मंगलवार, 1 जनवरी 2019

शब्द मेरी कल्पना के पाँव की मंजीर है,

शब्द मेरी कल्पना के पाँव की मंजीर है,
अर्थ मेरी सिसकानों से सान्द्र उर की पीर है ।
जब कभी चाहा धरा पर चाँद-तारों को उतारा
स्याह सावन की घटा से प्रियतमा-कुन्तल सँवारा ।
दामिनी से कामिनी के आभरण सज्जित किये,
काम-वामा-अप्सरा-लावण्य तक लज्जित किये ।
पाटलों से, पद्मदल से थे अधर कोमल कभी,
नेत्र में अञ्जन, निरञ्जन झील-सी निर्मल कभी ।
चितवनों में वारुणी थी, विष-भरा पीयूष था,
आस्यमण्डल व्योम का पूर्णेन्दु था, प्रत्यूष था ।
कम्बु-सी ग्रीवा सुराही, थी सुरा ही बोल में,
पिक-पपीहा औ कलापी-काकली की तोल में ।
नाग-नीरजनाल भुज पर थे घटित उपमान ज्यों,
अवयवों की चारुता ज्यों रस-कलश-पहचान हो ।
लंक-लीला हरि, जघन रम्भा, गयन्दिनि गामिनी,
क्यों न अंगों में उमंगें, हो जो मधुमय यामिनी ।
पर अचाहे रूप-यौवन पर ज़रा आती है क्यों?
जो न आये हाथ ऐसी चीज फिर भाती है क्यों?
मृत्यु का अंकुश लगा, नीहार ढलना है कभी ।
छोड़ जग के मोह, तम से पार चलना है कभी ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-२९--१२-२०१८

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें