मार्क्स के संस्मरण
पॉल लाफार्ज, विलहेम लीबनेख्ट
मार्क्स के संस्मरण
(जीवन काल 1818-1883)
लेखक
पॉल लाफार्ज
विलहेम लीबनेख्ट
अनुवादक
हरिश्चन्द्र
जन-प्रकाशन गृह,
राजभवन, सैण्डहर्स्ट रोड,
बम्बई 4
दो शब्द
दुनिया में बिरले ही ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने मानव-समाज के इतिहास की धारा को इतना प्रभावित किया है जितना कार्ल मार्क्स ने।
कार्ल मार्क्स का जन्म 1818 में जर्मनी के राइन जिले के एक खाते-पीते यहूदी परिवार में हुआ था। बाद में मार्क्स के घर वाले ईसाई हो गये। जर्मनी के बॉन और बर्लिन विश्वविद्यालय में उनकी शिक्षा हुई। पहले उन्होंने वकालत पढ़ी। फिर वकालत छोड़कर इतिहास और दर्शन के अध्ययन में लग लये। युनीवर्सिटी (विश्व-विद्यालय) में उनका विषय 'सामाजिक न्याय के सिद्धान्त' थे। परन्तु उन्हीं के शब्दों में सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों का विषय उन्होंने ''दर्शन और इतिहास का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से चुना था।'' इस प्रकार आरम्भ से ही उनकी रुचि गंभीर विषयों की ओर थी। 1941 में उन्हें जेन विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि मिली। उनकी थीसिस (लेख) का विषय यूनानी दर्शन था। मार्क्स इस समय तक भौतिकवादी नहीं थे। वह हीगेल के शिष्य और उसके आदर्शवादी दर्शन के अनन्य उपासक थे। पर इसी समय से हीगेलवादी दर्शन के साथ उनका मतभेद आरम्भ हुआ।
मार्क्स के ऊपर हीगेल का बहुत प्रभाव था। हीगेल ने जर्मनी की दार्शनिक विचार धारा में क्रान्ति ला दी थी। वह पहला दर्शनिक है जिसने जर्मनी की पुरानी आत्मवादी दार्शनिक परम्परा से नाता तोड़कर विकास की पद्धति का अनुसरण किया और द्वंद्वात्मक गतिशीलता का सिद्धान्त स्थिर किया। मार्क्स ने हीगेल की द्वंद्वात्मक तर्क-पद्धति को अपनाते हुए उसी आधार पर बहुत क्रान्तिकारी परिणाम निकाले। और बाद में जब उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की दार्शनिक प्रणाली की स्थापना की तब हीगेल के दर्शन को जो अब तक ''सिर'' के बल खड़ा हुआ था, उन्होंने सीधा करके ''पैरों पर'' खड़ा कर दिया। हीगेल कहता था कि भौतिक विकास का स्रोत विचार है। मार्क्स ने बताया कि वास्तविकता इसके विपरीत है। विचार भौतिक विकास के ऊपर आधारित है। वे भौतिक विकास के साथ बनते-बिगड़ते हैं। मूल वस्तु भौतिक विकास है। इस प्रकार हीगेल के आदर्शवाद के स्थान पर मार्क्सवादी भौतिकवाद की स्थापना हुई। मनुष्य के मानसिक विकास में यह बहुत बड़ी मंजिल थी। मंजिल क्यों-एक मोड़ थी, जहाँ पहुँचकर मानवी प्रगति का अतीत और भविष्य पथ एक साथ अलोकित हो उठा।
मार्क्स ने अपने विद्यार्थी जीवन से राजनीति में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। बॉन विश्वविद्यालय के विद्यार्थी संघ के वह प्रमुख कार्यकर्ता थे। शिक्षा समाप्त करने के बाद राजनीतिक जीवन ही उनका प्रमुख जीवन हो गया। 1841 में वह बॉन विश्वविद्यालय में दर्शन के प्रोफेसर होने जा रहे थे। उन्हें पता चला कि वहाँ जाने के माने अपने स्वतंत्र विचारों को तिलांजलि देना होगा। बॉन विश्वविद्यालय में उनके गुरु-भाई ब्रूनो बेयर को अपने उग्र विचारों के कारण भाषण देने से रोक दिया था। मार्क्स ने उसी समय प्रोफेसरी के जीवन को नमस्कार किया और जी जान से राजनीतिक आंदोलन में लग गये।
अपने विद्यार्थी जीवन में मार्क्स ''राइन गजट'' नाम के एक पत्र के सम्पादक बना दिये गये। यह पत्र राइन जिले के उग्रवादी पूंजीपतियों का था जो जर्मनी के प्रशियन बादशाह विल्हेल्म की (तृतीय और बाद में चतुर्थ की भी) सामन्तशाही के कट्टर विरोधी थे।
योरप में यह युग पूंजीवाद के उभार का था। इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति पिछली शताब्दी में पूरी हो चुकी थी और 1789 की फ्रांसीसी राज्य-क्रान्ति ने योरप में सामंतशाही श्रृंखलाओं को तोड़कर पूंजीवादी विकास का मार्ग खोल दिया था। उद्योग-धन्धों के विकास के साथ मजदूर वर्ग मैदान में आया और मजदूरों और पूंजीपतियों के तीव्र संघर्ष का सूत्रपात हुआ। जगह-जगह मजदूर संघ बनने लगे। 1831 और 1834 में फ्रांस में विद्रोह हुए। 1833 में इंगलैण्ड में मजदूर सभाओं का एक अखिल इंगलैण्ड मजदूर संघ बना। 1836 में वहीं एक प्रसिद्ध चार्टिस्ट पार्टी की नींव पड़ी जो इंगलैण्ड की पहली क्रान्तिकारी मजदूर-पार्टी थी। इसी वर्ष जर्मनी में मजदूरों का एक गुप्त संगठन बना जिसका नाम था ''ईमानदारों का संघ''। इसके प्रमुख नेताओं में एक मोची, एक कम्पोजीटर और एक दर्जी था।
ये संघ बन रहे थे। मजदूरों में वर्ग-चेतना आ रही थी। अब वह युग बीत चुका था जब शोषण का विरोध करने के लिए मजदूर मशीनों को तोड़ डालते थे। लेकिन इन संघों के सामने कोई पूरा प्रोग्राम नहीं था, उनका पथ प्रदर्शित करने के लिए कोई विचारधारा नहीं थी। पिछली (अर्थात अठारहवीं) शताब्दी में भी कई सोशलिस्ट नेता हुए थे। फूरिये (1772-1837), सेंट साइमन (1771-1858) और ओवेन (1771-1830) इनमें प्रमुख थे। किन्तु ये कल्पनावादी सुधारक थे। उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था और शोषण की कटुतम आलोचना की और पूंजीपतियों को आड़े हाथों लिया। पर शोषण का अन्त करने का मार्ग वे हृदय-परिवर्तन बतलाते थे। इसलिए बिचारे अपनी ही असफलताओं के गर्त में विलीन हो गये। मजदूर आन्दोलन अन्धकूप से बाहर न निकल सका। तभी मार्क्स आये। उन्होंने सामाजिक विश्लेषण के आधार पर सामाजिक विकास के नियमों की व्याख्या की और मजदूर वर्ग को एक विचारधारा और एक कार्यक्रम दिया।
मार्क्स का ध्यान इस ओर राइन गजट का सम्पादक करते समय गया था। योरप में इस समय मुख्य कार्य मजदूर-क्रान्ति नहीं, बल्कि सामंतशाही की बची-खुची रुकावटों को दूर करके पूंजीवादी जनवादी क्रान्ति करना था जिससे कि पूंजीवाद के (और उसके साथ-साथ मजदूर वर्ग के भी) पूर्ण विकास रास्ता खुल जाय। जर्मनी का राइन जिला औद्योगिक और क्रांतिकारी दोनों दृष्टियों से सबसे आगे था। वहाँ के पूंजीपति अपने वर्ग के अगुआ थे। इसीलिए मार्क्स ने उनके पत्र ''राइन गजट'' का सम्पादन-कार्य स्वीकार किया था। मार्क्स के लेखों ने प्रशियन सरकार के कोटरों में तहलका मचा दिया। मार्क्स के लेखों पर डबल सेन्सर लगाया गया। फिर भी मार्क्स के वीरों को न रोका जा सका तो 1843 में सरकार ने पत्र को ही जब्त कर लिया।
जून 1843 में मार्क्स अपनी प्रेयसी जेनी से मिले और प्रणय-सूत्र में बंध गये। जेनी फॉन वेस्टफालेन शाही खानदान की सुन्दर लड़की थी। मार्क्स से उसका परिचय कुछ वर्ष पहले हुआ था जब वे पड़ोस में रहते थे। विवाह के बाद जेनी सदा अपने पति के साथ रही। मार्ग की कठिनाइयाँ, गरीबी, देशनिकाला, प्रियजनों की मृत्यु, कोई भी चीज फिर उस पति-परायणा वीरांगना को विचलित न कर सकी।
विवाह के बाद मार्क्स जर्मनी से पैरिस चले गये। पैरिस से उन्होंने एक दूसरी पत्रिका, ''फ्रेंको-जर्मन एनुअल'' निकाली। वहीं पर उनकी मुलाकात एंगेल्स से हुई। श्रमजीवी वर्ग के ये महान नेता दो वर्ष पहले भी जर्मनी में मिल चुके थे। किन्तु इस बार मिलने पर वे सदा के लिए एक-दूसरे के हो गये। एक प्राण दो शरीरों की तरह अन्तिम समय तक वे साथ रहे। ऐसी मित्रता का विश्व-इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
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पैरिस में आकर भी मार्क्स ने प्रशियन सरकारी टीका-टिप्पणी बंद नहीं की। और अब केवल प्रशियन सरकार का सवाल नहीं रह गया था। अब योरोप की दूसरी सरकारें भी मार्क्स के नाम से डरने लगीं। उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा हो गया था कि कोई भी सरकार उन्हें अपने यहाँ रहने देने से डरती थी। 1845 में मार्क्स को पैरिस से देश-निकाला कर दिया गया। फ्रांस से निकाले जाने पर वह बेल्जियम (ब्रूसेल्स) गये। वहाँ भी उनका रहना कठिन हो गया। बेल्जियम सरकार ने भी उन्हें देश छोड़ने की आज्ञा दी। इसलिए बेल्जियम छोड़कर वह लंदन चले गये।
यह समय मार्क्स ने अधिकांश अध्ययन में लगाया। 1945-46 में उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ''जर्मन विचारधारा'' निकली। और उन्होंने दर्शन, अर्थशास्त्र और क्रांतियों के इतिहास के अध्ययन को परिपक्व बनाया। 1847 में उनकी दूसरी बड़ी पुस्तक ''दर्शन की दरिद्रता'' फ्रांसीसी भाषा में निकली। किन्तु मार्क्स लेखन या विचार से भी अधिक क्रान्तिकारी थे। इस काल में उन्होंने जो सबसे बड़ा काम किया था वह था ''कम्युनिस्ट संघ'' का संगठन। ''कम्युनिस्ट संघ'' दुनिया का प्रथम क्रांतिकारी अन्तरराष्ट्रीय मजदूर संघ था। वही दुनिया की पहली कम्युनिस्ट पार्टी थी। उसकी 1846 में लंदन में स्थापना हुई थी। 1847 में उसकी पहली कांग्रेस हुई। उसकी तरफ से एक पत्र निकाला गया। इस पत्र का नाम ''कम्युनिस्ट जर्नल'' था। यही दुनिया का पहला कम्युनिस्ट पत्र था। ''दुनिया के मजदूरो एक हो'' का नारा सर्वप्रथम इसी पत्रिका के मुख्य पृष्ठ पर बुलन्द किया गया था। 1847 में इस संघ की दूसरी कांग्रेस हुई। इसी कांग्रेस के निश्चयानुसार मार्क्स और एंगेल्स ने ''कम्युनिस्ट घोषणापत्र'' लिखा था जो आज भी दुनिया भर के श्रमजीवियों का पथ-प्रदर्शन कर रहा है।
घोषणापत्र के प्रकाशित होते न होते योरोप में क्रांति के बादल गड़गड़ा उठे। फ्रांस, आस्ट्रिया, जर्मनी, आदि तमाम औद्योगिक रूप से उन्नत देश क्रांति की चपेट में आ गये। इस क्रांतिकारी लहर के दो उद्देश्य थे - जूने-पुराने सामन्तशाही बंधनों को तोड़ फेंकना, जिससे पूँजीवादी विकास का मार्ग निष्कंटक हो जाय, और इटली, हंगेरी, पोलैण्ड आदि गुलाम देशों को आस्ट्रिया और रूस (जारकालीन रूस) के साम्राज्यवादी शोषण से मुक्ति दिलाना। 1848-49 की ये क्रांतियाँ पूंजीवादी समाज के विकास के इतिहास में बहुत महत्व रखती थीं। किन्तु पूँजीपति वर्ग ने गद्दारी की। उसके लिए देर हो गयी थी। मजदूर वर्ग मजबूत हो गया था। पूँजीवादी डरे कि कहीं शक्ति उनके हाथ से छिनकर मजदूरों के अधिकार में न चली जाय। इसलिए वे सामन्तवादी क्रांति-विरोधियों से मिल गये। और मजदूर वर्ग के लिए सत्ता पर अधिकार करने का समय भी आया नहीं था। क्रांति को मजदूरों-किसानों के लहू में डुबो दिया गया।
