बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

ज्ञानकोश

अमलदार 'नीहार'
हिंदी विभाग

ज्ञानकोश शब्द नया है | संभवतः पश्चिम में ज्ञानकोश लिखने का पहला प्रयत्न यूरोप में फ्रांस के कुछ पण्डितों ने अठारहवीं शताब्दी में किया था जिन्हें 'इन्साइक्लोपीडिस्ट' के नाम से जाना जाता है | इनमें फ्रांस के महान दार्शनिक और रचनाकार वाल्तेयर भी थे | हमारी अपनी जानकारी में दुनिया के सबसे पुराने ज्ञानकोशकार महर्षि व्यास माने जाते हैं | महाभारत को इसी लालसा के चलते उन्होंने या उनके शिष्यों ने एक महाकाव्य से अधिक एक महाकोश बना दिया | उन्होंने कहानी में कोने-अँतरे तलाश कर या क्षेपक जोड़कर बहुत से ऐसे विषय और प्रसंग इसमें समेट लिए जिनको किसी महाकाव्य में रखना जरूरी नहीं था | लोगों का यह दावा कि जो कुछ इसमें है, वही अन्यत्र भी मिलेगा, जिसका वर्णन इसमें नहीं है, वह कहीं और मिल ही नहीं सकता, 'यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित' या महाभारत में जिसका वर्णन नहीं है, वह भारत में है ही नहीं , 'यन्न भारते तन्न भारते', इसी को प्रमाणित करता है | इसी के चलते रामायण के चरित्र को भी काफी दूर तक बदलकर उसकी प्रवाहमय कथा को कुछ लद्धड़ बना दिया गया और कुछ इधर-उधर का ज्ञान इनमें भी पिरो दिया गया | रामायण और महाभारत की लोकप्रियता का प्रधान कारण भी यही है कि ये साहित्य की भूख मिटाने से अधिक ज्ञान की भूख मिटाते हैं | तुलसी इस भेद को जानते थे और उन्होंने अपने मानस में नाना पुराणों, निगमों, आगमों के अतिरिक्त अन्यत्र से भी सामग्री लेकर और बहुत सूझ-बूझ से मार्मिक स्थलों पर पिरोकर 'मानस' को वाल्मीकि रामायण से भी अधिक उपयोगी ज्ञानकोश बना दिया | तुलसी के मानस की लोकप्रियता का प्रधान कारण भी भक्तिभावना नहीं, मानस की यही ज्ञानवर्धकता है | अकेले तुलसी का मानस पढ़कर ही अक्षर-ज्ञान रखने वाले नर-नारी पंडित बन जाते रहे हैं और व्यावहारिक जगत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लेते रहे हैं | पुराणों का तो लक्ष्य ही था सृष्टि से लेकर प्राचीन इतिहास और अन्य सूचनाओं को एकत्र करना | इन महाकाव्यों ने इस मामले में उन्हें पीछे छोड़ दिया | पर इन सभी की एक सीमा रही है | इनकी प्रकृति आधी धार्मिक और आधी साहित्यिक रही है | यही कारण है कि जिन देशों में भारतीय राजाओं, व्यापारियों और धर्मप्रचारकों का सीधा प्रवेश हो पाया था, जो इनके संपर्क में रहे, उनमें से कुछ ने ही 'रामायण' और 'महाभारत' की कहानियाँ और लीलाएँ पहुँच पायीं | उनका ज्ञानपक्ष वहाँ उपेक्षित ही रहा | पुराणों का प्रवेश हुआ तो भी तो उनका प्रभाव अल्पकालिक ही रहा |

पर भारतीय कृतियों में पंचतंत्र अकेली ऐसी रचना है जिसे सही अर्थ में दुनिया का  सबसे पुराना  ज्ञानकोष कहा जा सकता | इसे इसी रूप में दुनिया में जाना भी गया | जिन देशों से भारतीयों का नाम मात्र का ही संपर्क रहा, वहां भी इसकी धूम मच गयी थी | जिन देशों में 'रामायण' और 'महाभारत' का नाम आधुनिक काल से पहले नहीं सूना गया, उनमें भी प्राचीन काल में ही इसका प्रवेश हो गया था | जिन भाषाओं का लिखित साहित्य नहीं था, उनमें भी इसका प्रवेश लोक-परम्परा के रास्ते हो गया था | इसका अनुवाद करने वालों ने इसे ज्ञान की किताब कहकर ही अपनाया और अनुवाद किया | वह दुनिया का प्राचीनतम ज्ञानकोश है और विष्णुशर्मा दुनिया के पहले ज्ञानकोशकार | इसकी प्रकृति उतनी ही सम्प्रदायनिरपेक्ष है जितना किसी ज्ञानकोश की होनी चाहिए | शर्माजी ऊँचे परिवारों, ऊँची जातियों, धर्मों, मतों, साधुओं, संन्यासियों, राजाओं, रानियों, मंत्रियों, पुजारियों, पंडों, महंतों, किसी को क्षमा नहीं करते और मानकर चलते हैं कि इनमें से कोई भी उतना ही घटिया हो सकता है जितना घटिया से घटिया आदमी | धर्म, मठ, मन्दिर, जाति, सम्प्रदाय, आदर्श, कुछ भी ऐसा नहीं है जिसका उपयोग भ्रष्ट और अपराधी लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए न कर सकें और इसलिए प्रशासक को केवल इसलिए इन्हे सहन नहीं करना चाहिए कि भ्रष्ट और अपराधी तत्वों ने इनकी आड़ ली है | यह एक शिक्षा है, जिसे धर्मनिरपेक्षता और सर्वधर्मसमभाव को तकिया कलाम की तरह दुहराते रहने वाले  राजनीतिज्ञ और प्रशासक सीख सकें तो वे देश और समाज का बहुत कल्याण करेंगे | सेकुलरिज्म पश्चिम के लिए नई अवधारणा हो सकती है क्योंकि वहाँ धार्मिक जकड़बन्दी इतनी कठोर रही है कि तनिक सी छूट को भी असह्य मानकर भारी रक्तपात होता रहा है | इस देश में इसकी एक लम्बी परम्परा रही है और इसका कुछ श्रेय चाणक्य जैसे अर्थशास्त्रियों और विष्णुशर्मा जैसे रचनाकारों को जाता है |

भगवान सिंह

प्रस्तुति
अमलदार 'नीहार'

