बुधवार, 4 जुलाई 2018

आलोचना की संस्कृति और मैनेजर पाण्डेय की आलोचना पंकज पराशर

आलोचना की संस्कृति और मैनेजर पांडेय की आलोचना 
पंकज पराशर 

वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में सच्ची और खरी-खरी कहने वाली आलोचना के लिए जिस तरह लगातार जगह कम होती जा रही है और असहमतों को बर्दाश्त करने की सहिष्णुता घटती जा रही है, उसी तरह साहित्यिक समाज में भी बिना किसी लाभ-लोभ के सच कहने वाली आलोचना की जगह लगातार घटती चली जा रही है। जिस साहित्यिक समाज में सच्ची और खरी आलोचना के लिए स्थान कम होता चला जाए और लेखकप्रियता के दवाब में आलोचना का स्थानापन्न प्रशंसा/ठकुरसुहाती बन जाए, उस समाज में लोकतंत्र और आलोचना दोनों की संस्कृति खतरे में आ जाती है। संयोग से आजादी के बाद भी जिस तंत्र को 'लोक' का तंत्र कहा जाता है, उसमें शुरुआत से ही लोक को किनारे करते जाने और तंत्र का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति रही है। इसलिए हमारी जिन संस्थाओं के नाम में किसी-न-किसी रूप में लोक शब्द जुड़ा है, उन संस्थाओं तक में लोकतंत्र का घोर अभाव है। हालाँकि हर बात का सूत्र अपनी परंपरा में ढूँढ़ लेने वाले परंपराप्रिय लालबुझक्कड़ कभी-कभी क्षणिक उदारतावश 'निंदक' को 'नियरे' राखने की बात तो करते हैं, लेकिन नियरे रहने वाला निंदक जब वास्तव में अपनी कर्मठता दिखाने लगता है तो उनकी सारी लोकतांत्रिकता हवा हो जाती है और निंदक के प्रशंसक न बन पाने की निराशा से उपजी खिन्नता आलोचना की संस्कृति से ही खिन्नता बन जाती है। सचाई चूँकि अपनी तासीर से ही कड़वी होती है, इसलिए रचनात्मक आलोचना को भी व्यक्तिगत स्तर पर ग्रहण करने और नाराजगी जाहिर करने का अशालीन तरीका बढ़ा है। ऐसे में इहलोक सुधारने की चिंता में हलकान कई आलोचक जहाँ लेखकप्रिय बनने के लिए अतिशय व्यवहारिकता का दामन थामने लगे हैं, वहीं दूसरी ओर रचनाकारों की असहिष्णुता और अमर होने की व्यग्रता ने भी आलोचना के मार्ग को अवरुद्ध किया है। इस वजह से आलोचना की विश्वसनीयता प्रश्नचिह्न के घेरे में आ जाती है और आलोचना से आशा भी अर्थहीन-सी प्रतीत होती है। वर्तमान परिदृश्य में सच्ची और खरी-खरी कहने वाली आलोचना की तासीर से परिचित और लेखकप्रियता के लाभ को त्यागने के कबीराना अंदाज से लैस आलोचना ही किसी भी परिस्थिति में अपनी विश्वसनीयता की रक्षा कर पाने में सफल होती है।

हिंदी आलोचना में कुछ आलोचक लोकप्रियता के मारे हैं, तो कुछ लेखकप्रियता के। लोकप्रियता के मारे आलोचक जहाँ एक ओर पुस्तक विमोचन समारोहों में चातक की तरह अपनी ओर टकटकी लगाए लेखकों पर कुछ चुने/घिसे हुए विशेषणों की वर्षा करके मंच लूट लेने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर लेखकप्रियता के मारे आलोचक आधारहीन/निरर्थक आशीर्वचनों से साहित्यिक परिदृश्य में लेखक की स्थापना का दयनीय दावा करते हुए पाए जाते हैं। 'टेरी इग्लटन ने लिखा है कि आजकल आलोचना या तो साहित्य-उद्योग के जनसंपर्क विभाग का हिस्सा है या शिक्षा संस्थाओं का आंतरिक मामला। उसका कोई सामाजिक लक्ष्य या कार्य नहीं है। यह हिंदी आलोचना के बारे में भी सच है। 19वीं सदी से आज तक की हिंदी आलोचना के इतिहास पर ध्यान दीजिए तो मालूम होगा कि आलोचनात्मक चेतना की क्रियाशीलता का दायरा क्रमशः संकुचित हुआ है।' (आलोचना की सामाजिकता, पृ.15) अशोक वाजपेयी स्कूल के जनसंपर्की आलोचक मदन सोनी के आलोचनात्मक चेतना की क्रियाशीलता का दायरा सिकुड़कर किस कदर अपने आका और उनके चरण-वंदकों तक सिमटकर रह गया है, इसका गर्हित नमूना है 'आलोचना' (अंक-54, पृ.114) में प्रकाशित उनका नयनसुखी लेख 'हिंदी उपन्यास की अल्पता पर कुछ ऊहापोह'। यह बात समझ से परे है कि किसी व्यक्ति की अज्ञानता और अध्ययन की सीमा किसी अन्य लेखक की सीमा कैसे हो सकती है? किसी लेखक को समग्र रूप से पढ़े बगैर उसके तमाम लेखों को चार ऊहापोही विशेषणों से खारिज करने की चेष्टा कलावादी आलोचना की अलोकतांत्रिक राजनीति और आत्म/गुटकेंद्रित संस्कृति का तरसनीय नमूना है। कहना न होगा कि कलावादी घराने के आलोचक आरंभ से ही तथ्य/तर्कपरकता का स्थानापन्न भाषिक वाग्जाल को समझते रहे हैं और और रूपवाद को साहित्य का सर्वश्रेष्ठ वाद।

मदन सोनी की तटस्थता और तथ्यनिरपेक्षता इस तथ्य से भी स्पष्ट होती है कि किसी चीज को सत्यापित करने के लिए उनके उदाहरणों का सिलसिला निर्मल वर्मा के 'चिंतन' शिला से शुरू होता है और अशोक वाजपेयी के काव्य-शिला से आकर केलि करने लगता है। जिन निर्मल वर्मा को मदन सोनी किसी भी आलोचना से परे पतित-पावन आख्यान-पुरुष मानते हैं, उन निर्मल वर्मा की कला-दृष्टि का मूल्यांकन करते हुए प्रो. पांडेय लिखते हैं, 'निर्मल वर्मा की कला की धारणा रूपवादी, मनुष्य की धारणा अस्तित्ववादी और कला की प्रासंगिकता का दृष्टिकोण रहस्यवादी, जनविरोधी तथा अनैतिहासिक है। प्रत्येक मनुष्य वास्तव में किसी कलाकृति से क्या पाता है, यह इस बात पर निर्भर है कि वह किस दृष्टिकोण और उद्देश्य से कलाकृति के पास जाता है। वर्ग विभाजित समाज और उसकी कला को ध्यान में रखकर पहले की बात के साथ यह भी जोड़ लेना चाहिए कि कोई व्यक्ति किस वर्ग के दृष्टिकोण से कला की प्रासंगिकता की तलाश करता है। निर्मल वर्मा परोपजीवी बुर्जुआ वर्ग के दृष्टिकोण से कला और उसकी प्रासंगिकता को देखते हैं।' (उपन्यास और लोकतंत्र, पृ.163) इसके बाद भी इतिहास-बोध से रहित आलोचक पाखंडपूर्ण विनम्रता के खोल में हिंदी उपन्यास की अल्पता को लेकर 'ऊहापोह' व्यक्त करने पर उतारू ही हो जाएँ, तो उनका क्या किया जा सकता है? ऊहापोही शिल्प का वरण करने के बावजूद बहुत निश्चयात्मक ढंग से मदन सोनी उवाचते हैं, 'मैनेजर पांडेय की पुस्तक उपन्यास और लोकतंत्र ऐसी ही समस्याहीन, निस्संशय, आत्मतुष्ट और आत्मस्फीत 'आलोचना' का एक ताजा उदाहरण है।' केलिवादी आलोचक के ऐसे फतवों से मैनेजर पांडेय की आलोचना पर तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन उपन्यास की आलोचना को लेकर पाठकों के मन में क्षणिक संदेह अवश्य होता है।

यह देखना रोचक है कि हिंदी उपन्यास की अल्पता के संदर्भ में उनके 'ऊहापोहों' का उत्स निर्मल वर्मा से शुरू होता है, 'भारत में अनेक उपन्यास लिखे गए हैं; हर साल लिखे जाते हैं - मनोवैज्ञानिक उपन्यास, यथार्थवादी उपन्यास, आंचलिक उपन्यास लेकिन स्वयं उपन्यास की 'समस्या' पर विचार, उसके जातीय फॉर्म का अन्वेषण हमने नहीं के बराबर किया है। इस स्तर पर उपन्यास की समस्या हमारी समूची संस्कृति के विश्लेषण से जुड़ी है।' परंपरा में सन्निहित रूढ़िप्रियता के प्रति विशेष आग्रही निर्मल वर्मा उपन्यास के जातीय फॉर्म की 'समस्या' को समूची संस्कृति के विश्लेषण से जोड़ देते हैं। बहुत महीन कातने का दावा करने वाले मदन सोनी, निर्मल वर्मा से भी आगे बढ़कर कहते हैं, 'स्वयं साहित्य पर, सत्तामीमांसात्मक किस्म के किसी भी स्तर के विमर्श का सर्वथा अभाव है।' जिस उदारता से ये दोनों विद्वान नकारात्मकता का प्रचार और उपन्यास विषयक संपूर्ण चिंतन-धारा का तिरस्कार करते हैं, काश! उसी ऊहापोही विनम्रता से वे आलोचना पढ़ने का धैर्य भी दिखाते और ठोस तथ्यों को तर्कों के साथ रखते! इस संदर्भ में मैनेजर पांडेय कहते हैं, 'निर्मल वर्मा की विचार-पद्धति की एक विशेषता यह है कि वे बार-बार कृत्रिम प्रश्न गढ़ते हैं और उनका छलमय उत्तर देते हैं।' लेकिन निर्मल वर्मा और उनके अनुयायी दावा यह करते हैं गोया उनकी तरह का चिंतन पूरी औपन्यासिक परंपरा में किसी और ने कभी किया ही नहीं। चचा गालिब ने यूँ ही नहीं कहा था, 'या रब वे न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात/ दे और दिल उनको न दे जुबाँ मुझको और।'