इस क्रांति की तैयारी मार्क्स ने एक-एक ईंट रखकर की थी। इसलिए जहाँ एक तरफ क्रान्ति विरोधी सरकारें उन्हें निकालती थीं, वहीं दूसरी तरफ उनका प्रभाव बढ़ता जाता था। फ्रांस में क्रांति के होते ही जनता के दबाव से 8 मार्च 1848 को फ्रांस की अस्थायी सरकार ने मार्क्स का अभिनंदन किया और उनसे फ्रांस में आने की प्रार्थना की। 10 मार्च 1848 को पैरिस पहुँच कर मार्क्स ने कम्युनिस्ट संघ की केंद्रीय समिति का फिर से संगठन किया और पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए एक नया केन्द्र बनाया। एंगेल्स मार्क्स के साथ थे। मार्च 1848 के मध्य में जर्मनी में भी क्रांति हो गयी। मार्क्स फौरन जर्मनी के लिए चल दिये। एंगेल्स तथा दूसरे साथी भी उनके साथ थे। कोलोन से उन्होंने एक पत्र निकालना शुरू किया, जिसका नाम रखा ''नया राइन गजट''। इस पत्र ने खुलकर योरप की क्रांतिकारी शक्तियों का नेतृत्व करना आरम्भ कर दिया। जून 1848 में पूंजीपतियों ने गद्दारी की और सामन्तशाही के साथ सांठ-गांठ करके क्रान्ति को दबा दिया। मार्क्स को कोलोन से पैरिस और पेरिस से भी निकाले जाने के बाद लंदन जाना पड़ा।
उनका बाकी जीवन लंदन में ही बीता।
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इन क्रांतियों के बाद का समय बहुत ही कठिन था। पस्तहिम्मती ने लोगों के दिल तोड़ दिये थे। विजयोल्लास के समय साहस और दृढ़ता बनाये रखना कठिन नहीं होता। पर असली क्रांतिकारी की परीक्षा होती है पराजय के समय, पराजय के बाद आने वाली मूर्छना और निराशा के समय। इस समय मार्क्स के सामने सबसे बड़ा प्रश्न था क्रांतिकारियों के मनोबल को बनाये रखना, पार्टी (कम्युनिस्ट संघ) को फिर से संगठित करना, और मजदूर वर्ग और पार्टी को इन क्रान्तियों की असफलता से निकलने वाले निष्कर्षों से शिक्षित करना।
मार्क्स विचलित नहीं हुए। क्रांतियों की शिक्षाओं का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कई पुस्तिकाएँ लिखीं जो आज भी हमें रास्ता दिखाती हैं। ''फ्रांस में श्रेणी संघर्ष'' (1848-1850), ''लुइ बोनापार्ट का अठारहवां ब्रूमेयर'' (1852), ''जर्मनी में क्रांति और क्रांति-विरोध'' (1851-1853), ''कोलोन का कम्युनिस्ट'' (1853), आदि उनकी इसी काल की रचनाएँ हैं। 1851 से 1862 तक वह अमरीकन पत्र ''न्यूयार्क ट्रिब्यून'' में अन्तरराष्ट्रीय विषयों पर लेख लिखकर दुनिया में क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करते रहे। भारत के ऊपर उनकी प्रसिद्ध लेख-माला इसी पत्र में प्रकाशित हुई थी।
इसी समय उन्होंने अपने ग्रंथ ''पूंजी'' के प्रथम भाग को पूरा किया जो 1867 में प्रकाशित हुआ।
1860 के लगभग फिर मजदूर आंदोलन उठा। मार्क्स इसके लिए तैयार थे। 1864 में उन्होंने तमाम संगठनों को एक करके अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थापना की। इस संघ को अब प्रथम इंटरनेशनल (अन्तरराष्ट्रीय) कहा जाता है। मार्क्स के नेतृत्व में इस संघ ने मुख्य पूंजीवादी देशों के मजदूरों को फिर एक मोर्चे में संगठित कर दिया। 1848 की विफलता से मार्क्स ने बहुत कड़वी शिक्षा पायी थी। इसलिए पहली इंटरनेशनल का प्रथम सिद्धान्त था : मजदूर वर्ग का उद्धार स्वयं मजदूर ही कर सकते हैं।
1871 में फ्रांस में पैरिस कम्यून हुआ। मजदूरों ने गद्दार पूंजीपतियों को खदेड़कर, जो मजदूरों के डर से अपना देश जर्मनी की गुलामी में दे देना चाहते थे, अपना कम्यून (मजदूर शासन) कायम किया। मार्क्स ने उसकी सहायता के लिए तमाम दुनिया के मजदूरों में जबरदस्त आंदोलन किया। जब पैरिस कम्यून भी दबा दिया गया तब मार्क्स ने एक दूसरी पुस्तक लिखी ''फ्रांस में गृहयुद्ध'' जिसमें उन्होंने कम्यून के संपूर्ण अनुभवों की व्याख्या की और कहा, पेरिस के मजदूरों के कम्यून की याद हमेशा नये समाज के गौरवशाली अग्रदूत के रूप में की जयगी।... उसके दुश्मनों को कोई नहीं बचा सकेगा... इतिहास ने अपना फैसला कर दिया है...
इस प्रकार कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी योरप के तरंगित सागर में अपने हाथ में दीप-शिखा लिये मार्क्स एक चट्टान की तरह अविजित खड़े रहे। दुनिया के संपूर्ण दर्शन, इतिहास और अनुभवों को मथ कर उन्होंने भविष्य के निर्माता मजदूर-वर्ग और श्रमजीवी जनता को मार्क्सवाद के रूप में एक अमोघ अस्त्र दिया। पद-पद पर उन्होंने क्रांतियों और क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। जब क्रांतियों का ज्वार उठा तो उन्होंने अपनी कलम को छोड़कर तलवार ली और रणक्षेत्र में पहुँच गये। ब्रिटेन के प्रसिद्ध नाटककार शॉ के शब्दों में, उन्होंने अपना सर हमेशा खुदा की तरह ऊँचा रखा।
लगभग आधी शताब्दी बाद मार्क्स की भविष्यवाणी रूस में चरितार्थ हुई। सोवियत रूस का जन्म हुआ। आज सोवियत संघ मार्क्स के बतलाये रास्ते पर चल रहा है। और सोवियत संघ ही क्यों-आज तो तमाम दुनिया उसी रास्ते पर चल रही है। हमारे देश के सामने भी दूसरा कोई रास्ता नहीं। अगर हम आज दुनिया को समझना चाहते हैं, अगर आज हम शोषण और गुलामी को खदेड़कर अपनी मातृभूमि को आजाद करना चाहते हैं, अगर हम जीना और उन्नति करना चाहते हैं, तो हमें भी उसी अमर ज्योति का सहारा लेना पड़ेगा जो मार्क्स ने जलायी थी और जो आज देश में वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टियों के रूप में प्रज्वलित हैं।
इसीलिए इस पुस्तिका का प्रकाशन आवश्यक समझा गया। इसमें मार्क्स की जीवनी नहीं बल्कि उनसे बहुत निकट रूप से संबंधित दो व्यक्तियों के संस्मरण हैं। इनसे हमें मार्क्स के व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। उनकी पूरी जीवनी आगे कभी प्रकाशित की जाएगी।
मार्क्स की मृत्यु 1883 में हुई थी। पर वह मरे कहाँ-उनकी तो बूंद-बूंद से आज मार्क्सवादियों की सेनाएँ तैयार हो गयी हैं जो उनके बतलाये हुए मार्ग पर मानवी स्वतत्रंता और सुख की खोज में आगे बढ़ रही हैं।
- रमेश चंद्र सिन्हा
अंग्रेजी संस्करण के प्रकाशक का वक्तव्य
17 मार्च सन 1883 को जब कार्ल मार्क्स लंदन के हाईगेट कब्रिस्तान में दफनाये गये तो उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिये केवल थोड़े से मित्रगण जमा थे। मार्क्स का नाम लंदन के मजदूर-वर्ग को अज्ञात था। उनका स्थापित किया हुआ 'विश्व-मजदूर-संघ' ग्यारह साल पहले खत्म हो चुका था और जिन ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों ने एक समय उसका साथ दिया था वे भी उसे भूल चुकी थीं। केवल एक अंग्रेजी दल ऐसा था जिस पर किसी हद तक उनकी शिक्षा का असर था और वह भी अभी तक अपने को समाजवादी नहीं कहता था। एक साल और बीतने के बाद ही उसने अपना नाम 'समाजिक-जनवादी संघ' रखा। मार्क्स की सर्वोत्कृष्ट रचना ''कैपिटल'' का पहला भाग खत्म हुआ था और उनकी मृत्यु से सोलह बरस पहले छप चुका था परंतु उसका अंग्रेजी में अभी अनुवाद नहीं हुआ था।
परंतु कब्र के पास फ्रेडरिक एंगेल्स को ये शब्द कहने में लेश मात्र भी संकोच नहीं था कि ''14 मार्च को दोपहर के पौने तीन बजे दुनिया के सबसे बड़े विचारक ने सोचना बंद कर दिया।'' ''उनका नाम सदियों बाद भी जीवित रहेगा, और उसका कार्य भी''।
एंगेल्स ने चालीस बरस की गाढ़ी मित्रता और बौद्धिक घनिष्ठता द्वारा उत्पन्न होने वाले विश्वास के साथ ये शब्द कहे थे, क्योंकि उस समय अन्य आदमियों से कहीं ज्यादा अच्छी तरह से उन्होंने मार्क्स की शिक्षा का पूरा महत्व समझ लिया था। उन्होंने एक साथी वैज्ञानिक और एक साथ लड़ने वाले क्रांतिकारी योद्धा के नाते ही मार्क्स की शिक्षा के महत्व को आँका था। और इतिहास ने यह दिखा दिया है कि उनका कहना सच था।
आज मार्क्स का आदर करने वाले केवल मुट्ठीभर आदमी नहीं हैं। मजदूर वर्ग के गद्दारों और मध्य वर्ग के बुद्धिजीवियों के बिगाड़ने और बुराई करने की हर एक कोशिश के बावजूद प्रत्येक देश में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो मार्क्सवाद को वर्तमान और भविष्य का विज्ञान मानते हैं। यह स्वीकृति आसानी से प्राप्त नहीं हुई। प्रत्येक पग पर इसके लिए मजदूर-आन्दोलन के सबसे योग्य और साहसी पुरुष और स्त्रियाँ लड़े हैं किन्तु प्रत्येक देश के इतिहास में ऐसा समय आ चुका है जब मार्क्स की शिक्षा के क्रांतिकारी रूप का दीपक बुझनेवाला ही था।
आज वह दीप उज्ज्वल और अजेय रूप से जल रहा है। सोवियत संघ का विशाल ज्योति पुंज सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित करता है और प्रत्येक दिन, हाथ या दिमाग से काम करने वाले इस बात को समझते जा रहे हैं कि सोवियत जनता की वीरता केवल जाति के अथवा ऐतिहासिक संयोग का फल नहीं है, बल्कि मार्क्स की क्रांतिकारी शिक्षा की सच्चाई और शक्ति का परिणाम है। क्योंकि वह रूसी जनता ही नहीं थी जिसने लेनिन और उनकी बनाई हुई बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में मार्क्स के क्रांतिकारी सिद्धान्त को सफलतापूर्वक कार्य रूप में परिणत किया। लगभग 25 बरस से, यानी 7 नवम्बर सन 1917 से 22 जून 1941 तक वे इतिहास के सबसे बड़े रचनात्मक कार्य में लगे रहे हैं। लेनिन के सबसे बड़े शिष्य स्तालिन ने साम्यवाद तक पहुँचने में रूसी मजदूर और किसानों का नेतृत्व किया। यह कम्युनिज्म की पहली मंजिल है और कम्युनिज्म भविष्य का वह विश्वव्यापी समाज है जिसके बारे में मार्क्स ने एक वैज्ञानिक के विश्वास से भविष्यवाणी की थी और जिसके लिए वह एक महान क्रांतिकारी की भाँति अथक उत्साह से कोशिश करते रहे। आज जब कि पूरी दुनिया की साधारण जनता के साथ-साथ सोवियत जनता के सामने भी फासिज्म का खतरा है, तो स्तालिन और समाजवादी राज्य की फौज ही मानवता के भविष्य की इस लड़ाई में स्वतंत्रता की सेना का नेतृत्व कर रही है।
मार्क्स की स्मृतियाँ
पॉल लाफार्ज
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मैंने सबसे पहली बार कार्ल मार्क्स को फरवरी सन 1865 में देखा। 28 सितम्बर सन 1864 को सैण्ट मार्टिन हॉल की मीटिंग में इंटरनेशनल की स्थापना हो चुकी थी। मैं उनको पेरिस से इस नन्ही संस्था की प्रगति का समाचार देने आया था। मोशिये तोलाँ ने, जो अब फ्रांस के पूंजीवादी प्रजातंत्र के एक मंत्री हैं और जो बर्लिन की कान्फ्रेन्स में उसके एक प्रतिनिधि थे, मुझे एक परिचय-पत्र दिया था।
मेरी उम्र 24 बरस की थी। उस पहली भेंट का मुझ पर जो असर पड़ा उसे मैं अपने जीवन में कभी नहीं भूलूंगा। उस समय मार्क्स का स्वास्थ्य अच्छा नहीं था और वह 'कैपीटल' के पहले भाग के लिखने में कड़ी मेहनत कर रहे थे। (वह दो साल बाद सन 1867 में प्रकाशित हुआ)। उन्हें यह डर था कि शायद वह उसे समाप्त न कर सकें। और वह युवकों से बड़ी खुशी से मिलते थे क्योंकि वह कहा करते थे कि ''मुझे ऐसे आदमियों को सिखाना चाहिये जो मेरे बाद कम्युनिज्म के प्रचार का काम जारी रखें।''
कार्ल मार्क्स उन अनमोल आदमियों में थे जो विज्ञान और सार्वजनिक जीवन दोनों में प्रथम श्रेणी के योग्य हों। ये दोनों पहलू उनमें इतनी अच्छी तरह मिले हुए थे कि जब तक हम उन्हें एक साथ ही वैज्ञानिक और समाजवादी योद्धा के रूप में न जान लें, तब तक हम उन्हें नहीं समझ सकते। उनका यह विचार था। कि प्रत्येक विज्ञान का स्वयं विज्ञान के लिये अध्ययन करना चाहिये और जब हम वैज्ञानिक अनुसंधान का काम शुरू करें तो फल का विचार छोड़ देना चाहिये। फिर भी वह यह विश्वास करते थे कि अगर विद्वान मनुष्य अपनी अवनति न चाहता हो तो उसे सार्वजनिक कार्यों में हमेशा भाग लेते रहना चाहिये - अपनी प्रयोगशाला या अध्ययनशाला में अपने को बन्द करके, पनीर के कीड़े की तरह, अपने सहजीवियों के जीवन और सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। ''वैज्ञानिक को स्वार्थी नहीं होना चाहिय। जो लोग इतने भाग्यवान हैं कि वैज्ञानिक अध्ययन में समय बिता सकें उन्हें, सबसे पहले अपने ज्ञान को मनुष्य की सेवा में लगाना चाहिये।'' उनका एक प्रिय कथन यह था कि ''संसार के लिये परिश्रम करो।''
मजदूर-वर्ग की विपदाओं से उन्हें हार्दिक सहानुभूति थी। किन्तु केवल भावुक कारणों से नहीं बल्कि इतिहास तथा अर्थशास्त्र के अध्ययन के उनका दृष्टिकोण समाजवादी (कम्युनिस्ट) बना था। उनका यह कहना था कि जिस आदमी पर निजी स्वार्थों का प्रभाव न हो और जो वर्ग-पक्षपात से अंधा न हो, वह अवश्य इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा। मार्क्स ने निष्पक्ष भाव से मानव समाज के राजनीतिक और आर्थिक विकास का अध्ययन किया, किन्तु उन्होंने अपने अध्ययन के फल को लिखा केवल प्रचार के पक्के इरादे से, और अपने समय तक आदर्शवादी कुहरे में खोये हुए साम्यवादी आन्दोलन के लिये वैज्ञानिक नींव जमाने के दृढ़ निश्चय से। जहाँ तक सार्वजनिक कार्यों का संबंध है, उन्होंने उसमें केवल मजूदर-वर्ग की विजय के लिये काम करने के विचार से भाग लिया। उस वर्ग का ऐतिहासिक कर्तव्य है कि समाज का राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्व प्राप्त करने के बाद कम्युनिज्म की स्थापना करे। इसी तरह से, शक्तिशाली होते ही पूंजीपति वर्ग का यह कर्तव्य था कि वह उन सामंती बंधनों को तोड़ दे जो खेती तथा तथा उद्योग-धन्धों के विकास में बाधा डाल रहे थे, मनुष्य और माल के लिये बेरोकटोक व्यापार और मालिकों और मजदूरों के बीच स्वतंत्र संबंध आरंभ कर दे, उत्पादन और विनिमय के साधनों को केन्द्रीभूत करे और कम्युनिस्ट समाज के लिये बौद्धिक और भौतिक सामग्री तैयार कर दे।
मार्क्स ने अपनी कार्यशीलता को अपनी जन्मभूमि तक ही सीमित नहीं रखा। वह कहते थे कि, ''मैं संसार का नागरिक हूँ और जहाँ कहीं होता हूँ वहीं काम करता हूँ।'' वास्तव में जिन देशों में (फ्रांस, बेल्जियम, इंग्लैण्ड) उन्हें घटनावश या राजनीतिक दमन के कारण जाना पड़ा वहाँ के विकसित होते हुए क्रांतिकारी आन्दोलन में उन्होंने प्रमुख भाग लिया।
परन्तु अपनी पहली भेंट में जब मैं उनसे मेटलैण्ड पार्क रोड वाले घर के पढ़ने के कमरे में मिला तो वह मुझे साम्यवादी आंदोलन के अथक और अद्वितीय योद्धा नहीं, बल्कि एक अध्ययनशील पुरुष जान पड़े। सभ्य संसार के प्रत्येक कोने से पार्टी के साथी कमरे में साम्यवादी दर्शन के उस पंडित की सलाह लेने के लिये इकट्ठे होते थे। वह कमरा ऐतिहासिक हो गया है। यदि कोई मार्क्स के बौद्धिक जीवन को घनिष्ठता से समझना चाहता है, तो उसे इस कमरे के बारे में जरूर जानना चाहिये। वह दुमंजिले पर था और पार्क की तरफ की चौड़ी खिड़की से उसमें खूब रोशनी आती थी। अँगीठी के दोनों तरफ और खिड़की के सामने किताबों से लदी हुई अलमारियाँ थीं जिनके ऊपर छत तक अखबारों की गड्डियाँ और हाथ की लिखी किताबें रखी हुई थीं। खिड़की की एक तरफ दो मेजें थीं जो उसी तरह विविध अखबारों, कागजों तथा किताबों से भरी हुई थीं। कमरे के बीचोबीच जहाँ रोशनी सबसे अच्छी थी, एक छोटी-सी लिखने की मेज थी-तीन फिट लम्बी और दो फिट चौड़ी, और एक लकड़ी की आरामकुर्सी थी। इस कुर्सी और एक अलमारी के बीच में, खिड़की की तरह मुँह किये हुए, एक चमड़े से ढँका हुआ सोफा था जिस पर मार्क्स कभी-कभी आराम करने के लिये लेटा करते थे। ताक पर कुछ और किताबें थी, उनके बीच में सिगार, दियासलाई की डिबिया, तम्बाकू का डब्बा, और उनकी लड़कियों, स्त्री, एंगेल्स और विलेहम वूल्फ की तस्वीरें थीं। मार्क्स को तम्बाकू का बड़ा शौक था। उन्होंने मुझसे कहा कि ''कैपीटल'' से मुझे इतना रुपया भी नहीं मिलेगा कि उसे लिखते समय मैंने जो सिगार पिये हैं उनका दाम भी निकल आये।'' दियासलाई के इस्तेमाल में तो वह और भी ज्यादा फिजूलखर्च थे। वह इतनी बार अपने पाइप या सिगार को भूल जाते थे कि उन्हें उसे बार-बार जलाना पड़ता था और वह दियासलाई की डिबिया बहुत ही जल्दी खत्म कर देते थे।
वह कभी भी किसी को अपनी किताबें और कागज ठीक तरह से लगाने (वास्तव में बिगाड़ने) नहीं देते थे। उनके कमरे की बेतरतीबी सिर्फ देखने भर की थी। वास्तव में हरएक चीज अपने उचित स्थान पर थी और वह जिस किताब या हस्तलेख को चाहते उसे बिना ढूंढ़े निकाल सकते थे। बातचीत करते-करते भी वह बहुधा रुक जाते और किसी अंश या आँकड़े को पुस्तक में से दिखाते। वह अपने कमरे की आत्मा को जैसे पहचानते थे और उनके कागज और किताबें उसी तरह उनकी इच्छा के पालक थे जिस तरह उनके अंग।
अपनी किताबों को सजाते वक्त वह उनकी छोटाई-बड़ाई का खयाल नहीं करते थे, बड़ी-बड़ी किताबें तथा छोटी-सी पुस्तिकाएँ बराबर-बराबर रखीं रहती थीं। वह अपनी पुस्तकों को आकार के अनुसार नहीं बल्कि विषय के अनुसार लगाते थे। उनके लिये पुस्तकें सुख का साधन नहीं, बौद्धिक यन्त्र थीं। वह कहते थे कि, ''ये मेरी गुलाम हैं और उनको मेरी इच्छा पूरी करनी पड़ती है''। उन्हें किताब के रूप-रंग, जिल्द, कागज की सुन्दरता या छपाई की परवाह नहीं थी। वह पन्नों के कोने मोड़ देते थे, कुछ हिस्सों के नीचे पेन्सिल से लाइन खींच देते थे और दोनों तरफ की खाली जगह को पेन्सिल के निशाने से भर देते थे। वह किताबों में लिखते नहीं थे, पर जब लेखक उल्टी सीधी हाँकने लगता था तो प्रश्न या आश्चर्य का चिह्न लगाये बिना नहीं रह सकते थे। पेन्सिल से लाइन खींचने का उनका ऐसा तरीका था कि वह बड़ी आसानी से किसी भी हिस्से को ढूँढ़ लेते थे। उन्हें यह आदत थी कि कुछ साल बाद अपनी कापियों और किताबों में निशाने लगाये हुए भागों को फिर पढ़ते थे ताकि उनकी स्मृति फिर ताजी हो जाय। उनकी स्मरणशक्ति असाधारण रूप में प्रबल थी। अपरिचित भाषा के पद्य याद करने की हेगल की सलाह के अनुसार बचपन से ही उन्होंने अपनी स्मरण शक्ति का विकास किया था।
उन्हें हाइने और गेटे कंठस्थ थे और बातचीत में बहुधा उन्हें वह उद्धृत किया करते थे। यूरोप की सब भाषाओं के प्रमुख कवियों की कविताएँ वह बराबर पढ़ा करते थे। प्रत्येक वर्ष वह फिर ग्रीक भाषा में एसकाइलस के नाटकों को पढ़ते थे और उसको तथा शेक्सपियर को दुनिया के सर्वोत्कृष्ट नाट्यकार मानते थे। उन्होंने शेक्सपियर का पूरा अध्ययन किया था। उसके लिये उनके मन में अगाध श्रद्धा थी और उसके सबसे साधारण पात्रों को भी वे जानते थे। मार्क्स का परिवार शेक्सपियर का भक्त था और उनकी तीनों लड़कियों को भी शेक्सपियर का बहुत सा अंश जबानी याद था। सन 1848 के कुछ दिन बाद जब मार्क्स अपने अंग्रेजी के ज्ञान को पूरा करना चाहते थे (उस समय भी वह अंग्रेजी अच्छी तरह पढ़ सकते थे) उन्होंने शेक्सपियर के सब खास-खास मुहावरों को ढूँढ़ा और उनका वर्गीकरण किया। यही उन्होंने विलियम कौबेट के वाद-विवादपूर्ण लेखों के साथ किया। कौबेट का वह बड़ा सम्मान करते थे। दान्ते तथा बर्न्स उनके प्रिय कवि थे और अपनी लड़कियों को बर्न्स की व्यंगात्मक कविता या बर्न्स के प्रेम के गीत गाते सुन कर उन्हें हमेशा आनंद आता था।