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

चौतरफा प्रदूषण

अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग

आज हम चौतरफा प्रदूषण से जूझ रहे हैं । चौराहों, रेलवे क्रासिंग और सँकरी सडकों-गलियों में लगने वाले जाम और धुँआ उगलते वाहन, जिसे चाहे-अचाहे सबके फेफड़े स्वीकार कर रहे हैं । हमारी नदियाँ गंदे नालों को गले लगाने को मजबूर हैं, मिलों-फैक्टरियों का जहर भी पीने के िए अभिशप्त हैं नदियाँ । एक प्रकार से गंगा-यमुना ही नहीं, लगभग सभी सदानीरा नदियाँ आधुनिक सभ्यता का विष पीने वाली नीलकंठ महादेव बनी हुई हैं । हमारी धरती, कृषिभूमि, फल-सब्जियाँ, दूध-घी सब कुछ प्रदूषित है । यहाँ तक कि हमारे विचारों में भी प्रदूषण अपनी ऐसी जगह बना चुका है । अब हमें घूसखोरी, छल-फरेब, चोरी-मक्कारी अथवा किसी भी दुष्कृत्य पर उतनी शर्म नहीं आती । झूठ बोलना और अपना काम निकालना सयानेपन में शामिल है । जो जिसको जितना बेवकूफ बना सके या चूना लगा सके, वह उतना ही अधिक काबिल है । पूजा-अनुष्ठान आदि भी पाखंडियों के कब्जे में है । आदमी दिन भर हर बात में-हर चीज में झूठ-फरेब की मिलावटखोरी करता है और सुबह-सबेरे मंदिर में मत्था भी टेकता है, माथे पर चन्दन लगाकर उच्च कोटि का भक्त होने का प्रमाण देना चाहता है । आये दिन अखंड रामायण, भागवत महापुराण का पाठ, हरि-कीर्तन और यह सब एक दिखावे के साथ कर्णभेदी लाउडस्पीकर के साथ कि आस-पास के बूढ़े-बच्चों-स्त्रियों और दिन भर खटने-खपने वालों की नींद हराम करते हुए । मेरे मोहल्ले में भी कल से हरि-कीर्तन जारी है और ऐसा ध्वनि-प्रदूषण तारी है कि सिर दर्द से फटा जा रहा है । किसी को ब्लडप्रेशर की परेशानी हो, किसी को दिल की बीमारी हो या कोई दिमागी दुष्प्रभाव पड़ता हो इन सब कृत्यों से, उनकी बला से । मैं पूजा-पाठ, अनुष्ठान अथवा भजन-कीर्तन से कोई चिढ नहीं रखता । मेरे घर पर भी एक बार तुलसी-मानस का पाठ रखा गया श्रीमतीजी के आग्रह पर, किन्तु उनके लाख कहने के बावजूद मैंने लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं होने दिया था और वह मेरे लिए जरूरी नहीं है । अनेक धार्मिक ग्रंथों के साथ 'मानस' का मानस-पाठ निरंतर चलता ही रहता है । वह सब तो अध्यवसाय का अंग ही है मेरे लिए, पर सच्ची उपासना यह है कि सृष्टि के प्रत्येक पिंड में ईश्वरांश की अनुभूति हो और उससे तादात्म्य-सहअस्तित्व की भावना प्रबल हो। दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर सुख की कल्पना करना ही ईश्वर के विरुद्ध आचरण है । एक सामान्य भारतीय हिन्दू की तरह मैं भी ईश्वर में अटल विश्वास करता हूँ, लेकिन मेरा ईश्वर बहरा नहीं है, उसे मैं बिना आवाज लगाए भी पुकार लेता हूँ । 'विरही विचारन की मौन में पुकार है' । ईश्वर को पुकारने के लिए प्राणों में वेदना का स्वर होना चाहिए । इसके लिए किसी लाउडस्पीकर की जरूरत नहीं है मेरी समझ से । इसी प्रकार किसी अन्यधर्मावलम्बी यदि अपनी भक्ति को जगाने के लिए दूसरों का सुख-चैन हराम करता है तो वह ईश्वर के विरुद्ध आचरण करता है । यदि सरकार व्यवहार में कोई कठोर कदम इस पर उठाती है तो इस धार्मिक कहे जाने वाले देश में बड़ा बवाल मच सकता है, लेकिन सवाल तो है । यह ध्वनि-प्रदूषण भी जानलेवा है और इस पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत है सभी को ।

अमलदार "नीहार" 

शब्द

शब्द-ब्रह्म का सच्चा साधक
आराधक उसकी सत्ता का
निष्ठावान पुजारी हूँ में-
कभी 'रथी' आरूढ़ प्राण बन
पार्थ सदृश मैं, अर्थ अपोहित
और कभी मैं बन जाता हूँ शब्द-सारथी
पार्थ-सखा मैं हृषीकेश,मैं योगेश्वर, वह कृष्ण चतुर मैं |
रोम-रोम शब्दों की सिहरन
अर्थ-वलय में लय की थिरकन
हर धड़कन में, प्राण-पुरस्सर
नर्दित शब्द-लहर नित नर्तन |
मैं शब्दों को छू लेता हूँ-शशक सदृश पेशल रोमावलि
और कभी वे काँटों जैसे निशित नुकीले
कँकरीले-खुरदरे-गठीले-कुछ कनेर-पत्तों से पीले
दाहक कुछ अंगार-भरे से |
सुनता हूँ ऐसे मैं, जैसे
काल-गुफा में गूँज रही ध्वनि-
मृत्यु-वधु-नूपुर की रुनझुन
सागर के उत्ताल तरंगाकुल अंतर की व्याकुल धड़कन |
शब्दों के रस पीता रहता ऐसे, जैसे विष पी जाता
आँख मूँद जीवन-अँगड़ाई के अधरों का मादक चुम्बन,
मैं शब्दों का 'मधुप' भ्रमर हूँ-गंध-प्राण मैं, रसिक-चहेता
रस-अध्येता |
सूँघ-समझ लेता हूँ शाद्वल खेतों में क्या फूल खिले हैं,
कहाँ-कहाँ साजिश की बू है, रंग हवा में कौन घुले हैं,
मैं शब्दों की यजन-क्रिया हूँ, मैं शब्दों का चित्रकार हूँ,
मैं शब्दों की सृष्टि प्रकाशित, मैं शब्दों का सत्य-सृजेता
शब्द-ब्रह्म में लीन अनिर्वच
परम तत्त्व की ज्योति-शिखा हूँ-
मैं कुबेर-सा, किन्तु अकिंचन
प्रणव-लीन, पर प्रणयी-याचक शब्दों की सत्ता के सम्मुख |

रचनाकाल : ०७ फरवरी, २०१४
[ह्रदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार']

अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग

सरस्वती-स्तवन

रजत किरीट हिमवान, भारती के भाल
कनक किरन रवि रम्य विद्यमान है,
यमुना-तरंग-संग गंग की तरंगिणी में
सरस्वती-रंग का तिरंगा द्युतिमान है ।
खिले शतदल सम सागरों के शत द्वीप
चरन पखारती-सी ऊर्मि साभिमान है,
भारती ही भारत या भारत ही भारती है
आरती में गीत मेरे और गीता-ज्ञान है ॥ १ ॥

