उन दिनों मैं हरिद्वार में नौकरी कर रहा था | सन १९८५ की बात है | रात की पाली में ड्यूटी करता और दिन में अपनी पढ़ाई-लिखाई चलती रहती, मुझे पूरी तरह याद है | उन दिनों अपना दूसरा उपन्यास पूरा करने के बाद पुनर्जन्म पर एक किताब लिखने में लगा हुआ था | सामग्री विशेष तो नहीं थी मेरे पास, लेकिन अक्सर दिन भर गंगा के ही किनारे अपना समय बिता देता | चिंतन करता और लिखता जाता, लिखता और चिंतन करता | लगभग तीन महीने लगे होंगे किताब को पूरा करने में | नीले आकाश के नीचे, पर्वत-उपत्यकाओं के बीच गंगा का अविरल प्रवाह और उसके निर्मल अनंत कल कीर्तन के साक्षी वृक्षों की कतारें | लहरों के लोल नृत्तमय संगीत को सुमधुर ताल देते चौकोर निर्मित पाषाण-खंड, जो बाँध के नीचे उसके तट पर ही रखे गए थे, जिन पर कभी-कभी लेटकर एक अनिर्वच सुख -समाधि में डूब जाता था | उन दिनों परिवार नहीं था मेरे साथ और मैं अध्यात्म-सरणि का साधक था | कह लीजिये कि माया पीछे कहीं छूट गयी थी और मैं राम की तलाश में | वहीं पास में भीमगोडा मोहल्ले में रहता था , तो छुट्टी के दिन इस नैसर्गिक एकान्त और आध्यात्मिक परिवेश का भरपूर लाभ उठाया जाता |
कभी-कभी ऐसा होता कि कोई यायावर घूमता-टहलता चला आता | कोई दूर-दूर बैठकर चला जाता, कोई जिज्ञासु मुझे विद्यार्थी समझ समीप भी चला आता | मेरी उम्र भी देखने में एक विद्यार्थी जितनी ही थी-यही कोई चौबीस बरस | एक दिन की बात है, कोई तरुण संन्यासी उधर नहाने चले आये | मैं भी कभी-कभी बैठने की जगह बदल लेता था | उस दिन मैं जहाँ बैठा था, अट्ठाईस-तीस बरस के तरुण संन्यासी ने स्नान-ध्यान किया और मेरे पास आ चुपचाप बैठ गए | उन्हें कुछ जिज्ञासा हुई तो बातचीत आगे बढ़ी और कुछ अध्यात्म-चर्चा कर वे उस दिन चले गए | फिर कई दिनों तक वे आते रहे और मेरे पास बैठकर चले जाते | शायद पूवर्जन्म जैसे विषय पर चर्चा करने से उन्हें कुछ आनन्द आया हो या जो भी कारण रहा हो | एक दिन उन्होंने अपने वैराग्य का कारण बताते हुए मुझसे निवेदन किया कि मैं उनके साथ उनके घर चलूँ और उनके बड़े भाई को समझाऊँ कि वह उनकी जोरू और ज़मीन उन्हें वापस दे दे | उनका मन वैराग्य में तनिक भी नहीं लगता था | वे मुझ जैसे संसारी जीव की सेवा तक करने को तत्पर हो गए | यह मेरे लिए बड़ी हास्यास्पद बात थी | उन्हें इस प्रकार का कोई भरोसा दे पाना मेरे लिए संभव न था | कदाचित मेरे प्रति उनका व्यामोह निरर्थक और क्षणिक था | उन्होंने कई वैरागियों और उनके आश्रमों की 'मधुरोपासना' की लीला-भरी कहानियाँ मुझे सुनाईं, जिनसे मैं यत्किंचित परिचित भी था | मेरा मन खिन्न हो गया | साधु-समाज के प्रति जो आदर-भाव था, उसे धक्का लगा था | हरिद्वार रहकर यह भलीभाँति जान पाया कि यह गेरुआ वस्त्र बहुत-से पाप-दोषों का आवरण भी है | यद्यपि ऐसा भी नहीं है कि सबके सब एक जैसे हों, लेकिन हंसों और परमहंसों के बीच अपने आपको छिपाए कई बगुले और गिद्ध भी दूर-दूर से आकर यहाँ बस गए हैं |
एक दिन की बात है | शाम के समय कुछ घरेलू सामान खरीदने आया हुआ था | देखा कि जयराम आश्रम के पास सड़क पर कुछ साधुवेशधारी इकट्ठे थे और वहीं दो-तीन महिलायें उनसे विहँसकर बतिया रही थीं | बतिया नहीं, लसिया रही थीं -
"बड़ा कष्ट है बाबा!" शरीर की भाव-भंगिमा में थोड़ी शरारत भरी थी | होठों पर खिलती हँसी कामदेव के रसमय संगीत का पहला मादक आलाप |
"क्या कष्ट है तुम्हें, बाबा सब ठीक कर देंगे |" उनमें से एक बाबा बोला, जो शायद उन बाबाओं का चेला था | बाबाओं की उम्र ज्यादा नहीं थी | तीस-बत्तीस बरस के चार मुस्टण्ड | ऊपर से नीचे तक गेरुए वस्त्र में जैसे वैराग्य की केंचुल में अतृप्त वासना की मूर्तियाँ | आँखों में खेलती चमक उन वारबालाओं के चरणों में लोट रही थी |
"बाबा! हमको बच्चा चाहिए |" महिलाओं में सभ्यता का कोई संस्कार नहीं | आँखों में वही जानलेवा शरारत |