विज्ञान का प्रसिद्ध ज्ञाता, अथक परिश्रमी, कूविये जब पेरिस के म्यूजियम का संरक्षक था तो उसने अपने बरतने के लिये कई कमरे अलग तैयार करा लिये थे। इनमें से प्रत्येक कमरा अध्ययन की एक शाखा विशेष के लिये नियुक्त था। और उस विषय के लिये आवश्यक पुस्तकों, यन्त्रों आदि से सुसज्जित था। जब कूविये एक काम से थक जाता तो वह दूसरे कमरे में चला जाता था और बौद्धिक काम के बदल देने को आराम करने के बराबर मानता था। मार्क्स भी कूविये के समान अथक परिश्रमी थे परन्तु उसकी तरह कई कमरे रखने की उनकी सामर्थ्य नहीं थी। वह कमरे में इधर से उधर टहलकर आराम करते थे और दरवाजे और खिड़की के बीच में दरी पर घिसते-घिसते मैदान की पगडंडी की तरह कए साफ रास्ता बन गया। कभी-कभी वह सोफे पर लेट कर उपन्यास पढ़ते थे। बहुधा वह एक साथ कई उपन्यास शुरू कर देते थे जिन्हें वह बारी-बारी से पढ़ते थे क्योंकि डार्विन की तरह वह भी बड़े उपन्यास प्रेमी थे। उन्हें 18वीं सदी के उपन्यास पसन्द थे। फील्डिंग का लिख हुआ ''टॉम जोन्स'' उन्हें बहुत अच्छा लगता था। आधुनिक उपन्यासकरों में उनके सर्वप्रिय थे पैल डि कौक, चार्ल्स लीवर, ड्यूमा और सर वाल्टर स्कॉट। स्कॉट के 'ओल्ड मॉर्टेलिटी' नामक उपन्यास को वह उत्कृष्ट रचना मानते थे। उन्हें साहस के कामों वाली और मजाकिया कहानियाँ पसन्द थीं। उनके लिए श्रृंगार रस के सर्वोत्कृष्ट लेखक सरवेंटीज और बाल्जाक थे। उनके विचार से ''डॉन क्विक्सोट'' ठाकुरशाही के विनाशकाल का एक महान ग्रंथ था जब कि नये विकसित होने वाले पूँजीवादी संसार में उस युग के गुणों को केवल मूर्खता और बौड़मपन समझा जाने लगा था। बाल्जाक के लिए उनकी श्रद्धा बहुत गहरी थी। उन्होंने निश्चय किया था कि अर्थशास्त्र का अध्ययन समाप्त करने के बाद बाल्जाक की 'ह्यूमैन कॉमेडी' की आलोचना लिखेंगे। मार्क्स बाल्जाक को समकालीन सामाजिक जीवन का इतिहासकार ही नहीं बल्कि ऐसे पात्रों का भविष्यदर्शी रचयिता समझते थे जो लुई फिलिप के राज्य में केवल अधूरे रूप में थे और बाल्जाक की मृत्यु के बाद तीसरे नेपोलियन के समय में पूर्ण रूप से विकसित हुए।
मार्क्स योरप की सब प्रमुख भाषाओं को पढ़ सकते थे और तीन भाषाओं में (जर्मन, अंग्रेजी तथा फ्रेंच में) ऐसा लिख सकते थे कि उस भाषा को अच्छी तरह जानने वाले भी उसकी तारीफ करते थे। वह बहुधा कह सकते थे कि ''जीवन के संग्राम में विदेशी भाषा एक हथियार होती है''। उनमें भाषाएँ सीखने की बड़ी योग्यता थी और इसको उनकी लड़कियों ने भी उनसे प्राप्त किया था। जब उन्होंने रूसी भाषा सीखनी शुरू की तो वह पचास बरस के हो चुके थे। यद्यपि जो मृत तथा जीवित भाषाएँ वह जानते थे उनका रूसी से कोई भी निकट का संबंध नहीं था, तब भी छ: महीने में उन्होंने इतनी प्रगति कर ली थी कि जो लेखक और कवि उन्हें पसन्द थे (अर्थात् पुश्किन, गोगोल और श्चेडरिन) उनकी रचनाएँ वह मूल में पढ़ सकते थे। रूसी सीखने का कारण यह था कि वह कुछ छानबीनों का सरकारी ब्यौरा पढ़ना चाहते थे। उन छानबीनों के निष्कर्ष इतने भयानक थे कि सरकार ने उन्हें दबा दिया था। मार्क्स के कुछ भक्तों ने मार्क्स के लिए उनकी प्रतियाँ मँगा दी थीं और पश्चिमी योरप में केवल मार्क्स ही ऐसे अर्थशास्त्री थे जिन्हें उनका ज्ञान था।
कविता तथा उपन्यास पढ़ने के अलावा मानसिक विश्राम के लिए मार्क्स का एक और अद्भुत तरीका था। गणित के वह बड़े प्रेमी थे। बीजगणित से उनको नैतिक सान्त्वना तक मिलती थी और अपने तूफानी जीवन की सबसे दु:खपूर्ण घड़ियों में वे उसका आसरा लिया करते थे। उनकी पत्नी की अन्तिम बीमारी में अपने वैज्ञानिक काम को हमेशा की तरह चलाना उनके लिए मुश्किल हो गया था और उसकी बीमारी और कष्ट के बारे में सोचने से बचने का उपाय केवल यही था कि अपने को गणित में डुबो दें। मानसिक कष्ट के इस समय में उन्होंने गणित पर एक निबन्ध लिखा। जो गणितशास्त्री इसे जानते हैं उनका कहना है कि यह रचना बड़ी महत्वपूर्ण है और मार्क्स की ग्रन्थावली में छपेगी। उच्च गणित में वह द्वंद्वात्मक गति का सबसे सादा और तर्कपूर्ण रूप निकाल सकते थे। उनकी विचारधारा के अनुसार विज्ञान की कोई शाखा तभी सचमुच विकसित कही जा सकती है जब उसका रूप ऐसा हो जाय कि वह गणित का प्रयोग कर सके।
मार्क्स का पुस्तकालय, जिसमें जीवन भर की खोज के परिश्रम से एक हजार से ज्यादा किताबें जमा थीं, उनकी आवश्यकताओं के लिए काफी नहीं था। इसलिए वह ब्रिटिश म्यूजियम के वाचनालय में नियम से जाते थे और वहाँ की सूची को बहुत मूल्यवान समझते थे। उनके विपक्षियों को भी यह स्वीकार करना पड़ता था कि वह प्रकाण्ड विद्वान थे। और केवल अपने प्रिय विषय अर्थशास्त्र में ही नहीं बल्कि सब देशों के इतिहास, दर्शन और साहित्य में भी उनका ज्ञान अगाध था।
यद्यपि वह हमेशा देर से सोते थे तब भी वह हमेशा आठ और नौ बजे के बीच में उठ जाते थे। काली कॉफी का प्याला पीकर और अखबारों को पढ़कर वह अपने पढ़ने के कमरे में चले जाते, और दूसरे दिन सबेरे के दो-तीन बजे तक काम करते रहते थे। बीच में वह सिर्फ खाने के लिए, और - अच्छे मौसम में - हैम्पस्टेड के मैदान में टहलने के लिए उठते थे। दिन में वह एक या दो घंटे सोफे पर सो लेते थे। युवावस्था में उन्हें सारी रात काम करते हुए बिताने की आदत थी। मार्क्स के लिए काम करना तो एक व्यसन हो गया था और वह भी ऐसा तल्लीन करने वाला कि वह खाना तक भूल जाते थे। बहुधा उन्हें कई बार बुलाना पड़ता था; तब वह खाने के कमरे में आते थे और अन्तिम कौर मुश्किल से खत्म होता था कि वह उठ कर वापिस अपनी मेज पर जा बैठते थे। वह खाते कम थे और उन्हें भूख न लगने की शिकायत तक रहा करती थी। सुअर का गोश्त, धुँए पर पकी मछली और अचार जैसे चटपटे खानों से वह वह इस कमी को पूरा करने की कोशिश करते थे। उनके मस्तिष्क की अपूर्व कार्यशीलता का दण्ड उनके पेट को भरना पड़ता था; दिमाग के लिए वास्तव में उन्होंने अपने पूरे शरीर को बलिदान कर दिया था। विचार करना उनके लिए सबसे बड़ा सुख था। मैंने बहुधा उनको अपनी युवास्था के गुरु हेगेल का यह कथन उद्धृत करते हुए सुना है कि, ''किसी धूर्त का एक पापपूर्ण विचार भी किसी दैवी चमत्कार से उच्च और पवित्र है।''
उनका शरीर निश्चय ही बड़ा बलवान रहा होगा, नहीं तो वह कभी इतने असाधारण जीवन और ऐसी थकाने वाली दिमागी मेहनत को नहीं सह सकते। औसत से कुछ ज्यादा लम्बे, चौड़े कन्धे, चौड़ी छाती-कुल मिलाकर उनके अंग सुडौल थे, यद्यपि उनके पैर शरीर की तुलना में छोटे थे (जैसा कि यहूदी जाति में अकसर होता है)। अगर अपनी जवानी में वह व्यायाम का अभ्यास करते तो अत्यन्त बलवान आदमी बन जाते। उनका एकमात्र शारीरिक व्यायाम था हवाखोरी। लगातार सिगार पीते और बातचीत करते हुए और थकान की कोई भी निशानी दिखाये बिना यह घन्टों चल सकते थे और पहाड़ों पर चढ़ सकते थे। यह कहा जा सकता है कि वह अपना काम कमरे में टहलते हुए करते थे। केवल थोड़ी देर के लिये वह डेस्क के सामने बैठ जाते ताकि फर्श पर टहलते हुए उन्होंने जो सोचा है उसे लिख डालें। इस तरह टहलते-टहलते बातचीत करने का भी उन्हें शौक था। हाँ, जब तर्क-वितर्क गरमागरम होता या बात विशेष महत्वपूर्ण होती तो वे बीच-बीच में जरा रुक जाते थे।
बहुत साल तक हैम्पस्टेड के मैदान में उनके साथ शाम को हवाखोरी करने मैं भी जाया करता था। और मैदानों के बीच इन्हीं हवाखोरियों में मैंने उनसे अर्थशास्त्र की शिक्षा पायी। मेरे साथ इस बातचीत में उन्होंने ''कैपीटल'' के पहले भाग को, जिस वे उस समय लिख रहे थे, मेरे सामने विकसित किया। जैसे ही मैं घर पहुँचता वैसे ही अपनी योग्यतानुसार जो कुछ मैंने सुना था उसका सार लिख लेता था। परन्तु शुरू में मार्क्स की तीक्ष्ण और जटिल विचारधारा को समझने में बड़ी मुश्किल हुई। दुर्भाग्यवश मेरे ये अमूल्य कागज खो गये हैं क्योंकि कम्यून के बाद पैरिस और बोरदों में पुलिस ने मेरे कागज हथिया लिये और जला डाले। एक दिन मार्क्स ने अपने स्वभावानुसार बहुत से प्रमाणों और विचारों के साथ मानव समाज के विकास के अपने अद्भुत सिद्धांत का बखान किया था। वह मैंने लिख लिया था। पर अन्य कागजों के साथ वे भी पुलिस के हाथों पड़ गये। मुझे उन कागजों के खो जाने का विशेष दु:ख है। मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आँखों के सामने से पर्दा हट गया हो। पहली बार मैंने विश्व-इतिहास के तर्क को समझा और समाज और विचारों के विकास के भौतिक कारणों को ढूँढ़ निकालने लायक हो गया-वह विकास जो बाहर से देखने से इतना तर्कहीन जान पड़ता है। इस सिद्धांत से मैं चकित हो गया और यह प्रभाव बरसों तक रहा। अपनी मामूली योग्यता से जब मैंने यह सिद्धांत मैड्रिड के साम्यवादियों को समझाया तो उन पर भी यही प्रभाव हुआ। मार्क्स के सिद्धांतों में यह सबसे महान है और निस्संदेह आदमी के दिमाग से निकला हुआ सर्वोत्कृष्ट सिद्धांत है।
मार्क्स का दिमाग ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्यों तथा दार्शनिक सिद्धांतों से अकल्पनीय मात्रा में सुसज्जित था और कड़े बौद्धिक परिश्रम से इकट्ठे किये हुए अपने ज्ञान और अनुभव का प्रयोग करने में उन्हें आश्चर्यजनक निपुणता प्राप्त थी। चाहे जिस समय और चाहे जिस विषय पर वह किसी भी प्रश्न का ऐसा जवाब दे सकते थे जो हर एक के लिये पूरी तरह संतोषजनक होता था। उनके उत्तर के पीछे हमेशा महत्वपूर्ण दार्शनिक विचार भी होते थे। उनका दिमाग उस लड़ाई के जहाज के समान था जो पूरी तैयारी से बन्दरगाह में खड़ा रहता है और इस बात के लिये तैयार रहता है कि किसी भी क्षण विचार के किसी भी सागर में चले पड़े। निस्संदेह ''कैपीटल'' ऐसे दिमाग की देन है जिसकी शक्ति अद्भुत आर ज्ञान अगाध है। परन्तु मेरे लिये और उन सबके लिये जो मार्क्स को अच्छी तरह जान चुके हैं, न तो ''कैपीटल'' और न उनकी अन्य कोई रचना उनके ज्ञान की पूरी मात्रा को, या उनकी योग्यता और अध्ययन की महानता को पूरी तरह प्रदर्शित करती है। वह स्वयं अपनी रचनाओं से कहीं महान थे।