उपन्यास पर लिखे अपने एक लेख 'उपन्यास और लोकतंत्र' में मैनेजर पांडेय लिखते हैं, 'उपन्यास केवल यथार्थ की खोज और उसकी गति की पहचान का आख्यान ही नहीं है, वह संभावनाओं की तलाश का आख्यान भी है। उसमें वर्तमान की सीमाओं के बोध के पार जाने की आकांक्षा के कारण संभावित संसार की रचना की कोशिश भी होती है। उपन्यास के माध्यम से ऐसी निर्मित की जाती है जो पाठकों को वास्तव में संभव लगे। ऐसी दुनिया रचनेवाला उपन्यासकार ही संभावनाओं का व्याख्याकार भी कहा जा सकता है। आजकल ऐसे उपन्यास लिखे जा रहे हैं जो पूँजीवाद की बर्बरता से मुक्ति की आकांक्षा के कारण एक बेहतर दुनिया की कल्पना पाठकों के सामने रखते हैं।' (आलोचना की सामाजिकता, पृ.243) यह लेख सर्वप्रथम 'पहल' में प्रकाशित हुआ था, जिसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि प्रकाशित होने के तत्काल बाद इस आलेख का 'कादंबरि आणि लोकशाही' शीर्षक से मराठी में रंगनाथ पठारे (मराठी में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत) ने अनुवाद किया, जो नासिक से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'शब्दालय' में प्रकाशित हुआ। अभी हाल ही में मुंबई के एक मराठी प्रकाशक ने इस लेख को पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया है, जो मराठी पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ है। हमारी सीमा यह है कि उपन्यास पर प्रो. पांडेय के विपुल लेखन से केवल चंद उदारणों को यहाँ हम पेश कर पाएँगे। जिससे सुधीजनों को यह अंदाजा लगाने में आसानी होगी कि वे अपने लेखन में उपन्यास की आलोचना से किस तरह संबद्ध, आबद्ध और प्रतिबद्ध रहे हैं। उपन्यास का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो, जिस पर मैनेजर पांडेय ने विचार न किया हो; इसके बाद भी किसी नयनसुखी आलोचक को कुछ दिखाई न दे, तो इसमें उनका क्या दोष है!

उपन्यास के समाजशास्त्र पर विचार करते हुए प्रो. मैनेजर पांडेय ने लिखा है, 'आधुनिक युग की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधि कला रूप बनने के लिए उपन्यास को कठिन संघर्ष करना पड़ा है। आधुनिक युग के प्रतिबंधित और तरह-तरह के सेंसरशिप के शिकार साहित्य का अगर कोई ब्यौरा तैयार किया जाए तो उसमें सबसे अधिक संख्या उपन्यासों की ही होगी। उपन्यास के विरोध के अनेक कारण रहे हैं। आरंभ से ही उपन्यास की कला में निहित लोकतांत्रिक चेतना का विरोध सामंती चेतना की ओर से होता रहा है। सोलहवीं सदी में स्पेन के सम्राट ने कानून बनाकर दक्षिण अमेरिका में उपन्यास लिखने पर प्रतिबंध लगा दिया था, क्योंकि उसके अनुसार उपन्यास जनता के लिए खतरनाक था।' (उपन्यास और लोकतंत्र, पृ.41) सत्ता का ऐसा रवैया सिर्फ पश्चिम में रहा हो, ऐसा नहीं है; भारत भी इन उदाहरणों से मुक्त नहीं रहा है। प्रेमचंद की कृति 'सोजे-वतन', सलमान रुश्दी के उपन्यास 'द मूर्स लास्ट साइ', बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन की कृति 'द्विखंडितो' को बाकायदा प्रतिबंधित किया गया और अपनी कथित उदारता का डंका पीटने वाली भारत सरकार तस्लीमा नसरीन को 'ए रूम वंस ओन' तक दे पाने में 'दाएँ-बाएँ' करती रही है। बांग्लादेश के बाद तस्लीमा भारत को अपना दूसरा घर समझती हैं, लेकिन पहले घर की तरह दूसरे घर में भी उनकी आकांक्षाओं को जगह नसीब नहीं हो रही है।

उपन्यास में अभिव्यक्त नैतिक-अनैतिक चित्रण को लेकर भारत में भी खूब बहस-मुबाहिसे हुए हैं। नागार्जुन ने अपने मैथिली उपन्यास 'पारो' में और अज्ञेय ने 'शेख : एक जीवनी' में भाई-बहन के नाजुक संबंध को लेकर लिखा था, उन दिनों बहुत खलबली मची थी। लेकिन परंपरावादियों की बेचैनी मानवीय संवेदना के क्षरित होते चले जाने और सामाजिक बंधनों के कारण अनेक जिंदगियों के बेमतलब होते चले जाने में कम और नैतिकता के बंधनों के ढीले पड़ जाने के कारण अधिक है। 'उपन्यास की नैतिकता पर बहस हिंदी में ही नहीं हुई। सत्रहवीं और अठारहवीं सदी के अँग्रेजी उपन्यासों पर भी ऐसी बहसें मिलती हैं। उन बहसों को देखने से मालूम होता है कि जो उपन्यास जितना अधिक यथार्थवादी होता था, उसको उतना ही अधिक अनैतिक कहकर उसकी निंदा की जाती थी।' (वही, पृ.41) नागार्जुन के उपन्यास के बहाने इन नैतिक और सामाजिक प्रश्नों पर विचार करते हुए प्रो. पांडेय लिखते हैं, 'नागार्जुन अपने उपन्यास के पात्रों की पीड़ा और परेशानियों को सामाजिक संरचना की देन मानते हैं, इसलिए समाज को बदले बिना व्यक्ति की मुक्ति संभव नहीं देखते। समाजशास्त्रीय कल्पना के सहारे ही नागार्जुन अपने पात्रों की नितांत व्यक्तिगत समस्याओं की जड़ें कभी इतिहास की प्रक्रिया में खोजते हैं तो कभी सामाजिक संस्थाओं, रूढ़ियों और परंपराओं में। उनकी समाजशास्त्रीय कल्पना उनके उपन्यासों को सांस्कृतिक विमर्श भी बनाती है, इसीलिए उनके उपन्यास मिथिलांचल की संस्कृति के बारे में सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि देने में सक्षम हैं, क्योंकि उपन्यासों में कथाकार की संवेदनशीलता और समाजशास्त्री की समझदारी की सर्जनात्मक एकता है।' (वही, पृ.199)

मैनेजर पांडेय आलोचना की लोकतांत्रिक संस्कृति में विश्वास करते हैं और इसके लिए किसी भी मूल्य को चुकाने के लिए तैयार रहते हैं। इसलिए वे किसी भी संस्था या व्यक्ति के अलोकतांत्रिक और अमानवीय कृत्य की खरी-खरी आलोचना करने का नैतिक साहस कर पाते हैं। सरकार की कथित संस्कृति संबंधी चिंता पर व्यंग्य करते हुए वे लिखते हैं, 'कुछ दिनों से केंद्र और राज्य की सरकारें संस्कृति के बारे में बहुत चिंतित दिखाई देती है। संस्कृति के बारे में सरकारी चिंता की शुरुआत मध्यप्रदेश से हुई थी। उससे प्रेरणा पाकर केंद्रीय सरकार भी संस्कृति के बारे में चिंतित हो उठी।' (अनभै साँचा, पृ.191) सरकारों की इस चिंता के पीछे क्या कारण हैं, इसको देखने के बाद सरकारी चिंता के ढोंग को आसानी से समझा जा सकता है, 'जब से किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, हरिजनों और स्त्रियों ने शोषण और दमन के खिलाफ आवाज उठाना आरंभ किया है, उनके आंदोलन तेज हुए हैं, तबसे उनकी कला और संस्कृति में सरकार की दिलचस्पी बढ़ी है। जनता की कला की असहमति और विरोध की आवाज को दबाकर उसे सजावट और मनोरंजन की वस्तु बनाने की कोशिश जारी है।' (वही, पृ.195)

