शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ

तोड़ तम-कारा हृदय के ज्योति के जय-गीत गाओ। 
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
आँसुओं के स्याह मुखमण्डल रचो मुस्कान-लाली,
रह न जाये तारिका से जन-हृदय का शून्य खाली।
प्राण-तारों में सभी के, प्यार की धड़कन जगाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
व्योम-बाला नव वधू-सी इस धरा पर आ गयी है,
चाँद-तारों की सजी बारात-शोभा छा गयी है।
शर्वरी के पाँव जावक, हाथ में मेहदी रचाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
स्नेह से भीगी हुई यह वर्तिका जलने लगी है,
पी तिमिर-विष, भूतभावन शिव-सरणि चलने लगी है।
प्यार का पीयूष बाँटो, मोहिनी को मत बुलाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
ज्योति गंगा-गीत में यह कल्पना की दीपमाला,
आरती के शब्द, भावों में हृदय का पूत प्याला।
मरु, मनुज के नेह-नातों में नये सरगम सजाओ।
एक दीपक मैं जलाऊँ, एक दीपक तुम जलाओ।।
रचनाकाल : २१ अक्टूबर, १९९६
[ गीत-गंगा(सप्तम तरंग) - अमलदार नीहार ]
प्रकाशन वर्ष : १९९८

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