शनिवार, 11 मई 2019

काँटों की बस्ती यहाँ बसाती है

काँटों की बस्ती यहाँ बसाती है

खुशियाँ जीवन के आँगन, बुलबुल के गीत सुनाती हैं ।
खुशियाँ चार पलों की एक परिन्दे-सी उड़ जाती हैं ।

जाने क्या कुछ लिखा हुआ इन हाथों की रेखाओं में,
देखो पैर न फिसले, खुशियाँ हाथ नहीं फिर आती हैं ।

खुशियाँ ख्वाबों के अण्डों से "चूँ-चूँ" करते चूजों-सी
'टूट न जाएँ-फूट न जाएँ' चिंता बहुत सताती है ।

जादू के गुब्बारे जैसी फूली-फूली फिरती है,
एक सुई की नोक बराबर किस्मत छेद बनाती है ।

भीग न जाए आवारा आँसू से दामन तेरा यह
रोशन हो ले नेह-सनी जब तक प्राणों की बाती है ।

सोच-समझ ले, गाँठ बाँध ले-'सुख कपूर-सा होता है',
एक भूल सौ-सौ काँटों की बस्ती यहाँ बसाती है ।

[आईनः-ए-ज़ीस्त-अमलदार 'नीहार']
४२३१/१, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-११०००२

नए वर्ष नित नए सृजन-संकल्प बाँधकर चलना,
साथी मेरे! सत्य-डगर पर कदम साधकर चलना ।
जीवन-जग में डगमग पग हो, कभी न दिन वह आये,
बाधाएँ विच्छिन्न तिमिरमय, नव प्रकाश छा जाए ।
मिले सफलता, स्वप्न-सजल दृग, खिले सुमन मधु जीवन,
दिग-दिगंत कल कीर्ति सुरभिमय भारत का हो उपवन ।

अमलदार "नीहार" 

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

मेरे कवि, हे अमर-अनाम!

मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
पत्तों के मर्मर-से स्वर में,
झंझानिल की "हर-हर-हर" में,
सरिता में-सर में-निर्झर में,
तुम सविता की किरन प्रखर में,
कवयन करते हो अविराम ।
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
पंछी के गीतों का गुंजन,
सन्ध्या-अरुणोदय-कलकीर्तन,
केकी का यह मनहर नर्तन,
इतना सब कुछ किसको अर्पण?
सब करते हैं तुझे प्रणाम ।
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
हाहाकार मचाता सागर,
उडता खोल तरंगों के पर,
सब कहते रत्नों का आकर',
सोच रहा मैं यही निरन्तर-
'तेरी एक बूँद का काम ।'
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
अनगिन ग्रह-तारे रच डाले,
शशि-सविता-से छंद निराले,
जिसको चाहे उसे नचा ले,
'रस' है तू तो रास रचा ले,
हे मनमोहन! मेरे राम!
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
रचनाकाल-०५ अप्रैल १९९०
हरिद्वार, (उस समय उत्तर प्रदेश), उत्तराखंड
[गीतगंगा(चतुर्थ तरंग)-अमलदार "नीहार"]

हुदहुद बेटा, नीलोफर है बिटिया मौसम की ।

हुदहुद बेटा, नीलोफर है बिटिया मौसम की ।
काली परछाईं के वश में सत्ता शबनम की ॥
पावस और अमावस ने रच साजिश घेर लिया,
आँगन मेरे रात नहाई उतरी पूनम की ।
पूँजीवादी ताकत रानी, है स्याह सियासत
क़फ़स जहाँ पर परवाज़ी मिट्ठू तोते बौड़म की ।
भरा पेट या खाली -देखे, हक़ यह अम्मा का
रखे पीठ पर हाथ पिता-मन, चिंता हमदम की ।
सच का साथ नहीं दे पाती, दुनिया डरती है,
झूठ तानकर सीना चलता, चाँदी चमचम की ।
पागल है 'नीहार' ज़ुबाँ से दिल की बात कहे
खुली हथेली आतिश चूमे, मस्ती दमख़म की ।
[आईनः-ए-ज़ीस्त-अमलदार "नीहार"]