हिंदी आलोचना में अनेक चतुर-सुजान आलोचक अमूर्त प्रतिपक्ष को चुनते हैं और क्रांतिकारी मुद्रा में हवा में लाठियाँ भाँजते रहते हैं। जबकि मैनेजर पांडेय केंद्र और राज्य सरकारों के संस्कृति प्रेम के पाखंड को उजागर करते हुए 'संस्कृति-पुरुष' की कारकर्दगी को भी अनावृत्त करने से नहीं चूकते। हिंदी संसार के चुनिंदा सत्ताधीशों में से एक अशोक वाजपेयी से असहमति जाहिर करते हुए वे लिखते हैं, 'संस्कृति के सरकारीकरण के नए अभियान के एक नेता अशोक वाजपेयी का दावा है कि भारतीय राजनीति ने 'साहित्य और समालोचना की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने या उसे सीमित करने की कोई विशेष या गंभीर चेष्टा नहीं की है।' यही नहीं, उनको इस बात का दुख है कि 'भारतीय राजनीति ने साहित्य और समालोचना को एक तरह से छुट्टा छोड़ रखा है।' उनके पहले वाक्य का दावा जितना झूठा है, उतना ही खतरनाक है दूसरे वाक्य में छिपा हुआ इरादा। आलोचना में सुरुचि और शालीनता की माँग करने वाले अशोक वाजपेयी की भाषा उनकी आलोचना की संस्कृति की कलई खोल रही है।' (वही, पृ.138) इसी लेख में अपनी बातों को और स्पष्ट करते हुए प्रो. पांडेय कहते हैं, 'आजकल इस देश में संस्कृति के सरकारीकरण का जो अभियान चल रहा है, उसके दो पक्ष है; प्रतिरोध की संस्कृति का दमन और सहमति की संस्कृति का प्रसार। अशोक वाजपेयी प्रतिरोध की संस्कृति के दमन को झुठलाते हैं और आलोचना के जनतंत्र के नाम पर सहमति की संस्कृति का प्रचार करते हैं।' मैनेजर पांडेय आलोचना के जनतंत्र के नाम पर सहमति की संस्कृति का प्रचार नहीं करते, न वैचारिक साम्य या वैषम्य को आलोचना का प्रतिमान बनाकर किसी की आलोचना या सराहना करते हैं। कहना न होगा कि सैद्धांतिक सोच से समृद्ध आलोचक वैचारिक ईमानदारी के मामले में किसी दुविधा में नहीं जीता और शायद इसीलिए मैनेजर पांडेय अशोक वाजपेयी लिए एक और मार्क्सवादी कवि-आलोचक मुक्तिबोध के लिए दूसरे आलोचना के प्रतिमान की जरूरत महसूस नहीं करते।

मैनेजर पांडेय जिस आलोचनात्मक अनुशासन की प्रस्तावना करते हैं; उसमें धुर विरोधियों की आलोचना भी बिना पढ़े-लिखे करने का अनैतिक चलन नहीं है। आलोचकीय प्रतिमान पर रचना की विवेचना और मूल्यांकन से गुजरने के बाद ही वे किसी रचना, विचार या आंदोलन के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हैं। जिस निर्भीकता से वे अशोक वाजपेयी की आलोचना करते हैं, उसी निर्भीकता से मुक्तिबोध के बारे में भी अपनी राय व्यक्त करने से नहीं झिझकते, 'सगुण काव्य-धारा की सीमा बताने के लिए मुक्तिबोध ने यह सवाल किया है : क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति शाखा के अंतर्गत एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया? यह तथ्य है। लेकिन इससे क्या साबित होता है? तथ्य तो यह भी है कि आधुनिक काल में प्रगतिशील आंदोलन के अंतर्गत भी कोई महत्वपूर्ण और प्रभावशाली कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया। तब क्या इससे यह साबित होता है कि प्रगतिवाद के बड़े कवि उच्चजातीय वर्गों के प्रभुत्व के प्रमाण हैं?'(वही, पृ.26) भक्तिकाल के संदर्भ में वे आलोचना के तमाम बड़े पूर्व-पुरुषों से अपनी असहमति जाहिर करने से नहीं झिझकते, 'हिंदी आलोचना में सबसे पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण संतों के विरुद्ध सगुण भक्तों को खड़ा किया। उन्होंने निर्गुण संतों को लोक-विरोधी और सगुण भक्तों को लोक-संग्रही घोषित किया। बाद में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को निर्गुण संतों के सामाजिक विचार सगुणों से अधिक प्रगतिशील लगे। मार्क्सवादी आलोचना के एक छोर पर रामविलास शर्मा हैं, जिनकी दृष्टि में निर्गुण-सगुण के बीच कहीं कोई द्वंद्व नहीं है। वे भक्ति-आंदोलन और उसके काव्य में किसी विसंवादी स्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। दूसरे छोर पर मुक्तिबोध हैं, जिनके अनुसार निर्गुणमत के विरुद्ध सगुणमत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचि वालों का संघर्ष था।' (वही, पृ.25)

अपने लेखन के आरंभ से ही उनकी रुचि भक्तिकाल में लगातार बनी रही है। मध्यकाल, जिसे अंग्रेज इतिहासकार 'मुस्लिम इंडिया' कहते हैं; उसे हिंदी साहित्य में भक्तिकाल कहा जाता है। इस काल की प्रवृत्तियों और विशिष्टताओं पर उन्होंने 'भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य' नामक पुस्तक में विस्तार से विचार किया है, 'जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं उसके निर्माण में भक्ति आंदोलन की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके विभिन्न रूपों पर उस आंदोलन की अमिट छाप है। भाषा और साहित्य ही नहीं, संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्ति, स्थापत्य आदि कलाओं के साथ धर्म, दर्शन की जो सजीव और सार्थक परंपराएँ भारतीय जीवन में घुली-मिली हैं उनमें से अधिकांश भक्ति आंदोलन की देन हैं। भक्ति आंदोलन के व्यापक और स्थायी प्रभाव का एक कारण यह है कि उसमें भारतीय संस्कृति के अतीत की स्मृति है, अपने समय के समाज तथा संस्कृति की सजग चेतना है, भविष्य की गहरी चिंता भी है।' (भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, भूमिका से) भक्तिकाल के अनेक कवियों पर उन्होंने सहृदयतापूर्वक नए तथ्यों की रोशनी में विचार-विमर्श किया है, जिसका एक बेहतरीन नमूना है इसी पुस्तक के अंतिम अध्याय में सूरदास पर बहुत मौलिक ढंग से लिखा गया उनका लेख। जिसमें वे कहते हैं, 'सूर-साहित्य की व्याख्या के लिए जो सत्संगी आलोचना आगे आई, उसकी दिलचस्पी महात्मा सूरदास में अधिक थी और महाकवि सूरदास में बहुत कम। इस आलोचना में बुद्धि की जगह श्रद्धा ने ली थी। फिर 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' और 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' के आधार पर सूर के जीवन और काव्य में वल्लभ संप्रदाय की छाप की खोज होने लगी। लक्ष्य था सूर को 'पुष्टिमार्ग का जहाज' सिद्ध करना, ताकि आलोचना लोक-परलोक दोनों को सुधारने का साधन बन सके। सूर-साहित्य की व्याख्या में सत्संगी आलोचना की वही भूमिका है जो तुलसी-साहित्य के प्रसंग में कथावाचकों की परंपरा है।' प्रसंग चाहे उपन्यास पर विचार करने का हो या भक्तिकाल पर, प्रो. पांडेय हिंदी आलोचना की प्रचलित पिष्ट-पेषण की परंपरा से बचते हुए अपनी तर्कशक्ति और आलोचकीय क्षमता के सहारे मौलिक ढंग से विचार करने का प्रयास करते हैं।

डॉ. रामविलास शर्मा ने भक्तिकालीन कवि सूरदास पर जो कुछ लिखा, उसमें स्वतोव्याघात और अवसर के अनुकूल अलग-अलग तरह की राय व्यक्त की गई है, जिसे देखकर उचित ही प्रो. पांडेय ने उनके मत का विरोध किया है, 'सन् 1984 में डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा था, 'कबीर शहरी कारीगरों के, सूर पशु-पालकों के, तुलसी किसानों के जीवन से जुड़े हुए हैं।' लेकिन साल भर बाद उन्होंने लिखा, 'किसान-जीवन के चित्र कबीर और सूर के काव्य में नहीं हैं - मेरी यह बात केवल सापेक्ष रूप में सही है।' रामविलास जी के अन्य वैचारिक विचलनों को उनके विरोधियों और अनुयायियों ने लक्षित किया है, लेकिन महज साल भर के भीतर रामविलास जी राय एकदम से उलट होगी, इसका परीक्षण और विरोध करने से वे नहीं चूकते और तथ्यों की नई व्याख्या करते हुए यह स्थापना देते हैं, 'सूर के काव्य में खेती से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात का जितना आत्मीय ज्ञान है, वह किसान-जीवन से तादात्म्य के बिना संभव नहीं। उसमें खेती की भूमि के गुण-धर्म की पूरी पहचान है।' (पृ.293) सूरदास के काव्य-गुणों की पहचान करते हुए उन्होंने महात्मा सूरदास को वात्सल्य के साथ-साथ जीवन-राग का कवि सिद्ध किया और राजनीति से लेकर खेती-बारी की तमाम बारीकियों से परिचित किसान चेतना से परिपूरित कवि सिद्ध किया।

