बुधवार, 6 जून 2018

पर्यावरण के मुजरिम

आत्मघाती हमारी सभ्यता के दिगायाम बढ़ते चरण-
मानव जाति के दुर्दान्त प्रगति-आचरण से आक्रान्त
अविराम प्रकाम यह पर्यावरण हमारा।
चराचर जगत यह परिव्याप्त जिससे,
कि आवरण हमारे सम्पूर्ण जीवन-चक्र का,
अपना लेता है निसर्ग निज आचरण की तरह,
जिसे धारण किया है सकल ब्रह्माण्ड ने धर्म की भाँति अन्तस् में
कि जिसका वरण किया है जिजीविषा की सहूलियत ने,
उस पर निरन्तर प्रहार, प्रत्यवहार सृजन और विकास के बीज का,
अवरोध-विरोध सृष्टि के सहज उर्मिल प्रवाह का-
परमाणु बम से प्लास्टिक तक अखण्ड पाखण्ड।
ज्ञान-विज्ञान के दम्भी इस मानव ने
अपनी दखल से कर दिया है दूषित
चेतना का सहज अनाविल अविरल स्वरूप,
वह अपनी बुद्धि की मुट्ठी में चाहता है करना कैद
चाँद और सूरज को-बादल को, विजली को तितली की तरह,
हाँकना चाहता है अहंकार की लाठी से पूरी दुनिया को,
चाहता है कि समूचे ब्रह्माण्ड का रहस्य
तोता बनकर रहे उसके ज्ञान-पिंजरे में कैद
जयनाद करे उसका ही दिन-रात।
फेंक दिया है उसने अपनी दुर्बुद्धि का कचरा
भूगोल से खगोल तक व्यायत-विपर्यस्त,
कफन ओढ़कर सोये पड़े हैं जर्जर पहाड़
सिसकती-धसकती, आँचल में मुँह छिपाती घाटियाँ
टिहरी-नरौरा की साँकल-कसी गंगा की हत्या,
गुमनाम-सी लगती है सुहागिन नदियों की लावारिस मौत,
धुन्ध और धुँए से घुट रहा है बूढ़ा आसमान
एक बेवा की तरह बीमार इस धरती की देह
काँप-काँप सी जाती है रह-रह आये दिन
उगलती है दमे के मरीज की तरह मुँह से खून-
दहकता हुआ लावा ज्वालामुखी का,
दोलायमान उत्ताल तरंगें महासागर की
शेषनाग-सी भयंकर फूत्कार करतीं
लील जाती हैं ज़िन्दगी के सुनहरे ख्वाब-
सैलाब क़ातिल, हसीन महकते सपनों के,
आखिर इस लय-लीला का जिम्मेदार कौन है?
मुवक्किल मौन है, मुअज्जज मौन है, गुनहगार मौन है।
किस हकीम से जाकर कहें मछलियाँ
कि हुजूर! हमें साँस लेने में दिक्कत होती है,
कि काम नहीं करता है यह फेफड़ा हमारा,
न जाने कैसी जलन-सी होती है देह में अजीब सी दिन-रात,
किस नजूमी के पास जायें कि मिले निजात इन बलाओं से
कि कोई ताबीज बाँध दे उनके गले में।
आदम और हव्वा के बेटों ने
कर दिया है मुश्किल जीना इन परिन्दों का-
न जाने कहाँ किन कोटरों में चले गये वे गिद्ध
जनरल डायर डायक्लोफेनेक की गोलियों का शिकार,
बेखौफ कबूतरों के गुटुर-गूँ जोड़े,
हरित कलगी तोते-हीरामन वैशम्पायन,
हारीत, सारस और टिट्टिभ-
कठिन जेठ की दुपहरिया में
एक बूँद पानी के लिए व्याकुल गौरैया,
विरह-बावरी के लिए हुलास भरता प्यासा कौआ,
उजड़ते जंगलों से बेज़ार मोर और कुड़कुड़ातीं वनमुर्गियाँ,
