परावाङ्मूलचक्रस्था पश्यन्ती नाभि-संस्थिता | हृदिस्था च मध्यमा ज्ञेया वैखरी कण्ठदेशगा ||
बुधवार, 29 अगस्त 2018
बुधवार, 22 अगस्त 2018
गुरुवार, 9 अगस्त 2018
नीहार-हज़ारा के दोहे-
कौन बने मल्लाह?
बलात्कार की बाढ़ में टूट चुके सब बाँध।
डूब मरी है सभ्यता, भरे भँवर अपराध।। ४२० ||
मानवता की लाज की टुकडे़-टुकडे़ नाव।
छीज गयी संवेदना, बँटा हुआ सद्भाव।। ४२१ ||
बिका हुआ ईमान हो, कातिल करुणा-प्रेम।
रक्षक भक्षक हो चले, कहाँ कुशल, कब क्षेम।। ४२२ ||
राजनीति के दुर्ग में मिले ठिकाना-ठौर।
फल रसाल के खा सको, तरु बबूल के बौर।। ४२३ ||
मंत्री साझीदार जब, चकलाघर आबाद।
ओले जैसे आ गिरे, खड़ी फसँ बर्बाद।। ४२४ ||
गिरी ताड़ से आ लगी अटकी पेड़ खजूर।
कोठा-कोठी एक से रक्षित कहाँ हुजूर।। ४२५ ||
तुमने पूजे पाँव भी, दिये कठिनतम घाव।
इस मानव का, हे प्रभो! कितना जटिल स्वभाव।। ४२६ ||
मानव दानव हो गया, बिच्छू बना समाज।
कुछ विषधर भी पा गये सत्ता के सुख-साज।। ४२७ ||
चिकने-चुपडे़ चेहरे, रूह मगर शैतान।
जतन हजारों हो गये, नहीं बना इन्सान।। ४२८ ||
कहाँ सुरक्षा मिल सके, हम तो पिंजर-कीर।
रूह दफा कब की हुई, केवल कीच शरीर।। ४२९ ||
जो अबोध-सी बालिका, उस पर गिरे पहाड़।
राजनीति निर्लज्ज -सी, सजी-धजी ज्यों राँड़।। ४३० ||
आँसू दृग में अब कहाँ, सूख चले अरमान।
सजे कलाई, कौन फिर उसका भाईजान।। ४३१ ||
जहाँ सुरक्षा मिल सके, मिटे सकल संत्रास।
प्रेत वहाँ पर डोलते संरक्षण-आवास।। ४३२ ||
यू-पी एम-पी या कहूँ बिगड़ा हुआ बिहार |
दो नारों के बीच में नारी का संहार || ४३३ ||
मचा हुआ है देश में कैसा हाहाकार।
पीड़ा-पारावार की लहर लोल, नीहार।। ४३४ ||
जो विकास की वल्लरी, जिससे सृष्टि-वितान |
बचपन संकट से घिरा, तृणावर्त तूफ़ान || ४३५ ||
रुद्ध काल-गति युद्धमय, क्यों बुद्धत्व-विकास |
मानवता के ह्रास का यह नूतन इतिहास || ४३६ ||
कौन सहारा दे सके, कातर करुण कराह।
कठिन काल विश्वासमय कौन बने मल्लाह।। ४३७ ||
[नीहार-हजारा-अमलदार नीहार]
बलात्कार की बाढ़ में टूट चुके सब बाँध।
डूब मरी है सभ्यता, भरे भँवर अपराध।। ४२० ||
मानवता की लाज की टुकडे़-टुकडे़ नाव।
छीज गयी संवेदना, बँटा हुआ सद्भाव।। ४२१ ||
बिका हुआ ईमान हो, कातिल करुणा-प्रेम।
रक्षक भक्षक हो चले, कहाँ कुशल, कब क्षेम।। ४२२ ||
राजनीति के दुर्ग में मिले ठिकाना-ठौर।
फल रसाल के खा सको, तरु बबूल के बौर।। ४२३ ||
मंत्री साझीदार जब, चकलाघर आबाद।
ओले जैसे आ गिरे, खड़ी फसँ बर्बाद।। ४२४ ||
गिरी ताड़ से आ लगी अटकी पेड़ खजूर।
कोठा-कोठी एक से रक्षित कहाँ हुजूर।। ४२५ ||
तुमने पूजे पाँव भी, दिये कठिनतम घाव।
इस मानव का, हे प्रभो! कितना जटिल स्वभाव।। ४२६ ||
मानव दानव हो गया, बिच्छू बना समाज।
कुछ विषधर भी पा गये सत्ता के सुख-साज।। ४२७ ||
चिकने-चुपडे़ चेहरे, रूह मगर शैतान।
जतन हजारों हो गये, नहीं बना इन्सान।। ४२८ ||
कहाँ सुरक्षा मिल सके, हम तो पिंजर-कीर।
रूह दफा कब की हुई, केवल कीच शरीर।। ४२९ ||
जो अबोध-सी बालिका, उस पर गिरे पहाड़।
राजनीति निर्लज्ज -सी, सजी-धजी ज्यों राँड़।। ४३० ||
आँसू दृग में अब कहाँ, सूख चले अरमान।
सजे कलाई, कौन फिर उसका भाईजान।। ४३१ ||
जहाँ सुरक्षा मिल सके, मिटे सकल संत्रास।
प्रेत वहाँ पर डोलते संरक्षण-आवास।। ४३२ ||
यू-पी एम-पी या कहूँ बिगड़ा हुआ बिहार |
दो नारों के बीच में नारी का संहार || ४३३ ||
मचा हुआ है देश में कैसा हाहाकार।
पीड़ा-पारावार की लहर लोल, नीहार।। ४३४ ||
जो विकास की वल्लरी, जिससे सृष्टि-वितान |
बचपन संकट से घिरा, तृणावर्त तूफ़ान || ४३५ ||
रुद्ध काल-गति युद्धमय, क्यों बुद्धत्व-विकास |
मानवता के ह्रास का यह नूतन इतिहास || ४३६ ||
कौन सहारा दे सके, कातर करुण कराह।
कठिन काल विश्वासमय कौन बने मल्लाह।। ४३७ ||
[नीहार-हजारा-अमलदार नीहार]
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