"शाम को आ जाना आश्रम पर, प्रसाद मिल जाएगा |"बाबा के वचन में बेहयाई कुलाँचे मार रही थी | सोचता हूँ-वे बाबा लोग माया की तलाश में थे या राम की | राम तो उन्हें मिलने से रहे और माया? माया ने उन्हें किसी लायक छोड़ा ही नहीं | बेचारे न घर के रहे न घाट के |
[शब्दों का इंटरव्यू(लघु कथा-संग्रह' में संगृहीत)-अमलदार 'नीहार' ]
प्रकाशन वर्ष : २०१५
नमन प्रकाशन
४२३१/१, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-११०००२
दूरभाष : २३२४७००३, २३२५४३०६
कभी-कभी ऐसा होता कि कोई यायावर घूमता-टहलता चला आता | कोई दूर-दूर बैठकर चला जाता, कोई जिज्ञासु मुझे विद्यार्थी समझ समीप भी चला आता | मेरी उम्र भी देखने में एक विद्यार्थी जितनी ही थी-यही कोई चौबीस बरस | एक दिन की बात है, कोई तरुण संन्यासी उधर नहाने चले आये | मैं भी कभी-कभी बैठने की जगह बदल लेता था | उस दिन मैं जहाँ बैठा था, अट्ठाईस-तीस बरस के तरुण संन्यासी ने स्नान-ध्यान किया और मेरे पास आ चुपचाप बैठ गए | उन्हें कुछ जिज्ञासा हुई तो बातचीत आगे बढ़ी और कुछ अध्यात्म-चर्चा कर वे उस दिन चले गए | फिर कई दिनों तक वे आते रहे और मेरे पास बैठकर चले जाते | शायद पूवर्जन्म जैसे विषय पर चर्चा करने से उन्हें कुछ आनन्द आया हो या जो भी कारण रहा हो | एक दिन उन्होंने अपने वैराग्य का कारण बताते हुए मुझसे निवेदन किया कि मैं उनके साथ उनके घर चलूँ और उनके बड़े भाई को समझाऊँ कि वह उनकी जोरू और ज़मीन उन्हें वापस दे दे | उनका मन वैराग्य में तनिक भी नहीं लगता था | वे मुझ जैसे संसारी जीव की सेवा तक करने को तत्पर हो गए | यह मेरे लिए बड़ी हास्यास्पद बात थी | उन्हें इस प्रकार का कोई भरोसा दे पाना मेरे लिए संभव न था | कदाचित मेरे प्रति उनका व्यामोह निरर्थक और क्षणिक था | उन्होंने कई वैरागियों और उनके आश्रमों की 'मधुरोपासना' की लीला-भरी कहानियाँ मुझे सुनाईं, जिनसे मैं यत्किंचित परिचित भी था | मेरा मन खिन्न हो गया | साधु-समाज के प्रति जो आदर-भाव था, उसे धक्का लगा था | हरिद्वार रहकर यह भलीभाँति जान पाया कि यह गेरुआ वस्त्र बहुत-से पाप-दोषों का आवरण भी है | यद्यपि ऐसा भी नहीं है कि सबके सब एक जैसे हों, लेकिन हंसों और परमहंसों के बीच अपने आपको छिपाए कई बगुले और गिद्ध भी दूर-दूर से आकर यहाँ बस गए हैं |
एक दिन की बात है | शाम के समय कुछ घरेलू सामान खरीदने आया हुआ था | देखा कि जयराम आश्रम के पास सड़क पर कुछ साधुवेशधारी इकट्ठे थे और वहीं दो-तीन महिलायें उनसे विहँसकर बतिया रही थीं | बतिया नहीं, लसिया रही थीं -
"बड़ा कष्ट है बाबा!" शरीर की भाव-भंगिमा में थोड़ी शरारत भरी थी | होठों पर खिलती हँसी कामदेव के रसमय संगीत का पहला मादक आलाप |
"क्या कष्ट है तुम्हें, बाबा सब ठीक कर देंगे |" उनमें से एक बाबा बोला, जो शायद उन बाबाओं का चेला था | बाबाओं की उम्र ज्यादा नहीं थी | तीस-बत्तीस बरस के चार मुस्टण्ड | ऊपर से नीचे तक गेरुए वस्त्र में जैसे वैराग्य की केंचुल में अतृप्त वासना की मूर्तियाँ | आँखों में खेलती चमक उन वारबालाओं के चरणों में लोट रही थी |
"बाबा! हमको बच्चा चाहिए |" महिलाओं में सभ्यता का कोई संस्कार नहीं | आँखों में वही जानलेवा शरारत |
"शाम को आ जाना आश्रम पर, प्रसाद मिल जाएगा |"बाबा के वचन में बेहयाई कुलाँचे मार रही थी | सोचता हूँ-वे बाबा लोग माया की तलाश में थे या राम की | राम तो उन्हें मिलने से रहे और माया? माया ने उन्हें किसी लायक छोड़ा ही नहीं | बेचारे न घर के रहे न घाट के |
[शब्दों का इंटरव्यू(लघु कथा-संग्रह' में संगृहीत)-अमलदार 'नीहार' ]
प्रकाशन वर्ष : २०१५
नमन प्रकाशन
४२३१/१, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-११०००२
दूरभाष : २३२४७००३, २३२५४३०६
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