मैनेजर पांडेय अपनी आलोचना में 'संस्कृति' और 'राजनीति' का प्रयोग और उसकी व्याख्या अक्सर करते हुए चलते हैं, ताकि व्यवहारिक आलोचना के समय इन चीजों की सैद्धांतिक व्याख्या दृश्य-पटल से ओझल न हो जाए। सैद्धांतिक सोच की स्पष्टता ईमानदार और निर्भीक आलोचना के मार्ग को प्रशस्त करता है और उसे अवसरवादिता के ब्लैकहोल में जाने से रोकता है। सैद्धांतिक स्पष्टता आलोचकीय नैतिकता और साहस को तो बल प्रदान करता ही है, व्यवहारिक आलोचना के समय आनेवाले वैचारिक और सामाजिक 'ऊहापोहों' को भी अलग रख पाने में सहायक होता है। दृष्टि और अवधारणा दोनों की स्पष्टता के लिए यह आवश्यक है कि आलोचक की वैचारिक और सैद्धांतिक सोच स्पष्ट हो। लेकिन जब दौर लेखकप्रियता और लोकप्रियता के दबाव में आलोचना लिखने का चल रहा हो तो कलावादी सब कुछ को घंघोल कर दृश्य की संस्कृति को आलोचना की दृष्टि बताने का प्रयास करते हैं। 'आजकल दृश्यों की संस्कृति के अभूतपूर्व और सर्वग्रासी विस्तार के समय में शब्द की संस्कृति या कि साहित्य की स्थिति संदेह और चिंता के घेरे में है। ऐसे में आलोचना और वह भी साहित्य की शुद्ध साहित्यकता की खोज करने वाली आलोचना की सामाजिकता अगर खतरे में हो तो क्या आश्चर्य! आलोचना की घटती सामाजिकता का कारण केवल बाहरी नहीं है, केवल आज का सांस्कृतिक परिवेश नहीं है, आंतरिक भी है, जिसका संबंध आलोचना दृष्टि से है।' (आलोचना की सामाजिकता, भूमिका से) आलोचना की घटती सामाजिकता की पड़ताल करते हुए जहाँ एक ओर वे समकालीन आलोचना भाषा को प्रश्नचिह्न के घेरे में लाते हैं, वहीं दूसरी ओर वे छद्म बौद्धिकता को भी बेनकाब करने की कोशिश करते हैं। आलोचना के सामाजिक बनने की प्रक्रियाओं को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं, 'आलोचना सामाजिक बनती है अपने समाज के मानस की रचनात्मक क्रियाशीलता की समग्रता के बोध और उसकी व्याख्या के माध्यम से। समाज में अनेक प्रकार के टकराव भी होते हैं, जो समाज के मानस तथा उसकी क्रियाशीलता को प्रभावित करते हैं और उनकी अभिव्यक्ति रचनाओं में होती है। आलोचना उन टकरावों और उनकी अभिव्यक्तियों को पहचानती है और उनमें से कुछ के पक्ष में खड़ी होती है, इसलिए उसकी एक हस्तक्षेपकारी भूमिका भी होती है। अब आलोचना संगति, सामंजस्य और सहमति की सेवा करके सार्थक नहीं हो सकती।' (वही, पृ.18)

उनकी आलोचना-भाषा की एक विशेषता को लक्षित किया जाना चाहिए कि किसी समस्या, मुद्दे, प्रवृत्ति और आंदोलन की तात्कालिकता पर विचार करते समय भी वे इन चीजों के सैद्धांतिक और ऐतिहासिक पक्षों को भी अपने जेहन में रखते हैं। इसलिए निकली हुई बात वाकई बहुत दूर तलक जाती है और दूर तलक गई हुई बात जब व्यापक रूप से सामने आती है, तो अपने तर्कों से निरुत्तर कर देती है। 'कला का उत्सव और उत्सव की संस्कृति' के बहाने वे संस्कृति के सरकारीकरण और व्यवसायीकरण पर विचार करते हैं। 'शासक वर्ग लोक संस्कृति और लोक कलाओं की रक्षा की बात करता है, लेकिन उस कला की रचना करने वाली जनता की उपेक्षा करता है, उसका शोषण और दमन करता है। आजकल कुछ लोग लोक कला कला को बिकाऊ माल समझकर उसकी ओर लपक रहे हैं तो कुछ दूसरे उसे सजावट और पूजा की वस्तु बना रहे हैं। लोक कला के व्यापारी और पुजारी दोनों ही उसे इतिहास की सक्रिय शक्ति बनने से रोकते हैं। लोक जीवन से लोक कलाएँ अभिन्न रूप से जुड़ी होती हैं। इसलिए लोक कलाओं का विकास लोक जीवन के विकास पर निर्भर है। शासक वर्ग जनता को हमेशा लोक बनाए रखना चाहता है।' (अनभै साँचा, पृ.202) पिछले कुछ वर्षों से देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संस्थापनार्थ जिस तरह इतिहास और संस्कृति को युद्ध का मैदान बनाया जा रहा है, उसमें कितनी संस्कृति बचेगी और कितना लोक सुरक्षित रह पाएगा; कहना कठिन है।

मैनेजर पांडेय ने हिंदी साहित्य की लगभग सभी विधाओं और सभी काल की प्रवृत्तियों नई दृष्टि से विचार-विमर्श किया है। इसके बावजूद, वो बात जिसका जिक्र सारे फसाने में न था/वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है की मानिंद आलोचकगण जहाँ यह प्रवाद फैलाते हैं कि वे तो हमेशा सैद्धांतिक आलोचना में ही खोए रहते हैं, वहीं रचनाकारों की ओर से यह कहा जाता है कि वे कविता-कहानी जैसी विधा में वे रस नहीं लेते और सैद्धांतिक तथा अकादमिक विवेचनों के जंजाल में उलझे रहते हैं। इन चीजों पर कोई बात नहीं करते। तब यह सहज ही जिज्ञासा होती है कि क्या वाकई यही सच है? या सत्य की शक्ल में यह अफवाह है जिसकी आड़ में तथ्य/सत्य का दमन और उनकी आलोचकीय छवि के दुष्टतापूर्ण मर्दन का खल-सुख छिपा है? हिंदी में सैद्धांतिक सोच का प्रायः अभाव और व्यवहारवादी आलोचना का प्रभाव दिखाई देता है, इसलिए अनेक बार उनकी सहृदयता और रसवादिता को लेकर प्रश्न उठाए जाते हैं। इस बात का अहसास उनको भी है और इसलिए इस संदर्भ में अपनी राय व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है, 'आजकल हिंदी में अधिकांश आलोचना या तो अफवाहों के सहारे चल रही है या फिर आप्त-वचनों के सहारे। मेरे बारे में हिंदी आलोचना में यह अफवाह फैली हुई है या फैलाई भी गई है कि मैं सैद्धांतिक सोच का आलोचक, व्यवहारिक आलोचना लिखने वाला आलोचक नहीं हूँ। क्या हिंदी का हर आलोचक यह नहीं जानता कि मैंने सूरदास की कविता की आलोचना की पूरी पुस्तक लिखी है जो मेरी सर्वाधिक प्रिय पुस्तक है। उसके बाद मैंने मध्यकाल के कवि कबीर, दादू, मीराँ और रहीम तथा आधुनिक काल के कवि महेश नारायण, नाथूराम शर्मा शंकर, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, नागार्जुन, त्रिलोचन, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, धूमिल, कुमार विकल, शैलेंद्र, अदम गोंडवी और पी.सी. जोशी की कविताओं का विवेचन तथा मूल्यांकन किया है।' (भूमिका से, 'हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान')

मैनेजर पांडेय विचारों से मार्क्सवादी हैं और उनकी आलोचना दृष्टि की निर्मिति वामपंथी विचारों से हुई है, इसके बावजूद कविता के मूल्यांकन में मार्क्सवादी वैचारिक आग्रहों को वे अपनी दृष्टि की सीमा नहीं बनने देते हैं और कहना चाहिए कि इससे भी आगे बढ़कर मार्क्सवादी कवियों की कमजोर रचनाओं की आलोचना करने से बिल्कुल गुरेज नहीं करते। हालाँकि रूपवाद और कलावाद के आग्रही आलोचकगण कविता के मूल्यांकन में भी काव्य-गुण से अधिक वैचारिक आग्रहों की प्रशंसा करते हुए पाए जाते हैं, लेकिन प्रो. पांडेय वैचारिक घेरे को कभी आलोचनात्मक घेरे तब्दील नहीं होने देते हैं। रामधारी सिंह दिनकर कहीं से भी वामपंथी नहीं थे और शायद इन वजहों से भी सायास या अनायास उनकी उपेक्षा का आरोप हिंदी आलोचना पर लगता रहा है। लेकिन उनकी कविता का मूल्यांकन करते हुए मैनेजर पांडेय कहते हैं, 'दिनकर मार्क्सवादी नहीं थे लेकिन उनकी कविता में पराधीनता, विषमता, शोषण और सामाजिक अन्याय के प्रति जैसा गहरा आक्रोश है वैसा बहुत कम प्रगतिशील कवियों के यहाँ दिखाई देता है।' इस बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, 'दिल्ली में बहुत कवि रहते हैं, लेकिन दिल्ली क्या है, इस पर ध्यान देने वाले कवि बहुत कम हैं। हिंदी में अकेले दिनकर ने दिल्ली पर तीन-चार कविताएँ लिखी हैं। उन कविताओं को अलग-अलग पढ़िए तो उनमें दिनकर की चेतना की चार अवस्थाएँ दिखाई देंगी - अँग्रेजी सत्ता की केंद्र दिल्ली, स्वाधीनता आंदोलन के दौर की दिल्ली, आजादी के बाद की दिल्ली और बाद में और भी पतनशील दिल्ली-उन्होंने दिल्ली के विभिन्न रूपों पर कविताएँ लिखी हैं।' (हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान, पृ.87) मार्क्सवादी न होने के बावजूद दिनकर की काव्य-संवेदना की तारीफ और प्रगतिशील कवियों की कमजोर रचनाओं की स्पष्ट आलोचना करते हुए वे कहते हैं, 'असल में भावना को संयमित करके कला में ढालने की कोशिश में बहुत सारे प्रगतिशील कवि मारे गए। अकारण नहीं है कि खुलकर कविता लिखने के कारण हिंदी आलोचना ने तीस साल तक नागार्जुन को कवि नहीं माना। नागार्जुन को मजबूरी में अपने पैसे से पुस्तकें छपवानी पड़ी। यह हिंदी आलोचना की दुर्गति का सबूत है। यदि एक कवि के मन में पराधीनता, शोषण, उत्पीड़न, सामाजिक अन्याय के प्रति गहरा आक्रोश है, जिसे वह कविता में व्यक्त कर रहा है तो प्रगतिशीलों द्वारा उसका स्वागत किया जाना चाहिए था। यह नहीं हुआ।' (वही)

