सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

"गूँगी चीख"

आज़ाद हिन्दुस्तान में चौराहे-चौपालों पर 
आज भी कचहरी दुः शासन की
होता है कच-हरण, चीर-हरण
पांचाली-सा दलित अबला का
(होती है अबला दलित ही दुर्योधनों की द्यूत क्रीडा में )
पग-पग प्रत्येक रंगशाला में कुदृष्टि कीचकों की
आये दिन देखने को मिलती
आततायियों की पाशव बर्बरता से लहूलुहान
आत्मा की तिलमिलाती तस्वीरें।
अपनी ही चीख की अनुगूँज से थर्राती हैं
गुमनाम अन्धी घाटियाँ अंतर्मन की,
न निकल पाता है सूरज कई दिनों तक,
चेतना चट्टान बन जाती है
और सोख लेती है सरसता जीवन की।
रिसते जख्मों को खरोंचते से सवाल जिज्ञासु जनों के-
शुभचिंतकों-सलाहकारों-सरकारी हाकिमों के-
" हाँ, तो फिर क्या हुआ आगे?"
कुरेदते हैं जर्राह की भाँति अधभरे घावों को,
बलात्कार का काल्पनिक सुख लूटने के लोभी
उतारते हैं जिस्म से बार-बार तार-तार कपडे
और अवश लाचार कोमलता निर्ममता पूर्वक
क्रूर यातनानुभूति के अन्धे गलियारे में ढकेल दी जाती है ।
एक मुर्दा आश्वासन कि " अब कुछ नहीं होगा"-
(बौखलाता सवाल कि होने को बचा है क्या कुछ अब भी?)
" कुछ नहीं करना है, बस पहना देना है
यह छल्ला उस भयानक साँड की सींग में,
जिसकी आँखों में देखी थी खूनी लालसा पहली बार"
उसके पैरों में बेबसी की बेडी -
न कहीं भाग सकती है, न रो सकती है,
न जाग सकती है, न सो सकती है,
सच उगलवाने के लिए खींची जा रही है जुबान उसकी।
उसने देखा कि जज, वकील व गवाह सारे
साँड की शक्ल में बदलते जा रहे हैं,
खूंख्वार कुछ भेड़िये-से,
छुट्टे सब के सब, टूट पड़ने को बेताब-बेआब।
थपथपाया किसी ने जैसे प्यार से पीठ बलात्कारी की,
बौखलाए बाघ की, दुराचारी की।
ईर्ष्या की धार से देखा किसी ने नराकार पशु को
और यह कैसी है अबला? क्या इसकी औकात?
किसी की आँख में उग आये काँटे, नुकीले दाँत ।
एक दुःखान्त दृश्य जो गुजर चुका है ,
कैंसर-सा एहसास दिल में उतर चुका है,
फिर उसी के रिहर्सल की तैयारी है,
भेड़िये आज़ाद हैं, न जाने किसकी बारी है?
"रोक सको तो रोक लो तुम सब,
न कलंकित करो कोख निज माताओं की"
गूँजती है आज भी धृतराष्ट्रों के सामने
उस अनाम अबला की गूँगी चीख।
रचनाकाल-१२-१०-२००२
[इन्द्रधनुष(साप्तम तरंग)-अमलदार "नीहार", पृष्ठ-१३६-१३७, प्रकाशन-२०११ ]

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