रविवार, 11 मार्च 2018

सुभाष चंद्र बोस को पढ़ते हुए

अमलदार 'नीहार
हिंदी विभाग

स्वाधीनता-आंदोलन के आलोक-पर्व
यूरोप प्रवास के दौरान सुभाष चंद्र ने अपनी वृहद् कृति 'द इंडियन स्ट्रगल' का प्रथम और प्रमुख खंड लिख डाला था | इसे पूरा करने में उन्हें साल भर से कुछ ऊपर लगा, और इस दौरान उनका स्वास्थ्य कत्तई संतोषजनक नहीं था | उस पर भी वह पुस्तक-जो ऐतिहासिक आख्यान थी-लिखते समय पर्याप्त सन्दर्भ-सामग्री उपलब्ध नहीं थी और अपनी स्मृति पर ही बेहद बोझ डालना पड़ा था | वह पुस्तक जनवरी, 1935 में लन्दन में प्रकाशित हुई | भारत की ब्रिटिश सरकार ने बिना वक़्त गँवाए लंदन में भारत-सचिव से मंजूरी लेकर पुस्तक के भारत में उपलब्ध होने पर रोक लगा दी | दलील थी कि यह पुस्तक "आतंकवादी तौर-तरीकों तथा सीधी कार्रवाई को प्रोत्साहन देती है |"
यह अनुमान का ही विषय है कि भारतीय पाठकों पर इसने क्या प्रभाव डाला होता | अलबत्ता, ब्रिटेन में इसकी खासतौर पर प्रशंसा हुई और यूरोप के राजनीतिक एवं साहित्यिक क्षेत्रों में खूब गर्मजोशी से इसका स्वागत किया गया | इंग्लैण्ड के "मैनचेस्टर गार्जियन" ने लिखा-"किसी भारतीय राजनीतिज्ञ द्वारा भारतीय राजनीति पर अभी तक लिखी गयी यह संभवतया सर्वाधिक रोचक पुस्तक है-------बेशक इसका महत्त्व इसलिए बेहद बढ़ जाता है कि लेखक भातीय राजनीति की तीन सबसे दिलचस्प विभूतियों में सबसे काम उम्र है -----पिछले चौदह वर्षों के इतिहास का उसका आकलन घोषित रूप से यद्यपि वामपंथी दृष्टिकोण से किया गया है, लेकिन प्रत्येक दल एवं व्यक्ति के प्रति लगभग उतना ही खरा है, जितने की अपेक्षा, युक्तिसंगत रूप से, एक सक्रिय राजनीतिज्ञ से की जा सकती है-----"
"सण्डे टाइम्स" ने कहा : " विचारादि को धार देने के लिए "द इंडियन स्ट्रगल" एक मूल्यवान पुस्तक है |" " डेली हेराल्ड" के राजनयिक संवाददाता का मत था : "यह शान्त, स्थिर और निरावेगी है | मेरे ख़याल से समकालीन भारतीय राजनीति पर यह मेरी नज़र से गुजरी सर्वाधिक सक्षम पुस्तक है ------यह किसी मतान्ध व्यक्ति की नहीं, विलक्षण रूप से समर्थ मस्तिष्क की रचना है----कुशाग्र, विचारशील एवं रचनाशील मस्तिष्क की, ऐसे आदमी की जो चालीस से कम की अपनी मौजूदा उम्र में किसी भी देश की राजनीति के लिए उपयोगी और शोभनीय हो सकता है |""न्यू क्रॉनिकल" ने टिपण्णी की : " क्रांतिकारी के रूप में वह असाधारण रूप से विवेकी है-------उसके साक्ष्य का महत्त्व वही है जो किसी अत्यंत स्पष्टभाषी प्रत्यक्षदर्शी गवाह के बयान का हो सकता है |"पुस्तक को भारत में प्रतिबन्धित करने पर ब्रिटेन के वामपन्थी राजनीतिज्ञों तथा साहित्यिक हलकों में खलबली मच गयी | जार्ज लांसबरी ने एक सन्देश में कहा : "उसे(सुभाष को) धन्यवाद दो उसकी पुस्तक के लिए, जिसे मैं अत्यंत रूचि से पढ़ रहा हूँ और जिससे बहुत कुछ सीख रहा हूँ -----" फ़्रांसीसी विद्वान रोमाँ रोला ने सुभाष को एक पत्र में लिखा : " भारत के आंदोलन के बारे में यह इतिहास की एक अनिवार्य पुस्तक है | इसमें आप इतिहासकार के सर्वोच्च गुणों के साथ नज़र आते हैं-प्रांजलता तथा उच्च कोटि की तटस्थ मानसिकता के साथ----मैं आपके उच्च राजनीतिक बोध की सराहना करता हूँ ------" आयरलैंड के राष्ट्रपति 'डि वैलेरा' (ऐमन डि वैलेरा (१८८२-१९७५), जन्म (संयुक्त राज्य अमरीका) | १९३७-४८, १९५१-५४ तथा १९५७-५९ के दौरान आयरलैंड के प्रधानमंत्री | फिर १९५९ से १९७३ तक आयरलैंड के राष्ट्रपति | पात्र लिखते समय वे संभवतया प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं थे |) ने सुभाष को लिखा : " आशा करता हूँ कि निकट भविष्य में भारतीय जनता स्वाधीनता और सौभाग्य प्राप्त कर लेगी |"रोम में सुभाष ने स्वयं मुसोलिनी को अपनी पुस्तक की प्रति भेंट की थी और मुसोलिनी ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रति संवेदना व्यक्त की थी |
