधवार, 5 सितंबर 2018

गुरु-गरिमा

सकल विश्व में व्याप्त समुज्ज्वल जिसकी गौरव-गाथा,
पद-पंकज पर नत है जिसके देवाधिप का माथा ।
बाँट रहा आलोक अनिर्वच, कुहू शारदी राका,
दिग-दिगंत में गगन-भाल पर उसकी ज्ञान-पताका ।
छँटी कालिमा भीतर तक के तम सब दूर भगाए,
'जिसकी महिमा से ज्योतिर्मय जग सबने ही गाये ।
ज्ञान-शिखा को आत्म-स्नेह से सिंचित जो कर जाता,
अन्वयगत निज न्यास ज्ञान को धरती पर धर जाता ।
माया-मोह कुटिल कल्मष तक जितने, सब धो देता,
निर्विकार कर मन में शुचिता धी-विवेक बो देता ।
जीव-जगत औ परम ब्रह्म की तत्व-गाँठ जो देता खोल
वाणी सदा अक्षरा उसकी होती सम पीयूष अमोल ।
बिना ज्ञान व्यक्तित्व मनुज का होता जैसे जड़-पाषाण,
शिष्य-मूर्ति है रचना उसकी, भरता है वह जिसमें प्राण ।
निज प्रज्ञा की छेनी से जो देता रूप रंग-आकार,
बाहर-भीतर समरस गुरु वह, मानवता जिसने साकार ।
जो था शिष्ट वशिष्ठ कभी, जो ऋषि था निर्मल पावन
जिसके सारे कार्य लोक-हित, करुणा के अनुधावन ।
कालांतर में कौशिक-भार्गव और द्रोण तक आयी,
परम्परा जो धीरे-धीर लगती खोट दिखाई ।
गुरु-गरिमा भी हुई कलंकित, विद्या-प्रतिभा क्रीता,
कह पायेगा और कौन जो एकलव्य पर बीता ।
या फिर सूर्यतनय की आहत अविचल श्रद्धा-पीड़ा
छला जिसे था सबने, कितवा स्वयं जननि की व्रीड़ा ।
कालपुरुष कौटिल्य कुलाल ने गढा सुभाजन एक,
तिरस्कार की मिट्टी से जनरंजन राजन एक ।
चन्द्रगुप्त व्यक्तित्व सुगढ़ थी परिणति जिसकी प्रज्ञा की
देश-दुर्ग-प्राचीर प्रांशु जो रोके छल-बल आँधी ॥
शंकर, स्वामी दयानंद थे, रामकृष्ण गुरु ऐसे,
सकल विश्व को दिए विवेकानंद विभूति वे जैसे ।
गुरु वह, तिमिर-भाल पर निश्चय ऐसी ज्योति जलाये,
जो जीवन को नयी दिशा दे, झंझा झोंका खाए ।
कृपामोघ मिल जाए जिसको, कालपुरुष बन जाता,
कृपाकन्द गुरु बिंदु-योग से सागर-सा लहराता ।
कवि-कोविद की वाणी में है गुरु की बहुत बड़ाई,
गुरु है स्वयं जनार्दन, जिसकी जग ने गरिमा गाई ।
गुरु है गुरु, 'नीहार' ब्रह्म भी बौने जिसके आगे
बुनते शिव-सुन्दर समाज ऋत सदाचार के धागे ।
वह गुरु भौतिक भोगों के हित जब पूरा बिक जाएगा
समझो मानवता अपंग, नर कहीं नहीं टिक पायेगा
रचनाकाल-११ फरवरी १९९४
[इन्द्रधनुष-अमलदार 'नीहार]
दिनांक ०५०९-२०१८

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