मैनेजर पांडेय ने जिस संवेदना और अधिकार से कबीर की कविताओं पर लिखा है, उसी संवेदना और जुड़ाव से लोकप्रिय कवि अदम गोंडवी पर भी लिखा है। कविता के पाठक नहीं हैं, कविता से हिंदी समाज दूर जा रहा है - जैसे जुमले अनेक बार सुनने को मिल जाते हैं, लेकिन कविता इस दशा में आखिर क्योंकर पहुँची; इसकी सही पड़ताल बहुत कम लोग करते हैं। एक तरफ हिंदी कविता की मंचीय दुनिया है जिसमें तुक्कड़ों का साम्राज्य है, तो दूसरी तरफ ऐसे कविगण हैं जिनकी कविता में संवादधर्मिता की जगह रूपगर्विता के हाव-भाव देखे जा सकते हैं। रोचक यह है कि हिंदी कविता के अलग-अलग दुनियाओं के बीच किसी तरह का कोई संवाद नहीं है। जिन मैनेजर पांडेय के बारे में 'अफवाह' है कि वे कविता-कहानी जैसी विधा को अपनी आलोचना का विषय बनाने से बचते हैं, उन मैनेजर पांडेय ने 'आज का समय और कविता का संकट' नामक निबंध में विस्तार से इन प्रश्नों पर विचार किया है, 'हिंदी में कुछ कवि ऐसे हैं, जिनके लिए कविता लिखना शतरंज खेलने जैसा है। उससे उन्हें एक ओर बौद्धिक व्यायाम का लाभ मिलता है, तो दूसरी ओर उच्च कोटि के शौकीन कहलाने का सुख मिलता है। एक और जमात ऐसे कवियों की है, जो कविता का मदारी की बंदरिया की तरह उपयोग करते हैं और उससे पैसा बटोरते हैं। इन दोनों प्रकार के कवियों को अगर आज के समाज में कविता की दुर्गति की कोई चिंता न हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन हिंदी में ऐसे भी कवि हैं, जिनके लिए कविता आत्मा की पुकार है, अपने समय की गवाह है और अपने समाज की खबर भी। ऐसी कविता समाज से अलग रहकर सार्थक नहीं होती, क्योंकि पुकार में दूसरे तक पहुँचने की बेचैनी होती है और उत्तर पाने की आकांक्षा भी।' (वही, पृ.206) जिन कवियों ने कविता के माध्यम से आत्मा की पुकार को अभिव्यक्त किया है या कर रहे हैं, उन कवियों की बेचैनी, आत्मालोचन और अपराध-बोध को सुनने और सुनकर और उत्तर देने की जरूरत कितने आलोचकों को महसूस होती है, इस पर भी अफवाह फैलाने वालों को अवश्य विचार करना चाहिए। यह देखना चाहिए कि उन्होंने जिस संवेदना और अधिकार से कबीर की कविताओं पर लिखा है, उसी संवेदना और जुड़ाव से नागार्जुन पर लिखा है, रघुवीर सहाय और कुमार विकल पर लिखा है; अदम गोंडवी पर भी लिखा है। यही नहीं, उन्होंने हिंदी के अनेक कवियों पर तो लिखा ही है, तेलुगु के कवि वरवर राव और तमिल के कवि सुब्रमण्यम भारती की कविताओं पर भी विस्तारपूर्वक बहुत गंभीरता से लिखा है।
आजकल जिस तरह हिंदी फिल्मों और धारावाहिकों से गाँव और गाँवों के लोग अदृश्य होते जा रहे हैं, उसी तरह हिंदी कविता की दुनिया से भी ग्रामीण जीवनानुभवों की कविताएँ गायब होती जा रही हैं और पश्चिम की कविताओं के रूप, शिल्प और कथ्य के असर में कविताएँ लिखी जा रही हैं। जबसे देश में उदारीकरण की व्यवस्था लागू हुई है तब से वैचारिक स्तर पर भी उदारता का इस कदर माहौल बना है कि कविगण किसी भी तरह की राजनीति और विचारधारा से छुटकारा पाने के लिए बेचैन हैं। 'कोउ नृप होहू हमहिं का हानी' की तर्ज पर चाहे मनुष्यविरोधी राजनीति का बढ़ता हुआ दमन हो या इतिहास और संस्कृति को विकृत रूप में पेश करने का सत्ताधीशों का भोंडा प्रयास, वे इन तमाम स्थितियों से अलग बेखुदी के आलम में जीते हैं। प्रो. पांडेय इस प्रवृत्ति को लक्षित करते हुए लिखते हैं, 'आजकल हिंदी में जिस कविता का बोलबाला है, वह नागर कविता है, शहराती और चालाक। उसके रूप और स्वभाव में ही नहीं, अभिप्राय में भी नागरता छायी हुई है। वह शहरी मध्यवर्ग के बौद्धिक समुदाय की आत्मकेंद्रित दृष्टि की उपज है, इसलिए उसमें उसी वर्ग के जीवन की वास्तविकताओं, संवेदनाओं, आकांक्षाओं और उम्मीदों की अभिव्यक्ति हो रही है। यही कारण है कि जिस समाज में जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा बेघर है या फिर जानवरों के रहने की जगह को अपना घर मानने के लिए मजबूर है, उस समाज का एक कवि कहता है : मुझे एक घर दो कविता लिखने के लिए।' (वही, पृ.215)

शब्द की विश्वसनीयता का सीधा संबंध चूँकि मनुष्य के आचरण से होता है, इसलिए प्रो. पांडेय शब्द और कर्म दोनों की समीक्षा करने को जरूरी मानते हुए कहते हैं, 'शब्द अगर एक ओर जनता के कर्म से जुड़ता है तो दूसरी ओर लेखक के रचना-कर्म से। मनुष्य की चेतना उसके सामाजिक अस्तित्व के अनुरूप बनती है। व्यक्ति की दृष्टि उसकी जीवन-दशा से प्रभावित होती है। रचनाकार के शब्द, उसकी रचना के शब्द, उसके जीवन-कर्म को प्रतिबिंबित करते हैं। रचनाकार का रचना कर्म संपूर्ण सामाजिक जीवन से उसके संबंध का द्योतक होता है। ईमानदार लेखक के जीवन-कर्म और रचना-कर्म में एकता होती है।' (शब्द और कर्म, पृ.262) कविता की आलोचना के बीच शब्द और कर्म के संबंध में उनके विचारों को यहाँ इसलिए भी उद्धृत करना आवश्यक था, ताकि अलग-अलग समय और अलग-अलग पुस्तकों में व्यक्त उनके एक विचार सूरदास के संदर्भ में व्यक्त रामविलास जी के विचारों की तरह विविधता के शिकार तो नहीं हो गए? बाईबिल में एक प्रसंग हैः फैसला मत दो, क्योंकि फैसला एक दिन तुम पर दिया जाएगा।

मैनेजर पांडेय के शब्दों की विश्वसनीयता का संबंध भी चूँकि उनके आचरण की एकता से संबद्ध है इसलिए उनकी इस विशिष्टता को अवश्य रेखांकित किया जाना चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में वे अपने लेखन से इस चीज को ओझल नहीं होने देते और 'शब्द और कर्म' नामक निबंध लिखने के वर्षों बाद भी 'राजनीति की भाषा' पर विचार करते हुए लिखते हैं, 'समाज के कर्ममय जीवन में शब्दों की सार्थकता ही उनका जीवन है और निरर्थकता मौत। शब्दों की सार्थकता सामाजिक प्रक्रिया में घटती-बढ़ती है। कई बार कुछ शब्द निरर्थकता के दौर से गुजरकर फिर सार्थकता पा लेते हैं। बशर्ते कि उनके अर्थ को मूर्ति और सजीव बनाने वाले कर्म का विकास हो। सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा देने वाले आंदोलनों के काल में यह स्थिति आती है। लेकिन कई बार कुछ शब्द प्रयोग करने वालों में साहस की कमी से निरर्थक हो जाते हैं। प्रायः वाग्विलासी शब्द-वीरों के हाथों में पड़कर तेजस्वी शब्दों की यही गति होती है। संघर्ष, क्रांति, समाजवाद आदि शब्दों की दुर्गति आजकल दिखाई दे रही है।' (हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान, पृ.198)

