शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

"बागों में बहार है"

अभिनव द्वारिकाधीश! जगज्जिष्णु! 
हे हरि त्रिपादविक्रम उपेन्द्र!
प्रभविष्णु विष्णु के व्यापक-विराट ! तव चरण-आक्रान्त
शान्त-निश्चल विकल गंगोर्मि-निगमानन्द-सानन्द-
निरानन्द, दिक्काल व्याल से लिपटे पड़े हैं
आधुनिक सभ्यता के पाँव में !
उधार शब्दों में कहूँ जो तर्क-पंचानन जगन्नाथ के -
नराकारं वदन्त्येके निराकारञ्च केचन।
वयं तु दीर्घसम्बन्धाद् नाराकाराम(नीराकाराम्)उपास्महे।।
जो विष्णुनख-निर्गता, विधु-कमण्डलु-निस्सृता
कि धूर्जटि-धम्मिलधृता, जह्नुपीत-प्रस्नुता जाह्नवी
'भागीरथी'- जो मिथक-कोटरों से बह निकली थी कभी
गंगोत्री की गोद से-मोद से,
फाँसी के फन्दे पे सरेआम लटकायी गयी
टिहरी-नरौरा व गंग नहर-रस्सी पर
अनगिन दहेज लाने वाली नववधू-सी-
हमारे सपनों की शहजादी, आस्था की पुत्तलिका
प्राण-प्रिया, श्रद्धा-शालभंजिका
पूजा-देवि लीलोल्लासमयी
ममतालु भवाम्बुधि धेनु-पुच्छ, स्वर्गापवर्ग-सोपान।
शस्य-श्यामल खेतों से समृद्ध किसान ख्वाबों की पूर्ति-हमारी स्वर्गंगा इस मरजीवा धरती पर दिव्यता की सजला-सुफला मूर्ति........
कि जिसे मार डाला कुछ पापियों ने-प्रलापियों ने
पूजा-पाखण्ड के ढोंगियों ने, मुमुक्षु मनोरोगियों ने, भोगियों ने,
चितानल-ज्वाला ने, दूषण-प्रदूषण महोत्सवों की माला ने,
उद्योगधन्धों ने, अन्धों ने, अनियन्त्रित व्यापारों ने-सरकारों ने,
कि आत्मघात कर लिया हमारी संस्कृति ने नव विकास की देहरी पर
हमारे दिलों की तंग कोठरी में उभरते जायज सवालों ने जहर खा लिया
.............और अब ये मंजर सामने है-
कि उपेक्षा की गीली दुर्गन्धयुक्त लकडियांँ,
अपमान की धुँआ भरी आग,
इतिहास-कफन से बाहर निज लम्बे पाँव पसार
हमारी प्रसुप्त चेतना की चिता पर
लेटी है सहस्राब्द पीयूष-प्रवाहिनी देवबाला अधनंगी-सी,
कि सूख चली छातियों में न रहा शेष जीवन का अमृत
न प्राणरसधारा बची निचुडी हुई साँसों में
मृत कलेवर पर बैठा कंस-वंशावतंस रेतमाफिया
झिंझोड़ता है जिसे बारम्बार,
खखोलकर खींचता है गंगा की आँतें-पहाड़ों के पत्थर
कि मुर्दा पड़े जिस्म से व्यभिचार बराबर,
केमिकल-फैक्टरियों के मल-पुरीष भरे नाले
कि सत्ता-रंगशाला में पूँजीवादी प्याले
डालते हैं डकैती दिन-दहाडे़ सृष्टि की सम्पदा पर,
विपदा-आपदा की जनयित्री ये विकास-नीतियाँ-
ईतियाँ-भीतियाँ, नित्य नयी रीतियाँ,
बाढ प्रमाण़-पार्वत्य हिम-निपात-भूकम्प-स्खलन
मानवीय भूलों का प्राकृत उपहार-पुरस्कार-प्रहार
अनगिन अनाम बीमारियाँ ईजाद,
फरियाद किससे-कहाँ-कौन करे?
हिल रही है बुनियाद,क्या भेड़तंत्र की औलाद-
इस देश की जनता मौन धरे?
हत्या हमारी नदियों की नहीं है ये,
हत्या है चराचर जीवन-जगत की, खूबसूरत सृष्टि की
व अपनी आँखों पे शीतल पट्टी बाँधे लोगों की दृष्टि की।
पूतना बना दिया हमारी भोली नदियों को पाप-पूतों ने,
कपूतों ने कपोतों के अरमानों के पंख कतर दिये
और ऊँची उड़ान भरने का संदेश लिए फिरते हैं,
बगुले भी आजकल हंसों का वेश लिए फिरते हैं-
"हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती हैं"
भूल जाओ अब ये कहना कि"हमारा देश दुनिया का गहना"
सच पूछिए तो गंगा सलीब पर लटकी है ईसा की तरह,
गोली खाये गाँधी की तरह, विष पिये दयानन्द की तरह, स्वीकार जहर सुकरात की तरह, बोटी-बोटी मंसूर की तरह।
मस्त मगन मीरा को विष-प्याला दिया राणाओं ने,
आधुनिक सभ्यता-विकास के दुर्दान्त ठेकेदार रक्त-पिपासुओं ने
और हमारे जोंकधर्मी रहनुमाओं की सत्ता-ख्वाहिशों ने।
एक बात बताओगे प्यारे देशवासियों!
ये तमाम बदमाशियाँ समझ में नहीं आतीं?
कब तक पूजोगे राजा-महाराजाओं के पन्नाती-
फैले हुए देश में, बदले हुए वेश में,
अपराधी-गुण्डे और मवाली,
नहीं उभरता है आँखों में कोई सवाली?
नीम हकीमों की दुकानों से बडे अस्पतालों तक!
पीजीआई, एम्स,मेदान्ता गुर्बत में बन्द तालों तक!
नंगे पाँव दौड़ते हो खेत-बारी बेचकर!
घर-द्वार बेचकर, गहना-गुरिया नोचकर!
कैंसर का करिश्मा-हार्ट अटैक-किडनी फेल!
पीते हो पानी जो खूब जहरीला धकापेल।
किसकी है देन सब, किसका उपहार है?
मर भी जाओ प्यारे! उनके बागों में बहार है!!
रचनाकाल : 13 अक्टूबर, 2018
सन्त नगर, नयी दिल्ली
अमलदार नीहार

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