मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
पत्तों के मर्मर-से स्वर में,
झंझानिल की "हर-हर-हर" में,
सरिता में-सर में-निर्झर में,
तुम सविता की किरन प्रखर में,
कवयन करते हो अविराम ।
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
झंझानिल की "हर-हर-हर" में,
सरिता में-सर में-निर्झर में,
तुम सविता की किरन प्रखर में,
कवयन करते हो अविराम ।
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
पंछी के गीतों का गुंजन,
सन्ध्या-अरुणोदय-कलकीर्तन,
केकी का यह मनहर नर्तन,
इतना सब कुछ किसको अर्पण?
सब करते हैं तुझे प्रणाम ।
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
सन्ध्या-अरुणोदय-कलकीर्तन,
केकी का यह मनहर नर्तन,
इतना सब कुछ किसको अर्पण?
सब करते हैं तुझे प्रणाम ।
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
हाहाकार मचाता सागर,
उडता खोल तरंगों के पर,
सब कहते रत्नों का आकर',
सोच रहा मैं यही निरन्तर-
'तेरी एक बूँद का काम ।'
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
उडता खोल तरंगों के पर,
सब कहते रत्नों का आकर',
सोच रहा मैं यही निरन्तर-
'तेरी एक बूँद का काम ।'
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
अनगिन ग्रह-तारे रच डाले,
शशि-सविता-से छंद निराले,
जिसको चाहे उसे नचा ले,
'रस' है तू तो रास रचा ले,
हे मनमोहन! मेरे राम!
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
शशि-सविता-से छंद निराले,
जिसको चाहे उसे नचा ले,
'रस' है तू तो रास रचा ले,
हे मनमोहन! मेरे राम!
मेरे कवि, हे अमर-अनाम!
रचनाकाल-०५ अप्रैल १९९०
हरिद्वार, (उस समय उत्तर प्रदेश), उत्तराखंड
हरिद्वार, (उस समय उत्तर प्रदेश), उत्तराखंड
[गीतगंगा(चतुर्थ तरंग)-अमलदार "नीहार"]