अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग
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पिछले वर्ष की पोस्ट, जब लगभग चार महीने अपने सम्बन्धित बैंक के सामने लगी भीड़ में खड़े होने की हिम्मत नहीं पड़ी मेरी भी।
कैसे बचे सुहाग?
मस्त-मगन जो ढो रही फसल पीठ पर ऊन ।
झाँसे में उसको मिला सपनों का बैलून ॥
झाँसे में उसको मिला सपनों का बैलून ॥
अलबेली-सी कैंचियाँ, अलबेला अंदाज ।
सोहर गाये मूँड़कर पहन खुशी का ताज ॥
सोहर गाये मूँड़कर पहन खुशी का ताज ॥
गाये-रोये, फिर हँसे बहेलिया धीमान ।
मन में खेले रात-दिन शातिर इक शैतान ॥
मन में खेले रात-दिन शातिर इक शैतान ॥
मरे भूख से-क़र्ज़ से शोषित-श्रमिक किसान ।
ओढ़ कामरी घी पिए कपटी जो सुल्तान ॥
ओढ़ कामरी घी पिए कपटी जो सुल्तान ॥
बेटी के अरमान पर गिरती-सी चट्टान ।
हुए न पीले हाथ जो, मुख अब पीला धान ॥
हुए न पीले हाथ जो, मुख अब पीला धान ॥
कब तक साहस साथ दे, मरने का अभ्यास ।
देख दशा परिवार की समाधान सल्फास ॥
देख दशा परिवार की समाधान सल्फास ॥
"भरे पेट के" सामने धरे खीर-बादाम ।
चिथरू बैठा क्या करे अब कौड़ी के दाम ॥
चिथरू बैठा क्या करे अब कौड़ी के दाम ॥
भक्षक रक्षक बन चले सिर पर तक्षक नाग ।
भारतमाता-भाग्य का कैसे बचे सुहाग ॥
भारतमाता-भाग्य का कैसे बचे सुहाग ॥
[नीहार-सतसई-अमलदार "नीहार"]
१५ जनवरी, २०१७
१५ जनवरी, २०१७
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उर-पीड़ा के पाँव पखारे
(रचनाकाल-८ जुलाई १९९४, फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश)
छल-छल आँसू अर्घ्य नयन-भर नीरव रव में पुनः पुकारे ।
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
फिर आशा की वल्ली टूटी, रेनु झरे, सौरभ बिखराये,
कण्ठ सँभाले सिसकन-शैशव अधरों की स्मित-सेज सुलाये ।
जगमग मेरे स्वप्न सुनहरे, बुझे विलोचन-इन्दु-सितारे ।
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
कण्ठ सँभाले सिसकन-शैशव अधरों की स्मित-सेज सुलाये ।
जगमग मेरे स्वप्न सुनहरे, बुझे विलोचन-इन्दु-सितारे ।
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
रात-रात भर नींद जागती, ह्रदय-विपंची धीर धरे हैं,
सदासुहागिन-सी बेचैनी, करवट नीरव पीर भरे हैं ।
लग पाती है कभी न मेरी जिजीविषा की नाव किनारे ।
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
सदासुहागिन-सी बेचैनी, करवट नीरव पीर भरे हैं ।
लग पाती है कभी न मेरी जिजीविषा की नाव किनारे ।
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
मन के शून्य गगन में कोई धूमकेतु बनकर उतरा है,
दुर्विपाक की दोषा मेरी लगती ज्यों अक्षयतिमिरा है ।
फिर 'नीहार' झरे निर्झर-दृग नभ के, किसकी ओर निहारे ?
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
दुर्विपाक की दोषा मेरी लगती ज्यों अक्षयतिमिरा है ।
फिर 'नीहार' झरे निर्झर-दृग नभ के, किसकी ओर निहारे ?