मैंने मार्क्स के साथ काम किया है। यद्यपि मैं मार्क्स का केवल मुंशी था तो भी उनके लिखते समय मुझे यह देखने का अवसर मिला कि वह सोचते और लिखते किस प्रकार थे। उनके लिये उनका काम मुश्किल और साथ ही साथ आसान भी था। आसान इसलिये कि चाहे जो विषय हो, उसके संबंध में तथ्य और विचार प्रथम प्रयास में ही बहुतायत से उनके दिमाग में उठ खड़े होते थे। परन्तु इसी बाहुल्य से उनके विचारों की पूर्ण अभिव्यक्ति कठिन हो जाती थी और उन्हें परिश्रम अधिक करना पड़ता था।
बीको ने लिखा है, ''केवल सर्वज्ञ ईश्वर ही वस्तु की वास्तविकता को जान सकता है। मनुष्य वस्तु के बाहरी रूप से अधिक कुछ नहीं जानता!'' मार्क्स बीको के ईश्वर की भाँति वस्तुओं को देखते थे। वह केवल ऊपरी सतह को नहीं देखते थे बल्कि गहराई में जाकर प्रत्येक भाग के परस्पर संबंधों का निरीक्षण करते, प्रत्येक भाग को अलग-अलग करते और उसके विकास के इतिहास का अनुसंधान करते। फिर वस्तु के बाद वह उसके वातावरण को लेते और एक दूसरे पर दोनों के असर को देखते। अपने अध्ययन के विषय का पहले वह उद्गम देखते, उसमें जो परिवर्तन, विकास और क्रांति हुई है उस पर विचार करते। वह किसी वस्तु को अपने ही अस्तित्व में पूर्ण अपने वातावरण से अलग नहीं समझते थे, बल्कि संसार को अत्यंत जटिल और सदैव गतिशील मानते थे। उसकी विभिन्न तथा निरन्तर परिवर्तनशील क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के साथ संसार के पूर्ण जीवन की व्याख्या करना उनका ध्येय था। फ्लॉबेअर और डी गॉन्क्वा के मत के लेखक यह शिकायत करते हैं कि जो कुछ हम देखते हैं उसका सच्चा वर्णन करना मुश्किल है। परंतु वे जिसका वर्णन करना चाहते थे वह तो वीको का बताया हुआ बाहरी रूप मात्र है, उस वस्तु द्वारा उनके अपने मन पर पड़ी हुई छाप से अधिक किसी बात का वर्णन वे लोग नहीं करना चाहते थे। जिस काम का बीड़ा मार्क्स ने उठाया उसके मुकाबले में उनका साहित्यिक काम तो बच्चों का खेल था। वास्तविक सत्य को जानने के लिये, और उसकी इस भाँति व्याख्या करने के लिये कि दूसरे उसे समझ सकें, असाधारण विचारशक्ति और योग्यता की आवश्यकता है। मार्क्स अपनी रचनाओं में बराबर परिवर्तन करते रहते और सदा यही समझते थे कि व्याख्या विचार के अनुकूल नहीं हुई। बाल्जाक की एक मनोवैज्ञानिक रचना, ''अज्ञात महान रचना'' का, जिसमें से जोला ने बहुत कुछ चुरा लिया था, उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा क्योंकि कुछ हद तक उसमें उनके भावों का वर्णन था। योग्य चित्रकार अपने दिमाग में बने हुए चित्र को ठीक वैसा ही बनाने की इच्छा से इतना पागल बना रहता है कि वह तूलिका से बार-बार कपड़े पर रंग लगाता है। यहां तक कि अंत में वह चित्र केवल रंगों का एक रूपहीन मिश्रण बन जाता है। परन्तु तब भी चित्रकार की पक्षपातपूर्ण आँखों को वह वास्तविकता का निर्दोष चित्र जान पड़ता है।
कुशल विचारक (दार्शनिक) होने के दोनों आवश्यक गुण मार्क्स में थे। उनमें किसी वस्तु को उसके विभिन्न अंगों में विभाजित करने की अनुपम शक्ति थी, और वह वस्तु को उसके सब अवयवों और विकास के रूपान्तरों के साथ पुननिर्माण करने में और उसके आन्तरिक संबंधों को खोज निकालने में भी निपुण थे। कुछ अर्थशास्त्रियों ने, जो विचार करने में असमर्थ है, उन पर आरोप किया है कि किसी बात को समझाते समय मार्क्स अमूर्त सिद्धांतों से उलझते रहते हैं, ठोस वस्तुओं की बात नहीं करते। किन्तु यह आरोप सही नहीं है। मार्क्स रेखागणित के विद्वानों की विधि का व्यवहार नहीं करते, जो अपनी परिभाषा को चारों ओर के संसार से अलग करके असलियत से दूर किसी जगत में अपने निष्कर्ष निकालने बैठते हैं। ''कैपीटल'' की विशेषता इस बात में नहीं है कि उसमें विलक्षण परिभाषाएँ अथवा चीजों को समझाने के विलक्षण गुर दिये हुए हैं। ये चीजें हम उस ग्रंथ में नहीं पाते। किन्तु उसमें अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषणों की लड़ी-सी मिलती है। इन विश्लेषणों के द्वारा मार्क्स वस्तु के क्षणिक से क्षणिक रूप, और मात्रा में होने वाले छोटे से छोटे अंतर अथवा हरेफेर को भी सूक्ष्मता से प्रगट कर देते हैं। वह रूप में इस बात को देखते हैं कि जिन समाजों में उत्पादन की प्रणाली पूंजीवादी है उनकी संपत्ति माल के विशाल संग्रह के रूप में होती है। माल, यानी स्थूल वस्तुएँ ही वे अवयव हैं जिनसे पूंजीवादी संपत्ति बनती है, गणित के निर्जीव तथ्य नहीं। मार्क्स फिर माल की अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करते हैं। उसे प्रत्येक दिशा में घुमाते फिराते है, उलटते पलटते हैं और उसमें से एक के बाद दूसरा भेद निकालते हैं-वे भेद जिनका सरकारी अर्थशास्त्रियों को कभी पता भी नहीं लगा और जो कैथोलिक धर्म के रहस्यों से संख्या में ज्यादा और अधिक गूढ़ हैं। माल का हर ओर से अध्ययन करने के बाद वह उसके अन्य मालों के साथ संबंध, यानी विनिमय को देखते हैं, फिर उसके उत्पादन और उत्पादन के लिये आवश्यक ऐतिहासिक परिस्थिति को देखते हैं। वह माल के विभिन्न रूपों का निरीक्षण करते हैं और यह दिखाते हैं कि एक रूप कैसे दूसरे में बदल जाता है और किस प्रकार एक रूप अवश्यमेव दूसरे रूप का जन्मदाता होता है। इस क्रिया के विकास का तर्कपूर्ण चित्र इस अपूर्व क्षमता के द्वारा दिखाया गया है कि हम शायद यह समझें कि मार्क्स ने उसे गढ़ लिया है। परंतु वह वास्तव है और माल की असली गति की ही अभिव्यक्ति है।
मार्क्स हमेशा बड़ी ईमानदारी से काम करते थे। वह कोई ऐसी बात नहीं लिखते थे जिसे वह प्रमाणित न कर सकें। इस मामले में उन्हें उद्धृत कथन से संतोष नहीं होता था। वह सदैव मौलिक स्रोत खोज निकालते थे, उसके लिये चाहे जितना कष्ट उठाना पड़े। किसी साधारण-सी चीज की सच्चाई की खोज में वह बहुधा ब्रिटिश म्यूजिअम जाते थे। इसलिये उनके आलोचक कोई ऐसी त्रुटि नहीं निकाल सके जो लापरवाही के कारण हुई हो, न वे यह दिखा सके कि मार्क्स के कोई निष्कर्ष ऐसे तथ्यों पर आधारित हैं जो जाँच करने से सही न निकलें। मौलिक लेखकों को पढ़ने की उनकी आदत के कारण उन्होंने बहुत से ऐसे लेखकों को पढ़ा जो लगभग अज्ञात थे और जिनको केवल मार्क्स ने ही उद्धृत किया है। ''कैपीटल'' में अज्ञात लेखकों के इतने उद्धरण हैं कि यह समझा जा सकता है कि उन्हें ज्ञान का दिखावा करने के लिये रखा गया है। परन्तु मार्क्स को बिल्कुल दूसरी भावना प्रेरित कर रही थी। वह कहते थे कि ''मैं ऐतिहासिक न्याय करता हूँ और प्रत्येक मनुष्य को जो उचित होता है, दूता हूँ।'' जिसने सबसे पहले एक विचार की अभिव्यक्ति की थी अथवा औरों से अधिक सच्चाई से अभिव्यंजना की थी, उस लेखक का नाम लिखना वह अपना कर्त्तव्य समझते थे, चाहे वह कितना ही साधारण और अज्ञात क्यों न हो।
उनका साहित्यिक अन्त:करण उनके वैज्ञानिक अन्त:करण से कम न्यायप्रिय नहीं था। जिस तथ्य की सत्यता का उन्हें पूरा भरोसा नहीं होता था उसका वह कभी विश्वास नहीं करते थे, बल्कि जब तक किसी विषय का पूरा अध्ययन न कर लें तब तक वह उसके बारे में बोलते ही न थे। जब तक वह अपना लेख बार-बार पढ़ नहीं लेते थे और जब तक उसका रूप संतोषजनक नहीं हो जाता था, तब तक वह कुछ भी नहीं छपवाते थे। पाठकों के सामने अपने अधूरे विचार रखना उनके लिये असह्य था। पूरी तरह दुहराये बिना अपनी पुस्तक दिखाने में उनको अत्यन्त कष्ट होता। उनकी यह भावना इतनी प्रबल थी कि उन्होंने मुझसे कहा कि अधूरा छोड़ने की अपेक्षा मैं अपनी पुस्तकों को जला देना पसन्द करूँगा। उनके काम करने के तरीके की वजह से उन्हें बहुत बार ऐसी मेहनत करनी पड़ती जिसका अनुभव उनकी पुस्तकों के पाठकों को मुश्किल से हो सकता है। जैसे इंग्लैण्ड के कारखानों के संबंध में पार्लियामेंट के बनाये हुए नियमों के बारे में ''कैपीटल'' में लगभग बीस पन्ने लिखने के लिये उन्होंने जाँच की समितियों तथा अंग्रेजी और स्कॉटलैण्ड की मिलों के इन्सपेक्टरों की लिखी हुई सरकारी रिपोर्टों का एक पूरा पुस्तकालय पढ़ डाला। पेन्सिल के निशानों से मालूम होता है कि उन्होंने इन्हें एक सिरे से दूसरे सिरे तक पढ़ा था। उनका विचार था कि ये पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के विषय में सबसे महत्वपूर्ण और उपयोगी कागजों में से थे। जिन आदमियों ने इन्हें तैयार किया था उनके बारे में मार्क्स की बहुत अच्छी राय थी। मार्क्स कहते थे कि अन्य देशों में ऐसे आदमी शायद ही मिल सकेंगे जो, ''इतने योग्य, इतने पक्षपात रहित और बड़े आदमियों के डर से इतने मुक्त हों, जितने कारखानों के अंग्रेज इन्सपेक्टर होते हैं''। ''कैपीटल'' के पहले भाग की भूमिका में यह असाधारण प्रशंसा लिखी मिलेगी।
मार्क्स ने इन सरकारी पुस्तिकाओं में से अनेक तथ्य निकाले। ये पुस्तिकाएँ हाउस ऑफ कामन्स और हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्यों को बाँटी जाती थीं। वे लोग इनको निशाना बना कर इस बात से अपने हथियारों की शक्ति का अनुमान किया करते थे कि गोली ने कितने पन्नों को पार किया। कुछ लोग तोल के हिसाब से इन्हें रद्दी कागजों में बेच देते थे। यह उपयोग सबसे अच्छा था क्योंकि इसके कारण मार्क्स को अपने लिये लौंग एकर के एक रद्दी बेचने वाले कबाड़ी से ये पुस्तिकाएँ सस्ते दामों में मिल गयीं। प्रोफेसर बीजले का कहना है कि मार्क्स ही एक ऐसा आदमी था जो इन सरकारी छानबीनों की ज्यादा कदर करता था और उसी ने दुनिया में इनकी जानकारी फैलायी। परन्तु बीजले को यह नहीं मालूम था कि सन 1845 में एगेल्स ने इन अंग्रेजी सरकारी पुस्तकाओं में से अपने लेख ''सन 1844 में इंग्लैण्ड में मजूदर-वर्ग की दशा'' के लिये बहुत से अंश लिये थे।
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जो मार्क्स के मानव हृदय को जानता चाहते है, उस हृदय को जो विद्वत्ता के बाहरी आचरण के भीतर भी इतना स्निग्ध था, उन्हें मार्क्स को उस समय देखना चाहिये जब उनकी पुस्तकें और लेख अलग रख दिये जाते थे, जब वह अपने परिवार के साथ होते थे और जब वह रविवार की शाम को अपनी मित्र मंडली में रहते थे। ऐसे समय में वह बड़े अच्छे साथी साबित होते थे। हँसी मजाक तो जैसे उमड़ा पड़ता था। उनकी हँसी दिखावटी नहीं होती थी। कोई मौके का जवाब या चुटीला वाक्य सुनकर घनी भौहों वाली उनकी काली आँखें खुशी से चमकने लगती थीं।