राजनीति की परिभाषा


[कविता लम्बी है, बीच में कुछ अंश छोड़ दिए हैं ।]
राजनीति की परिभाषा
राजनीति भाषा का छल है,
कनीनिका तक वारवधू का फैला पैना काजल,
भक्ष्य पचाकर पिघले आँसू-
जैसे मगरमच्छ की करुणा
या दलदल है जिसमें डूबा
भाग्य-कर्ण के रथ का पहिया ।
चक्रव्यूह-अभिमन्यु सरीखे बालक जिसमें
मारे जाते सात-सात महारथियों से घिरकर ।
राजनीति निर्वस्त्र सभ्यता की है जारज बेटी,
शब्द-उपानह माल पहनकर
अँकड़ी रहती अमेरिका-सी
कालिख पोत शीतला-वाहन के अयाल से क्रीड़ा करती,
हठी हया को लात मारकर दूर भगाती ।
राजनीति का केतु शबल है---
सत्य, अहिंसा, प्रेम और विश्वास, दया का है पिटता-सा रंग;
हिंसा-प्रतिहिंसा ही केवल
राग-द्वेष के, छल-प्रपंच के रंग अधिक हैं गहरे ।
पंजे में परमाणु दबाये उड़ाते हैं अब शान्ति-कबूतर,
राजनीति के खेल निराले----
गौतम-गाँधी, राम-कृष्ण, गुरु नानक याकि मुहम्मद
पूज्य सभी, हैं मात्र ताश के पत्ते इसमें ।
पूत ह्रदय की आस्थाओं को अस्त्र बनाती
स्वार्थनिरात नित दाँव लगाती
भोली-भाली धर्मप्राण जनता की दुर्बलता ।
राजनीति-रस---मादक मदिरा, वैभव-भोग सभी से बढ़कर
चढ़कर सत्ता की कुर्सी पर, जाता है जन भूल सभी कुछ
फैलाता दुर्गन्ध भयंकर
पुरीष-ढेर-सी महँगाई-मल, भ्रष्टाचार, विषमता,
भेदभाव, भय-भूख, सभी तो
पान-पीक-सी राजनीति की ।
राजनीति के अनन्त बाहु हैं, अनन्त पाद,
विकराल दंष्ट्र है, भीष्म उदर
दिक्काल गूँजते घोष प्रखर
दृग दर्पदृप्त हैं, दीप्त भाल
कुत्सित कलुष फूत्कार व्याल
मुख-जिह्वा-दन्त-गरल ग्रन्थिमय
हैं अनन्त इस राजनीति के ।
उद्गीर्ण प्रबल हैं रक्तबीज कुत्सित विचार
क्या घर-आँगन, क्या सरस्वती के पावन मन्दिर
सर्वत्र व्याप्त
युगधर्मवाहिनी राजनीति हे!
दया करो, तुझको प्रणाम ।


(रचनाकाल ; २१ दिसंबर १९९८ )
अमलदार "नीहार"

मैं भी रसानन्द बरसाऊँ

मैं भी रसानन्द बरसाऊँ
( लगभग २५ वर्ष पहले की रचना)
काजल की स्याही में पिघली प्रीति, मनोहर धूप घोलकर
चितवन की पाती जो लिख दो, पढ़कर मन की प्यास बुझाऊँ ।
उर में छिटके धवल चाँदनी, पूनम की अँगड़ाई की,
साँसों में भर जाय सुरभि शुचि पाटल वन-अमराई की ।
अलकावलि तुम दो बिखेर, लुट जाए शोभा अलका की
और कुबेर अकिंचन, लिप्सा सुषमा की परछाईं की ।
मौसम अलबेला भी चाहे रख दे तेरा रूप तोलकर,
और एक कण पाकर जिसका मैं कुबेर जैसा बन जाऊँ ।
लीला लंक, मनोरम उर्मिल, ये नदियाँ इठलाती हैं,
पीन पयोधर सानु, घाटियों-सी चूनर लहराती है ।
चलापाङ्ग से ग्राम-वधूटी-सी सकुचाई-सहमी ज्यों,
लहरा प्रियतम प्रणय-पाश में साधिकार खो जाती है ।
मिल जाती हो तुम अनन्त में मन के सारे भेद खोलकर
औ अभेद का पाठ पढ़ाकर मुझको, कैसे उसे भुलाऊँ ?
वेणी में दो फूल गुँथे हैं, समझो रवि-राकेन्दु भले;
अनगिन ग्रह उडुमाल-आभरण, ग्रीवा गगन-सुगंग रले ।
परिवर्तन पायल की रुनझुन, काल-कुशीलव इंगित पर
जाता-फिरता, उठती-गिरती सृजन-प्रलय की ऊर्मि ढले ।
जगद्व्यापिनीं सुन्दरते ! तुम 'रसमय हो नीहार' बोलकर
जीवन-रसानन्द बरसाओ, मैं भी रसानन्द बरसाऊँ ।
[गीत-गंगा(पंचम तरंग)-अमलदार "नीहार"]