लेखकप्रियता और लोकप्रियता के दो पाटों के बीच अपनी आलोचना की सामाजिकता और विश्वसनीयता दोनों के लिए मैनेजर पांडेय बेहद संघर्ष करना पड़ा है। हिंदी में वे शायद अकेले ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने पुस्तक-समीक्षा लिखने से परहेज किया और सुविधा के लिए साहित्यिक शास्ताओं के आगे कभी दुविधा का प्रदर्शन नहीं किया। जब आलोचना में समकालीनता का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा हो और तात्कालिक सफलता की आकुलता के आगे नतमस्तक आलोचक अपनी व्यवहारिकता और अवसरवादिता से इहलोक और परलोक दोनों सुधारने के लिए पूर्ण समर्पण कर चुका हो, तब यह किसी अचरज से कम नहीं है कि मैनेजर पांडेय ने राजनीतिक और साहित्यिक दोनों सत्ताओं के सत्ताधीशों की खरी-खरी आलोचना की है। तेलुगु के क्रांतिकारी कवि वरवर राव की कविताओं का मूल्यांकन करते हुए वे लिखते हैं, 'आंध्र में तेलुगुदेशम सरकार ने हर तरह की असहमति और विरोध को दबा देने का जो अभियान चला रखा है, उसका एक उदाहरण है तेलुगु के कवि वरवर राव के काव्य-संग्रह 'भविष्यातु चित्रपटम्' पर 1987 के आरंभ से लगता प्रतिबंध। वरवर राव के पिछले तीन वर्षों से आंध्र के विभिन्न जेलों में जी रहे हैं। अगर वे जेल से बाहर होते तो संभव है, कई दूसरे कलाकारों की तरह पुलिस से झूठी मुठभेड़ में अब तक मार दिए गए होते। जिस राज्य में एक कवि को जीने के लिए जेल में रहना पड़े, उसे स्वतंत्रता खोकर जीना पड़े, उस राज्य को लोकतांत्रिक कहना लोकतंत्र का अपमान है।' (अनभै साँचा, पृ.140)

अपने समय के हर बड़े कवि के यहाँ पूर्व परंपरा का स्वीकार और पूर्व पुरुषों की प्रतिभा का सम्मान दृष्टिगोचर होता है। बाबा तुलसीदास ने अपने पूर्व-पुरुषों को बहुत सम्मान के साथ याद किया है, 'जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने।' और मिर्ज़ा गालिब का वह शेर याद कीजिए, 'रेख़्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो गालिब/कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था।' भारतीय कविता की इस परंपरा से मैनेजर पांडेय भली-भाँति परिचित हैं। अपने पूर्व के आलोचकों के अवदान का विनम्र स्वीकार और साहित्य के प्रति उनके समर्पण का सम्मान उनकी आलोचना में देखा जा सकता है। वे जब 'साहित्य और इतिहास दृष्टि' को अपने लेखन का विषय बनाते हैं, तो बहुत जिम्मेदारी और उदारता से हिंदी आलोचना को दिशा देने वाले आलोचकों के अवदान को रेखांकित करने का प्रयास करते हैं। साहित्य के इतिहास पर विचार करते हुए उन्होंने चिंता प्रकट की है, 'रूपवादी आलोचना के बढ़ते हुए प्रभाव के दौर में साहित्येतिहास की असमर्थता या असमर्थ साहित्येतिहास के दोषों की इतनी चर्चा हुई है कि उसे अनावश्यक और असंभव घोषित करना सरल हो गया है। इतिहास से नाराज अनेक आलोचकों ने आलोचना में ऐतिहासिक संचेतना को अनावश्यक मानकर उसे समालोचना से बहिष्कृत करने का प्रयत्न किया और साहित्य सिद्धांत तथा व्यावहारिक आलोचना तक ही आलोचना को सीमित कर दिया।'(साहित्य और इतिहासदृष्टि, पृ.3)

आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर लिखते हुए वे कहते हैं, 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इतिहास, दर्शन, भाषाशास्त्र, विज्ञान और साहित्य-संबंधी नए-पुराने चिंतन की वैचारिक यात्रा करने के बाद एक सुनिश्चित समाजोन्मुखी, विकासशील वस्तुवादी साहित्यदृष्टि अर्जित की है और अपनी इस अर्जित नई दृष्टि से ही परंपरा के मूल्यांकन, वर्तमान की आवश्यकताओं की पहचान और भावी विकास की दिशा खोजने का प्रयास किया है। विज्ञान, दर्शन, इतिहास, भाषाविज्ञान, साहित्य और समाज के विभिन्न पक्षों से संबंधित लेखों तथा पुस्तकों के अनुवाद, संपादन और मौलिक लेखन के बीच से जो उनका व्यापक ज्ञानसंपन्न व्यक्तित्व उभरता है, वह यूरोप के पुनर्जागरणकालीन महान विचारकों की याद दिलाता है।' (साहित्य और इतिहासदृष्टि, पृ.92) आचार्य शुक्ल के व्यापक अध्ययन क्षेत्र और चिंतन-मनन की विशालता को देखकर उचित ही पांडेय जी उन्हें कलावाद का खंडन और लोकमंगल की स्थापना करने वाले आचार्य के रूप में परिभाषित करने की चेष्टा करते हैं। हिंदी में बहुत दिनों तक (कमोबेश आज भी) आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुयायी देव बड़े या बिहारी की तरह दोनों आलोचकों का मुकाबला कराने का कार्य करते रहे, लेकिन मैनेजर पांडेय ने इन प्रवृत्तियों अलग उनके अवदान का निरपेक्ष और वाजिब मूल्यांकन करने का प्रयास किया है, 'द्विवेदीजी परंपरा को सनातन मानने के विरोधी हैं, हर बात और वस्तु के मूल को वेद में खोजने के भी विरोधी हैं। परंपरा के प्रति अंध श्रद्धा का एक रूप परंपरा को विशुद्ध और एक विशेष प्रकार की विचारधारा का ही पोषण मानने में प्रकट होता है और दूसरा, हर प्रकार के बाहरी प्रभाव को अछूत समझने में।' इसलिए पांडेय जी द्विवेदी जी की आलोचना में मौजूद इन तत्वों की गहराई से पड़ताल करते हैं और उनकी विशिष्टता को रेखांकित करते हुए कहते हैं, 'द्विवेदी जी हर प्रकार के बाहरी या विदेशी प्रभाव से परहेज करने की सलाह नहीं देते, लेकिन वे अंधानुकरण का समर्थन भी नहीं करते। वे परंपरा और रूढ़ि में अंतर करते हैं और रूढ़ि के वृथा मोह से मुक्त होने की सलाह देते हैं।' (वही, पृ.138)

शिवदान सिंह चौहान को हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना का भगीरथ कहते हुए उन्होंने लिखा है, 'शिवदान सिंह चौहान ने साहित्य की परंपरा के सामाजिक आधार को पहचाना है और साहित्यिक परंपराओं के निर्माण तथा परिवर्तन में समाज की भूमिका पर ध्यान दिया है। केवल शिवदान सिंह चौहान ने ही साहित्य की परंपरा के सामाजिक आधार और अर्थ की व्यवस्थित व्याख्या की है।' (आलोचना में सहमति-असहमति, पृ.130) आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, शिवदान सिंह चौहाना के बाद के आलोचकों में डॉ. रामविलास शर्मा और नामवर सिंह ऐसे आलोचक हैं जिनके आलोचना-कर्म का विवेचन और मूल्यांकन करना आसान नहीं है। रामविलास जी की अधूरी और कुछ अप्रकाशित/संपादित पुस्तकें अभी प्रकाशित होकर आ रही हैं और नामवर सिंह तो कमोबेश आज भी लिख/बोल रहे हैं। इसलिए इनके बारे में किसी बात को लेकर मत बनाते समय कई चीजों को ध्यान में रखना पड़ता है। इन खतरों के बावजूद मैनेजर पांडेय ने रामविलास शर्मा को लेकर लिखा, 'रामविलास शर्मा ने रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी की तरह हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं लिखा है, लेकिन उन्होंने भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद और निराला के साहित्य और युग के विकासशील रूप का जो परस्पर संबद्ध विश्लेषण तथा मूल्यांकन किया है, उससे भारतेंदु युग से छायावाद तक के हिंदी साहित्य का इतिहास सामने आता है। इस इतिहास में हिंदी नवजागरण तथा स्वाधीनता आंदोलन से हिंदी साहित्य के विकास का संबंध प्रकट होता है और इस काल के समाज तथा साहित्य में सक्रिय विचारधारात्मक संघर्षों का स्वरूप भी स्पष्ट होता है।' (साहित्य और इतिहासदृष्टि, पृ.166)

नामवर सिंह ऐसे आलोचक रहे हैं जिनके बोलने पर विवाद होता रहा है, लिखने पर विवाद होता रहा है और जब वे कुछ न बोलें, कुछ न लिखें तो उनकी चुप्पी को लेकर भी विवाद होता रहा है। उनके लेखन, आचरण और चिंतन-मनन को लेकर विवाद पैदा करने की कोशिशें तो बहुत हुईं, लेकिन उनकी लिखी आलोचना को उसका विवेचन और मूल्यांकन करने के प्रयास बहुत कम हुए हैं। प्रो. पांडेय ने नामवर सिंह के हिंदी आलोचना में अवदान और उनकी आलोचना-दृष्टि का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, 'डॉ. नामवर सिंह के आलोचनात्मक विवेक की सार्थकता इस बात में है कि उन्होंने संश्लिष्ट समसामयिक बोध को परिभाषित और संगठित करने का प्रयत्न किया है। नए काव्य-सृजन में निहित सार्थक मूल्यों की पहचान का प्रयत्न 'इतिहास और आलोचना' में है और 'कविता के नए प्रतिमान' में भी। काव्य-सृजन में निहित या व्यक्त मूल्यों की सार्थकता की परख तो जीवन-मूल्यों की कसौटी पर काव्य-मूल्यों की सार्थकता की परख की कोशिश 'इतिहास और आलोचना' में सार्थक और सुसंगत ढंग से हुई है, लेकिन 'कविता के नए प्रतिमान' में कदाचित कुछ कम या सांकेतिक रूप में।' (आलोचना की सामाजिकता, पृ.57)