वह बड़े स्नेहपूर्ण, दयालु और उदार पिता थे। वह बहुधा कहते थे कि ''माँ-बाप को अपने बच्चों से शिक्षा लेनी चाहिये''। उनकी लड़कियाँ उनसे बड़ा स्नेह करती थी और उनके आपस के संबंध में पैतृक शासन लेशमात्र भी नहीं था। वह उन्हें कभी कुछ करने की आज्ञा नहीं देते थे। केवल उनसे अपने लिये कोई काम करने का अनुरोध करते या जो उन्हें नापसन्द होता वह न करने की उनसे प्रार्थना करते। परन्तु फिर भी शायद ही कभी किसी पिता की सलाह उनसे अधिक मानी गयी होगी। उनकी लड़कियाँ उन्हें अपना मित्र समझती थीं और उनके साथ अपने साथी के समान बर्ताव करती थी। वह उन्हें पिताजी नहीं बल्कि 'मूर' कहती थीं। उनके साँवले रंग, काले बाल और काली दाढ़ी के कारण उन्हें यह उपनाम दिया गया था। परन्तु इसके विपरीत सन 1848 तक में, जब वह तीस बरस के भी नहीं थे, कम्युनिस्ट लीग के अपने साथी सदस्यों के लिये वह 'बाबा मार्क्स' थे।
अपने बच्चों के साथ खोलते हुए वह घंटों बिता देते थे। बच्चों को अभी तक वह समुद्री लड़ाइयाँ और कागजी नावों के उस पूरे बेड़े का जलाना याद है जिसे मार्क्स बच्चों के लिए बनाते थे और पानी की बाल्टी में छोड़कर उसमें आग लगा देते थे। इतवार को लड़कियाँ उन्हें काम नहीं करने देती थीं। उस रोज वह दिन भर के लिये बच्चों के हो जाते थे। जब मौसम अच्छा होता था तो पूरा कुटुम्ब देहात की ओर घूमने जाता था। रास्ते के किसी होटल में रुककर पनीर, रोटी और जिंजर बीअर का साधारण भोजन होता। जब बच्चे बहुत छोटे थे तो वह रास्ते भर उन्हें कहानियाँ सुनाते रहते जिससे वे थकें नहीं। वह उन्हें कभी न खत्म होने वाली कल्पनापूर्ण परियों की कहानियाँ सुनाते थे, जिन्हें वह चलते-चलते गढ़ते जाते थे। और रास्ते की लम्बाई के अनुसार उन्हें घटाते-बढ़ाते रहते थे ताकि सुनने वाले अपनी थकान भूल जायें। मार्क्स की कल्पना शक्ति बड़ी समृद्ध और काव्यपूर्ण थी और अपने प्रथम साहित्यिक प्रयास में उन्होंने कविताएँ लिखी थीं। उनकी स्त्री इन युवावस्था की कविताओं का बड़ा आदर करती थीं परन्तु किसी को देखने नहीं देती थीं। मार्क्स के माँ-बाप अपने लड़के को साहित्यिक या विश्वविद्यालय का अध्यापक बनाना चाहते थे। उनके विचार से अपने को साम्यवादी आन्दोलन में लगाकर और अर्थशास्त्र के अध्ययन में लगकर (इस विषय का उस समय जर्मनी में बहुत कम आदर किया जाता था) मार्क्स अपने को नीचा कर रहे थे।
मार्क्स ने एक बार अपनी लड़कियों से ग्राची के बारे में नाटक लिखने का वादा किया था। दुर्भाग्यवश यह इरादा कभी पूरा नहीं हुआ। यह देखना बड़ा मनोरंजक होता कि 'वर्ग-संघर्ष का योद्धा' (मार्क्स को यही कहा जाता था) प्राचीन संसार के वर्ग-संघर्षों की इस भयानक और उज्ज्वल घटना को कैसे दिखाता। यह अनेक योजनाओं में से केवल एक थी जो कभी पूरी नहीं हो सकी। उदाहरणार्थ वह तर्कशास्त्र पर एक पुस्तक लिखना चाहते थे और एक दर्शनशास्त्र के इतिहास पर। दर्शन युवाकाल में उनके अध्ययन का प्रिय विषय था। अपनी योजना की हुई सब किताबों को लिखने का अवसर पाने और संसार को अपने दिमाग में भरे हुए खजाने का एक अंश दिखाने के लिये उन्हें कम से कम सौ बरस तक जीने की जरूरत होती।
उनके जीवन भर उनकी स्त्री उनकी सच्ची और वास्तविक साथी रही। वे एक दूसरे को बचपन से जानते थे और साथ-साथ बड़े हुए थे। जब उनकी सगाई हुई तो मार्क्स केवल सत्रह बरस के थे। सन 1843 में उनकी शादी हुई। किन्तु उसके पहले उन्हें नौ बरस तक इंतजार करना पड़ा था। पर उसके बाद श्रीमती मार्क्स के देहान्त तक-जो उनके पति से कुछ ही समय पहले हुआ- वे कभी अलग नहीं हुए। यद्यपि उनका जन्म और पालन पोषण एक अमीर जर्मन घराने में हुआ था, तो भी उनकी सी समता की प्रबल भावना होना कठिन है। उनके लिये सामाजिक अंतर और विभाजन थे ही नहीं। उनके घर में खाने के लिये अपने काम के कपड़े पहने हुए एक मजदूर का उतनी ही नम्रता और आदर से स्वागत होता था जितना किसी राजकुमार या नवाब का होता। अनेक देश के मजूदरों ने उनके आतिथ्य का सुख पाया। मुझे विश्वास है कि जिनका उन्होंने इतनी सादगी और सच्ची उदारता से सत्कार किया उनमें से किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनका सत्कार करने वाले की ननसाल आरगाइल के ड्यूकों के वंश में थी और उसका भाई प्रशा के राजा का राजमंत्री रह चुका था। किंतु इन सब चीजों का श्रीमती मार्क्स के लिये कोई महत्व भी नहीं था। अपने कार्ल का अनुसरण करने के लिये उन्होंने इन सब चीजों को छोड़ दिया था और उन्होंने अपने किये पर कभी पछतावा नहीं किया, अपनी दरिद्रता के सबसे बुरे दिनों में भी नहीं।
उनका स्वभाव धैर्यवान और हंसमुख था। मित्रों को लिखे हुए उनके पत्र उनकी सरल लेखनी के अकृत्रिम उद्गारों में भरे होते थे और उनमें एक मौलिक और सजीव व्यक्तित्व की झाँकी मिलती है। जिस दिन उनका पत्र आता था उस दिन उनके मित्र खुशी मनाते थे। जोहान फिलिप बेकर ने उनमें से बहुतों को छापा है। निष्ठुर व्यंग लेखक, हाइने मार्क्स की खिल्ली उड़ाने की आदत से डरता था। परन्तु श्रीमती मार्क्स की पैनी बुद्धि की वह बड़ी तारीफ करता था। जब मार्क्स दम्पत्ति पैरिस में ठहरे तो वह बहुत बार उनके यहाँ आता। मार्क्स अपनी स्त्री की बुद्धि व आलोचना-शक्ति का इतना आदर करते थे कि (जैसा उन्होंने मुझे सन 1866 में बताया) अपने सब लेखों को वह उन्हें दिखाते थे और उनके विचारों को बहुमूल्य समझते थे। छापेखाने में जाने से पहले वही उनके लेखों की नकल कर दिया करती थीं।
श्रीमती मार्क्स के बहुत से बच्चे हुए। उनके तीन बच्चे उनकी दरिद्रता के उस जमाने में बचपन में ही मर गये जिसका उनके कुटुम्ब को सन 1848 की क्रांति के बाद सामना करना पड़ा। उस समय वे भागकर लंदन में सोहो स्क्वेअर की डीन स्ट्रीट पर दो कमरों में रहते थे। मेरी उनकी केवल तीन लड़कियों से जान-पहचान हुई। सन 1868 में जब मार्क्स से मेरा परिचय हुआ तो उनमें से सबसे छोटी, जो अब श्रीमती एवलिंग हैं, बड़ी प्यारी बच्ची थी और लड़की से ज्यादा लड़का मालूम होती थी। मार्क्स बहुधा हँसी में कहा करते थे कि इलीनोर को दुनिया को भेंट करते समय उनकी स्त्री ने उसके लिंग के बारे में गलती कर दी है। बाकी दोनों लड़कियाँ एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी बड़ी सुन्दर और आकर्षक थीं। उनमें से बड़ी, जो अब श्रीमती लौंगुए हैं, अपने बाप की तरह पक्के रंग की थी औ उसकी आँखें और बाल काले थे। छोटी, जो अब श्रीमती लाफार्ज हैं, अपनी मां के ऊपर थी। उसका रंग गोरा और गाल गुलाबी थे और सिर पर घुंघराले बालों की घनी लट थी जिसकी सुनहरी चमक से मालूम होता था कि उसमें डूबता सूरज छिपा हो।
इसके अलावा मार्क्स-परिवार में एक और महत्वपूर्ण प्राणी था जिसका नाम हेलेन डेमुथ था। वह किसान परिवार में जन्मी थी और काफी छोटी उम्र में ही, जेनी फौन वेस्टफेलन की कार्ल मार्क्स के साथ शादी होने के बहुत पहले ही, वह वेस्टफेलन परिवार में नौकर हो गयी थी। जब जेनी की शादी हुई तो हेलेन उसने मार्क्स परिवार के भाग्य का अनुसरण किया। यूरोप-भर में यात्राओं में वह मार्क्स और उनकी स्त्री के साथ गयी और उनके सब देश निकालों में उनके साथ रही। वह घर की कार्यशीलता की मूर्तिमान भावना थी और यह जानती थी कि मुश्किल से मुश्किल हालत में किस तरह काम चलाना चाहिये। उसकी किफायत, सफाई और चतुराई के ही कारण परिवार को दरिद्रता की सबसे बुरी दशा नहीं भोगनी पड़ी। वह घरेलू कामों में निपुण थी। वह रसोई बनाने वाली और नौकरानी का काम करती थी, बच्चों को कपड़े पहनाती थी, बच्चों के लिये कपड़े काटती थी और श्रीमती मार्क्स की मदद से उन्हें सीती भी थी। वह घर चलाती थी और साथ ही साथ मुख्य नौकरानी भी थी। बच्चे उसे अपनी माँ के समान प्यार करते थे। वह भी उसी तरह उन्हें प्यार करती थी और उनपर उसका माँ जैसा ही असर था। मार्क्स तथा उनकी स्त्री दोनों उसे एक प्रिय मित्र मानते थे। मार्क्स उसके साथ शतरंज खेला करते थे और बहुत बार हार जाते थे। मार्क्स-परिवार के लिये हेलेन का प्रेम आलोचनात्मक नहीं था। जो कोई मार्क्स की बुराई करता उसकी हेलेन के हाथों खैर न थी। जिसका भी कुटुम्ब से घना संबंध हो जाता था उसकी वह माँ की तरह देखभाल करने लगती थी। यह कहना चाहिये कि उसने पूरे परिवार को गोद ले लिया था। मार्क्स और उनकी स्त्री के बाद जीवित रहकर अब उसने अपना ध्यान और देखभाल एंगेल्स के ऊपर लगा दी है। उसका युवावस्था में एंगेल्स से परिचय हुआ था और उनसे भी वह उतना ही स्नेह करती थी। जितना मार्क्स के परिवार से।
इसके अलावा यह कहना चाहिये कि एंगेल्स भी मार्क्स के कुनबे का ही एक आदमी था। मार्क्स की लड़कियाँ उन्हें अपना दूसरा पिता कहती थीं। वह और मार्क्स एक प्राण दो काया के समान थे। जर्मनी में बरसों तक उनका नाम साथ-साथ लिया जाता था और इतिहास के पन्नों में उनका सदा साथ-साथ लिखा जायगा। मार्क्स और एंगेल्स ने प्राचीन काल के लेखकों द्वारा चित्रित मित्रता के आदर्श को आधुनिक युग में पूरा कर दिखाया। उनकी युवावस्था में भेंट हुई, उनका साथ ही साथ विकास हुआ, उनके विचारों और भावों में सदैव बड़ी घनिष्ठता रही, दोनों ने एक ही क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लिया और जब तक वे साथ रह सके दोनों साथ-साथ काम करते रहे। यदि परिस्थिति ने उन्हें अलग न कर दिया होता तो संभवत: वे जीवन भर साथ रहते।