शब्द मेरी कल्पना के पाँव की मंजीर है,

शब्द मेरी कल्पना के पाँव की मंजीर है,
अर्थ मेरी सिसकानों से सान्द्र उर की पीर है ।
जब कभी चाहा धरा पर चाँद-तारों को उतारा
स्याह सावन की घटा से प्रियतमा-कुन्तल सँवारा ।
दामिनी से कामिनी के आभरण सज्जित किये,
काम-वामा-अप्सरा-लावण्य तक लज्जित किये ।
पाटलों से, पद्मदल से थे अधर कोमल कभी,
नेत्र में अञ्जन, निरञ्जन झील-सी निर्मल कभी ।
चितवनों में वारुणी थी, विष-भरा पीयूष था,
आस्यमण्डल व्योम का पूर्णेन्दु था, प्रत्यूष था ।
कम्बु-सी ग्रीवा सुराही, थी सुरा ही बोल में,
पिक-पपीहा औ कलापी-काकली की तोल में ।
नाग-नीरजनाल भुज पर थे घटित उपमान ज्यों,
अवयवों की चारुता ज्यों रस-कलश-पहचान हो ।
लंक-लीला हरि, जघन रम्भा, गयन्दिनि गामिनी,
क्यों न अंगों में उमंगें, हो जो मधुमय यामिनी ।
पर अचाहे रूप-यौवन पर ज़रा आती है क्यों?
जो न आये हाथ ऐसी चीज फिर भाती है क्यों?
मृत्यु का अंकुश लगा, नीहार ढलना है कभी ।
छोड़ जग के मोह, तम से पार चलना है कभी ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-२९--१२-२०१८

आत्मा क्यों बावली है ?

आत्मा क्यों बावली है ?
हे मनोहर मीत मेरे! प्राण-पुलकित प्रीत मेरे!
साँस-सुरभित गीत मेरे! पीर शब्दों में ढली है ।
कण्टकों की सेज सोया, दर्द दुनिया के मैं रोया,
प्राण-पलकों में पिरोया आँसुओं की नम कली है ।
मौत के सँग सात फेरे, साथ वह दिन-रात मेरे,
ज़िंदगी में बस अँधेरे, बन्द होती-सी गली है ।
मैं भला हूँ या बुरा हूँ, पर न इतना बेसुरा हूँ,
जिसलिए जीता-मरा हूँ, दुष्ट माया मनचली है ।
''था बहुत 'नीहार' अच्छा, क्या ठहाका? यार अच्छा"
कल कहेगी-" प्यार सच्चा", आज दुनिया दिलजली है ।
भेद तो सारा खुला है, ज़िंदगी में विष घुला है,
चार दिन का बुलबुला है, आत्मा क्यों बावली है?
[गीत-गुंजार-अमलदार "नीहार"]

एक दिन हम इस चमन के बागबाँ बनके रहेंगे ।

एक दिन हम इस चमन के बागबाँ बनके रहेंगे ।
शक नहीं इसमें, नहीं हम नातवाँ बनके रहेंगे ॥

गुल-बहारों-बुलबुलों के वे दिन फिरेंगे फिर कहीं
ख़्वाब की परवाज़ के हम आसमाँ बनके रहेंगे ।

हम तोड़ देंगे इस वतन की मुश्किलों के हौसले
प्रेम का दरिया दिलों के दरमियाँ बनके रहेंगे ।

नासूर नफ़रत का मिटे, मैमून अपना है यही
आज तो चाहे अकेले, कारवाँ बनके रहेंगे ।

दो कदम ईमान से कोई चले तो साथ मेरे
एक दिन सारे जहाँ सच की सदा बनके रहेंगे ।

चिपका हुआ है मुफलिसी का दाग जो तस्वीर में
दूसरा सच्चा मुसव्विर या खुदा! बनके रहेंगे ।

[आईनः-ए-ज़ीस्त-अमलदार 'नीहार']
४२३१/१, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-११०००२