आहों ने फिर अगवानी की, उर-पीड़ा के पाँव पखारे ॥
[गीत-गंगा(षष्ठ तरंग)-अमलदार "नीहार"]
दिननक१६-०१-२०१८
दिननक१६-०१-२०१८
अमलदार नीहार
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शब्द-चिंतन
"दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा । ज़िंदगी हमें तेरा ऐतबार ना रहा ।"
यह एक फिल्मी गीत है । संभवतः राजकपूर और राजेंद्रकुमार की कोई फिल्म है, जिसमें प्रेमी अधिक दिलफेंक होने के कारण अपनी उस प्रेयसी से कुछ अधिक अपेक्षा पाल लेता है और जब उसका प्रणय कुछ 'बेपटरी' चला जाता है तो उस पर यह गीत फिल्माया गया है । दोस्त और दोस्ती पर बहुत सारी फ़िल्में बनी हुई है । न जाने कितने गीत और गज़लें इस पर लिखी गयी होंगी आज तक । इस शब्द के विषय में शब्दकोश यह जानकारी देता हैं कि यह फारसी शब्द है, जिसका अर्थ मित्र, स्नेही आदि होता है । मैं जब गंभीरता से विचार करता हूँ तो मुझे यह संस्कृत का ही जान पड़ता है और इसका इतना अच्छा अर्थ शायद दूसरी जगह संभव न हो । वैसे अपनी-अपनी भाषा में शब्दों की जो परिभाषा प्रकाशित होती है, उससे उस शब्द की आत्मा तक हम पहुँच सकते हैं, लेकिन संस्कृत के कई शब्द ऐसे हैं, जिनका समानार्थी दूसरी किसी भाषा में शायद सम्भव नहीं । ऐसे कई शब्दों पर मेरा चिंतन निरंतर प्रकाशित होता रहेगा । अभी इस 'दोस्त' शब्द पर विचार करते हैं । संस्कृत में 'दोष' का अर्थ तो 'त्रुटि', 'कमी', 'अपराध', 'पाप' आदि मिलता है सो तो ठीक है, पर 'दोषा' का अर्थ 'रात्रि' के साथ 'भुजा' भी बताया गया है, जो मुझे स्वीकार्य नहीं है । 'दुष्यते अन्धकारेण-दुष+घञ+टाप्' से अन्धकार के दोष वाली 'तिमिराच्छन्न निशा' तो ठीक है, लेकिन भला 'भुजा' का अर्थ किस प्रकार निकाल लिया कोशकार ने? एक शब्द और है संस्कृत में-'दोस्' जिसका अर्थ 'अग्रभुजा' और 'भुजा' भी दिया गया है । मैं सोचता हूँ कि इसी 'दोस्' शब्द से 'दोस्त' बना होगा । जिस प्रकार अपनी भुजा अथवा हाथ अपने ऊपर अथवा अपनों के ऊपर प्रहार नहीं करता, बल्कि रक्षा करता है, उसी प्रकार 'दोस्त' उसे कहेंगे, जो सदैव रक्षा अथवा सहयोग के लिए तत्पर रहता है । इसी में 'दोस्त' शब्द की सार्थकता है । इसलिए इसे संस्कृत का शब्द मानने को मन करता है ।
