सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

चौतरफा प्रदूषण

अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग

आज हम चौतरफा प्रदूषण से जूझ रहे हैं । चौराहों, रेलवे क्रासिंग और सँकरी सडकों-गलियों में लगने वाले जाम और धुँआ उगलते वाहन, जिसे चाहे-अचाहे सबके फेफड़े स्वीकार कर रहे हैं । हमारी नदियाँ गंदे नालों को गले लगाने को मजबूर हैं, मिलों-फैक्टरियों का जहर भी पीने के िए अभिशप्त हैं नदियाँ । एक प्रकार से गंगा-यमुना ही नहीं, लगभग सभी सदानीरा नदियाँ आधुनिक सभ्यता का विष पीने वाली नीलकंठ महादेव बनी हुई हैं । हमारी धरती, कृषिभूमि, फल-सब्जियाँ, दूध-घी सब कुछ प्रदूषित है । यहाँ तक कि हमारे विचारों में भी प्रदूषण अपनी ऐसी जगह बना चुका है । अब हमें घूसखोरी, छल-फरेब, चोरी-मक्कारी अथवा किसी भी दुष्कृत्य पर उतनी शर्म नहीं आती । झूठ बोलना और अपना काम निकालना सयानेपन में शामिल है । जो जिसको जितना बेवकूफ बना सके या चूना लगा सके, वह उतना ही अधिक काबिल है । पूजा-अनुष्ठान आदि भी पाखंडियों के कब्जे में है । आदमी दिन भर हर बात में-हर चीज में झूठ-फरेब की मिलावटखोरी करता है और सुबह-सबेरे मंदिर में मत्था भी टेकता है, माथे पर चन्दन लगाकर उच्च कोटि का भक्त होने का प्रमाण देना चाहता है । आये दिन अखंड रामायण, भागवत महापुराण का पाठ, हरि-कीर्तन और यह सब एक दिखावे के साथ कर्णभेदी लाउडस्पीकर के साथ कि आस-पास के बूढ़े-बच्चों-स्त्रियों और दिन भर खटने-खपने वालों की नींद हराम करते हुए । मेरे मोहल्ले में भी कल से हरि-कीर्तन जारी है और ऐसा ध्वनि-प्रदूषण तारी है कि सिर दर्द से फटा जा रहा है । किसी को ब्लडप्रेशर की परेशानी हो, किसी को दिल की बीमारी हो या कोई दिमागी दुष्प्रभाव पड़ता हो इन सब कृत्यों से, उनकी बला से । मैं पूजा-पाठ, अनुष्ठान अथवा भजन-कीर्तन से कोई चिढ नहीं रखता । मेरे घर पर भी एक बार तुलसी-मानस का पाठ रखा गया श्रीमतीजी के आग्रह पर, किन्तु उनके लाख कहने के बावजूद मैंने लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं होने दिया था और वह मेरे लिए जरूरी नहीं है । अनेक धार्मिक ग्रंथों के साथ 'मानस' का मानस-पाठ निरंतर चलता ही रहता है । वह सब तो अध्यवसाय का अंग ही है मेरे लिए, पर सच्ची उपासना यह है कि सृष्टि के प्रत्येक पिंड में ईश्वरांश की अनुभूति हो और उससे तादात्म्य-सहअस्तित्व की भावना प्रबल हो। दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर सुख की कल्पना करना ही ईश्वर के विरुद्ध आचरण है । एक सामान्य भारतीय हिन्दू की तरह मैं भी ईश्वर में अटल विश्वास करता हूँ, लेकिन मेरा ईश्वर बहरा नहीं है, उसे मैं बिना आवाज लगाए भी पुकार लेता हूँ । 'विरही विचारन की मौन में पुकार है' । ईश्वर को पुकारने के लिए प्राणों में वेदना का स्वर होना चाहिए । इसके लिए किसी लाउडस्पीकर की जरूरत नहीं है मेरी समझ से । इसी प्रकार किसी अन्यधर्मावलम्बी यदि अपनी भक्ति को जगाने के लिए दूसरों का सुख-चैन हराम करता है तो वह ईश्वर के विरुद्ध आचरण करता है । यदि सरकार व्यवहार में कोई कठोर कदम इस पर उठाती है तो इस धार्मिक कहे जाने वाले देश में बड़ा बवाल मच सकता है, लेकिन सवाल तो है । यह ध्वनि-प्रदूषण भी जानलेवा है और इस पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत है सभी को ।

अमलदार "नीहार" 

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