बुधवार, 4 जुलाई 2018

शहादत की कम कीमत लगती है

शहादत की कम कीमत लगती है

ख्वाब अधूरे, अभी शहादत की कम कीमत लगती है।
अपना मुल्क, सभी अपने, अपनों से दहशत लगती है।।

चाबी भरे खिलौनों जैसे कुछ हैं ऊँची कुर्सी पर,
मुँह जब खोलें उनकी रोनी-रोनी सूरत लगती है।

पंचशील का जादू टूटा, रिश्ते तो रिस चुके सभी,
शुतुरमुर्ग हम ठहरे, उनकी खोटी नीयत लगती है।

अपनी शेखी क्या, मत पूछो, चूहों को भी मान दिया,
चूहों के नापाक इरादे, बड़ी मुसीबत लगती है।

भ्रष्टाचार हमारी सबकी भूख-प्यास का हिस्सा है-
चौराहे पर नंगी औरत, कितनी इज्जत लगती है!

राजनीति के केंचुओं के सिर कैसी जिम्मेदारी है,
आने वाले दिन पब्लिक के और फजीहत लगती है।

जाने तू 'नीहार' इधर है साँस कर्ज में डूबी सी
एक साँस भी अपनी जैसे वक़्ती मोहलत लगती है।

दर्दे-ग़म के बिना ज़ीस्त अब लगती सूनी-सूनी सी,
कोई और कसक दे जाये, दिल की शोहरत लगती है।

रचनाकाल : 05 मई सन् 2013
[आईनः-ज़ीस्त-अमलदार नीहार]
प्रकाशन वर्ष : 2015
नमन प्रकाशन
4231/1, अंसारी रोड
दरियागंज
नयी दिल्ली-110002

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