मन-प्राण-उर-कंठ-रसना में, रोम-रोम
रमो पोर-पोर, मेरी पीर-तरुनाई में,
भाव में, स्वभाव मेरे, शब्द-शब्द, अर्थ-रस
रचना में लसो छंद-छंद की लुनाई में ।
गुरु में प्रकाश भव्य नव्य दिशाकाशमय
आयत गवाक्ष अक्ष जग की भलाई में,
रसवती सरस्वती ! नय में विनयशील-
सदाचार रूप बसो शिष्य सुघराई में ॥ २ ॥

राजनीति रजस्वला पावसी प्रवाहिनी-सी
बहने से देश का चरित्र तो बचाइये,
बालक मराल चुगें मुक्तिमाल सविवेक,
शकृत न मौकुलि-समान, समझाइये ।
आँधियाँ हजार, बुझे दीप की न जिजीविषा,
ममता की ओट अम्ब! आँचल छिपाइये,
भरे पारावार-किलकारियाँ नीहार-बूँद
मधुरगिनी नवीन बीन तो बजाइए ॥ ३ ॥

[इन्द्रधनुष(प्रथम रंग)-अमलदार "नीहार"]
प्रकाशन वर्ष-२०११

अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग

निराला का जन्म माघ शुक्ल ११, संवत् १९५५, तदनुसार २९ फरवरी १८९९ को हुआ था और जब उनके पिता रामसहाय ने महिषादल के स्कूल में १३ सितम्बर १९०७ को तीसरी कक्षा में 'सुर्जकुमार' का नाम लिखाया तो दो वर्ष बढाकर । उस समय उनकी वास्तविक उम्र थी दस साल आठ महीने । उनका जन्म बसंत पंचमी को नहीं हुआ था, पर बाद में जब वे कविरूप में ख्यात हो गए तो उन्होंने बसंत पंचमी को ही अपना जन्मदिन घोषित कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि वे सरस्वती के साक्षात पुत्र हैं, इसलिए उनका भी जन्मदिन वही होना चाहिए, जो माँ सरस्वती का है । इसीलिए सरस्वती का यह जन्मदिन निराला-जयन्ती के रूप में भी मनाया जाने लगा । भगवती भारती के साथ इस भारती-पुत्र की पावन स्मृति को भी नमन ।

(रामविलास शर्मा की पुस्तक "निराला की साहित्य-साधना"के अनुसार)
अमलदार "नीहार"

अन्तर्राष्ट्रीय बेटी-दिवस पर

नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः |
यद् यच्छरीरमादत्ते तेन-तेन स युज्यते ||

(श्वेताश्वतरोपनिषद-५/१०)



दीक्षांत समारोह में सम्मानित बेटियों के लिए

(भ्रूण-ह्त्या के खिलाफ)

बेटी : पाषाण-पीठ पर कुसुमित कल्पलता
(जिसे कविता न समझ में आये, वह इसका तीन पाठ करे)

हे माँ !
मैं तुम्हारी भूमि-कक्षा में न जाने कब, कहाँ से
व्योम-तल की तारिका-सी
कामना की वह्नि-लहरों में
सहज तिरती हुई-सी ज्योति कोई
युग्म रेतस-पुष्परज से जो विनिर्मित
पिण्ड वह पिशितांश-कारा, वन्दिनी-सी
कर उठी चीत्कार सहसा
मैं तुम्हारे मधु सृजन की सेज दोलित जलपरी-सी
लीन लीलोल्लास-पुलकित
खेल जीवन का निरखती |

फिर अचानक देखती क्या?
थरथराती-सी थिरकती काल की विकराल छाया
किस त्वरा के साथ अपनी क्रूरता के पग उठाती
आ रही है, छा रही है भीति-शंका-शूल-सिहरन
सनसनी-सी, कँपकँपायी, क्या करूँ मैं?
थम गयी सहमी हुई खर डंक-पीड़ित
डूबती आतंक-तम के पंक-मीडित
फूटता है लाल लोहू, काटता प्रत्यंग प्रतिपल
हाय! कैसा छल हमारे साथ कितना क्रूर-निर्मम !
यह तुम्हारी प्रीति का या पाप का है पारितोषिक?

मैं अमर हूँ-चेतना की अग्निपाखी, जान ले तू
रे अभागे मर्त्य मानव! शक्ति को पहचान ले तू
प्राण की दुहिता तुम्हारी त्राण देती अम्बिका भी,
चुलबुली यामी यमी भी, स्वप्न-संगम-नायिका भी |
माँ ! तुम्हारी दीनता का दंश मुझको है पता,
माँ! पिता का डूबता है वंश, मुझको है पता,
चेतना की ज्योति मुझमें, कामना का ज्वाल मैं भी
मैं सृजन की बेल जग की, फैलती दिक्काल मैं भी |

[शीघ्र प्रकाश्य कृति "मेरी कविताओं में स्त्री : स्त्री का जीवन और जीवन में स्त्री" में संगृहीत-अमलदार 'नीहार' ]

शब्द कठिन सरलार्थ-प्रकाश

भूमि-कक्षा= माँ का गर्भ | व्योमतल की तारिका= अकल्पित, कल्पना से परे, अलौकिक, दिव्य शक्ति, जीवन के लिए मूलयवान और चमकदार | कामना की वह्नि-लहर=जलती हुई(अतृप्त) इच्छाओं-वासनाओं की आग की लहर | रेतस=पुरुष तत्व | पुष्परज=स्त्री तत्व | पिशितांश-कारा=मांस के लोथड़े का कारागार | दोलित=झूलती हुई-सी, अर्थात बड़े ही मौज में | त्वरा=तीव्रता | खर=तीक्ष्ण, तेज धारदार | लोहू=खून | अग्निपाखी=एक कल्पित पक्षी, जो अग्नि-दग्ध भस्म-राशि से पुनः जीवित हो उठता है | मर्त्य=मरणशील, मरणधर्मा | दुहिता=बेटी, दोहन करने वाली(प्राचीन काल में गायों को दुहने के कारण 'दुहिता' कहलायी, किन्तु आज दहेज़-प्रथा की जटिलता के कारण निधन माँ-बाप के लिए 'दुहिता' साबित हो रही है, जो प्राणों को भी दुह लेती है(प्राण की दुहिता से यह भी तात्पर्य होगा कि प्राणों में रमने वाली बेटी, अर्थात अत्यंत प्रिय) | अम्बिका=माँ, जगज्जननी, सृजन की देवी, मातृशक्ति | यामी= छोटी बहिन | यमी=यमराज की भगिनी (तारने वाली यमुना) | दिक्काल=सभी दिशाओं और कालों में |

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"अपने समय का तिरस्कृत साहित्यकार भी निर्मम समाज की कोख में अवांछित भ्रूण कन्या की ही तरह संकट में होता है | "
अमलदार नीहार

भारती-स्तवन और भारत-स्तवन

" मरु ह्रदय, पीर-निर्झर नयन हो गए "

