गुरुवार, 20 सितंबर 2018

कौन भला इन्साफ करेगा?, रोटी की दरकार



बदलते समय की छाती पर अंकित काले इतिहास को यदि ठीक-ठीक निरखना और समझना हो तो इतिहास की पुस्तक नहीं उनका साहित्य पढ़िए, जो सत्ता के तलबगार नहीं, मतलब के बीमार नहीं, बल्कि आम आदमी के दुःख-दर्द के साझीदार है |

अमलदार 'नीहार' की दो रचनाएँ :

१५ नवम्बर २०१६ की रचना-
             {1}
कौन भला इन्साफ करेगा?

काला जादू, "ला-ल्या जादू"
और "विजय की माल्या" जादू,
जादू ठीक ठिकाने का है
जन-धन सब हथियाने का है |

बीबी के बटुए से निकला,
दादी के तकिये से निकला,
गुल्लू के गुल्लक से निकला,
दादा के रल्लक से निकला |

साड़ी के बक्शे से निकला,
चिल्लर कितना! कैसे निकला?
सींग सभी के, सबके थी दुम
सभी चोर थे गुमसुम-गुमसुम |

जो लाइन में लगे हुए हैं,
बेईमान सब, ठगे हुए हैं-
जनसेवक परधान चुना था,
छैलछबीला, जान चुना था |

चार बार परिधान जो बदले,
कहा-सुना ईमान जो बदले |
नहीं ग़रीबों का वह बाबू!
मीत सेठ का, मन बेकाबू !

पीठ तुम्हारी चाबुक मारे
बार-बार डण्डा फटकारे |
बहुरुपिया बहुरुपया पीटे,
हमें बनाकर मूर्ख घसीटे |

आँखों पर जाले हैं सबके,
रोटी के लाले हैं सबके |
रोजी या रोजगार कहाँ है,
सुख-सुकून का सार कहाँ है ?

बोलो ये रखवाले किसके?
कहाँ जुड़े हैं प्याले किसके?
किसके संग ठिठोली किसकी?
हमदम या हमजोलो किसकी ?

अब तो कुछ पहचानो भाई!
कब तक थिगली, वही रजाई!
कब तक आँसू, कब तक आहें?
सुन लो पीड़ा भरी कराहें ?

बहुत बुरे दिन आने वाले,
हिम्मतवाले! ओ मतवाले!
तेरा भी घर 'साफ़' करेगा,
कौन भला इन्साफ करेगा?
[हृदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार']

                    {2}
रचनाकाल : २८ जनवरी, २०१७


                     रोटी की दरकार

दूर------जहाँ तक दृष्टि, वहाँ तक, उसके भी जो पार,
महाकाय यह सृष्टि निरखता अविरल पलक पसार |
सृष्टि एक थाली हो मानो, उसमें ठण्डा भात-
चटक चाँदनी पसरी, लगती तारों की बारात ||

माखन-चुपड़ा गोल-गोल यह रोटी जैसा चाँद,
सिरका-कटहल-आम फाँक-से काले हैं एकाध |
बिखरे तारे बुनिया जैसे, दुनिया भी  रमणीक,
जाग रहे कलुआ का सपना-आयी तब तक छींक ||

कालू के बेटे 'कलुआ' को लगी हुई थी भूख,
थिगली लुगरी-लिपटी 'रधिया' काँटे जैसी सूख |
बथुआ-सरसों खोंट-खाट ले आयी बड़के खेत,
रूह काँपते थर-थर, लगते बड़के ठाकुर प्रेत ||

सुबरन के कौडे से लाया कालू आलू चार,
राख लगे से कच्चे-पक्के चोरी का उपहार |
तालू जले 'सपर-सपर' तब दो आलू चटकार,
कलुआ बोला-"बापू ! इसमें माई हिस्सेदार ||"

हिये हूल-सी भर-भर आँसू रोये रधिया-आँख,
"मरें भूख से निपट मजूरे, टूटि गए सब पाँख |
पेट गरीबी जनम-जनम कै बुझै न जइसे आग,
नींद न रतियौ भोरहरियै से चिरई-चुनमुन भाग ||"

"डाग्डर बाबू के बिल्डिंग में किहे काम दिन बीस,
दिए न फूटी कौड़ी फुटकर लगे निपोरै खीस |
पाँच-पाँच सौ नोट पुराना, लाग करेजे चोट,
ओढ़ी याकि बिछाईं ओकराँ, छलिया जइसन नोट ||

लिए हाथ में नोट, हजारों लोग शहर या गाँव,
किसे मुरौव्वत कौन करै का? नहीं ठिकाना-ठाँव |
आठ दिना तक चक्कर काटे, मेला लागै बैंक,
बैंक न कउनो काम क रधिया, जैसे पैटन टैंक |

बहुरुपिया ऊ टेसुआ गारै किसिम-किसिम कै सूट,
देस-बिदेस उड़न-छू, हम सब कीड़ा ओकरे बूट ||
केहू हमरा रकत पियत बा, हम तो माहुर-घूँट,
जब से आया झूठ-लबारी, मची है बमचक-लूट ||

लगा-लगा भर दिन लाइन में अपना जोड़ीदार,
रमुआ सुबह-सबेरे मरिगै, तड़प रहा परिवार |
ई जिनगी से छुट्टी पाएस", रधिया-उँगली होठ,
लगा कलेजे कलुआ-कालू-जीवन-धन, क्या खोट ||

"फिर अब ऐसन बात न कहिया, किरिया खाउ हमार,
कलुआ हमरा हीरा-मोती, बाघिन ई सरकार |
जमा न कौड़ी जनधन-खाता, करबै भ्रष्टाचार?
चाँद-चकोरी हम का जानी, रोटी की दरकार ||"

[ह्रदय के खण्डहर-अमलदार "नीहार"]

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