है बबूल-वन दूर तक पसरा रेगिस्तान |
शीतल-सुखद फुहार का कौन करे सम्मान || १ ||
हे उदार उर सृष्टि के प्राण-त्राण घनश्याम |
ऊँट अपल्लव क्या लखे इंद्रधनुष अभिराम || २ ||
रासभ रसमय जग निरख मधुमय 'माधव' मास' |
और भला क्या चाहिए दुनिया केवल घास || ३ ||
पोखर पंकिल जा घुसा हर-हर गंगे बोल ||
महिषी-नंदन डूबकर हिला रहा हिल्लोल || ४ ||
एक मदारी ने रचे "अच्छे दिन' के खेल |
घर की घानी भी गयी, नही दिखा कुछ तेल || ५ ||
झाँसा-पाँसा फेंककर सौ जुमलों के जाल |
मोटे को मोटा किया, होरी को कंगाल || ६ ||
[नीहार-नौसई-अमलदार 'नीहार']
कभी बिस्तर, कभी चादर, कभी तकिया बदलती है,
सियासत वो हुनर है, ज़िंदगी दूल्हा बदलती है |
कभी इन्धन, कड़ाही या कि बटलोई, कभी कलछुल,
नहीं जो बात बनती, देखकर चूल्हा बदलती है |
सच कहाँ या झूठ, इससे नहीं मतलब उसे कोई
बस रसोई में सजे थाली कि पीढ़ा बदलती है ?
कब कहाँ बदलेगी करवट, कौन चौखट लाँघती है,
कौन जाने, कब वसूलों का ये नक्शा बदलती है ?
कि अपने हक़ में बात का मतलब कमानों की तरह
है झुका लेती वह, कैसे परिभाषा बदलती है?
देश लकवाग्रस्त देखो हो चुका 'नीहार' अब तो
जाँच होती बस बराबर और नुस्खा बदलती है |
रचनाकाल : २४ दिसंबर, २०१२
[आईनः-ए-ज़ीस्त-अमलदार 'नीहार']
प्रकाशन वर्ष-२०१४
नमन प्रकाशन
नई दिल्ली
नीहार के दोहे-
सत्ता सड़ियल खाट-सी खटमल पूँजीवाद |
खून सभी का चूसकर है जो ज़िंदाबाद || 1 ||
उनको सत्ता चाहिए, कीमत कुछ भी बोल |
मचा हुआ प्रतिपक्ष में आये दिन भूडोल || 2 ||
सब कुछ जायज है वहाँ, जहाँ-जहाँ सरकार |
उस पत्थर को चूमिए, फेंके उनका यार || 3 ||
मल-मल सुर्ती खाइये ठोंक बहत्तर ताल |
नाक बहे तो पोछिए ले रेशम-रूमाल || ४ ||
सत्ता के गुन गाइये, जैसे सती महान |
भली करेंगे राम फिर होगा तव कल्यान || 5 ||
अक्कड़-बक्कड़ बोलकर गोल बुझक्कड़लाल |
देख-रेख मार्जार के खूब कबूतर पाल || 6 ||
जनता को भी क्या कहूँ, पोस रही पाखण्ड |
चम्पत चम्पकलाल है, चिथरू मूर्ख प्रचंड || ७ ||
जिसको रक्षक मानती जनता सूधी गाय |
उसे कसाई मान फिर "बाँय-बाँय" चिल्लाय || 8 ||
सुनकर गदगद हो गयी जादू भरी ज़बान |
झूठ-मूठ की आँख ने पाल लिए अरमान || 9 ||
रखवाले सब भेड़िये, भेड़ों को आराम |
"भारत माता" बोलकर खाओ माल हराम || १०||
[नीहार-नौसई-अमलदार "नीहार"]
राम
लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द,
सब फलसफी हैं ख़िता-ए-मग़रिब के राम-हिन्द |
यह हिन्दियों के फ़िक्रे-फलक रस का है असर,
रिफ़अत में आसमाँ से भी ऊँचा है वामे-हिन्द |
इस देस में हुए हैं हजारों मलक-सरिश्त,
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नाम-हिन्द |
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द |
एजाज़ इस चिरागे-हिदायत का है यही,
रौशनतर-अज़-सहर है ज़माने में नाम-हिन्द |
तलवार का धनि था शुजाअत में फ़र्द था,