यह एक फिल्मी गीत है । संभवतः राजकपूर और राजेंद्रकुमार की कोई फिल्म है, जिसमें प्रेमी अधिक दिलफेंक होने के कारण अपनी उस प्रेयसी से कुछ अधिक अपेक्षा पाल लेता है और जब उसका प्रणय कुछ 'बेपटरी' चला जाता है तो उस पर यह गीत फिल्माया गया है । दोस्त और दोस्ती पर बहुत सारी फ़िल्में बनी हुई है । न जाने कितने गीत और गज़लें इस पर लिखी गयी होंगी आज तक । इस शब्द के विषय में शब्दकोश यह जानकारी देता हैं कि यह फारसी शब्द है, जिसका अर्थ मित्र, स्नेही आदि होता है । मैं जब गंभीरता से विचार करता हूँ तो मुझे यह संस्कृत का ही जान पड़ता है और इसका इतना अच्छा अर्थ शायद दूसरी जगह संभव न हो । वैसे अपनी-अपनी भाषा में शब्दों की जो परिभाषा प्रकाशित होती है, उससे उस शब्द की आत्मा तक हम पहुँच सकते हैं, लेकिन संस्कृत के कई शब्द ऐसे हैं, जिनका समानार्थी दूसरी किसी भाषा में शायद सम्भव नहीं । ऐसे कई शब्दों पर मेरा चिंतन निरंतर प्रकाशित होता रहेगा । अभी इस 'दोस्त' शब्द पर विचार करते हैं । संस्कृत में 'दोष' का अर्थ तो 'त्रुटि', 'कमी', 'अपराध', 'पाप' आदि मिलता है सो तो ठीक है, पर 'दोषा' का अर्थ 'रात्रि' के साथ 'भुजा' भी बताया गया है, जो मुझे स्वीकार्य नहीं है । 'दुष्यते अन्धकारेण-दुष+घञ+टाप्' से अन्धकार के दोष वाली 'तिमिराच्छन्न निशा' तो ठीक है, लेकिन भला 'भुजा' का अर्थ किस प्रकार निकाल लिया कोशकार ने? एक शब्द और है संस्कृत में-'दोस्' जिसका अर्थ 'अग्रभुजा' और 'भुजा' भी दिया गया है । मैं सोचता हूँ कि इसी 'दोस्' शब्द से 'दोस्त' बना होगा । जिस प्रकार अपनी भुजा अथवा हाथ अपने ऊपर अथवा अपनों के ऊपर प्रहार नहीं करता, बल्कि रक्षा करता है, उसी प्रकार 'दोस्त' उसे कहेंगे, जो सदैव रक्षा अथवा सहयोग के लिए तत्पर रहता है । इसी में 'दोस्त' शब्द की सार्थकता है । इसलिए इसे संस्कृत का शब्द मानने को मन करता है ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-१६-०१-२०१८
दिनांक-१६-०१-२०१८
अमलदार नीहार
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आज का विचार-
जीवन का एक-एक पल बेहद कीमती होता है । दुनिया की कोई भी कीमती वस्तु समय से ज्यादा कीमती नहीं हो सकती । जो लोग समय को व्यर्थ गँवा बैठते हैं, इसका सदुपयोग उन्नयन के लिए नहीं करते, वे अपनी ही जिंदगी के साथ क्रूर मजाक करते हैं । समय बीत जाता है और अकर्मण्य-आलसी लोगों को जीवन के तूफानी रेगिस्तान में छोड़ देता है निपट अकेला रेत की परतों में दफ्न हो जाने के लिए ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-16-0172018
दिनांक-16-0172018
आज का विचार-