गीत मेरे महकते सने गन्ध केशर कभी, आज उजड़े चमन हो गए ।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय, पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

स्नात आँसू लहू के हिमालय हुआ तव, वसन गंग का स्याह आँचल बना,
सुतिरंगा तरंगिणि त्रयी हो गयी, रंग हरिताभ यह शस्य श्यामल बना ।
दिव्य माला स्फटिक चक्र करुणा-कलित, कर्ण-कुंडल कलाधर-तपन हो गए।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

काँपती-सी कली, कोकिला-काकली है डरी आज सहमी सी हैं घाटियाँ,
दीप अनगिन जगें , जागते ही रहें, अन्ध चाहे चलें सैकड़ों आँधियाँ ।
तोम तिमिरा विपुल विघ्न-बाधा हटा, प्रार्थना के थके-से वचन हो गए।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

बीन ऐसी बजा भारती! भारती भैरवी भयरवी भूमि गूँजे गगन,
काँप थर-थर उठें आसुरी शक्तियाँ, शान्ति-सीता लिए फिर हो लंका-दहन।
अग्नि-वीणा सजे स्वर सधे एकता-मन्त्र, गर्जन तुमुल पोखरन हो गए ।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर निर्झर नयन हो गए ॥

द्वेष-ईर्ष्या-विकल पाशवी वृत्तियाँ खेलतीं नित्य होली लहू से भरी,
इन्द्रधनुषी न झूले सजें सावनी, अब न रस की भरे गोपिका गागरी।
पौर-पनघट-भुजगदंश-मूर्च्छित हवा-भीत मुरली मनोहर सपन हो गए,
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

यह सरसिज ह्रदय युग चरण के लिए, मानसी हंस मेरा विराजो गिरा,
प्राण-पुलकन-श्वसन रसनामृत बसो , लेखनी में लसो पावनी निर्झरा ।
कल्प आँसू जिए, कौमुदी पय पिए नव्य "नीहार" मौक्तिक मगन हो गए ।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

रचनाकाल-१२-०१-२००२
[इन्द्रधनुष(तृतीय रंग) -अमलदार "नीहार" ]

बूँद भर व्याख्यान हूँ

मैं किसी के आँसुओं में प्यार बनकर पल रहा हूँ,
आह बनकर वेदनानल में निरन्तर जल रहा हूँ |
मैं भले ही पीर की अनुभूति का अभिमान हूँ,
कवि-ह्रदय की वेदना का बूँद भर व्याख्यान हूँ ||

घट-घटा से प्यार का पावस घनेरा बन गया हूँ,
आँचलों में रंग भरकर मैं चितेरा बन गया हूँ |
मैं भले ही चर-अचर के सौख्य का संधान हूँ,
कवि-ह्रदय की वेदना का बूँद-भर व्याख्यान हूँ ||

मैं तपन का ताप, शीतल चन्द्रमा की कौमुदी हूँ,
व्याध का विषमय विशिख, ऋषि-नेह पूरित इंगुदी हूँ |
मैं भले समझूँ कि मृग का ही करुण अभिज्ञान हूँ ,
कवि-ह्रदय की वेदना का बूँद-भर व्याख्यान हूँ ||

मधुमय प्रकृति की कल्पना का बल अपरिमित बाँधकर,
लिखने चला था मैं कला की साधना को साधकर |
मैं भले 'नीहार'-जग-सौहार्द की पहचान हूँ,
कवि-ह्रदय की वेदना का बूँद-भर व्याख्यान हूँ ||

रचनाकाल : १३ अगस्त, १९९५
[गीत-गंगा(षष्ठ तरंग)-अमलदार 'नीहार']
प्रकाशन वर्ष-१९९८

ऐसा हुआ विकास

गंगा चली पहाड़ को, ऐसा हुआ विकास |
गर्दन कटी गरीब की, मिटी न अब तक आस ||

भीखू भूखा रह गया, नंगा और उदास |
तोंद बड़ीं कुछ हो गयी, जो साहब के ख़ास ||

न्याय-नीति के नाम पर बहुत हुआ अन्धेर |
सच के पहरेदार की दुखी दीन-सी टेर ||

दहशत के साम्राज्य का अब कितना विस्तार?
दुखड़ा रोये न्याय जब जनता के दरबार ||

आँसू दरिया हो गए, पीड़ा हुई पहाड़ |
लोकतंत्र की लाश पर रोये निष्ठा राँड़ ||

बुलबुल बोले बाज से-;तुम तो दया-निधान; |
भोले से विश्वास का पुतला हिन्दुस्तान ||

सोचो-किसके हाथ में भारत की तकदीर |
फटेहाल-सी ज़िंदगी, होगी वह तस्वीर ||

कैसी होगी दासता, कैसे किसके खेल |
राजनीति-रणधीर सब ताने खड़े गुलेल ||

१४ जनवरी, २०१८
[नीहार-नौसई-अमलदार 'नीहार' ]


नीहार-सतसई के दोहे-

अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग
पिछले वर्ष की पोस्ट, जब लगभग चार महीने अपने सम्बन्धित बैंक के सामने लगी भीड़ में खड़े होने की हिम्मत नहीं पड़ी मेरी भी।

कैसे बचे सुहाग?
मस्त-मगन जो ढो रही फसल पीठ पर ऊन ।
झाँसे में उसको मिला सपनों का बैलून ॥
अलबेली-सी कैंचियाँ, अलबेला अंदाज ।
सोहर गाये मूँड़कर पहन खुशी का ताज ॥
गाये-रोये, फिर हँसे बहेलिया धीमान ।
मन में खेले रात-दिन शातिर इक शैतान ॥
मरे भूख से-क़र्ज़ से शोषित-श्रमिक किसान ।
ओढ़ कामरी घी पिए कपटी जो सुल्तान ॥
बेटी के अरमान पर गिरती-सी चट्टान ।
हुए न पीले हाथ जो, मुख अब पीला धान ॥
कब तक साहस साथ दे, मरने का अभ्यास ।
देख दशा परिवार की समाधान सल्फास ॥
"भरे पेट के" सामने धरे खीर-बादाम ।
चिथरू बैठा क्या करे अब कौड़ी के दाम ॥
भक्षक रक्षक बन चले सिर पर तक्षक नाग ।
भारतमाता-भाग्य का कैसे बचे सुहाग ॥
[नीहार-सतसई-अमलदार "नीहार"]
१५ जनवरी, २०१७


