सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

अन्तर्राष्ट्रीय बेटी-दिवस पर

नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः |
यद् यच्छरीरमादत्ते तेन-तेन स युज्यते ||

(श्वेताश्वतरोपनिषद-५/१०)



दीक्षांत समारोह में सम्मानित बेटियों के लिए

(भ्रूण-ह्त्या के खिलाफ)

बेटी : पाषाण-पीठ पर कुसुमित कल्पलता
(जिसे कविता न समझ में आये, वह इसका तीन पाठ करे)

हे माँ !
मैं तुम्हारी भूमि-कक्षा में न जाने कब, कहाँ से
व्योम-तल की तारिका-सी
कामना की वह्नि-लहरों में
सहज तिरती हुई-सी ज्योति कोई
युग्म रेतस-पुष्परज से जो विनिर्मित
पिण्ड वह पिशितांश-कारा, वन्दिनी-सी
कर उठी चीत्कार सहसा
मैं तुम्हारे मधु सृजन की सेज दोलित जलपरी-सी
लीन लीलोल्लास-पुलकित
खेल जीवन का निरखती |

फिर अचानक देखती क्या?
थरथराती-सी थिरकती काल की विकराल छाया
किस त्वरा के साथ अपनी क्रूरता के पग उठाती
आ रही है, छा रही है भीति-शंका-शूल-सिहरन
सनसनी-सी, कँपकँपायी, क्या करूँ मैं?
थम गयी सहमी हुई खर डंक-पीड़ित
डूबती आतंक-तम के पंक-मीडित
फूटता है लाल लोहू, काटता प्रत्यंग प्रतिपल
हाय! कैसा छल हमारे साथ कितना क्रूर-निर्मम !
यह तुम्हारी प्रीति का या पाप का है पारितोषिक?

मैं अमर हूँ-चेतना की अग्निपाखी, जान ले तू
रे अभागे मर्त्य मानव! शक्ति को पहचान ले तू
प्राण की दुहिता तुम्हारी त्राण देती अम्बिका भी,
चुलबुली यामी यमी भी, स्वप्न-संगम-नायिका भी |
माँ ! तुम्हारी दीनता का दंश मुझको है पता,
माँ! पिता का डूबता है वंश, मुझको है पता,
चेतना की ज्योति मुझमें, कामना का ज्वाल मैं भी
मैं सृजन की बेल जग की, फैलती दिक्काल मैं भी |

[शीघ्र प्रकाश्य कृति "मेरी कविताओं में स्त्री : स्त्री का जीवन और जीवन में स्त्री" में संगृहीत-अमलदार 'नीहार' ]

शब्द कठिन सरलार्थ-प्रकाश

भूमि-कक्षा= माँ का गर्भ | व्योमतल की तारिका= अकल्पित, कल्पना से परे, अलौकिक, दिव्य शक्ति, जीवन के लिए मूलयवान और चमकदार | कामना की वह्नि-लहर=जलती हुई(अतृप्त) इच्छाओं-वासनाओं की आग की लहर | रेतस=पुरुष तत्व | पुष्परज=स्त्री तत्व | पिशितांश-कारा=मांस के लोथड़े का कारागार | दोलित=झूलती हुई-सी, अर्थात बड़े ही मौज में | त्वरा=तीव्रता | खर=तीक्ष्ण, तेज धारदार | लोहू=खून | अग्निपाखी=एक कल्पित पक्षी, जो अग्नि-दग्ध भस्म-राशि से पुनः जीवित हो उठता है | मर्त्य=मरणशील, मरणधर्मा | दुहिता=बेटी, दोहन करने वाली(प्राचीन काल में गायों को दुहने के कारण 'दुहिता' कहलायी, किन्तु आज दहेज़-प्रथा की जटिलता के कारण निधन माँ-बाप के लिए 'दुहिता' साबित हो रही है, जो प्राणों को भी दुह लेती है(प्राण की दुहिता से यह भी तात्पर्य होगा कि प्राणों में रमने वाली बेटी, अर्थात अत्यंत प्रिय) | अम्बिका=माँ, जगज्जननी, सृजन की देवी, मातृशक्ति | यामी= छोटी बहिन | यमी=यमराज की भगिनी (तारने वाली यमुना) | दिक्काल=सभी दिशाओं और कालों में |