जीभ का चटोरापन एक बीमारी है, जो बचपन से बुढ़ापे तक हमारे साथ रहती है । यह मनोवैज्ञानिक बात है कि इसके चलते कई बार हम सेहत सम्बन्धी हानि भी उठाते हैं । यह चटोरापन हम सभी लोगों में थोड़ा या अधिक स्थायी रूप से विद्यमान है । जो लोग संयम का पालन कर लेते हैं, वे बहुत सी सामयिक बीमारियों से बच जाते हैं । जिनके बच्चे बहुत जिम्मेदार और प्यार करने वाले होते हैं, वे माँ-बाप की चटोरी आदतों की रखवाली करते रहते हैं और उनकी उम्र में इजाफा कर देते हैं, नहीं तो कई बूढ़े अपनी बुरी आदतों से समय से पहले कूच कर जाते हैं । गाँधीजी कहा करते थे कि सिर्फ एक इन्द्रिय 'जिह्वा' पर भी कोई नियंत्रण कर ले तो अन्य सभी इंद्रियों पर संयम साध सकता है । जीभ के चटोरेपन से दूसरी इन्द्रियाँ भी उद्दीप्त होती हैं और तन-मन को क्षति पहुँचाती हैं । आयुर्वेद में कहीं लिखा हुआ है(मैंने देखा नहीं है) कि मनुष्य अपनी जीभ के अग्र भाग से अपनी कब्र खोदता है । यह बिलकुल सत्य प्रतीत होता है । मधुमेह, रक्तचाप, गुर्दा और पथरी की बीमारियाँ, हृदयाघात आदि का जबर्दस्त कारक है हमारी भोजन सम्बन्धी स्वाद-प्रियता । इस जीभ के चटोरेपन की तरह अन्य इंद्रियों के विषय में भी सोचा जा सकता है । इसीलिये जीवन में इंद्रियों के संयम पर ज्ञानियों ने बड़ा बल दिया है ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-१५-०१-२०१८
दिनांक-१५-०१-२०१८
अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग
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शब्द
शब्द-ब्रह्म का सच्चा साधक
आराधक उसकी सत्ता का
निष्ठावान पुजारी जानो
कभी 'रथी' आरूढ़ प्राण बन
पार्थ सदृश मैं अर्थ अपोहित
और कभी मैं बन जाता हूँ शब्द-सारथी
पार्थ-सखा मैं हृषिकेश, मैं योगेश्वर, वह कृष्ण चतुर मैं ।
रोम-रोम शब्दों की सिहरन
अर्थ-वलय में लय की थिरकन
हर धड़कन में, प्राण-पुरस्सर
नर्दित शब्द-लहर नित नर्तन ।
मैं शब्दों को छू लेता हूँ-शशक सदृश पेशल रोमावलि
और कभी वे काँटों जैसे निशित नुकीले
कँकरीले-खुरदरे-गठीले-कुछ कनेर-पत्तों से पीले
दाहक कुछ अंगार-भरे से ।
सुनता हूँ ऐसे मैं जैसे
काल-गुफा में गूँज रही ध्वनि-
मृत्यु-वधू-नूपुर की रुनझुन
सागर के उत्ताल तरंगाकुल अंतर की व्याकुल धड़कन ।
शब्दों के रस पीता रहता ऐसे जैसे विष पी जाता
आँख मूँद जीवन-अँगड़ाई के अधरों का मादक चुम्बन,
मैं शब्दों का 'मधुप' भ्रमर हूँ-गंधप्राण में रसिक चहेता
रस-अध्येता ।
सूँघ समझ लेता हूँ शाद्वल खेतों में क्या फूल खिले हैं,
कहाँ-कहाँ साज़िश की बू है, रंग हवा में कौन घुले हैं,
मैं शब्दों की यजन-क्रिया हूँ, मैं शब्दों का चित्रकार हूँ,
मैं शब्दों की सृष्टि प्रकाशित, मैं शब्दों का सत्य-सृजेता
शब्द-ब्रह्म में लीन अनिर्वच
परमतत्व की ज्योति-शिखा हूँ-
मैं कुबेर-सा, किन्तु अकिंचन
प्रणव-लीन, पर प्रणयी-याचक शब्दों की सत्ता के सम्मुख ।
आराधक उसकी सत्ता का