हरिण-छौने बावले से, बस्तियों की ओर भागते हाथी और बाघ
साँप और नेवले, साही-साँभर, चीते-भैंसे, गैंडे व जंगली सूअर
सबके सब बेचैन हैं।
उत्सवधर्मिता का यह देश-कारण कठिन क्लेश,
धार्मिक प्रवचन बाबा प्रचण्ड दास का,
जुलूस बहुत लम्बा त्योहार खास का,
हाँफती सी वर्दी-चना जोर गरम गुण्डेगर्दी,
अपराध का बढ़ता सिलसिला-हजार कारों का काफिला
किसी बदनाम माफिया के पहली बार विधायक बनने पर समाज-हित में -
यूँ कहिए कि अपराध के सीस पर चमचमाता कनक-किरीट,
नीयत खोटी, काले धन्धे और सरापा नैतिक नंगे-
नमामि गंगे! नमामि गंगे!!
विरुद्धों का सामंजस्य साधने के कला-पारंगत हो सत्ता
जहाँ इंसानियत की लाश भी सिर्फ एक ताश का पत्ता,
चुके तेल की बाती सी उम्मीद की किरन,
जहाँ विनाश के रास्ते पर विकास का हिरन
कि मानो तांबूल-रंजित मुख से
भकोसती है गुटखा यह नयी पीढ़ी-
इस तरह चढ़ती हो मौत की सीढ़ी।
मगर बेचैन है इस दुनिया का वो आम आदमी,
जिसकी हर साँस पर मुसीबत भारी है,
बोझ-सी लगती है ज़िन्दगी, मौत है महामारी है,
न लगाये भले दम सुल्फे का-गाँजे का,
मगर धुँआ वह रोज पीता है-धूल फाँकता है,
जवाँ उम्र की छाती पर चार कील टाँकता है।
दिन-रात भजन-कीर्तन के प्राणान्तक शोर
सहता ही रहता है आस्था के नाम पर बेरोकटोक
चूसती ही रहती है खून, व्यवस्था की काली जोंक,
मुकद्दर के चश्मे से सरकार की इनायत आँकता है -
पीकदान बन जाता है आम आदमी
भ्रष्ट तंत्र के अनैतिक वमन का।
बूढ़े बाबा का आशीष ले निकलता है नौजवान घर से सही-सलामत,
मगर सड़क-हादसे में मारा जाता है,
मौत-सी लहराती आती है चित्त पर चढ़ी हुई शराब उसकी तरफ,
कि सड़क का गड्ढा निगल जाता है खनकती चूड़ियों के ख्वाब,
बाट जोहती बहनों की शुभ्र ज्योत्स्ना-निर्धूत नयनों की आभा
माँ की मोहक अलौकिक लोरियों के कर्ज-
दुलार भरी रोटियों का वह सुगन्धित नवनीत निवाला,
कैसी है अजीब-सी यह प्रभु की लीला
कि अक्सर लड़ने लगती हैं गाड़ियाँ चुड़ैल-सी आपस में,
पी जाती हैं हमारी प्रेत लालसाएँ न जाने कितने यतीमों का खून,
है ये कैसा आचरण कि गिरवी व्याकरण मनुष्यता का?
भर चुका है कचरा ही कचरा भीतर से बाहर तक-
प्रदूषित विचारों की झलक
हमारे जेह्नो-जुनून में।
ओ मेरे परवरदिगार! शाहे-आलम ख़ुदा-ए-ख़ल्क!
हम सब मुजरिम हैं इस खूबसूरत कायनात के
तुम्हारे इस जन्नतो-जहान के जहन्नम हालात के,
मुआफ नहीं करना कभी इस आदमजाद को
गुनाहे-अज़ीम के लिए। 

रचनाकाल : 15 फरवरी, सन् 2017
बलिया, उत्तर प्रदेश
[हृदय के खण्डहर(काव्य-संग्रह- अमलदार नीहार]
विश्व पर्यावरण दिवस
05 जून 2018

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