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"अपने समय का तिरस्कृत साहित्यकार भी निर्मम समाज की कोख में अवांछित भ्रूण कन्या की ही तरह संकट में होता है | "
अमलदार नीहार

भारती-स्तवन और भारत-स्तवन

" मरु ह्रदय, पीर-निर्झर नयन हो गए "

गीत मेरे महकते सने गन्ध केशर कभी, आज उजड़े चमन हो गए ।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय, पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

स्नात आँसू लहू के हिमालय हुआ तव, वसन गंग का स्याह आँचल बना,
सुतिरंगा तरंगिणि त्रयी हो गयी, रंग हरिताभ यह शस्य श्यामल बना ।
दिव्य माला स्फटिक चक्र करुणा-कलित, कर्ण-कुंडल कलाधर-तपन हो गए।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

काँपती-सी कली, कोकिला-काकली है डरी आज सहमी सी हैं घाटियाँ,
दीप अनगिन जगें , जागते ही रहें, अन्ध चाहे चलें सैकड़ों आँधियाँ ।
तोम तिमिरा विपुल विघ्न-बाधा हटा, प्रार्थना के थके-से वचन हो गए।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

बीन ऐसी बजा भारती! भारती भैरवी भयरवी भूमि गूँजे गगन,
काँप थर-थर उठें आसुरी शक्तियाँ, शान्ति-सीता लिए फिर हो लंका-दहन।
अग्नि-वीणा सजे स्वर सधे एकता-मन्त्र, गर्जन तुमुल पोखरन हो गए ।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर निर्झर नयन हो गए ॥

द्वेष-ईर्ष्या-विकल पाशवी वृत्तियाँ खेलतीं नित्य होली लहू से भरी,
इन्द्रधनुषी न झूले सजें सावनी, अब न रस की भरे गोपिका गागरी।
पौर-पनघट-भुजगदंश-मूर्च्छित हवा-भीत मुरली मनोहर सपन हो गए,
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

यह सरसिज ह्रदय युग चरण के लिए, मानसी हंस मेरा विराजो गिरा,
प्राण-पुलकन-श्वसन रसनामृत बसो , लेखनी में लसो पावनी निर्झरा ।
कल्प आँसू जिए, कौमुदी पय पिए नव्य "नीहार" मौक्तिक मगन हो गए ।
नर-लहू से धरा लाल इतनी हुई, मरु ह्रदय पीर-निर्झर नयन हो गए ॥

रचनाकाल-१२-०१-२००२
[इन्द्रधनुष(तृतीय रंग) -अमलदार "नीहार" ]

बूँद भर व्याख्यान हूँ

मैं किसी के आँसुओं में प्यार बनकर पल रहा हूँ,
आह बनकर वेदनानल में निरन्तर जल रहा हूँ |
मैं भले ही पीर की अनुभूति का अभिमान हूँ,
कवि-ह्रदय की वेदना का बूँद भर व्याख्यान हूँ ||

घट-घटा से प्यार का पावस घनेरा बन गया हूँ,
आँचलों में रंग भरकर मैं चितेरा बन गया हूँ |
मैं भले ही चर-अचर के सौख्य का संधान हूँ,
कवि-ह्रदय की वेदना का बूँद-भर व्याख्यान हूँ ||

मैं तपन का ताप, शीतल चन्द्रमा की कौमुदी हूँ,
व्याध का विषमय विशिख, ऋषि-नेह पूरित इंगुदी हूँ |
मैं भले समझूँ कि मृग का ही करुण अभिज्ञान हूँ ,
कवि-ह्रदय की वेदना का बूँद-भर व्याख्यान हूँ ||

मधुमय प्रकृति की कल्पना का बल अपरिमित बाँधकर,
लिखने चला था मैं कला की साधना को साधकर |
मैं भले 'नीहार'-जग-सौहार्द की पहचान हूँ,
कवि-ह्रदय की वेदना का बूँद-भर व्याख्यान हूँ ||

रचनाकाल : १३ अगस्त, १९९५
[गीत-गंगा(षष्ठ तरंग)-अमलदार 'नीहार']
प्रकाशन वर्ष-१९९८

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