पाकीज़गी में जोशी-मुहब्बत में फ़र्द था |
इक़बाल
प्रस्तुति
अमलदार 'नीहार'
नीहार के दोहे
गणित चुनावी जानती केवल यह सरकार |
अर्थशास्त्र में फेल है दक्ष झूठ-व्यापार ||
जिसे न जनता ने चुना, बैठ गया तन सीस |
और वहीं से दे रहा गर्म तरल बख्शीस ||
अर्जी-फर्जी जो यहाँ और चार सौ बीस |
दलते छाती मूँग वे, साहब का आशीष ||
जिसने जन को डँस लिया, ऐसी नागिन नीति |
फ़ोकट में वे मर गए, मौन क्रूरता-रीति ||
भ्रष्टाचारी रह गए सभी अभी तक भ्रष्ट |
बंकर दुश्मन के वही, कब आतंकी नष्ट ||
ब्योड़े सारे उद्यमी खाये हुए उधार |
साहब को थैली, कृपा, किये मलाई पार ||
लाखों-लाख करोड़ सब मोटे गए भकोस |
अपना उल्लू कर गए सीधा, क्या अफ़सोस ||
छेद भरी यह केतली, उसमें बासी चाय |
कितने कीड़े पड़ गए, अच्छा अब 'गुड़ बाय' ||
अब भी जनता चेत जा, बची-खुची ले साँस |
गोरखपुर के हादसे का जैसा एहसास ||
हुआ गरीब गरीब तो, धनिक और धनवान |
खून सभी के चूसकर बने नए भगवान् ||
अर्थतंत्र का खेल सब वणिक-बुद्धि का तेल |
तेरी हड्डी पीसकर चलती बुलेट रेल ||
अपने मन की भूल, सुन उनके 'मन की बात' |
गाय समझकर साँड़ दुह, खा पुलाव जज्बात ||
[नीहार-नौसई-अमलदार "नीहार"]
'नीहार' अधर तक जाते हैं
चितवन में चाहत का परिमल
और ह्रदय कुसुमादपि कोमल |
प्यार तुम्हारा जादू जैसा
मेरे गीत महक जाते हैं |
अमराई-सा उड़ता आँचल,
पुरवाई-सा यौवन पागल
देख मदिर दृग की मधुशाला
मन के पाँव बहक जाते हैं |
आमंत्रण की पाती सुस्मित
इन्द्रायुध आघाती सुस्मित |
भोलापन भी दुरभिसंधि-सा
सोच-सोचकर थक जाते हैं |
जब से आया है यह सावन,
बोल उठा है गूँगा दर्पन |
अँगड़ाई का आलिंगन-रस
पी-पी सपने छक जाते हैं |
क्रूर काल का यह परिवर्तन,
रोता सिसक-सिसक यह आँगन
उमड़ मलंगी दृग से आकुल
'नीहार' अधर तक जाते हैं |
रचनाकाल : २६ अक्टूबर, १९९५
फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
[गीत-गुंजार-अमलदार 'नीहार']
प्रकाशन वर्ष-२०१६
नमन प्रकाशन
अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली
हमारी हिंदी और नागरी लिपि
स्वानुस्वार बिन्दी सुभग, दीपित भाल-सुहाग |
कोष्ठक जैसे चक्षु युग ज्योतित राग-विराग || 220 ||
भ्रू अराल भृङ्गावली, श्रोता साज समाज |
अक्षि-लोम कवि-कुल जुटे, दृग-सम्मलेन आज || 221 ||
दो नयनों के बीच यह मानो पूर्ण विराम |
कहो समुन्नत नासिका, अनुनासिक अभिराम || 222 ||
लिपि कमनीया नागरी वैज्ञानिक आधार |
माहेश्वर कलसूत्र बँध पाणिनि-प्राण-पुकार || 223 ||
पाली-प्राकृत भ्रंशमय पिच्छल कितने घाट |
संस्कृत-हिंदी भारती मधु कपोल-से पाट || 224 ||
अक्षर दाणिम -से कहो या फिर मोती-माल |
दीप्ति दशन रदपुट लसे-पाटल-युग्म प्रवाल || 225 ||
शिरोरेख कितने भले अवगुंठन सविशेष |
भारत-संस्कृति की वधू, भाषा प्राकृत केश || 226 ||
रचनाकाल : १९ दिसंबर २०१५
[शीघ्र प्रकाश्य कृति "नीहार-सतसई"-अमलदार 'नीहार' ]
