बुधवार, 26 सितंबर 2018

क़ानून खुदा के ढीले हैं

छाया चारों ओर अँधेरा, अन्धों की बन आयी है,
है कर्तव्य नपुंसक औ अधिकार जहाँ अन्यायी है ।
हर चेहरे पर एक मुखौटा, अपना कौन पराया है,
जीना हमको भी आता, कवि होता ही विषपायी है ।
जहाँ सभ्यता डरी हुई अभिमान एक बड़बोला है,
जड़ता की दृढ पकड़, प्रकृति में आडम्बर का चोला है ।
नीति जहाँ की निपट आसुरी, मुँह खोले क्या बोले कोई?
छल जाता है स्वार्थ मधुर, विश्वास बहुत ही भोला है ।
सदाचार तक घायल है, जो सज्जनता वह पंक सनी है,
दुरभिसंधि में मेधा जिनकी नागिन-सी लगती चिकनी है ।
विषकन्या की रसना-जैसी जहर-बुझी कटार-सी विद्या
पाशव प्रकृति वृत्ति मिथ्या मद दुरित दोषमय बुद्धि घनी है ।
साँपों की संतान मनुज में कुछ इतने जहरीले हैं,
डरते सॉँप, मनुजता के भी नेत्र नीर से गीले हैं ।
ऐसी बस्ती छोड़ त्वरित "नीहार", जहाँ पर देर बहुत
हो न भले, अन्धेर मगर, क़ानून खुदा के ढीले हैं ।
रचनाकाल-२८-०२-१०९२ (हरिद्वार-उत्तर प्रदेश, अब उत्तराखण्ड)
[इन्द्रधनुष(चतुर्थ रंग)अमलदार "नीहार" , वी0 एल ० मीडिया सोलूशन्स, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-२०११ ]

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