शनिवार, 27 अक्टूबर 2018

[रघुवंश-प्रकाश( रघुवंश महाकाव्य के काव्य-निबद्ध भावानुवाद-अमलदार नीहार) में चयनित श्लोकों की व्याख्या, पृष्ठ-२३-२४ ]

प्रशमस्थितपूर्वपार्थिवं कुलमभ्युद्यतनूतनेश्वरम्।
नभसा निभृतेन्दुना तुलामुदितार्केण समारुरोह तत्।। १५।।(अष्टम सर्ग)

भावार्थ : उस समय सूर्य वंश उस आकाश के समान सुशोभित हो रहा था, जिसमें एक तरफ चन्द्रमा अस्त हो रहे हों और दूसरी ओर सूर्य उदय हो रहे हों, क्योंकि एक ओर राजा रघु संन्यास लेकर शान्तिमय जीवन बिता रहे थे, दूसरी ओर अज राजगद्दी पर विराजमान थे |

दृष्टि-उन्मेष : सारा जग परिवर्तन के हाथों का खिलौना है | यहाँ सब कुछ परिवर्तनशील है | शाश्वत सत्य चिरन्तन तो एक ही है-वह परब्रह्म, विराट चेतना | दृश्यमान संसार का प्रत्येक प्राणी, प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ उसके हाथों की पुतली है-उसी के इशारों पर नर्तन करने वाली कठपुतली और स्वयं वह अदृश्य बना रहता है | उसकी प्रेरणा या इंगित से सब कुछ बदलता रहता है | कलियाँ खिलकर पराग-पूरित पुष्प बन जाती हैं और फिर मुरझाकर धूलि में मिल जाती हैं, फिर नयी कलियाँ-नए फूल | बदलते मौसम के साथ सब कुछ बदलता रहता है-कभी शुष्क रेगिस्तान-सी तपती धरा और कभी शस्य तथा विटप-वनस्पतियों की हरीतिमा से आच्छादित वधू-सी सौन्दर्यमयी पृथ्वी का आँचल | इसी परिवर्तन में प्रगति है | बिना परिवर्तन के प्रगति सम्भव नहीं | इसलिए उल्लासमय बसन्त यदि स्वागत योग्य है तो पतझड़ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है-वह नई कोंपलों की पृष्ठभूमि है, कोकिल की संगीतशाला-लतानिकुंज और आम्र-मंजरियों की पूर्व पीठिका है | सुख का सम्भार दुःखानुभूति से ही सम्भव है, अन्धकार के कारण ही प्रकाश की सत्ता की स्थापना होती है | जीवन और मृत्यु परस्पर अविच्छिन्न भाव में रहते हैं | उदय और अस्त एक ही दृश्य के दो छोर हैं | प्रस्तुत श्लोक की घटना इसी प्रकार की है | महाराज रघु ने राज्य का त्याग करके संन्यास धारण कर लिया है और वे शान्तिमय जीवन बिता रहे हैं | दूसरी ओर पुत्र राजसिंहासन पर विराजमान है | सूर्य कुल इस समय ऐसे आकाश की तरह विद्यमान है, जिसमें चन्द्रमा का अस्त हो रहा है और सूर्योदय की अरुणाभा प्राची दिशा को अलंकृत कर रही है | वृद्धावस्था को प्राप्त संन्यस्त रघु अब अस्ताचलगामी चन्द्रमा प्रतीत हो रहे हैं | चन्द्रमा सूर्य से ही प्रकाशित होता है | सूर्यकुलोत्पन्न होने के कारण रघु  भी कभी सूर्य समान तेजवान थे | अब वे ढल चुके हैं-निष्प्रभ हो चुके हैं | इसलिए चन्द्र तुल्य हो गए हैं | जनता   को नए सूरज का नया प्रकाश चाहिए-नयी आशा और नए सपनों का प्रकाश-पुंज | यह प्रकाश अब अज के रूप-लावण्य और पौरुष-पराक्रम के रूप में विद्यमान है | महाकवि माघ ने भी रैवतक पर्वत के दोनों ओर अस्तंगत चन्द्रमा और उदीयमान सूर्य की शोभा को मत्तगयन्द के दोनों ओर लटकने वाले दो घण्टों के रूप में देखा है | इसी कारण उन्हें 'घण्टामाघ' कहा गया है | कालिदास की यह उपमा कम रमणीय नहीं है | तारुण्य और जरावस्था के लिए दोनों उपमान अधिक अर्थवान हैं |

[रघुवंश-प्रकाश( रघुवंश महाकाव्य के काव्य-निबद्ध भावानुवाद-अमलदार नीहार)  में चयनित श्लोकों की व्याख्या, पृष्ठ-२३-२४ ]
राधा पब्लिकेशंस
४२३१/१, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-110002
प्रकाशन वर्ष : 2014 

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