शीतल-सुखद फुहार का कौन करे सम्मान || १ ||
हे उदार उर सृष्टि के प्राण-त्राण घनश्याम |
ऊँट अपल्लव क्या लखे इंद्रधनुष अभिराम || २ ||
रासभ रसमय जग निरख मधुमय 'माधव' मास' |
और भला क्या चाहिए दुनिया केवल घास || ३ ||
पोखर पंकिल जा घुसा हर-हर गंगे बोल ||
महिषी-नंदन डूबकर हिला रहा हिल्लोल || ४ ||
एक मदारी ने रचे "अच्छे दिन' के खेल |
घर की घानी भी गयी, नही दिखा कुछ तेल || ५ ||
झाँसा-पाँसा फेंककर सौ जुमलों के जाल |
मोटे को मोटा किया, होरी को कंगाल || ६ ||
[नीहार-नौसई-अमलदार 'नीहार']
कभी बिस्तर, कभी चादर, कभी तकिया बदलती है,
सियासत वो हुनर है, ज़िंदगी दूल्हा बदलती है |
कभी इन्धन, कड़ाही या कि बटलोई, कभी कलछुल,
नहीं जो बात बनती, देखकर चूल्हा बदलती है |
सच कहाँ या झूठ, इससे नहीं मतलब उसे कोई
बस रसोई में सजे थाली कि पीढ़ा बदलती है ?
कब कहाँ बदलेगी करवट, कौन चौखट लाँघती है,
कौन जाने, कब वसूलों का ये नक्शा बदलती है ?
कि अपने हक़ में बात का मतलब कमानों की तरह
है झुका लेती वह, कैसे परिभाषा बदलती है?
देश लकवाग्रस्त देखो हो चुका 'नीहार' अब तो
जाँच होती बस बराबर और नुस्खा बदलती है |
रचनाकाल : २४ दिसंबर, २०१२
[आईनः-ए-ज़ीस्त-अमलदार 'नीहार']
प्रकाशन वर्ष-२०१४
नमन प्रकाशन
नई दिल्ली
नीहार के दोहे-
सत्ता सड़ियल खाट-सी खटमल पूँजीवाद |
खून सभी का चूसकर है जो ज़िंदाबाद || 1 ||
उनको सत्ता चाहिए, कीमत कुछ भी बोल |
मचा हुआ प्रतिपक्ष में आये दिन भूडोल || 2 ||
सब कुछ जायज है वहाँ, जहाँ-जहाँ सरकार |
उस पत्थर को चूमिए, फेंके उनका यार || 3 ||
मल-मल सुर्ती खाइये ठोंक बहत्तर ताल |
नाक बहे तो पोछिए ले रेशम-रूमाल || ४ ||
सत्ता के गुन गाइये, जैसे सती महान |
भली करेंगे राम फिर होगा तव कल्यान || 5 ||
अक्कड़-बक्कड़ बोलकर गोल बुझक्कड़लाल |
देख-रेख मार्जार के खूब कबूतर पाल || 6 ||
जनता को भी क्या कहूँ, पोस रही पाखण्ड |
चम्पत चम्पकलाल है, चिथरू मूर्ख प्रचंड || ७ ||
जिसको रक्षक मानती जनता सूधी गाय |
उसे कसाई मान फिर "बाँय-बाँय" चिल्लाय || 8 ||
सुनकर गदगद हो गयी जादू भरी ज़बान |
झूठ-मूठ की आँख ने पाल लिए अरमान || 9 ||
रखवाले सब भेड़िये, भेड़ों को आराम |
"भारत माता" बोलकर खाओ माल हराम || १०||
[नीहार-नौसई-अमलदार "नीहार"]
राम
लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द,
सब फलसफी हैं ख़िता-ए-मग़रिब के राम-हिन्द |
यह हिन्दियों के फ़िक्रे-फलक रस का है असर,
रिफ़अत में आसमाँ से भी ऊँचा है वामे-हिन्द |
इस देस में हुए हैं हजारों मलक-सरिश्त,
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नाम-हिन्द |
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द |
एजाज़ इस चिरागे-हिदायत का है यही,
रौशनतर-अज़-सहर है ज़माने में नाम-हिन्द |
तलवार का धनि था शुजाअत में फ़र्द था,
पाकीज़गी में जोशी-मुहब्बत में फ़र्द था |
इक़बाल
प्रस्तुति