निष्ठावान पुजारी जानो
कभी 'रथी' आरूढ़ प्राण बन
पार्थ सदृश मैं अर्थ अपोहित
और कभी मैं बन जाता हूँ शब्द-सारथी
पार्थ-सखा मैं हृषिकेश, मैं योगेश्वर, वह कृष्ण चतुर मैं ।
रोम-रोम शब्दों की सिहरन
अर्थ-वलय में लय की थिरकन
हर धड़कन में, प्राण-पुरस्सर
नर्दित शब्द-लहर नित नर्तन ।
मैं शब्दों को छू लेता हूँ-शशक सदृश पेशल रोमावलि
और कभी वे काँटों जैसे निशित नुकीले
कँकरीले-खुरदरे-गठीले-कुछ कनेर-पत्तों से पीले
दाहक कुछ अंगार-भरे से ।
सुनता हूँ ऐसे मैं जैसे
काल-गुफा में गूँज रही ध्वनि-
मृत्यु-वधू-नूपुर की रुनझुन
सागर के उत्ताल तरंगाकुल अंतर की व्याकुल धड़कन ।
शब्दों के रस पीता रहता ऐसे जैसे विष पी जाता
आँख मूँद जीवन-अँगड़ाई के अधरों का मादक चुम्बन,
मैं शब्दों का 'मधुप' भ्रमर हूँ-गंधप्राण में रसिक चहेता
रस-अध्येता ।
सूँघ समझ लेता हूँ शाद्वल खेतों में क्या फूल खिले हैं,
कहाँ-कहाँ साज़िश की बू है, रंग हवा में कौन घुले हैं,
मैं शब्दों की यजन-क्रिया हूँ, मैं शब्दों का चित्रकार हूँ,
मैं शब्दों की सृष्टि प्रकाशित, मैं शब्दों का सत्य-सृजेता
शब्द-ब्रह्म में लीन अनिर्वच
परमतत्व की ज्योति-शिखा हूँ-
मैं कुबेर-सा, किन्तु अकिंचन
प्रणव-लीन, पर प्रणयी-याचक शब्दों की सत्ता के सम्मुख ।
[जिजीविषा की यात्रा-अमलदार "नीहार" ]
दिनांक-१५-०१-२०१८
दिनांक-१५-०१-२०१८
मेरी कहानी "लड़की और पतंग" का एक अंश देखिये-
परेशान-से बुआ बबली को रोकने का कोई उपाय सोचने में लगी थीं कि तभी पड़ोस का लड़का सोनू दौड़ता हुआ बुआ के पास पहुँचा और उसने यह जिद की कि उसकी पतंग तैयार कर उसे उड़ाने के लिए दें । बुआ ने उसकी पतंग तैयार कर उसके हाथ में थमाने से पहले उसे समझाया-"देखो बेटा! इस पतंग का माँझा बेहद कमजोर है । अगर तुम इस पतंग को बहुत ऊँची उड़ाओगे तो इसे कोई दूसरा काट भी सकता है या हवा के झोंके से यह डोर से टूटकर अलग भी हो सकती है । "
"फिर इस पतंग का क्या होगा बुआ?" बच्चे ने बड़ी मासूमियत से पूछा ।
"फिर तो यह पतंग उड़ती-उड़ती किसी कुँए, तालाब या नदी में गिर सकती है । यह किसी पेड़ अथवा कँटीली झाड़ी में उलझकर फट सकती है या फिर किसी की छत या आँगन में गिर सकती है, जहाँ इसे पाने के लिए ढेर सारे बच्चे आपस में लड़ रहे हों । ऐसी स्थिति में यह किसी मजबूत और भरोसेमंद हाथ में सुरक्षित रह सकती है या आपस के झगड़े में फट भी सकती है । पतंग से खेलने वाले उससे अपना मन बहलाते हैं, उसके फट जाने से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता । डोर से कटी पतंग की तकदीर कोई नहीं जानता बेटा!"
