मंगलवार, 1 जनवरी 2019

राजनीति की परिभाषा


[कविता लम्बी है, बीच में कुछ अंश छोड़ दिए हैं ।]
राजनीति की परिभाषा
राजनीति भाषा का छल है,
कनीनिका तक वारवधू का फैला पैना काजल,
भक्ष्य पचाकर पिघले आँसू-
जैसे मगरमच्छ की करुणा
या दलदल है जिसमें डूबा
भाग्य-कर्ण के रथ का पहिया ।
चक्रव्यूह-अभिमन्यु सरीखे बालक जिसमें
मारे जाते सात-सात महारथियों से घिरकर ।
राजनीति निर्वस्त्र सभ्यता की है जारज बेटी,
शब्द-उपानह माल पहनकर
अँकड़ी रहती अमेरिका-सी
कालिख पोत शीतला-वाहन के अयाल से क्रीड़ा करती,
हठी हया को लात मारकर दूर भगाती ।
राजनीति का केतु शबल है---
सत्य, अहिंसा, प्रेम और विश्वास, दया का है पिटता-सा रंग;
हिंसा-प्रतिहिंसा ही केवल
राग-द्वेष के, छल-प्रपंच के रंग अधिक हैं गहरे ।
पंजे में परमाणु दबाये उड़ाते हैं अब शान्ति-कबूतर,
राजनीति के खेल निराले----
गौतम-गाँधी, राम-कृष्ण, गुरु नानक याकि मुहम्मद
पूज्य सभी, हैं मात्र ताश के पत्ते इसमें ।
पूत ह्रदय की आस्थाओं को अस्त्र बनाती
स्वार्थनिरात नित दाँव लगाती
भोली-भाली धर्मप्राण जनता की दुर्बलता ।
राजनीति-रस---मादक मदिरा, वैभव-भोग सभी से बढ़कर
चढ़कर सत्ता की कुर्सी पर, जाता है जन भूल सभी कुछ
फैलाता दुर्गन्ध भयंकर
पुरीष-ढेर-सी महँगाई-मल, भ्रष्टाचार, विषमता,
भेदभाव, भय-भूख, सभी तो
पान-पीक-सी राजनीति की ।
राजनीति के अनन्त बाहु हैं, अनन्त पाद,
विकराल दंष्ट्र है, भीष्म उदर
दिक्काल गूँजते घोष प्रखर
दृग दर्पदृप्त हैं, दीप्त भाल
कुत्सित कलुष फूत्कार व्याल
मुख-जिह्वा-दन्त-गरल ग्रन्थिमय
हैं अनन्त इस राजनीति के ।
उद्गीर्ण प्रबल हैं रक्तबीज कुत्सित विचार
क्या घर-आँगन, क्या सरस्वती के पावन मन्दिर
सर्वत्र व्याप्त
युगधर्मवाहिनी राजनीति हे!
दया करो, तुझको प्रणाम ।


(रचनाकाल ; २१ दिसंबर १९९८ )
अमलदार "नीहार"

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