सन 1848 की क्रांति के दमन के बाद एंगेल्स को मेंचेस्टर जाना पड़ा और मार्क्स को लंदन में रहना पड़ा। फिर भी चिट्ठी-पत्री द्वारा अपने बौद्धिक जीवन की घनिष्ठता उन्होंने बनाये रखी। लगभग हर रोज वे एक दूसरे को राजनीतिक और वैज्ञानिक घटनाओं, और जिस काम में वे लगे थे उसके बारे में लिखते रहते थे। जैसे ही एंगेल्स को मेंचेस्टर से अपने काम से फुरसत मिली उन्होंने लंदन में अपने प्रिय मार्क्स से केवल दस मिनिट के रास्ते की दूरी पर अपना घर बनाया। सन 1870 से सन 1883 में मार्क्स की मृत्यु तक मुश्किल से कोई दिन ऐसा बीतता होगा जब वे दोनों घरों में से एक घर में आपस में न मिलते हों।
जब कभी एंगेल्स मेंचेस्टर से आने का इरादा प्रकट करते थे, तो मार्क्स के परिवार में बड़ी खुशी मनायी जाती थी। बहुत दिन पहले ही उनके आने के बारे में बातचीत होने लगती थी। और आने के दिन तो मार्क्स इतने अधीर हो जाते थे कि वह काम नहीं कर सकते थे। अंत में भेंट का समय आता था और दोनों मित्र सिगरेट और शराब पीते और पिछली भेंट के बाद जो कुछ हुआ उसकी बातें करते हुए सारी रात बिता देते थे।
एंगेल्स की राय को मार्क्स और सब की सम्मति से ज्यादा मानते थे। एंगेल्स को वह अपने सहयोगी होने के योग्य समझते थे। सच तो यह है कि एंगेल्स उनके लिये पूरी पाठक-मंडली के बराबर थे। एंगेल्स को समझाने के लिये या किसी विषय पर उनकी राय बदलने के लिये मार्क्स किसी भी परिश्रम को अधिक नहीं समझते थे। उदाहरणार्थ, मुझे मालूम है कि एल्बिजेन्सिज की राजनीतिक और धार्मिक लड़ाई के बारे में किसी साधारण बात पर (मुझे अब याद नहीं आता कि वह क्या बात थी) एंगेल्स का विचार बदलने के उद्देश्य से तथ्य ढूंढ़ने के लिये उन्होंने कई बार पूरी पुस्तकें पढ़ीं। एंगेल्स का मत परिवर्तन कर लेना उनके लिये एक बड़ी विजय होती थी।
मार्क्स को एंगेल्स पर गर्व था। उन्होंने बड़ी खुशी के साथ मुझे अपने मित्र के नैतिक व बौद्धिक गुण गिनाये और, केवल उनसे मेरी भेंट कराने के लिये, उन्होंने मेंचेस्टर तक यात्रा की। वह एंगेल्स के ज्ञान की बहुमुखता की बड़ी तारीफ करते थे और उन्हें इसकी चिंता रहती थी कि कहीं उनके साथ कोई दुर्घटना न हो जाय। मुझसे मार्क्स ने कहा कि मुझे हमेशा डर लगा रहता है कि खेतों में से पागलों की तरह तेज घोड़ा दौड़ाने में वह कहीं गिर न जाये।
मार्क्स जैसे स्नेही पति व पिता थे वैसे ही अच्छे मित्र भी थे। उनकी स्त्री, उनकी लड़कियाँ, हेलेन डेमुथ और फ्रेडरिक एंगेल्स उन जैसे आदमी के स्नेह के योग्य थे।
3
मार्क्स ने अपना जीवन उग्र पूंजीवादी दल के नेता के रूप में शुरू किया था परन्तु जब उनके विचार बहुत साफ हो गये तो उन्होंने देखा कि उनके पुराने साथियों ने उनको छोड़ दिया और उनके समाजवादी होते ही उनके साथ दुश्मन जैसा बर्ताव करने लगे। उनके विरुद्ध बड़ा शोर मचाया गया, उनकी बुराई की गयी और उनपर अनेक आक्षेप किये गये, और फिर उन्हें जर्मनी से निकाल दिया गया। इसके बाद उनके और उनकी रचनाओं के विरुद्ध मौन रहने का षडयंत्र रचा गया। उनकी पुस्तक ''लुई नैपोलियन की 18वीं ब्रमेअर'' का पूरा बहिष्कार कर दिया गया। उस पुस्तक ने यह सिद्ध कर दिया कि सन 1848 के सब इतिहासकारों और लेखकों में एक मार्क्स ही थे जिन्होंने दूसरी दिसम्बर सन 1851 की राजनीतिक क्रांति के कारणों और परिणामों की असलियत को समझा और उसका वर्णन किया था। उसकी सच्चाई के बावजूद एक भी पूंजीवादी पत्रिका ने इस रचना का उल्लेख तक नहीं किया। ''दर्शनशास्त्र की दरिद्रता'' (जो प्रूधों की पुस्तक ''दरिद्रता का दर्शनशास्त्र'' का उत्तर थी) और ''अर्थशास्त्र की आलोचना'' का भी बहिष्कार किया गया। विश्व मजदूर संघ की (पहले इंटरनेशनल की) स्थापना और ''कैपीटल'' के पहले भाग के छपने से पंद्रह बरस से चलने वाले इस षड्यंत्र को तोड़ दिया था। मार्क्स की अब अवहेलना नहीं की जा सकती थी। विश्व संघ बढ़ा और अपने कामों की बड़ाई से उसने दुनिया को भर दिया। यद्यपि अपने को पीछे रखकर मार्क्स ने दूसरों को प्रमुख कार्यकर्त्ता होने दिया पर संचालक का पता जल्दी ही लग गया। जर्मनी में सामाजिक जनवादी दल की स्थापना हुई और वह जल्दी ही इतना बलवान हो गया कि उस पर हमला करने के पहले बिस्मार्क ने उसकी खुशामद की। लास्साल के एक चेले श्वीट्जर ने एक लेखमाला लिखी, (जिसे मार्क्स ने भी उल्लेखनीय समझा) जिसने मजदूर वर्ग के नेताओं को 'कैपीटल' का ज्ञान कराया। इंटरनेशनल कांग्रेस ने जोहान फिलिप बेकर का प्रस्ताव पास किया कि इस किताब को अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्टों को मजदूर वर्ग का धर्म- ग्रंथ समझना चाहिये।
18 मार्च सन 1871 के विद्रोह के बाद जिसने विश्व संघ के आदेशानुसार चलने की कोशिश की थी और कम्यून की पराजय के बाद, (जिसको विश्व संघ की सार्वजनिक सभा ने सब देशों के पूँजीवादी अखबारों के आक्षेपों से बचाया) मार्क्स का नाम दुनिया भर में विख्यात हो गया। अब सारे संसार में उनको वैज्ञानिक समाजवाद का अज्ञेय सिद्धांतेवत्ता और प्रथम अंतरराष्ट्रीय मजूदर आंदोलन का नेता मान लिया गया। हर देश में ''कैपीटल'' समाजवादियों की मुख्य पुस्तक हो गयी। सब समाजवादी और मजदूर पत्रिकाओं ने उनके सिद्धांतों को फैलाया और न्यूयार्क की एक बड़ी हड़ताल में मजूदरों को दृढ़ रहने की प्रेरणा देने के लिये और उनको अपनी माँगों की न्यायपूर्णता दिखाने के लिये मार्क्स के लेखों के उद्धरण इश्तिहारों के रूप में छापे गये। ''कैपीटल'' का जर्मन से और प्रमुख यूरोपीय भाषाओं (रूसी, फ्रेंच व अंग्रेजी में) अनुवाद किया गया। किताब के उद्धरण जर्मन, इटालियन, फ्रेंच, स्पैनिश और डच भाषा में छपे। जब कभी भी यूरोप या अमरीका में विरोधियों ने मार्क्स के सिद्धांतों का खंडन करने की कोशिश की है, तो समाजवादी अर्थशास्त्री उसका उपयुक्त उत्तर दे सके हैं। आज तो वास्तव में जैसा विश्व संघ के उपरोक्त अधिवेशन ने कहा था, ''कैपीटल'' सर्वहारा वर्ग का धर्म-ग्रंथ हो गया है।
परन्तु अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लेने से मार्क्स को अपने वैज्ञानिक अध्ययन के लिये बहुत कम समय बचता था। और उनकी स्त्री तथा बड़ी लड़की, श्रीमती लौंगुएँ, की मृत्यु ने इस काम में और भी घातक विघ्न डाला।
मार्क्स तथा उनकी स्त्री का संबंध अत्यंत घनिष्ठ और परस्पर निर्भरता का था। उसकी सुंदरता पर मार्क्स को खुशी और अभिमान था और उसकी भक्ति ने उनके लिये उस गरीबी को सहना आसान कर दिया था जो उनके क्रांतिकारी समाजवादी के तरह-तरह के जीवन का आवश्यक अंग थी। जिस बीमारी ने श्रीमती मार्क्स को कब्र तक पहुंचाया उसने उनके पति के जीवन को भी कम कर दिया। उनकी लंबी और दुखदायी बीमारी में मार्क्स थक गये-दुख से मानसिक रूप में, और न सोने से और हवा और कसरत की कमी से शारीरिक रूप में। इन्हीं कारणों से उनके फेफड़ों में आसानी से वह सूजन हो गयी जो कि उनकी भी मृत्यु का कारण हुई।
श्रीमती मार्क्स का दूसरी दिसम्बर सन 1881 को देहांत हुआ। मरते दम तक वह कम्युनिस्ट और भौतिकतावादी रहीं। उन्हें मृत्यु से कोई डर नहीं लगता था। जब उन्हें अंत समय निकट जान पड़ा तो उन्होंने कहा, ''कार्ल, मेरी ताकत खत्म हो गयी''। यही उनके अंतिम शब्द थे जो सुने जा सके। पाँचवी दिसम्बर को हाईगेट के कब्रिस्तान की अधार्मिक भूमि में उनको दफनाया गया। जीवन भर के उनके विचारों और उनके पति की सम्मति के अनुसार जनाजे को सार्वजनिक नहीं बनाया गया और शव के अंतिम निवास-स्थान तक केवल थोड़े से घनिष्ठ मित्र साथ गये। कब्र के पास फ्रेडरिक एंगेल्स ने कहा :
''मित्रो! जिस ऊँचे विचार वाली स्त्री को हम यहाँ दफना रहे हैं वह सन 1814 में साब्जवीडल में पैदा हुई थी। कुछ ही दिन बाद इनके पिता बैरन फौन वेस्टफेलन राज्य के मंत्री नियुक्त हुए और उनकी ट्रेव्स को बदली हो गयी और वहाँ वे मार्क्स के परिवार के गाढ़े दोस्त हो गये। बच्चे साथ-साथ बड़े हुए। दोनों प्रतिभाशाली स्वभावों ने एक दूसरे को पाया। जब मार्क्स विश्वविद्यालय में गये तब इन दोनों ने अपने जीवन को एक सूत्र में बांधने का निश्चय कर लिया था।
''पहले राइनिश जाइटुंग के दमन के बाद, जिसके कुछ समय तक मार्क्स सम्पादक थे, सन 1843 में उनका विवाह हो गया। तब से जेनी मार्क्स ने अपने पति के भाग्य, परिश्रम और संघर्ष में हिस्सा ही नहीं लिया बल्कि अच्छी तरह समझकर और बड़े जोश से उनमें हाथ बँटाया।
"तरुण दम्पति पैरिस गये क्योंकि उनको देश निकाला, जो पहले उनकी अपनी इच्छा के कारण था, अब वास्तव में मिल गया। प्रशा की सरकार ने मार्क्स का वहाँ भी पीछा न छोड़ा। मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि अलैक्जेंडर फौन हमबोल्ड्ट जैसे आदमी ने भी मार्क्स के निर्वासन की आज्ञा जारी करने में सक्रिय भाग लिया। मार्क्स के कुटुम्ब को ब्रूसेल्स भागना पड़ा। इसके बाद फरवरी की क्रान्ति हुई। उसके बाद जो गड़बड़ फैली उससे ब्रूसेल्स भी अछूता न बचा और बेल्जियम की सरकार सिर्फ मार्क्स को कैद करने से संतुष्ट नहीं हुई बल्कि उसने उनकी पत्नी को भी बिना कारण जेल में डालना उचित समझा।
''जो क्रान्तिकारी प्रगति सन 1848 के आरम्भ में शुरू हुई थी वह अगले साल ही खत्म हो गयी। निर्वासन फिर शुरू हुआ-पहले तो पैरिस में और फिर फ्रांस की सरकारी दुबारा कोशिश से लन्दन में। इस बार तो जेनी मार्क्स के लिए यह सचमुच का निर्वासन था और उन्हें निर्वासन के सब दु:ख झेलने पड़े। फिर भी उन्होंने भौतिक कठिनाइयों को शांति से सहा यद्यपि इसके कारण उनको अपने दो लड़कों व एक लड़की की मौत के मुँह में जाते हुए देखना पड़ा। उनको इससे घोर दु:ख इस बात का हुआ कि सरकार और पूँजीवादी विरोधी दल, झूठे उदारपंथियों से लेकर जनवादियों तक, सब उनके पति के विरुद्ध एक बड़े भारी षड्यंत्र में मिल गये थे। उन लोगों ने मार्क्स पर अत्यन्त घृणित और नीच दोष लगाये थे। सब अखबारों ने उनका बहिष्कार कर दिया जिससे कुछ समय तक वह ऐसे दुश्मन के सामने निहत्थे खड़े रहे जिसे वह और उनकी स्त्री केवल घृणित ही मान सकते थे। और यह दशा बहुत समय तक रही।
