रविवार, 5 मार्च 2017

लहकती सरसों-महकते ख़्वाब



"पथरीले पहाड़-चट्टानों की गोद में 
मुट्ठी भर देह-मिट्टी के ख़्वाब, 
आवारा आँसुओं की हठीली-सी मामूली नमी, 
खुरदरे दर्द का भुरभुरापन-
बस, इतना-सा काफी है 
मेरे हौसले अँखुआने के लिए"-
सोचती है न जाने कहाँ से उग आयी 
सुख-सरसों सुकुमार-सी, अपार निज कनक-आभा संग 
अनन्त दिगन्त के प्रसार में-
पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र के 
विशाल वज्राघात को ठेंगा दिखाती 
यह नन्ही-सी मासूम प्याती सरसों 
जिजीविषा के विस्तीर्ण आँगन में 
इक नया सन्देश देती है-
"पहाड़ ज़िंदगी के निपट सूनेपन में 
जागती रातों के रक्ताभ लोचन-कोओं में 
उम्मीदों की आत्म-स्फूर्त खेती है-----------
और इसीलिए झरना बनकर फूटती है फिर ज़िंदगी,
भले ही वीरान प्राण-पलकों में 
प्रतिपल मौत पसरी हुई रेती है ।"
कौन रोक सकता है मुस्कुराने से मुझको 
कि मौत से जूझकर तो विजय पायी है, 
तमाम पलकों में जगमगाती खुशियों का सबब-
प्रिय एकान्त अधूरेपन की भरपाई  है । 
मेरे एहसास-बाँसुरी के रव पोर प्राणों के रन्ध्र
घुले-से उत्तर आते हैं साँस की सुवास बन, 
अब भी वही चाँदनी है आँगन में निरभ्र नेह-छाया-सी, 
मिला है मुझे अगाध प्यार सूरज का-आसमाँ का, 
धरती की पुलकन में ममता की अँगड़ाई है, 
कि चलो मान लिया पहाड़-सा दुःख, मगर टूट जाएगा, 
छूट जाएगा बहता हुआ वक़्त दरख़्त के पीले पत्तों-सा-
कि सरसों हूँ मैं हज़ार हसरतों लामहदूद 
सुहागिन खुशियों की दुआ मिली है मुझे, 
मेरे तसव्वुर में महकते ख़्वाब की रा'नाई है ।
[हृदय के खँडहर - अमलदार नीहार ]
५ मार्च २०१७ 

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