मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

रघुवंश महाकाव्य में "दिलीपस्य गो-सेवा" [ द्वितीय सर्ग -श्लोक सं ० १८ से २४ तक]

पीन-पुष्ट आपीन-भार पग धीरे-धीरे धरती थी,
सुता सुरभि की गृष्टि मनोहर, चितवन सुध-बुध हरती थी ।
वैसे स्थूल कलेवर नृप भी तब कुटिया की ओर चले,
दोनों की गति मन्द सुशोभन, पन्थ तपोवन लगे भले ।
ऋषिवर गो के पीछे-पीछे चलकर पार्थिव आये थे,
भाल कलाधर तुल्य सुशोभन, गोरज मण्डित छाये थे ।
वन से लौटे कान्त, मनोहर सुदाक्षिणा को लगते थे,
प्यासे निर्निमेष नयनों में प्रेम-दीप ज्यों जगते थे ।
पार्थिव से जो पथ में हुई पुरस्कृत धेनु विलसती थी,
अगवानी की रानी ने, वह शोभा मन यों धँसती थी ।
उन दोनों के बीच उपस्थित सुन्दरता की आभा ज्यों,
दिवस-निशा के मध्य अवस्थित सन्ध्या की अरुणाभा ज्यों ।
सुदाक्षिणा ने साक्षत भाजन कर में लिए प्रणाम किया,
प्रदक्षिणा की पयस्विनी की, पूजन तथा प्रकाम किया ।
पृथुल सुरभिजा-भाल, श्रृंग दो, मध्य भाग की पूजा की,
मान मनोरथ-सिद्धि-द्वार उस भाल भाग की पूजा की ।
जाग रही उत्कंठा गो-मन-निज नन्दन को प्यार करे,
हृष्टरोम उसके ललाट पर ममता की पुचकार भरे ।
फिर भी निश्छल सदय मुदित मन , शुचि पूजन स्वीकार किया,
"निश्चय फल का हेतु उपस्थित" यह प्रत्यय साकार किया ।
भुजबल-विजित सकल रिपु जिसके, नृप दिलीप वे विक्रमशील,
अरुन्धती संग ऋषि वशिष्ठ को कर प्रणाम वे संयमशील ।
कृत्य निखिल कर सायंकालिक सुस्थिर मन हो सम्यक शान्त,
गो-सेवा में लगे, वहाँ जो बैठी दोहन के उपरान्त ।
जलती दीपशिखा के अन्तिक रखे सभी पूजन-उपहार,
प्रजाजनों के रंजक राजा निकट नन्दिनी बैठ सदार ।
करके सकल सपर्या उसकी वे दोनों सुख पाते थे,
उसके सोने पर सोते थे, जगने पर उठ जाते थे ।
[ रघुवंश-प्रकाश-अमलदार "नीहार" ]
दिनांक-१५-१०-२०१८

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