कश्मल रावन राजता, राम चले वनवास।
आत्म-अयोध्या आज भी सूनी पड़ी उदास।। ६४१।।
कैसी मन की मन्थरा, कैकेयी दुर्बुद्धि।
दशरथ नृप दस द्वार के, फिर भी प्रीति-अशुद्धि।। ६४२।।
दशरथ नृप दस द्वार के, फिर भी प्रीति-अशुद्धि।। ६४२।।
देवासुर-संग्राम मन-भीतर प्रत्यह देख।
कौन भला वर-दान वे प्रत्यय के आलेख।। ६४३।।
कौन भला वर-दान वे प्रत्यय के आलेख।। ६४३।।
कैकेयी के मुख-वचन सायक, सोच सचान।
मोह-प्रणय की डार पर पारावत से प्रान।। ६४४।।
मोह-प्रणय की डार पर पारावत से प्रान।। ६४४।।
तरे तरी दो पाँव रख, भँवर भरे मझधार।
दशरथ की जो दुर्दशा, जीव-दशा संसार।। ६४५।।
दशरथ की जो दुर्दशा, जीव-दशा संसार।। ६४५।।
वन में लछिमन-राम सँग संयम-शुचिता शील।
धैर्य-त्याग, तप-तेज का भाव-प्रभाव सलील।। ६४६।।
धैर्य-त्याग, तप-तेज का भाव-प्रभाव सलील।। ६४६।।
माया को भी ठग सके माया का मारीच।
कनक हिरन-छवि छोह-छल माधव को ले खींच।। ६४७।।
कनक हिरन-छवि छोह-छल माधव को ले खींच।। ६४७।।
अच्छ सरोवर जानकी-उर संशय के प्रेत!
लांछित लछिमन के चरित, चारु कथा-अभिप्रेत।। ६४८।।
लांछित लछिमन के चरित, चारु कथा-अभिप्रेत।। ६४८।।
मन में साँची प्रीति जो, काँची रही प्रतीति!
कैसी लीला जानकी! कथा-निबन्धन-नीति।। ६४९।।
कैसी लीला जानकी! कथा-निबन्धन-नीति।। ६४९।।
स्वर्णनखा के नेह का नवल निमन्त्रण देख।
कहीं राम ने रच दिया कथा-सूत्र नव लेख।। ६५०।।
कहीं राम ने रच दिया कथा-सूत्र नव लेख।। ६५०।।
रावन-भगिनी! तू बता कटे नाक औ कान!
या फिर इंगित आर्य के हुआ घोर अपमान।। ६५१।।
या फिर इंगित आर्य के हुआ घोर अपमान।। ६५१।।
उर-अन्तस् में जानकी प्रति विद्वेष-दुराव।
राग-आग भी राम लख, स्वाभिमान का भाव।। ६५२।।
राग-आग भी राम लख, स्वाभिमान का भाव।। ६५२।।
खर-दूषन-त्रिशिरादि की शक्ति तमस् निर्मूल।
फिर भी नहीं प्रबोध लव, कैसी थी यह भूल।। ६५३।।
फिर भी नहीं प्रबोध लव, कैसी थी यह भूल।। ६५३।।
रावन में जो 'काम' था दुर्जय शत्रु महान।
चिनगारी तू ले गयी, जला दिया खलिहान।। ६५४।।
चिनगारी तू ले गयी, जला दिया खलिहान।। ६५४।।
थी अनादि जड़ वासना, अहंकार-मद चूर।
अन्तर दुर्दम भोग के भावों से भरपूर।। ६५५।।
अन्तर दुर्दम भोग के भावों से भरपूर।। ६५५।।
छल-बल पाशव पूर्ति का मूर्तिमान प्रतिमान।
पाप-शाप का बोझ भी सीस लिए वरदान।। ६५६।।
पाप-शाप का बोझ भी सीस लिए वरदान।। ६५६।।
आगम-निगम-पुराण का पण्डित वह मूर्धन्य।
दर्शन-भेद-कलादिगत विद्यावान अनन्य।। ६५७।।
दर्शन-भेद-कलादिगत विद्यावान अनन्य।। ६५७।।
हरि से जिसने हर लिया जाया-छाया रूप।
काल-अनल की नाशमय सीता शिखा अनूप।। ६५८।।
काल-अनल की नाशमय सीता शिखा अनूप।। ६५८।।
उस रावन को क्या कहूँ, जो इतना बलवान।
पराभूत सब देवता किंकर क्रीत समान।। ६५९।।
पराभूत सब देवता किंकर क्रीत समान।। ६५९।।
लंका-उपवन जानकी राम-विरह के शोक।
पहरे में दस मास जो रिपु रावन के ओक।। ६६०।।
पहरे में दस मास जो रिपु रावन के ओक।। ६६०।।
सीता-शुचिता मूर्ति का किया सभी ने मान।
रावन भैरव भय दिखा, रखता था सम्मान।। ६६१।।
रावन भैरव भय दिखा, रखता था सम्मान।। ६६१।।
उसे राम ने जीतकर भेज दिया निज लोक।
ओर सूर्य के वंश का फैला यश- आलोक।। ६६२।।
ओर सूर्य के वंश का फैला यश- आलोक।। ६६२।।
उसी राम के सामने है नतसीस- सवाल।
जो आत्मा की छाँह-सी क्या सीता का हाल।। ६६३।।
जो आत्मा की छाँह-सी क्या सीता का हाल।। ६६३।।
तुमने संशय जो किया अनल-दाह अपमान।
सीता-धोबिन एक सी, राजा-रजक समान।। ६६४।।
सीता-धोबिन एक सी, राजा-रजक समान।। ६६४।।
सीताएँ इस देश की छली गयीं हे राम!
सहने में अभिशाप सी, कीर्ति-कथा अभिराम।। ६६५।।
सहने में अभिशाप सी, कीर्ति-कथा अभिराम।। ६६५।।
रहे नरोत्तम तुम सदा मर्यादा की लीक।
सीता है निर्वासिता, राजा सभी अलीक।। ६६६।।
सीता है निर्वासिता, राजा सभी अलीक।। ६६६।।
दहे चितानल सर्वदा नारी का यह भाग्य।
या कि भुजिष्या भोग की, या कारण वैराग्य।।६६७।।
या कि भुजिष्या भोग की, या कारण वैराग्य।।६६७।।
सृष्टि सींचकर निज लहू, कोमल कर से पोष।
शासित-शोषित, त्याज्य भी, मढे़ मूढ़ सौ दोष।। ६६८।।
शासित-शोषित, त्याज्य भी, मढे़ मूढ़ सौ दोष।। ६६८।।
मैं पीड़ित के साथ हूँ, मैं शोषित के साथ।
मेरी माता जानकी सिर पर उनका हाथ।। ६६९।।
मेरी माता जानकी सिर पर उनका हाथ।। ६६९।।
राजा राघव! बूझ लो रिश्तों का भी प्यार।।
नेह-गेह, जिसमें रमा रमे, वहीं नीहार।। ६७०।।रचनाकाल : १९ अक्टूबर, २०१८
[नीहार-हजारा-अमलदार नीहार ]
नेह-गेह, जिसमें रमा रमे, वहीं नीहार।। ६७०।।रचनाकाल : १९ अक्टूबर, २०१८
[नीहार-हजारा-अमलदार नीहार ]
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