अध्यात्म-अधीति के धवल हिमालय तथा दर्शन-शेमुषी के शिव शिखर से स्रवित ज्ञान-प्रवाह का संगम जिस विराट व्यक्तित्व के महासागर में अनवद्य रूप से दृष्टिगोचर होता है, उसे हम स्वामी विवेकानंद के नाम से जानते हैं, जिसमें मत-मतान्तरों की अनेक महानदियाँ विश्राम करती दिखाई देती हैं । इस महासागर के ह्रदय में भक्ति की उज्ज्वल तरंग क्रीड़ा करती हुई एक ओर कर्म के कठोर कूल का स्पर्श करती है तो दूसरी ओर ज्ञान-गभस्ति से भासमान सत्य के ललाट का उर्मिल चुम्बन करती है, यहाँ द्वैत और अद्वैत प्रतिवादी न होकर प्रतिपूरक हो जाते हैं । प्रवृत्ति और निवृत्ति जिसके चिंतन में परिष्वंगित होकर साँस लेती है । यह महापुरुष वेदान्त का प्रबल पक्षधर भी है और विज्ञान की अपरिहार्य मूल्यवत्ता का समर्थक भी । विवेकानंद को हम श्रीरामकृष्ण परमहंस के मानस का ऐसा हंस मान सकते हैं, जिसने अपने विवेक से वेद-वेदान्त के सार-स्वरूप मोतियों का मोल समझाकर भक्ति से उसके सम्मेल का आनन्द सारे संसार में बिखेर दिया । यद्यपि रामकृष्ण परमहंस भक्तिमय ज्ञान के जिस शिखर पर विराजमान थे, उसे ठीक से देख पाना, उसे छू पाना और वहाँ पहुँच पाना किसी के लिए संभव न था, किन्तु यह भी सत्य है कि यदि उन्हें विवेकानंद जैसा शिष्य न मिलता तो उनके अमृत का कलश ज्यों का त्यों पड़ा ही रह जाता ।
स्वामीजी का जन्म १२ जनवरी १९६३ को कलकत्ता में हुआ था और बचपन का उनका नाम नरेन्द्रदत्त था । सन १८८१ में उनकी श्रीरामकृष्ण परमहंस से पहली भेंट हुई थी और इस अद्भुत गुरु का युवा नरेंद्र के मन पर कुछ ऐसा पड़ा कि जीवन की दिशा ही बदल गई और वे अध्यात्म के मार्ग पर चल पड़े । शिकागो के विश्वधर्म महासभा में ११ सितम्बर १८९३ को २१ वें वक्ता के रूप में वहाँ एकत्रित तमाम धर्मगुरुओं के बीच भारत की तरफ से इस महान सन्देश को प्रसारित किया था-
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमे ही आकर मिल जाते हैं । (शिवमहमन स्तोत्र)
इनका मानना था कि दुष्ट लोग सदा दोष ढूँढते रहते हैं । मक्खियाँ आती है और घाव ढूँढती हैं, किन्तु मधुमक्खियां केवल मधु लेने के लिए आती हैं । मक्खी के नहीं मधुमक्खी के मार्ग पर चलो ।"
गीता में सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जय-पराजय को समदृष्टि से देखने की बात कही गयी है । स्वामीजी कहते हैं-"हमें सुख और दुःख, दोनों ही नहीं चाहिए । ये दोनों ही हमारे प्राकृत स्वरूप को भुला देते हैं । दोनों ही जंजीरे हैं-एक लोहे की, दूसरी सोने की ।"
गीता में सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जय-पराजय को समदृष्टि से देखने की बात कही गयी है । स्वामीजी कहते हैं-"हमें सुख और दुःख, दोनों ही नहीं चाहिए । ये दोनों ही हमारे प्राकृत स्वरूप को भुला देते हैं । दोनों ही जंजीरे हैं-एक लोहे की, दूसरी सोने की ।"
वे लोगों को उपदेश दिया करते जिस प्रकार पाश्चात्य जाति ने बहिर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व-लाभ प्राप्त किया है, उसी प्रकार प्राच्य जाति ने अंतर्जगत की गवेषणा में । अतः यह ठीक ही है कि जब कभी आध्यात्मिक सामंजस्य की आवश्यकता होती है तो उसका आरम्भ प्राच्य स ही होता है । इसके साथ यह भी ठीक है कि जब कभी प्राच्य को मशीन बनाने के विषय में सीखना हो तो वह पाश्चात्य के पास ही बैठकर सीखे, परन्तु यदि पाश्चात्य ईश्वर, आत्मा तथा विश्व के रहस्य सम्बन्धी बातों को जानना चाहे तो उसे प्राचाय के चरणों के समीप ही आना चाहिए ।
अमलदार "नीहार"
दिनांक-११-०१-२०१७
दिनांक-११-०१-२०१७