साहित्य, समाज और सत्ता का संबंध बहुत जटिल और द्वंद्वात्मक होता है, जिसे समझने की व्यवस्थित और संतुलित कोशिश का नाम है 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका'। हिंदी आलोचना में कई बेहतरीन पुस्तकों की रचना के पीछे बहुत रोचक घटनाएँ हैं। जैसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की बहुप्रतिष्ठित कृति 'हिंदी साहित्य का इतिहास' छात्रों को पढ़ाने के लिए बनाए गए नोट्स हैं, तो प्रो. मैनेजर पांडेय की पुस्तक 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका' जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र के एक कोर्स की पाठ्यपुस्तक के रूप में लिखी गई किताब है। समाजशास्त्र के एक अध्येता अमित शर्मा ने उनकी इस पुस्तक के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुए लिखा, 'संभवतः मैनेजर पांडेय, नामवर सिंह के द्वारा विकसित साहित्य के समाजशास्त्र की स्पष्ट सीमाओं को रेखांकित करने से बचना चाहते थे। फलस्वरूप हिंदीभाषी समाज एक महत्वपूर्ण पाठ्य-पुस्तक पाकर संतुष्ट हो गया, वरना यह अवसर एक युगांतकारी घटना की ऐतिहासिक भूमिका को उत्प्रेरित करने वाला था।' (संवेद-11, पृ.119)

समकालीनता के दबाव में आकर पुरानी रचनाओं या प्रवृत्तियों के मूल्यांकन से अपनी आलोचना-यात्रा शुरू करने वाले कुछ आलोचक दोबारा उधर मुड़ने की फुर्सत नहीं निकाल पाए, लेकिन मैनेजर पांडेय ने यदि कुमार विकल जैसे कवियों की महत्ता से हिंदी साहित्य को परिचित कराया, तो उसी समय अश्वघोष की वज्रसूची से भी परिचित कराया। साहित्य की दुनिया में चूँकि नया-पुराना कुछ नहीं होता, सार्थक और निरर्थक होता है इसलिए जिस भी काल की रचना में उन्हें यह तत्व लगा, उन्होंने उसका संपादन किया, उस पर लिखा और व्यापक समाज को लोकतांत्रिक तरीके से विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित किया। कई बार लेखक चेतन रूप से न भी चाहे, तो भी उसके अवचेतन में कुछ चीजें मौजूद रहती हैं, जो समय पाकर प्रकट होती हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तरह प्रो. पांडेय ने अनेक भूली-बिसरी रचनाओं का संपादन किया और उसकी महत्ता और अर्थवत्ता से हिंदी समाज को परिचित कराया। जिन रचनाओं को वास्तव में लोग भूल गए हैं उन रचनाओं की नए संदर्भ और नई परिस्थिति में व्याख्या और मूल्यांकन करने का प्रयास किया और यह देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि गुमनामी और हाशिये पर पड़ी अनेक ऐसी रचनाओं के पीछे उन्होंने अपना समय और श्रम लगाया है, जिसकी संक्षेप में यहाँ चर्चा करना आवश्यक है।

मराठी मूल के लेखक सखाराम गणेश देउस्कर ने सन् 1904 में 'देशेर कथा' शीर्षक से बांग्ला भाषा में एक पुस्तक लिखी थी, जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य में परतंत्र जनता के आर्थिक और सामाजिक शोषण की कहानी को तथ्यों के आधार पर व्यक्त किया गया है। इस पुस्तक का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद सन् 1908 में मराठी मूल के ही सुप्रसिद्ध पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर ने किया था और यह पुस्तक इतनी लोकप्रिय और जनता की आँखें खोलने वाली सिद्ध हुई कि इससे घबराकर दो वर्षों के भीतर ही अँग्रेजी हुकूमत ने सन् 1910 में पाबंदी लगा दी। मैनेजर पांडेय ने इस क्रांतिकारी पुस्तक को खोजा और अपनी लंबी भूमिका में इसके महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, 'सखाराम गणेश देउस्कर ने देश में स्वाधीनता की चेतना के जागरण और विकास के लिए 'देशेर कथा' की रचना की थी। यद्यपि उन्होंने कांग्रेस द्वारा संचालित स्वाधीनता आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन उन्होंने उस आंदोलन की रीति-नीति की आलोचना भी की है।' (देश की बात, पृ.09) इस पुस्तक की लोकप्रियता का आलम यह था कि सन् 1923 में देवनारायण द्विवेदी ने भी इसी शीर्षक से एक पुस्तक लिखी और संयोग से स्मृतिहीन हिंदी समाज के लिए इस पुस्तक की खोज और पुनर्प्रकाशन का श्रेय भी प्रो. पांडेय को है। इसी वर्ष उन्होंने एक और महत्वपूर्ण पुस्तक 'लोकगीतों और गीतों में 1857' शीर्षक से संपादित किया है, जिसमें संग्रहीत लोकगीतों और गीतों में अभिव्यक्त सन् 1857 के संग्राम की स्मृतियों के माध्यम से भारतीय जनता के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की उदात्तता को याद करते हुए उसे आज के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के प्रेरणास्रोत के रूप में ग्रहण किया जा सकता है। पुस्तक की भूमिका के अनुसार, '1857 से संबंधित लोकगीतों और लोकभाषाओं में लिखे गीतों में अनेक प्रकार की स्मृतियाँ व्यक्त हुई हैं। अँग्रेजी राज से लोक के संघर्ष और अँग्रेजी उपनिवेशवाद की लूट, दमन, और तबाही के अनुभवों की स्मृतियाँ लोकगीतों में ही है।' (पृ.1) इन पुस्तकों के अतिरिक्त प्रो. पांडेय ने मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव की पुस्तक 'पराधीनों की विजय-यात्रा' की खोज तथा संपादन किया है। सूरदास, माधवराव सप्रे, नागार्जुन, सीवान की कविता आदि पुस्तकों का चयन और संपादन किया है। एक चीज यहाँ और कहना आवश्यक है कि पश्चिम के जिन चिंतकों-विचारकों के जीवन और कर्म के बारे में अधिकांश लोगों को कुछ मालूम न था, प्रो. पांडेय ने उनकी एक मास्टरपीस रचना का अनुवाद किया और उनके अन्य कामों के बारे में विस्तार से भूमिका में जिक्र करते हुए एक पुस्तक का संपादन किया, 'संकट के बावजूद।' इस पुस्तक के बहाने मैनेजर पांडेय यह प्रस्तावना करते हैं कि किसी वाद, विचार या देश की असफलता कुछ संकटों के साथ आती है, लेकिन संकट के इन्हीं क्षणों में धैर्य और विवेक से नए मार्ग को प्रशस्त किया जा सकता है।आलोचना की संस्कृति और मैनेजर पांडेय की आलोचना 
पंकज पराशर 

वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में सच्ची और खरी-खरी कहने वाली आलोचना के लिए जिस तरह लगातार जगह कम होती जा रही है और असहमतों को बर्दाश्त करने की सहिष्णुता घटती जा रही है, उसी तरह साहित्यिक समाज में भी बिना किसी लाभ-लोभ के सच कहने वाली आलोचना की जगह लगातार घटती चली जा रही है। जिस साहित्यिक समाज में सच्ची और खरी आलोचना के लिए स्थान कम होता चला जाए और लेखकप्रियता के दवाब में आलोचना का स्थानापन्न प्रशंसा/ठकुरसुहाती बन जाए, उस समाज में लोकतंत्र और आलोचना दोनों की संस्कृति खतरे में आ जाती है। संयोग से आजादी के बाद भी जिस तंत्र को 'लोक' का तंत्र कहा जाता है, उसमें शुरुआत से ही लोक को किनारे करते जाने और तंत्र का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति रही है। इसलिए हमारी जिन संस्थाओं के नाम में किसी-न-किसी रूप में लोक शब्द जुड़ा है, उन संस्थाओं तक में लोकतंत्र का घोर अभाव है। हालाँकि हर बात का सूत्र अपनी परंपरा में ढूँढ़ लेने वाले परंपराप्रिय लालबुझक्कड़ कभी-कभी क्षणिक उदारतावश 'निंदक' को 'नियरे' राखने की बात तो करते हैं, लेकिन नियरे रहने वाला निंदक जब वास्तव में अपनी कर्मठता दिखाने लगता है तो उनकी सारी लोकतांत्रिकता हवा हो जाती है और निंदक के प्रशंसक न बन पाने की निराशा से उपजी खिन्नता आलोचना की संस्कृति से ही खिन्नता बन जाती है। सचाई चूँकि अपनी तासीर से ही कड़वी होती है, इसलिए रचनात्मक आलोचना को भी व्यक्तिगत स्तर पर ग्रहण करने और नाराजगी जाहिर करने का अशालीन तरीका बढ़ा है। ऐसे में इहलोक सुधारने की चिंता में हलकान कई आलोचक जहाँ लेखकप्रिय बनने के लिए अतिशय व्यवहारिकता का दामन थामने लगे हैं, वहीं दूसरी ओर रचनाकारों की असहिष्णुता और अमर होने की व्यग्रता ने भी आलोचना के मार्ग को अवरुद्ध किया है। इस वजह से आलोचना की विश्वसनीयता प्रश्नचिह्न के घेरे में आ जाती है और आलोचना से आशा भी अर्थहीन-सी प्रतीत होती है। वर्तमान परिदृश्य में सच्ची और खरी-खरी कहने वाली आलोचना की तासीर से परिचित और लेखकप्रियता के लाभ को त्यागने के कबीराना अंदाज से लैस आलोचना ही किसी भी परिस्थिति में अपनी विश्वसनीयता की रक्षा कर पाने में सफल होती है।