''परन्तु इस परिस्थिति का भी अंत हुआ। यूरोप के सर्वहारा वर्ग को थोड़ी बहुत स्वतंत्रता मिली और इंटरनेशनल (विश्व संघ) की स्थापना की गयी। मजदूरों का वर्ग-संघर्ष एक देश से दूसरे देश में फैला और कार्ल मार्क्स, अगुओं के भी अगुआ होकर लड़े। मार्क्स पर किये गये आरोपों को श्रीमती मार्क्स ने हवा के सामने भूसे की तरह उड़ते देखा। सामन्तवादियों से लेकर जनवादियों तक, सब विभिन्न प्रतिगामियों ने जिस सिद्धांत का दमन करने के लिये इतनी मेहनत की थी, उनको उन्होंने सारे सभ्य संसार की भाषाओं में खुले आम प्रतिपादित होते देखा। मजूदर-आंदोलन उनके प्राणों का प्राण था, उसे उन्होंने रूस से अमरीका तक पुरानी दुनिया की नींव को हिलाते हुए देखा और प्रबल विरोध के होते हुए भी विजय के अधिकाधिक विश्वास के साथ आगे बढ़ते देखा। राइशटाग के (जर्मन पार्लियामेण्ट के) पिछले चुनाव में जर्मन मजदूरों ने अपनी अपार शक्ति का जो प्रबल प्रमाण दिया उसे देखकर उन्होंने अपार संतोष का अनुभव किया।
''जिस स्त्री की बुद्धि इतनी तीक्ष्ण और आलोचनात्मक थी, जिसे इतनी राजनीतिक समझ थी, जिसमें इतना उत्साह और शक्ति थी, मजदूर आंदोलन के अपने साथी योद्धाओं के लिये जिसके मन में इतना स्नेह था, ऐसी स्त्री ने पिछले चालीस बरसों में क्या-क्या किया, यह जनता को मालूम नहीं है। यह सम-सामयिक अखबारों के पन्नों में अंकित नहीं है। यह सिर्फ उन्हें मालूम है जिन्होंने इस सबका अनुभव किया है। परन्तु इसका मुझे भरोसा है कि कम्यून के दमन के बाद भागे हुए आदमियों की स्त्रियाँ बहुत बार उन्हें याद करेंगी और हम में से बहुत से उनकी चतुर और साहसपूर्ण सलाह की कमी को दुख से याद करेंगे, जो साहसपूर्ण होती थी परन्तु गर्वपूर्ण नहीं, चतुर होती थी परन्तु असम्मानजनक नहीं।
''मुझे उनके निजी गुणों के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। उनके मित्र उन्हें जानते हैं और उन्हें सदा याद रखेंगे। यदि कभी कोई ऐसी स्त्री थी जिसे दूसरों को सुखी बनाने में ही चरम सुख मिलता था तो वह श्रीमती मार्क्स थी।''
अपनी स्त्री की मौत के बाद मार्क्स का जीवन शारीरिक और नैतिक दुख से भारी हो उठा किन्तु वह उसे धैर्य से सहते रहे। पर जब साल भर बाद उनकी बड़ी लड़की श्रीमती लौंगुए भी चल बसीं तो यह दुख बहुत बढ़ गया। उनका दिल टूट गया और वे इस शोक को न भूल सके। चौदह मार्च सन 1883 को 67वें वर्ष में वह अपने काम करने की मेज के सामने बैठे हुए सदा के लिये सो गये।
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मार्क्स की स्मृतियाँ
लेखक - विलहेम लीबनेख्ट
1. मार्क्स से पहली भेंट
मार्क्स की दोनों बड़ी लड़कियों के साथ जिनमें एक छ: और एक सात बरस की थी मेरी दोस्ती सन 1850 की गर्मियों में स्विजरलैण्ड से लंदन आने के बाद शुरू हुई। सच पूछिये तो मैं ''स्वतंत्र स्विजरलैण्ड'' के एक कारागार में से आया था क्योंकि मुझे निर्वासन का 'पार्सपोर्ट' देकर फ्रांस के रास्त्ो बाहर भेज दिया गया था। मैं मार्क्स के परिवार से कम्युनिस्ट मजूदरों के शिक्षात्मक संघ की एक गर्मियों की यात्रा में लंदन के पास कहीं मिला था, मुझे याद नहीं ग्रीनिच में या हैम्पटन कोर्ट में। 'बाबा मार्क्स' ने, जिन्हें मैंने पहली बार देखा था, तुरंत मेरा पूरा निरीक्षण किया, मुझे घूर कर देखा और ध्यान से मेरे सिर की जाँच की। इस बात की तो मुझे पहले से ही गस्टाव स्टूव के कारण आदत थी। वह मेरी नैतिक दृढ़ता के बारे में बहुत दिनों तक शक करते रहे इसलिये मेरे ऊपर विशेष रूप से वह दिमाग की बनावट के विज्ञान के सिद्धांतों का उपयोग किया करते थे। खैर, परीक्षा सफलता से समाप्त हुई। मैंने काली भुजंग गरदन के शेर जैसे सिर वाले मार्क्स की दृष्टि को सह लिया। अब परीक्षा का स्थान सजीव और हँसी की बातचीत ने ले लिया। थोड़ी देर में हम लोग मनोरंजन में लग गये। मार्क्स सबसे ज्यादा खुश थे। तभी श्रीमती मार्क्स, युवावस्था से परिवार की वफादार नौकरानी लेन्चन और बच्चों से मेरा परिचय हुआ।
उस दिन से मैं मार्क्स के घर में घुलमिल गया। मैं उस परिवार से मिलने का दिन कभी नहीं भूलता था। मार्क्स उस समय आक्सफोर्ड स्ट्रीट के पास की एक सड़क, डीन स्ट्रीट पर रहते थे और मैंने भी पास ही चर्च स्ट्रीट पर घर ले रखा था।
2. पहली बातचीत
कम्युनिस्ट मजदूरों के शिक्षात्मक संघ की उपरोक्त यात्रा में भेंट के अगले दिन मार्क्स के साथ मेरी पहली लम्बी बातचीत हुई। उस दिन तो खुलासा बातचीत का मौका न मिलना स्वाभाविक था और मार्क्स ने मुझसे संघ की बैठक की जगह पर अगले दिन आने को कहा जब कि शायद एंगेल्स भी वहाँ होंगे। मैं निश्चित समय से कुछ पहले पहुँच गया। तब तक मार्क्स वहाँ नहीं थे। परन्तु मुझे कई पुराने जान पहिचान वाले मिल गये और मैं उनके साथ खूब मजे से बातचीत कर रहा था जब मार्क्स ने मेरे कन्धे पर हाथ रखा। उन्होंने बड़ी मित्रता के भाव से अभिवादन किया और कहा कि एंगेल्स अपने निजी कमरे में हैं और वहाँ ज्यादा एकान्त रहेगा। मुझे मालूम नहीं था कि निजी कमरा क्या होता है और मुझे खयाल आया कि अब मेरा इम्तिहान होने वाला है। फिर भी मैं उनपर भरोसा करके पीछे-पीछे चला। पहले दिन की तरह आज भी मुझ पर मार्क्स का अनुकूल प्रभाव पड़ा था। उनमें कुछ ऐसा गुण था जो लोगों को दिल खोलकर बात करने के लिये प्रेरित करता था। उन्होंने मेरी बाँह पकड़ी और मुझे निजी कमरे में ले गये यानी मकान मालिक या शायद मकान मालकिन का वह कमरा जहाँ एंगेल्स ने तुरन्त हंसी मजाक से मेरा स्वागत किया। उन्होंने अपने लिये गहरी बादामी रंग की शराब का गिलास मँगा रखा था। जरा सी देर में वहाँ की फुर्तीली नौकरानी एमी को हमने खाने-पीने का सामान लाने का आदेश दिया। हम भगोड़ों में पेट का सवाल बड़ा महत्वपूर्ण होता था। जल्दी ही बीअर (शराब) आ गयी और हम बैठ गये। मैं मेज के एक तरफ और मार्क्स तथा एंगेल्स मेरे सामने। काले पत्थर की विशाल मेज, धातु के चमकते हुए गिलास, झागदार शराब, असली अंग्रेजी खाने का आगमन, मिट्टी के लम्बे-लम्बे पाइप जिन्हें देखकर पीने को जी करता था-यह सब मिलाकर इतना आरामदेह था कि मुझे बौज की अंग्रेजी तसवीरों में से एक की प्रबल याद आयी। परंतु इस सबके होते हुए भी वह इम्तिहान था। पर मैंने सोचा कि आखिर उससे डरने की क्या बात है। बातचीत का जोर बढ़ने लगा। साल भर पहले जेनीबा में एंगेल्स से मिलने के पहले मेरा उन दोनों से कोई घनिष्ठ परिचय नहीं था। मैं मार्क्स के सिर्फ पैरिस के 'यार बुशर' अखबार के लेखों और ''अर्थशास्त्र की दरिद्रता'' को और एंगेल्स के केवल ''इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग की दशा'' को जानता था। कम्युनिस्ट घोषणापत्र के बारे में मैंने सुना था और जानता था कि उसमें क्या लिखा है। तब भी सन 1846 से कम्युनिस्ट होने पर भी, ''कम्युनिस्ट घोषणा पत्र'' की पहली प्रति मैंने विधान-विरोधी आंदोलन के बाद एंगेल्स के साथ भेंट होने से कुछ पहले ही देखी थी। नया ''राइनिश जाइटुंग'' तो मुझे बहुत कम देखने को मिलता था क्योंकि उसके ग्यारह महीने के जीवन के समय में मैं विदेश में या जेल में या स्वयंसेवकों के अनिश्चित जीवन के तूफान में फँसा हुआ था।
मेरे दोनों परीक्षकों को यह संदेह था कि मुझमें निम्न-पूंजीवादी जनवाद की भावना और दक्खिनी जर्मनी की भावुकता है। मनुष्यों और वस्तुओं के बारे में मेरे अनेक विचारों की कड़ी अलोचना की गयी। सब कुछ देखते हुए परीक्षा का फल बुरा नहीं रहा और बातचीत का क्षेत्र विस्तृत हो गया। थोड़ी ही देर में हम लोग प्राकृतिक विज्ञान के विषय पर आ गये और मार्क्स ने विजयी प्रतिक्रियावादियों की हँसी उड़ायी जो यह समझते थे कि हमने क्रांति का गला घोंट दिया और उन्हें यह संदेह भी नहीं था कि प्राकृतिक विज्ञान एक नयी क्रांति की तैयारी कर रहा है। पिछली सदी में दुनिया में क्रांति मचाने वाले राजा भाफ (भाप) का राज्य खतम होने वाला था और उससे कहीं ज्यादा महान क्रांतिकारी चीज उसकी जगह लेने वाली थी और वह थी बिजली की चिनगारी। फिर उत्साह और जोश से भरे हुए मार्क्स ने मुझे बतलाया कि पिछले कई दिन से रीजेन्ट स्ट्रीट में एक बिजली की मशीन दिखायी जा रही है जो रेलगाड़ी को खींचती है। ''अब समस्या हल हो गयी है। इसके परिणामों को बताना असंभव है। आर्थिक क्रांति के बाद राजनीतिक क्रांति होगी क्योंकि दूसरी क्रांति तो पहली की ही अभिव्यक्ति मात्र है।'' जिस ढंग से मार्क्स ने विज्ञान ओर यन्त्र विद्या की इस प्रगति के बारे में, अपने दुनिया के प्रति दृष्टिकोण के, और विशेष रूप से जिसे इतिहास का भौतिकवादी दृष्टिकोण कहते हैं, उसके बारे में बातचीत की वह इतना स्पष्ट था कि अभी तक जो मेरी शंकाएँ थीं वे बसन्त की बातचीत की धूप में बर्फ की तरह पिघल गयीं। उस शाम को मैं घर लौटा ही नहीं। अगले दिन सुबह तक हम लोग बातचीत, हँसी-मजाक और शराब पीने में लग रहे और जब मैं सोया तो सूरज खूब चढ़ चुका था। परंतु बड़ी देर तक मैं सो नहीं सका। मैंने जो सुना था उस सबसे मेरा दिमाग बहुत ज्यादा भरा था। अंत में इधर-उधर भटकते हुए अपने विचारों के कारण मैं फिर बाहर निकला और जल्दी से इस मशीन को देखने रीजेन्ट स्ट्रीट गया। यह मशीन आधुनिक युग के ''ट्रोजन घोड़े'' के समान थी जिसे पूंजीवादी समाज ने ट्रायवासियों की तरह घातक मोह से खुशी अपने महल में घुसा लिया था और जो उसी तरह निश्चय उनका सर्वनाश करेगी। वह दिन आवेगा जब पवित्र इलियन (यानी पूंजीवाद) नष्ट हो जावेगा।
बाहर की घनी भांड से मालूम हो रहा था कि मशीन किस खिड़की में रखी हुई है। मैं भीड़ में घुस कर आगे जा निकला और सचमुच मेरे सामने इंजिन और गाड़ी दोनों मजे से चल रहे थे।
उस समय जुलाई सन 1850 का प्रारम्भ था।
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