हिन्दी विभाग
उर-पीड़ा के पाँव पखारे
(रचनाकाल-८ जुलाई १९९४, फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश)
छल-छल आँसू अर्घ्य नयन-भर नीरव रव में पुनः पुकारे ।
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
फिर आशा की वल्ली टूटी, रेनु झरे, सौरभ बिखराये,
कण्ठ सँभाले सिसकन-शैशव अधरों की स्मित-सेज सुलाये ।
जगमग मेरे स्वप्न सुनहरे, बुझे विलोचन-इन्दु-सितारे ।
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
रात-रात भर नींद जागती, ह्रदय-विपंची धीर धरे हैं,
सदासुहागिन-सी बेचैनी, करवट नीरव पीर भरे हैं ।
लग पाती है कभी न मेरी जिजीविषा की नाव किनारे ।
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
मन के शून्य गगन में कोई धूमकेतु बनकर उतरा है,
दुर्विपाक की दोषा मेरी लगती ज्यों अक्षयतिमिरा है ।
फिर 'नीहार' झरे निर्झर-दृग नभ के, किसकी ओर निहारे ?
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
[गीत-गंगा(षष्ठ तरंग)-अमलदार "नीहार"]
दिननक१६-०१-२०१८


अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग
शब्द-चिंतन
"दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा । ज़िंदगी हमें तेरा ऐतबार ना रहा ।"
यह एक फिल्मी गीत है । संभवतः राजकपूर और राजेंद्रकुमार की कोई फिल्म है, जिसमें प्रेमी अधिक दिलफेंक होने के कारण अपनी उस प्रेयसी से कुछ अधिक अपेक्षा पाल लेता है और जब उसका प्रणय कुछ 'बेपटरी' चला जाता है तो उस पर यह गीत फिल्माया गया है । दोस्त और दोस्ती पर बहुत सारी फ़िल्में बनी हुई है । न जाने कितने गीत और गज़लें इस पर लिखी गयी होंगी आज तक । इस शब्द के विषय में शब्दकोश यह जानकारी देता हैं कि यह फारसी शब्द है, जिसका अर्थ मित्र, स्नेही आदि होता है । मैं जब गंभीरता से विचार करता हूँ तो मुझे यह संस्कृत का ही जान पड़ता है और इसका इतना अच्छा अर्थ शायद दूसरी जगह संभव न हो । वैसे अपनी-अपनी भाषा में शब्दों की जो परिभाषा प्रकाशित होती है, उससे उस शब्द की आत्मा तक हम पहुँच सकते हैं, लेकिन संस्कृत के कई शब्द ऐसे हैं, जिनका समानार्थी दूसरी किसी भाषा में शायद सम्भव नहीं । ऐसे कई शब्दों पर मेरा चिंतन निरंतर प्रकाशित होता रहेगा । अभी इस 'दोस्त' शब्द पर विचार करते हैं । संस्कृत में 'दोष' का अर्थ तो 'त्रुटि', 'कमी', 'अपराध', 'पाप' आदि मिलता है सो तो ठीक है, पर 'दोषा' का अर्थ 'रात्रि' के साथ 'भुजा' भी बताया गया है, जो मुझे स्वीकार्य नहीं है । 'दुष्यते अन्धकारेण-दुष+घञ+टाप्' से अन्धकार के दोष वाली 'तिमिराच्छन्न निशा' तो ठीक है, लेकिन भला 'भुजा' का अर्थ किस प्रकार निकाल लिया कोशकार ने? एक शब्द और है संस्कृत में-'दोस्' जिसका अर्थ 'अग्रभुजा' और 'भुजा' भी दिया गया है । मैं सोचता हूँ कि इसी 'दोस्' शब्द से 'दोस्त' बना होगा । जिस प्रकार अपनी भुजा अथवा हाथ अपने ऊपर अथवा अपनों के ऊपर प्रहार नहीं करता, बल्कि रक्षा करता है, उसी प्रकार 'दोस्त' उसे कहेंगे, जो सदैव रक्षा अथवा सहयोग के लिए तत्पर रहता है । इसी में 'दोस्त' शब्द की सार्थकता है । इसलिए इसे संस्कृत का शब्द मानने को मन करता है ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-१६-०१-२०१८


अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग
आज का विचार-
जीवन का एक-एक पल बेहद कीमती होता है । दुनिया की कोई भी कीमती वस्तु समय से ज्यादा कीमती नहीं हो सकती । जो लोग समय को व्यर्थ गँवा बैठते हैं, इसका सदुपयोग उन्नयन के लिए नहीं करते, वे अपनी ही जिंदगी के साथ क्रूर मजाक करते हैं । समय बीत जाता है और अकर्मण्य-आलसी लोगों को जीवन के तूफानी रेगिस्तान में छोड़ देता है निपट अकेला रेत की परतों में दफ्न हो जाने के लिए ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-16-0172018


आज का विचार-
जीभ का चटोरापन एक बीमारी है, जो बचपन से बुढ़ापे तक हमारे साथ रहती है । यह मनोवैज्ञानिक बात है कि इसके चलते कई बार हम सेहत सम्बन्धी हानि भी उठाते हैं । यह चटोरापन हम सभी लोगों में थोड़ा या अधिक स्थायी रूप से विद्यमान है । जो लोग संयम का पालन कर लेते हैं, वे बहुत सी सामयिक बीमारियों से बच जाते हैं । जिनके बच्चे बहुत जिम्मेदार और प्यार करने वाले होते हैं, वे माँ-बाप की चटोरी आदतों की रखवाली करते रहते हैं और उनकी उम्र में इजाफा कर देते हैं, नहीं तो कई बूढ़े अपनी बुरी आदतों से समय से पहले कूच कर जाते हैं । गाँधीजी कहा करते थे कि सिर्फ एक इन्द्रिय 'जिह्वा' पर भी कोई नियंत्रण कर ले तो अन्य सभी इंद्रियों पर संयम साध सकता है । जीभ के चटोरेपन से दूसरी इन्द्रियाँ भी उद्दीप्त होती हैं और तन-मन को क्षति पहुँचाती हैं । आयुर्वेद में कहीं लिखा हुआ है(मैंने देखा नहीं है) कि मनुष्य अपनी जीभ के अग्र भाग से अपनी कब्र खोदता है । यह बिलकुल सत्य प्रतीत होता है । मधुमेह, रक्तचाप, गुर्दा और पथरी की बीमारियाँ, हृदयाघात आदि का जबर्दस्त कारक है हमारी भोजन सम्बन्धी स्वाद-प्रियता । इस जीभ के चटोरेपन की तरह अन्य इंद्रियों के विषय में भी सोचा जा सकता है । इसीलिये जीवन में इंद्रियों के संयम पर ज्ञानियों ने बड़ा बल दिया है ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-१५-०१-२०१८


अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग
शब्द
शब्द-ब्रह्म का सच्चा साधक
आराधक उसकी सत्ता का
निष्ठावान पुजारी जानो
कभी 'रथी' आरूढ़ प्राण बन
पार्थ सदृश मैं अर्थ अपोहित
और कभी मैं बन जाता हूँ शब्द-सारथी
पार्थ-सखा मैं हृषिकेश, मैं योगेश्वर, वह कृष्ण चतुर मैं ।
रोम-रोम शब्दों की सिहरन
अर्थ-वलय में लय की थिरकन
हर धड़कन में, प्राण-पुरस्सर
नर्दित शब्द-लहर नित नर्तन ।
मैं शब्दों को छू लेता हूँ-शशक सदृश पेशल रोमावलि
और कभी वे काँटों जैसे निशित नुकीले
कँकरीले-खुरदरे-गठीले-कुछ कनेर-पत्तों से पीले
दाहक कुछ अंगार-भरे से ।
सुनता हूँ ऐसे मैं जैसे
काल-गुफा में गूँज रही ध्वनि-
मृत्यु-वधू-नूपुर की रुनझुन
सागर के उत्ताल तरंगाकुल अंतर की व्याकुल धड़कन ।
शब्दों के रस पीता रहता ऐसे जैसे विष पी जाता
आँख मूँद जीवन-अँगड़ाई के अधरों का मादक चुम्बन,
मैं शब्दों का 'मधुप' भ्रमर हूँ-गंधप्राण में रसिक चहेता
रस-अध्येता ।
सूँघ समझ लेता हूँ शाद्वल खेतों में क्या फूल खिले हैं,
कहाँ-कहाँ साज़िश की बू है, रंग हवा में कौन घुले हैं,
मैं शब्दों की यजन-क्रिया हूँ, मैं शब्दों का चित्रकार हूँ,
मैं शब्दों की सृष्टि प्रकाशित, मैं शब्दों का सत्य-सृजेता
शब्द-ब्रह्म में लीन अनिर्वच
परमतत्व की ज्योति-शिखा हूँ-
मैं कुबेर-सा, किन्तु अकिंचन
प्रणव-लीन, पर प्रणयी-याचक शब्दों की सत्ता के सम्मुख ।
[जिजीविषा की यात्रा-अमलदार "नीहार" ]
दिनांक-१५-०१-२०१८


मेरी कहानी "लड़की और पतंग" का एक अंश देखिये-
परेशान-से बुआ बबली को रोकने का कोई उपाय सोचने में लगी थीं कि तभी पड़ोस का लड़का सोनू दौड़ता हुआ बुआ के पास पहुँचा और उसने यह जिद की कि उसकी पतंग तैयार कर उसे उड़ाने के लिए दें । बुआ ने उसकी पतंग तैयार कर उसके हाथ में थमाने से पहले उसे समझाया-"देखो बेटा! इस पतंग का माँझा बेहद कमजोर है । अगर तुम इस पतंग को बहुत ऊँची उड़ाओगे तो इसे कोई दूसरा काट भी सकता है या हवा के झोंके से यह डोर से टूटकर अलग भी हो सकती है । "
"फिर इस पतंग का क्या होगा बुआ?" बच्चे ने बड़ी मासूमियत से पूछा ।
"फिर तो यह पतंग उड़ती-उड़ती किसी कुँए, तालाब या नदी में गिर सकती है । यह किसी पेड़ अथवा कँटीली झाड़ी में उलझकर फट सकती है या फिर किसी की छत या आँगन में गिर सकती है, जहाँ इसे पाने के लिए ढेर सारे बच्चे आपस में लड़ रहे हों । ऐसी स्थिति में यह किसी मजबूत और भरोसेमंद हाथ में सुरक्षित रह सकती है या आपस के झगड़े में फट भी सकती है । पतंग से खेलने वाले उससे अपना मन बहलाते हैं, उसके फट जाने से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता । डोर से कटी पतंग की तकदीर कोई नहीं जानता बेटा!"
बच्चा बड़े ध्यान स बुआ की बातें सुन रहा था और बबली तेजी से अपना पर्स झुलाती एक-दो किताब लिए घर की चौखट पार करने को बेताब दिख रही थी । बुआ की आखिरी बात सुन एक पल वह ठिठकी और फिर मुस्कराती हुई आगे बढ़ गयी । अपनी डबडबाई आँखें बंद कर बुआ वहीँ सोफे पर धम्म से बैठ गयीं । नीचे सरपट भागने को तैयार हुर्र-हुर्र की आवाज हवा में गूँज रही थी-बच्चा सोच रहा था कि पतंग उड़ाने के पहले माँझे की मजबूती पर बुआ के विश्वास की मुहर लग जाय तो ठीक रहेगा । उधर इस कहानी की तीसरी पतंग तूफ़ान की पीठ पर सवार आसमान से बातें कर रही थी ।
[भ्रष्टाचाराय नमोनमः-अमलदार "नीहार", पृष्ठ-३९-४० ]
नमन प्रकाशन
४२३१\१, अंसार रोड, दरिया गंज
नई दिल्ली-११०००२
प्रकाशन वर्ष-२०१८


अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग
चिंतन-
कभी-कभी शब्दकोश हमारी अधिक मदद नहीं कर पाते, बल्कि उसे उलझा ही देते हैं, लेकिन रचनाकार उनसे अपना काम चला लेता है उसे थोड़ा नया और विशिष्ट रूप-रंग देकर । अपनी रचनाओं में अनेकत्र इस नाचीज ने ऐसा किया है । आइये , कुछ शब्दों पर विचार करते हैं । एक ही तरह के चार शब्द रखते हैं-१-उदरम्भर, २-कुलम्भर, ३-ऋतम्भर, ४-विश्वम्भर । कोश के अनुसार अपना पेट भरने वाले पेटू या भोजन-भट को उदरम्भर कहा जा सकता है । कहीं-कहीं इसका अर्थ स्वार्थी और नीच भी हो सकता है संकुचित रूप में । पशु तो उदरम्भर ही होता है, पर कई बार गिरे हुए मनुष्य जितना स्वार्थी और नीच वह नहीं होता । जिन युवकों को सरकारी गलत नीतियों और दुर्व्यवस्था ने बेरोजगार बना रखा है, वे तो बेचारे उदरम्भर भी नहीं बन पाये । अब अपना पेट भरने के लिए कोई भूखा आदमी, गरीब श्रमिक, लाचार यदि कुछ स्वार्थी और नीच हो ही जाय तो क्या इसके लिए वही जिम्मेदार है ? उसकी तुलना क्या पशु से भी गए-बीते से की जाय? 'यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे । वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।" एक मनुष्य से यह उम्मीद की जाती है कि वह सिर्फ अपना ही पेट न भरे, बल्कि अपनी योग्यता से दूसरे आश्रित या कमजोर लोगों का भी पेट भरे । यदि वह अपना भी पेट नहीं भर पाता, तब तो पशु से गया-बीता है और यदि सिर्फ अपना पेट भरता है तो पशुवत् है ।
'कुलम्भर' का अर्थ कोश में 'चोर' दिया गया है, जो मेरे गले नहीं उतरता । अपने कुल का भरण-पोषण करने वाला क्या बुरा काम करता है । यदि विश्व का भरण-पोषण करने वाला 'विश्वम्भर' चोर अथवा महाचोर नहीं पुकारा जाता तो फिर 'कुलम्भर' बेचारा चोर कैसे हो गया? मुझे लगता है कि शायद मनुष्य को यह अधिकार है(या ऐसी स्थिति आये दिन बनती ही रहती है) कि वह अपने कुल-परिवार का पेट पालने के लिए चोरी भी यदि कर ले तो जायज है । आखिर, वाल्मीकिजी जायज समझकर ही पाटच्चरी वृत्ति अपनाये हुए थे । दूसरी बात यह हो सकती है कि किसी समाज में रहने वाला कोई व्यक्ति अपने कुल के भरण-पोषण के लिए कभी न कभी यत्किंचित चौर्य कर्म करता ही है । थोड़े से लाभ के लिए झूठ का सहारा लेता है, किसी से दगाबाजी कर बैठता है, चापलूसी कर लेता है या कामचोरी तो करता ही है । इसलिए उसे अपने कुल तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए । यदि कुल तक ही सीमित रहेगा तो 'चोर' बना रहेगा । इसलिए उसे लोकहित के भी काम करना चाहिए ।
'ऋतम्भर' का अर्थ होता है-योगशास्त्र के अनुसार सत्य को धारण तथा पुष्ट करने वाला अर्थात सत्यनिष्ठ । सत्य को धारण करना कोई हँसी-खेल नही है । सत्य दहकता हुआ अंगारा होता है, जो इसे धारण करता है, कभी-कभी उसे भी जलाकर नष्ट कर देता है । राजा हरिश्चंद्र जैसे सत्यवादी लोगों का क्या हाल हो सकता है, इससे कोई अनभिज्ञ नहीं है । पुराण, इतिहास से लेकर आज भी इसके बहुत से उदाहरण देखने को मिल जाएँगे कि कई बार सत्य कालकोठरी में कैद कर दिया जाता है और झूठ को ताज पहनाया जाता है, लेकिन सब कुछ सहते हुए जो ऋतम्भर बना रहता है, वह 'कुलम्भर' से बहुत श्रेष्ठ होता है । आखिर देश-दुनिया के तमाम भ्रष्टाचारी कुलम्भर ही तो हैं, वे ऋतम्भर नहीं हो सकते । ऋतम्भर होना मनुष्य की श्रेष्ठता की सच्ची पहचान है ।
'विश्वम्भर' का बहुप्रचलित अर्थ है जो विश्व का भरण-पोषण करे । "विश्व भरण पोषण कर जोई । ताकर नाम भारत अस होई ।" जो सभी जीव-जंतुओं का, जड़-चेतनमय सम्पूर्ण जगत का भर्ता होता है, वही जगतपिता, जगतपालक परमात्मा है, उसके लिए सभी बराबर हैं । मुझे लगता है कि उदरम्भर, कुलम्भर, ऋतम्भर और विश्वम्भर शब्दों के चाहे जो अर्थ हों, पर ये शब्द मनुष्यता के विकास के द्योतक भी हैं-उत्कर्ष के सुन्दर सोपान हैं ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-१५-०१-२०१8



आज उठा मन में विचार-
महात्माओं का क्या,
किसी के कलेवर में प्रवेश पा सकती हैं आत्मा उनकी,
आततायी के-पापी के नगाडानन्दों के 
विभ्राट कालुष्य-क्रीड कलेवर में भी,
आह्वान करता हूँ मैं भी महाकवि कालिदास का
परकाय-प्रवेश के लिए
इस अभागे देश के लिए,
आ जाएँ इक बार फिर
बैठा हूँ मैं कब से इन्तजार में
क्या मैं नहीं बन सकता निराला
या नज़रुल इस्लाम
नज़ीर अकबराबादी या बुल्लेशाह
मैं तो नानक बनना चाहता हूँ,
गौतम बुद्ध भी
गाँधी और ईसा भी
बना दे मुझे गुरु गोरखनाथ
कबीर भी और मीरा भी दीवानी प्रेम की
जायसी और रसखान
कवीन्द्र रवींद्र व बंकिम-शरत
प्रसाद-पन्त और महादेवी
दिनकर, नागार्जुन और धूमिल
और मुक्तिबोध, शमशेर
-----और केदारनाथ अग्रवाल भी
किसान का हमदर्द प्रेमचंद व त्रिलोचन भी
शंकर और दयानंद तो रामकृष्ण-विवेकानंद भी
----और-----अरविन्द भी,
सब कुछ-----बनना चाहता हूँ एक साथ
पर मैं नहीं ले सकता किसी की जगह उसे विस्थापित कर
मेरे मालिक! मेरे मौला, मेरे राम!
मैं तो बस पीना चाहता हूँ एक बूँद अमृत की
जो दिया है उन्होंने इस दुनिया को
लौटाना चाहता हूँ वही अमृत फिर एक बार
उतारकर अपनी आविष्ट वाणी में
वीणापाणि भारती की कृपा से ।
अमलदार "नीहार"
१५ जनवरी, २०१८

नीहार के दोहे-

है बबूल-वन दूर तक पसरा रेगिस्तान |
शीतल-सुखद फुहार का कौन करे सम्मान || १ ||

हे उदार उर सृष्टि के प्राण-त्राण घनश्याम |
ऊँट अपल्लव क्या लखे इंद्रधनुष अभिराम || २ ||

रासभ रसमय जग निरख मधुमय 'माधव' मास' |
और भला क्या चाहिए दुनिया केवल घास || ३ ||

पोखर पंकिल जा घुसा हर-हर गंगे बोल ||
महिषी-नंदन डूबकर हिला रहा हिल्लोल || ४ ||

एक मदारी ने रचे "अच्छे दिन' के खेल |
घर की घानी भी गयी, नही दिखा कुछ तेल || ५ ||

झाँसा-पाँसा फेंककर सौ जुमलों के जाल |
मोटे को मोटा किया, होरी को कंगाल || ६ ||

[नीहार-नौसई-अमलदार 'नीहार']

कभी बिस्तर, कभी चादर, कभी तकिया बदलती है,
सियासत वो हुनर है, ज़िंदगी दूल्हा बदलती है |

कभी इन्धन, कड़ाही या कि बटलोई, कभी कलछुल,
नहीं जो बात बनती, देखकर चूल्हा बदलती है |

सच कहाँ या झूठ, इससे नहीं मतलब उसे कोई
बस रसोई में सजे थाली कि पीढ़ा बदलती है ?

कब कहाँ बदलेगी करवट, कौन चौखट लाँघती है,
कौन जाने, कब वसूलों का ये नक्शा बदलती है ?

कि अपने हक़ में बात का मतलब कमानों की तरह
है झुका लेती वह, कैसे परिभाषा बदलती है?