अमलदार 'नीहार'
नीहार के दोहे
गणित चुनावी जानती केवल यह सरकार |
अर्थशास्त्र में फेल है दक्ष झूठ-व्यापार ||
जिसे न जनता ने चुना, बैठ गया तन सीस |
और वहीं से दे रहा गर्म तरल बख्शीस ||
अर्जी-फर्जी जो यहाँ और चार सौ बीस |
दलते छाती मूँग वे, साहब का आशीष ||
जिसने जन को डँस लिया, ऐसी नागिन नीति |
फ़ोकट में वे मर गए, मौन क्रूरता-रीति ||
भ्रष्टाचारी रह गए सभी अभी तक भ्रष्ट |
बंकर दुश्मन के वही, कब आतंकी नष्ट ||
ब्योड़े सारे उद्यमी खाये हुए उधार |
साहब को थैली, कृपा, किये मलाई पार ||
लाखों-लाख करोड़ सब मोटे गए भकोस |
अपना उल्लू कर गए सीधा, क्या अफ़सोस ||
छेद भरी यह केतली, उसमें बासी चाय |
कितने कीड़े पड़ गए, अच्छा अब 'गुड़ बाय' ||
अब भी जनता चेत जा, बची-खुची ले साँस |
गोरखपुर के हादसे का जैसा एहसास ||
हुआ गरीब गरीब तो, धनिक और धनवान |
खून सभी के चूसकर बने नए भगवान् ||
अर्थतंत्र का खेल सब वणिक-बुद्धि का तेल |
तेरी हड्डी पीसकर चलती बुलेट रेल ||
अपने मन की भूल, सुन उनके 'मन की बात' |
गाय समझकर साँड़ दुह, खा पुलाव जज्बात ||
[नीहार-नौसई-अमलदार "नीहार"]
'नीहार' अधर तक जाते हैं
चितवन में चाहत का परिमल
और ह्रदय कुसुमादपि कोमल |
प्यार तुम्हारा जादू जैसा
मेरे गीत महक जाते हैं |
अमराई-सा उड़ता आँचल,
पुरवाई-सा यौवन पागल
देख मदिर दृग की मधुशाला
मन के पाँव बहक जाते हैं |
आमंत्रण की पाती सुस्मित
इन्द्रायुध आघाती सुस्मित |
भोलापन भी दुरभिसंधि-सा
सोच-सोचकर थक जाते हैं |
जब से आया है यह सावन,
बोल उठा है गूँगा दर्पन |
अँगड़ाई का आलिंगन-रस
पी-पी सपने छक जाते हैं |
क्रूर काल का यह परिवर्तन,
रोता सिसक-सिसक यह आँगन
उमड़ मलंगी दृग से आकुल
'नीहार' अधर तक जाते हैं |
रचनाकाल : २६ अक्टूबर, १९९५
फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
[गीत-गुंजार-अमलदार 'नीहार']
प्रकाशन वर्ष-२०१६
नमन प्रकाशन
अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली
हमारी हिंदी और नागरी लिपि
स्वानुस्वार बिन्दी सुभग, दीपित भाल-सुहाग |
कोष्ठक जैसे चक्षु युग ज्योतित राग-विराग || 220 ||
भ्रू अराल भृङ्गावली, श्रोता साज समाज |
अक्षि-लोम कवि-कुल जुटे, दृग-सम्मलेन आज || 221 ||
दो नयनों के बीच यह मानो पूर्ण विराम |
कहो समुन्नत नासिका, अनुनासिक अभिराम || 222 ||
लिपि कमनीया नागरी वैज्ञानिक आधार |
माहेश्वर कलसूत्र बँध पाणिनि-प्राण-पुकार || 223 ||
पाली-प्राकृत भ्रंशमय पिच्छल कितने घाट |
संस्कृत-हिंदी भारती मधु कपोल-से पाट || 224 ||
अक्षर दाणिम -से कहो या फिर मोती-माल |
दीप्ति दशन रदपुट लसे-पाटल-युग्म प्रवाल || 225 ||
शिरोरेख कितने भले अवगुंठन सविशेष |
भारत-संस्कृति की वधू, भाषा प्राकृत केश || 226 ||
रचनाकाल : १९ दिसंबर २०१५
[शीघ्र प्रकाश्य कृति "नीहार-सतसई"-अमलदार 'नीहार' ]
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