बच्चा बड़े ध्यान स बुआ की बातें सुन रहा था और बबली तेजी से अपना पर्स झुलाती एक-दो किताब लिए घर की चौखट पार करने को बेताब दिख रही थी । बुआ की आखिरी बात सुन एक पल वह ठिठकी और फिर मुस्कराती हुई आगे बढ़ गयी । अपनी डबडबाई आँखें बंद कर बुआ वहीँ सोफे पर धम्म से बैठ गयीं । नीचे सरपट भागने को तैयार हुर्र-हुर्र की आवाज हवा में गूँज रही थी-बच्चा सोच रहा था कि पतंग उड़ाने के पहले माँझे की मजबूती पर बुआ के विश्वास की मुहर लग जाय तो ठीक रहेगा । उधर इस कहानी की तीसरी पतंग तूफ़ान की पीठ पर सवार आसमान से बातें कर रही थी ।
"फिर इस पतंग का क्या होगा बुआ?" बच्चे ने बड़ी मासूमियत से पूछा ।
"फिर तो यह पतंग उड़ती-उड़ती किसी कुँए, तालाब या नदी में गिर सकती है । यह किसी पेड़ अथवा कँटीली झाड़ी में उलझकर फट सकती है या फिर किसी की छत या आँगन में गिर सकती है, जहाँ इसे पाने के लिए ढेर सारे बच्चे आपस में लड़ रहे हों । ऐसी स्थिति में यह किसी मजबूत और भरोसेमंद हाथ में सुरक्षित रह सकती है या आपस के झगड़े में फट भी सकती है । पतंग से खेलने वाले उससे अपना मन बहलाते हैं, उसके फट जाने से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता । डोर से कटी पतंग की तकदीर कोई नहीं जानता बेटा!"
बच्चा बड़े ध्यान स बुआ की बातें सुन रहा था और बबली तेजी से अपना पर्स झुलाती एक-दो किताब लिए घर की चौखट पार करने को बेताब दिख रही थी । बुआ की आखिरी बात सुन एक पल वह ठिठकी और फिर मुस्कराती हुई आगे बढ़ गयी । अपनी डबडबाई आँखें बंद कर बुआ वहीँ सोफे पर धम्म से बैठ गयीं । नीचे सरपट भागने को तैयार हुर्र-हुर्र की आवाज हवा में गूँज रही थी-बच्चा सोच रहा था कि पतंग उड़ाने के पहले माँझे की मजबूती पर बुआ के विश्वास की मुहर लग जाय तो ठीक रहेगा । उधर इस कहानी की तीसरी पतंग तूफ़ान की पीठ पर सवार आसमान से बातें कर रही थी ।
[भ्रष्टाचाराय नमोनमः-अमलदार "नीहार", पृष्ठ-३९-४० ]
नमन प्रकाशन
४२३१\१, अंसार रोड, दरिया गंज
नई दिल्ली-११०००२
प्रकाशन वर्ष-२०१८
नमन प्रकाशन
४२३१\१, अंसार रोड, दरिया गंज
नई दिल्ली-११०००२
प्रकाशन वर्ष-२०१८
अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग
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चिंतन-
कभी-कभी शब्दकोश हमारी अधिक मदद नहीं कर पाते, बल्कि उसे उलझा ही देते हैं, लेकिन रचनाकार उनसे अपना काम चला लेता है उसे थोड़ा नया और विशिष्ट रूप-रंग देकर । अपनी रचनाओं में अनेकत्र इस नाचीज ने ऐसा किया है । आइये , कुछ शब्दों पर विचार करते हैं । एक ही तरह के चार शब्द रखते हैं-१-उदरम्भर, २-कुलम्भर, ३-ऋतम्भर, ४-विश्वम्भर । कोश के अनुसार अपना पेट भरने वाले पेटू या भोजन-भट को उदरम्भर कहा जा सकता है । कहीं-कहीं इसका अर्थ स्वार्थी और नीच भी हो सकता है संकुचित रूप में । पशु तो उदरम्भर ही होता है, पर कई बार गिरे हुए मनुष्य जितना स्वार्थी और नीच वह नहीं होता । जिन युवकों को सरकारी गलत नीतियों और दुर्व्यवस्था ने बेरोजगार बना रखा है, वे तो बेचारे उदरम्भर भी नहीं बन पाये । अब अपना पेट भरने के लिए कोई भूखा आदमी, गरीब श्रमिक, लाचार यदि कुछ स्वार्थी और नीच हो ही जाय तो क्या इसके लिए वही जिम्मेदार है ? उसकी तुलना क्या पशु से भी गए-बीते से की जाय? 'यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे । वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।" एक मनुष्य से यह उम्मीद की जाती है कि वह सिर्फ अपना ही पेट न भरे, बल्कि अपनी योग्यता से दूसरे आश्रित या कमजोर लोगों का भी पेट भरे । यदि वह अपना भी पेट नहीं भर पाता, तब तो पशु से गया-बीता है और यदि सिर्फ अपना पेट भरता है तो पशुवत् है ।
'कुलम्भर' का अर्थ कोश में 'चोर' दिया गया है, जो मेरे गले नहीं उतरता । अपने कुल का भरण-पोषण करने वाला क्या बुरा काम करता है । यदि विश्व का भरण-पोषण करने वाला 'विश्वम्भर' चोर अथवा महाचोर नहीं पुकारा जाता तो फिर 'कुलम्भर' बेचारा चोर कैसे हो गया? मुझे लगता है कि शायद मनुष्य को यह अधिकार है(या ऐसी स्थिति आये दिन बनती ही रहती है) कि वह अपने कुल-परिवार का पेट पालने के लिए चोरी भी यदि कर ले तो जायज है । आखिर, वाल्मीकिजी जायज समझकर ही पाटच्चरी वृत्ति अपनाये हुए थे । दूसरी बात यह हो सकती है कि किसी समाज में रहने वाला कोई व्यक्ति अपने कुल के भरण-पोषण के लिए कभी न कभी यत्किंचित चौर्य कर्म करता ही है । थोड़े से लाभ के लिए झूठ का सहारा लेता है, किसी से दगाबाजी कर बैठता है, चापलूसी कर लेता है या कामचोरी तो करता ही है । इसलिए उसे अपने कुल तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए । यदि कुल तक ही सीमित रहेगा तो 'चोर' बना रहेगा । इसलिए उसे लोकहित के भी काम करना चाहिए ।
'ऋतम्भर' का अर्थ होता है-योगशास्त्र के अनुसार सत्य को धारण तथा पुष्ट करने वाला अर्थात सत्यनिष्ठ । सत्य को धारण करना कोई हँसी-खेल नही है । सत्य दहकता हुआ अंगारा होता है, जो इसे धारण करता है, कभी-कभी उसे भी जलाकर नष्ट कर देता है । राजा हरिश्चंद्र जैसे सत्यवादी लोगों का क्या हाल हो सकता है, इससे कोई अनभिज्ञ नहीं है । पुराण, इतिहास से लेकर आज भी इसके बहुत से उदाहरण देखने को मिल जाएँगे कि कई बार सत्य कालकोठरी में कैद कर दिया जाता है और झूठ को ताज पहनाया जाता है, लेकिन सब कुछ सहते हुए जो ऋतम्भर बना रहता है, वह 'कुलम्भर' से बहुत श्रेष्ठ होता है । आखिर देश-दुनिया के तमाम भ्रष्टाचारी कुलम्भर ही तो हैं, वे ऋतम्भर नहीं हो सकते । ऋतम्भर होना मनुष्य की श्रेष्ठता की सच्ची पहचान है ।
