श्रुति में प्राण को प्रत्यक्ष मानकर उसका अभिनन्दन किया गया है-वायो त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि (ऋग्वेद) | अर्थात प्राणवायु! आप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं | प्राण ही जगत का कारण-ब्रह्म है | मन्त्र ज्ञान तथा पञ्च कोश प्राण पर ही आधारित हैं | प्राण को ही ऋषि माना गया है | मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को उनके शरीर के आधार पर नहीं वरन प्राण के ही आधार पर 'ऋषित्व' प्राप्त हुआ है | यही कारण है कि विभिन्न ऋषियों के नाम से उसका ही उल्लेख हुआ है | उदाहरणार्थ इन्द्रियों के नियंत्रण को 'गृत्स' और कामदेव को 'मद' कहते हैं, ये दोनों ही कार्य प्राण शक्ति के द्वारा संपन्न होते हैं, इसलिए उन ऋषि को 'गृत्समद' कहते हैं | 'विश्वं मित्रं यस्य असौ विश्वामित्रम' | तात्पर्य यह कि प्राण का अवलम्बन होने से यह समस्त विश्व मित्र है, इसलिए 'विश्वामित्र' कहा गया | इसी प्रकार वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ आदि प्राण के अनेक नाम ऋषि-बोधक हैं |
काया-नगरी में प्राणवायु ही राजा है-"कायानगरमध्ये तु मारुतः क्षितिपालकः |"अर्थात देवता, मनुष्य, पशु और समस्त प्राणी प्राण से ही अनुशासित हैं | प्राण ही जीवन है | इस प्राण शक्ति का एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण विज्ञान है | योग-साधना से इस विज्ञान को प्रत्यक्ष अनुभूत किया जाता है | जिसने अपने सोते हुए प्राण को जगा लिया, उसके लिए सब ओर जाग्रत ऊर्जा का स्रोत प्रवाहित होने लगा |
मानव-शरीर में वृत्ति के कार्य-भेद से इस प्राणवायु को मुख्यतया दस भिन्न-भिन्न नामों से विभक्त किया गया है-
प्राणोअपानः समानश्चोदानव्यानौ च वायवः |
नागः कूर्मोाअथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ||
(गोरक्षसंहिता)
अर्थात प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय-ये दस प्रकार के प्राण-वायु हैं |
श्वास को अंदर ले जाना और बाहर निकालना, मुख और नासिका द्वारा उसे गतिशील करना, भुक्त अन्न-जल को पचाना और अलग करना, अन्न को पुरीष तथा पानी को पसीना और मूत्र तथा रसादि को वीर्य बनाना प्राणवायु का ही कार्य है | यह ह्रदय से लेकर नासिका पर्यन्त शरीर के ऊपरी भाग में वर्तमान है | ऊपर की इन्द्रियों का काम इसके आश्रित है | अपानवायु का कार्य गुदा से मल, उपस्थ से मूत्र और अंडकोश से वीर्य निकालना तथा गर्भ आदि को नीचे ले जाना एवं कमर, घुटने और जाँघ कार्य करना है | समान वायु देह के मध्य भाग में नाभि से ह्रदय तक वर्तमान है | पचे हुए रस आदि को सब अंगों और नाड़ियों में बराबर बाँटना इसका कार्य है | कण्ठ में रहता हुआ उदान वायु सिर पर्यन्त गति करने वाला है | शरीर को उठाये रखना इसका काम है | इसके द्वारा शरीर के व्यष्टि प्राण का समष्टि प्राण से सम्बन्ध होता है | उदान द्वारा ही मृत्यु के समय सूक्ष्म शरीर को स्थूल शरीर से बाहर निकालना तथा सूक्ष्म शरीर के कर्म, गुण, वासनाओं और संस्कारों के अनुसार गर्भ में प्रवेश होना है | योगिजन इसी के द्वारा स्थूल शरीर से निकलकर लोक-लोकांतर में घूम सकते हैं | व्यान का मुख्य स्थान उपस्थ मूल से ऊपर है | सम्पूर्ण सूक्ष्म और स्थूल नाड़ियों में गति करता हुआ यह शरीर के सभी अंगों में रुधिर-संचार करता है | नागवायु उदगार(छींकना) आदि, कूर्म वायु संकोचन, कृकर वायु क्षुधा-तृष्णादि , देवदत्त वायु निद्रा-तंद्रा आदि और धनञ्जय वायु पोषण आदि का कार्य करता है |
[ कल्याण के आरोग्य अंक में संगृहीत आचार्य पंडित श्रीचन्द्रभूषणजी ओझा का आलेख-प्राणवायु और आयु का सम्बन्ध ]
शेष फिर कभी
प्रस्तुति
अमलदार 'नीहार'
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