देश लकवाग्रस्त देखो हो चुका 'नीहार' अब तो
जाँच होती बस बराबर और नुस्खा बदलती है |

रचनाकाल : २४ दिसंबर, २०१२
[आईनः-ए-ज़ीस्त-अमलदार 'नीहार']
प्रकाशन वर्ष-२०१४
नमन प्रकाशन
नई दिल्ली


नीहार के दोहे-

सत्ता सड़ियल खाट-सी खटमल पूँजीवाद |
खून सभी का चूसकर है जो ज़िंदाबाद || 1 ||

उनको सत्ता चाहिए, कीमत कुछ भी बोल |
मचा हुआ प्रतिपक्ष में आये दिन भूडोल || 2 ||

सब कुछ जायज है वहाँ, जहाँ-जहाँ सरकार |
उस पत्थर को चूमिए, फेंके उनका यार || 3 ||

मल-मल सुर्ती खाइये ठोंक बहत्तर ताल |
नाक बहे तो पोछिए ले रेशम-रूमाल || ४ ||

सत्ता के गुन गाइये, जैसे सती महान |
भली करेंगे राम फिर होगा तव कल्यान || 5 ||

अक्कड़-बक्कड़ बोलकर गोल बुझक्कड़लाल |
देख-रेख मार्जार के खूब कबूतर पाल || 6 ||

जनता को भी क्या कहूँ, पोस रही पाखण्ड |
चम्पत चम्पकलाल है, चिथरू मूर्ख प्रचंड || ७ ||

जिसको रक्षक मानती जनता सूधी गाय |
उसे कसाई मान फिर "बाँय-बाँय" चिल्लाय || 8 ||

सुनकर गदगद हो गयी जादू भरी ज़बान |
झूठ-मूठ की आँख ने पाल लिए अरमान || 9 ||

रखवाले सब भेड़िये, भेड़ों को आराम |
"भारत माता" बोलकर खाओ माल हराम || १०||

[नीहार-नौसई-अमलदार "नीहार"]


राम

लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द,
सब फलसफी हैं ख़िता-ए-मग़रिब के राम-हिन्द |

यह हिन्दियों के फ़िक्रे-फलक रस का है असर,
रिफ़अत में आसमाँ से भी ऊँचा है वामे-हिन्द |

इस देस में हुए हैं हजारों मलक-सरिश्त,
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नाम-हिन्द |

है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द |

एजाज़ इस चिरागे-हिदायत का है यही,
रौशनतर-अज़-सहर है ज़माने में नाम-हिन्द |

तलवार का धनि था शुजाअत में फ़र्द था,
पाकीज़गी में जोशी-मुहब्बत में फ़र्द था |

इक़बाल

प्रस्तुति
अमलदार 'नीहार'


नीहार के दोहे

गणित चुनावी जानती केवल यह सरकार |
अर्थशास्त्र में फेल है दक्ष झूठ-व्यापार ||

जिसे न जनता ने चुना, बैठ गया तन सीस |
और वहीं से दे रहा गर्म तरल बख्शीस ||

अर्जी-फर्जी जो यहाँ और चार सौ बीस |
दलते छाती मूँग वे, साहब का आशीष ||

जिसने जन को डँस लिया, ऐसी नागिन नीति |
फ़ोकट में वे मर गए, मौन क्रूरता-रीति ||

भ्रष्टाचारी रह गए सभी अभी तक भ्रष्ट |
बंकर दुश्मन के वही, कब आतंकी नष्ट ||

ब्योड़े सारे उद्यमी खाये हुए उधार |
साहब को थैली, कृपा, किये मलाई पार ||

लाखों-लाख करोड़ सब मोटे गए भकोस |
अपना उल्लू कर गए सीधा, क्या अफ़सोस ||

छेद भरी यह केतली, उसमें बासी चाय |
कितने कीड़े पड़ गए, अच्छा अब 'गुड़ बाय' ||

अब भी जनता चेत जा, बची-खुची ले साँस |
गोरखपुर के हादसे का जैसा एहसास ||

हुआ गरीब गरीब तो, धनिक और धनवान |
खून सभी के चूसकर बने नए भगवान् ||

अर्थतंत्र का खेल सब वणिक-बुद्धि का तेल |
तेरी हड्डी पीसकर चलती बुलेट रेल ||

अपने मन की भूल, सुन उनके 'मन की बात' |
गाय समझकर साँड़ दुह, खा पुलाव जज्बात ||

[नीहार-नौसई-अमलदार "नीहार"]


'नीहार' अधर तक जाते हैं

चितवन में चाहत का परिमल
और ह्रदय कुसुमादपि कोमल |
प्यार तुम्हारा जादू जैसा
मेरे गीत महक जाते हैं |

अमराई-सा उड़ता आँचल,
पुरवाई-सा यौवन पागल
देख मदिर दृग की मधुशाला
मन के पाँव बहक जाते हैं |

आमंत्रण की पाती सुस्मित
इन्द्रायुध आघाती सुस्मित |
भोलापन भी दुरभिसंधि-सा
सोच-सोचकर थक जाते हैं |

जब से आया है यह सावन,
बोल उठा है गूँगा दर्पन |
अँगड़ाई का आलिंगन-रस
पी-पी सपने छक जाते हैं |

क्रूर काल का यह परिवर्तन,
रोता सिसक-सिसक यह आँगन
उमड़ मलंगी दृग से आकुल
'नीहार' अधर तक जाते हैं |

रचनाकाल : २६ अक्टूबर, १९९५
फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश

[गीत-गुंजार-अमलदार 'नीहार']
प्रकाशन वर्ष-२०१६
नमन प्रकाशन
अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली

हमारी हिंदी और नागरी लिपि

स्वानुस्वार बिन्दी सुभग, दीपित भाल-सुहाग |
कोष्ठक जैसे चक्षु युग ज्योतित राग-विराग || 220 ||

भ्रू अराल भृङ्गावली, श्रोता साज समाज |
अक्षि-लोम कवि-कुल जुटे, दृग-सम्मलेन आज || 221 ||

दो नयनों के बीच यह मानो पूर्ण विराम |
कहो समुन्नत नासिका, अनुनासिक अभिराम || 222 ||

लिपि कमनीया नागरी वैज्ञानिक आधार |
माहेश्वर कलसूत्र बँध पाणिनि-प्राण-पुकार || 223 ||

पाली-प्राकृत भ्रंशमय पिच्छल कितने घाट |
संस्कृत-हिंदी भारती मधु कपोल-से पाट || 224 ||

अक्षर दाणिम -से कहो या फिर मोती-माल |
दीप्ति दशन रदपुट लसे-पाटल-युग्म प्रवाल || 225 ||

शिरोरेख कितने भले अवगुंठन सविशेष |
भारत-संस्कृति की वधू, भाषा प्राकृत केश || 226 ||

रचनाकाल : १९ दिसंबर २०१५
[शीघ्र प्रकाश्य कृति "नीहार-सतसई"-अमलदार 'नीहार' ]