'विश्वम्भर' का बहुप्रचलित अर्थ है जो विश्व का भरण-पोषण करे । "विश्व भरण पोषण कर जोई । ताकर नाम भारत अस होई ।" जो सभी जीव-जंतुओं का, जड़-चेतनमय सम्पूर्ण जगत का भर्ता होता है, वही जगतपिता, जगतपालक परमात्मा है, उसके लिए सभी बराबर हैं । मुझे लगता है कि उदरम्भर, कुलम्भर, ऋतम्भर और विश्वम्भर शब्दों के चाहे जो अर्थ हों, पर ये शब्द मनुष्यता के विकास के द्योतक भी हैं-उत्कर्ष के सुन्दर सोपान हैं ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-१५-०१-२०१8
दिनांक-१५-०१-२०१8
आज उठा मन में विचार-
महात्माओं का क्या,
किसी के कलेवर में प्रवेश पा सकती हैं आत्मा उनकी,
आततायी के-पापी के नगाडानन्दों के
विभ्राट कालुष्य-क्रीड कलेवर में भी,
आह्वान करता हूँ मैं भी महाकवि कालिदास का
परकाय-प्रवेश के लिए
इस अभागे देश के लिए,
आ जाएँ इक बार फिर
बैठा हूँ मैं कब से इन्तजार में
क्या मैं नहीं बन सकता निराला
या नज़रुल इस्लाम
नज़ीर अकबराबादी या बुल्लेशाह
मैं तो नानक बनना चाहता हूँ,
गौतम बुद्ध भी
गाँधी और ईसा भी
बना दे मुझे गुरु गोरखनाथ
कबीर भी और मीरा भी दीवानी प्रेम की
जायसी और रसखान
कवीन्द्र रवींद्र व बंकिम-शरत
प्रसाद-पन्त और महादेवी
दिनकर, नागार्जुन और धूमिल
और मुक्तिबोध, शमशेर
-----और केदारनाथ अग्रवाल भी
किसान का हमदर्द प्रेमचंद व त्रिलोचन भी
शंकर और दयानंद तो रामकृष्ण-विवेकानंद भी
----और-----अरविन्द भी,
सब कुछ-----बनना चाहता हूँ एक साथ
पर मैं नहीं ले सकता किसी की जगह उसे विस्थापित कर
मेरे मालिक! मेरे मौला, मेरे राम!
मैं तो बस पीना चाहता हूँ एक बूँद अमृत की
जो दिया है उन्होंने इस दुनिया को
लौटाना चाहता हूँ वही अमृत फिर एक बार
उतारकर अपनी आविष्ट वाणी में
वीणापाणि भारती की कृपा से ।
किसी के कलेवर में प्रवेश पा सकती हैं आत्मा उनकी,
आततायी के-पापी के नगाडानन्दों के
विभ्राट कालुष्य-क्रीड कलेवर में भी,
आह्वान करता हूँ मैं भी महाकवि कालिदास का
परकाय-प्रवेश के लिए
इस अभागे देश के लिए,
आ जाएँ इक बार फिर
बैठा हूँ मैं कब से इन्तजार में
क्या मैं नहीं बन सकता निराला
या नज़रुल इस्लाम
नज़ीर अकबराबादी या बुल्लेशाह
मैं तो नानक बनना चाहता हूँ,
गौतम बुद्ध भी
गाँधी और ईसा भी
बना दे मुझे गुरु गोरखनाथ
कबीर भी और मीरा भी दीवानी प्रेम की
जायसी और रसखान
कवीन्द्र रवींद्र व बंकिम-शरत
प्रसाद-पन्त और महादेवी
दिनकर, नागार्जुन और धूमिल
और मुक्तिबोध, शमशेर
-----और केदारनाथ अग्रवाल भी
किसान का हमदर्द प्रेमचंद व त्रिलोचन भी
शंकर और दयानंद तो रामकृष्ण-विवेकानंद भी
----और-----अरविन्द भी,
सब कुछ-----बनना चाहता हूँ एक साथ
पर मैं नहीं ले सकता किसी की जगह उसे विस्थापित कर
मेरे मालिक! मेरे मौला, मेरे राम!
मैं तो बस पीना चाहता हूँ एक बूँद अमृत की
जो दिया है उन्होंने इस दुनिया को
लौटाना चाहता हूँ वही अमृत फिर एक बार
उतारकर अपनी आविष्ट वाणी में
वीणापाणि भारती की कृपा से ।
अमलदार "नीहार"
१५ जनवरी, २०१८
१५ जनवरी, २०१८
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