यूरोप के तमाम देशों की अपेक्षा भारतीय स्वाधीनता में आयरलैंड की सर्वाधिक रूचि थी | उधर भारत में राष्ट्रवादियों, खासकर बंगाल के क्रांतिकारियों को भी आयरलैंडवासियों के संघर्ष ने बहुत प्रेरित किया था, क्योंकि उनका शत्रु भी ब्रिटेन था | यूरोप प्रवास के दौरान सुभाष चंद्र को आयरिश अनुभव को बहुत निकट से समझने का अवसर मिला था | प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अन्य देशों का, विशेषतया महाद्वीप में ब्रिटेन के पारम्परिक विपक्षी जर्मनी का समर्थन जुटाने के लिए आयरिश क्रांतिकारियों द्वारा अपनाये गए तरीकों का उन्होंने बड़ी बारीकी से जायजा लिया | तुलना करने पर सुभाष ने पाया, और संपुष्ट भी किया कि आयरलैंड और भारत के स्वाधीनता-संग्रामों की राजनीतिक प्रवृत्तियों में दिलचस्प समानताएँ हैं | डि वैलेरा से अपनी मुलाक़ात की दिशा में पहला कदम उठाते समय सुभाष बर्लिन में थे | १९३६ के प्रारम्भ में दोनों नेता डबलिन में मिले थे और आपसी हितों के अनेक मामलों पर उनमें लम्बी बातचीत हुई थी | अंतर्राष्ट्रीय प्रेस को आयरलैंड से वितरित करने के लिए सुभाष ने तीन भाषाओं-अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन में भारत सम्बन्धी बुलेटिन प्रकाशित करने का प्रबन्ध किया | किंवदंत आयरिश क्रान्तिवीरांगना मैडम मॉड गन मैकब्राइड की देखरेख में चलने वाली इंडो-आयरिश इंडिपेंडेंस लीग की गतिविधियों में सुभाष चंद्र बोस की आयरलैंड यात्रा से भारी सरगरमी आ गयी |
सन 1934 में, जब राष्ट्रमंच पर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी उदित हुई तो सुभाष यूरोप में थे | भारतीय राजनीति में इस वामपंथी धारा के आगमन पर उन्हें प्रसन्नता हुई, क्योंकि वे समझते थे कि जिस सहज आवेश के परिणामस्वरूप यह पार्टी गठित की गयी है, वह ऐतिहासिक दृष्टि से सही है | लेकिन सुभाष का मत यह भी था कि सोशलिस्टों में एकरूपता नहीं है, उनके कई एक विचार घिस-पिट चुके हैं और उन्हें जरूरत है एक स्पष्ट विचारधारा, कार्यक्रम और योजनाबद्ध कार्रवाई की | इसका खुलासा करते हुए सुभाष चंद्र ने कहा कि भावी भारत का दारोमदार बनाने वाली पार्टी को जनसाधारण के हितों का पक्ष लेना होगा, न की निहित स्वार्थों का
इसे भारतीय जनता की सम्पूर्ण राजनीतिक एवं आर्थिक स्वाधीनता का ही पक्ष साधना होगा | चरम लक्ष्य के रूप में इसे भारत के लिए संघीय सरकार की ही पैरवी करनी होगी, लेकिन देश को स्वावलम्बी बनाने के लिए कुछ वर्षों तक केंद्र में तानाशाही अधिकारों वाली शक्तिशाली सरकार की अनिवार्यता भी समझ लेनी होगी | इसे एक विशवस्नीय राजकीय योजना प्रणाली पर निर्भर करना पडेगा और देश के कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्रों के पुनर्गठन के लिए पसीना बहाना होगा | इसे जात-पाँत जैसी सामाजिक बंदिशें तोड़नी होंगी और ग्रामीण बिरादरियों अथवा अतीत की पंच-पंचायतों के आधार पर समाज का नया ढाँचा खड़ा करना होगा | इसे जमींदारी मिटाकर समूचे भारत में पट्टेदारी की एक जैसी व्यवस्था लागू करनी पड़ेगी | पार्टी, मध्य विक्टोरियाकालीन शैली के लोकतंत्र की वकालत नहीं करेगी, बल्कि भारत को अखंड रखने और अव्यवस्था रोकने के एकमात्र साधन के रूप में सैन्य अनुशासन में बंधी एक सशक्त पार्टी की सरकार की हिमायत करेगी | पार्टी को सारे परिवर्तनकामी संगठनों को एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अंतर्गत एकसूत्र करने का प्रयास करना होगा, ताकि राष्ट्रीय जीवन में कई मंचों पर एक साथ मिली-जुली कोशिशें हों |
सुभाष चंद्र की धारणा थी की कई कारणों से भारत में साम्यवाद (कम्युनिज्म) कभी नहीं अपनाया जा सकेगा | भारत का आंदोलन अनिवार्यतया एक राष्ट्रवादी आंदोलन था-भारतीय जनता की राष्ट्रीय मुक्ति का आंदोलन | उनका मत था की भारत को "एक संयोजनशील अथवा समानतापरक सिद्धांत" का सृजन करना होगा, जिस पर भावी भारतीय समाज की नीं रखी जा सके | इस सिद्धांत को वे "साम्यवाद" कहते थे, प्राचीन भारत में यह शब्द सामाजिक विरोधाभास मिटाकर उपलब्ध स्वरूप स्थिति को अभिव्यक्त करता था |
वर्ष १९३५ में सुभाष चंद्र को अपना विकारग्रस्त पित्ताशय निकलवाने के लिए एक गंभीर ऑपरेशन करवाना पड़ा | डाक्टरों ने आखिर उनकी बीमारी की जड़ पकड़ ली थी | बड़े आपरेशनों में आज की अपेक्षा उन दिनों बहुत ज्यादा जोखिम था, और सुभाष को यह जोखिम एक दूरस्थ देश में, परिजनों-प्रियजनों की अनुपस्थिति में उठाना था | इसलिए उनसे कहा गया की अनहोनी के मद्देनजर वे अपनी अंतिम इच्छा या अंतिम सन्देश लिख डालें | सुभाष ने एक छोटे से कागज़ पर लिखा : " मेरी जायदाद मेरे देशवासियों के हिस्से, मेरे क़र्ज़ मेरे भाई शरत के जिम्मे |"
यूरोप घूमते हुए सुभाष चंद्र स्विटजरलैंड भी गए, वहाँ जिनेवा में लीग ऑफ नेशंस-राष्ट्रसंघ-के गलियारों में द्वार-द्वार दस्तक देकर उन्होंने दलीलें दीं की स्वाधीनता उनके देश का अधिकार है | मगर यह देखकर उन्हें बड़ी निराशा हुई की लीग के अधिकारों पर शक्ति हावी है और उसके सभा-परामर्शों में पराधीनों की आवाज़ कत्तई नहीं सुनी जाती |
यूरोप के जिन बौद्धिकों से सुभाष मिले, उनमें से एक थे महान फ़्रांसीसी विद्वान और भारत-मित्र रोमा रोलाँ रोला | सुभाष चंद्र से मिलने के बाद रोलाँ ने अपनी डायरी में एक विमृत दूर देश के अनजान युवा यात्री का दिलचस्प वर्णन किया है | रोलाँ ने पाया की "सुभाष अत्यंत गंभी, विचारशील और कुशाग्र है-जो हाल ही में छपी उसकी पुस्तक से साबित हो चुका है | घटनाओं और व्यक्तियों को उसने ठेठ राजनीतिक की दृष्टि और असाधारण निष्पक्षता से जाँचा-परखा है-------आतंकवाद को वह कोई स्वस्थ नीति नहीं समझता, लेकिन प्रतिरोध का समर्थक है, जिसमें हिंसा वर्जित नहीं है( और यदि संघर्ष के लिए यह जरूरी हो जाए तो निश्चय ही वह इसका समर्थन भी करेगा | ), वह निश्छल है, और यूरोपीय युद्ध पर टिकी इस उम्मीद को नहीं छिपाता की इंग्लैण्ड उसमें फँसा होगा, तो भारत की जीत की संभावना सुनिश्चित हो जाएगी------सोवियत संघ भारत के स्वाधीन होने में मदद करे, इसमें उसे निश्चय ही कोई हर्ज़ नज़र नहीं आया -----"
[नेताजी सुभाष चंद्र बोस-शिशिर कुमार बोष, पृष्ठ-६३-६६ ]
प्रस्तुति
अमलदार 'नीहार'








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