हिंदी आलोचना में कुछ आलोचक लोकप्रियता के मारे हैं, तो कुछ लेखकप्रियता के। लोकप्रियता के मारे आलोचक जहाँ एक ओर पुस्तक विमोचन समारोहों में चातक की तरह अपनी ओर टकटकी लगाए लेखकों पर कुछ चुने/घिसे हुए विशेषणों की वर्षा करके मंच लूट लेने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर लेखकप्रियता के मारे आलोचक आधारहीन/निरर्थक आशीर्वचनों से साहित्यिक परिदृश्य में लेखक की स्थापना का दयनीय दावा करते हुए पाए जाते हैं। 'टेरी इग्लटन ने लिखा है कि आजकल आलोचना या तो साहित्य-उद्योग के जनसंपर्क विभाग का हिस्सा है या शिक्षा संस्थाओं का आंतरिक मामला। उसका कोई सामाजिक लक्ष्य या कार्य नहीं है। यह हिंदी आलोचना के बारे में भी सच है। 19वीं सदी से आज तक की हिंदी आलोचना के इतिहास पर ध्यान दीजिए तो मालूम होगा कि आलोचनात्मक चेतना की क्रियाशीलता का दायरा क्रमशः संकुचित हुआ है।' (आलोचना की सामाजिकता, पृ.15) अशोक वाजपेयी स्कूल के जनसंपर्की आलोचक मदन सोनी के आलोचनात्मक चेतना की क्रियाशीलता का दायरा सिकुड़कर किस कदर अपने आका और उनके चरण-वंदकों तक सिमटकर रह गया है, इसका गर्हित नमूना है 'आलोचना' (अंक-54, पृ.114) में प्रकाशित उनका नयनसुखी लेख 'हिंदी उपन्यास की अल्पता पर कुछ ऊहापोह'। यह बात समझ से परे है कि किसी व्यक्ति की अज्ञानता और अध्ययन की सीमा किसी अन्य लेखक की सीमा कैसे हो सकती है? किसी लेखक को समग्र रूप से पढ़े बगैर उसके तमाम लेखों को चार ऊहापोही विशेषणों से खारिज करने की चेष्टा कलावादी आलोचना की अलोकतांत्रिक राजनीति और आत्म/गुटकेंद्रित संस्कृति का तरसनीय नमूना है। कहना न होगा कि कलावादी घराने के आलोचक आरंभ से ही तथ्य/तर्कपरकता का स्थानापन्न भाषिक वाग्जाल को समझते रहे हैं और और रूपवाद को साहित्य का सर्वश्रेष्ठ वाद।

मदन सोनी की तटस्थता और तथ्यनिरपेक्षता इस तथ्य से भी स्पष्ट होती है कि किसी चीज को सत्यापित करने के लिए उनके उदाहरणों का सिलसिला निर्मल वर्मा के 'चिंतन' शिला से शुरू होता है और अशोक वाजपेयी के काव्य-शिला से आकर केलि करने लगता है। जिन निर्मल वर्मा को मदन सोनी किसी भी आलोचना से परे पतित-पावन आख्यान-पुरुष मानते हैं, उन निर्मल वर्मा की कला-दृष्टि का मूल्यांकन करते हुए प्रो. पांडेय लिखते हैं, 'निर्मल वर्मा की कला की धारणा रूपवादी, मनुष्य की धारणा अस्तित्ववादी और कला की प्रासंगिकता का दृष्टिकोण रहस्यवादी, जनविरोधी तथा अनैतिहासिक है। प्रत्येक मनुष्य वास्तव में किसी कलाकृति से क्या पाता है, यह इस बात पर निर्भर है कि वह किस दृष्टिकोण और उद्देश्य से कलाकृति के पास जाता है। वर्ग विभाजित समाज और उसकी कला को ध्यान में रखकर पहले की बात के साथ यह भी जोड़ लेना चाहिए कि कोई व्यक्ति किस वर्ग के दृष्टिकोण से कला की प्रासंगिकता की तलाश करता है। निर्मल वर्मा परोपजीवी बुर्जुआ वर्ग के दृष्टिकोण से कला और उसकी प्रासंगिकता को देखते हैं।' (उपन्यास और लोकतंत्र, पृ.163) इसके बाद भी इतिहास-बोध से रहित आलोचक पाखंडपूर्ण विनम्रता के खोल में हिंदी उपन्यास की अल्पता को लेकर 'ऊहापोह' व्यक्त करने पर उतारू ही हो जाएँ, तो उनका क्या किया जा सकता है? ऊहापोही शिल्प का वरण करने के बावजूद बहुत निश्चयात्मक ढंग से मदन सोनी उवाचते हैं, 'मैनेजर पांडेय की पुस्तक उपन्यास और लोकतंत्र ऐसी ही समस्याहीन, निस्संशय, आत्मतुष्ट और आत्मस्फीत 'आलोचना' का एक ताजा उदाहरण है।' केलिवादी आलोचक के ऐसे फतवों से मैनेजर पांडेय की आलोचना पर तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन उपन्यास की आलोचना को लेकर पाठकों के मन में क्षणिक संदेह अवश्य होता है।

यह देखना रोचक है कि हिंदी उपन्यास की अल्पता के संदर्भ में उनके 'ऊहापोहों' का उत्स निर्मल वर्मा से शुरू होता है, 'भारत में अनेक उपन्यास लिखे गए हैं; हर साल लिखे जाते हैं - मनोवैज्ञानिक उपन्यास, यथार्थवादी उपन्यास, आंचलिक उपन्यास लेकिन स्वयं उपन्यास की 'समस्या' पर विचार, उसके जातीय फॉर्म का अन्वेषण हमने नहीं के बराबर किया है। इस स्तर पर उपन्यास की समस्या हमारी समूची संस्कृति के विश्लेषण से जुड़ी है।' परंपरा में सन्निहित रूढ़िप्रियता के प्रति विशेष आग्रही निर्मल वर्मा उपन्यास के जातीय फॉर्म की 'समस्या' को समूची संस्कृति के विश्लेषण से जोड़ देते हैं। बहुत महीन कातने का दावा करने वाले मदन सोनी, निर्मल वर्मा से भी आगे बढ़कर कहते हैं, 'स्वयं साहित्य पर, सत्तामीमांसात्मक किस्म के किसी भी स्तर के विमर्श का सर्वथा अभाव है।' जिस उदारता से ये दोनों विद्वान नकारात्मकता का प्रचार और उपन्यास विषयक संपूर्ण चिंतन-धारा का तिरस्कार करते हैं, काश! उसी ऊहापोही विनम्रता से वे आलोचना पढ़ने का धैर्य भी दिखाते और ठोस तथ्यों को तर्कों के साथ रखते! इस संदर्भ में मैनेजर पांडेय कहते हैं, 'निर्मल वर्मा की विचार-पद्धति की एक विशेषता यह है कि वे बार-बार कृत्रिम प्रश्न गढ़ते हैं और उनका छलमय उत्तर देते हैं।' लेकिन निर्मल वर्मा और उनके अनुयायी दावा यह करते हैं गोया उनकी तरह का चिंतन पूरी औपन्यासिक परंपरा में किसी और ने कभी किया ही नहीं। चचा गालिब ने यूँ ही नहीं कहा था, 'या रब वे न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात/ दे और दिल उनको न दे जुबाँ मुझको और।'

उपन्यास पर लिखे अपने एक लेख 'उपन्यास और लोकतंत्र' में मैनेजर पांडेय लिखते हैं, 'उपन्यास केवल यथार्थ की खोज और उसकी गति की पहचान का आख्यान ही नहीं है, वह संभावनाओं की तलाश का आख्यान भी है। उसमें वर्तमान की सीमाओं के बोध के पार जाने की आकांक्षा के कारण संभावित संसार की रचना की कोशिश भी होती है। उपन्यास के माध्यम से ऐसी निर्मित की जाती है जो पाठकों को वास्तव में संभव लगे। ऐसी दुनिया रचनेवाला उपन्यासकार ही संभावनाओं का व्याख्याकार भी कहा जा सकता है। आजकल ऐसे उपन्यास लिखे जा रहे हैं जो पूँजीवाद की बर्बरता से मुक्ति की आकांक्षा के कारण एक बेहतर दुनिया की कल्पना पाठकों के सामने रखते हैं।' (आलोचना की सामाजिकता, पृ.243) यह लेख सर्वप्रथम 'पहल' में प्रकाशित हुआ था, जिसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि प्रकाशित होने के तत्काल बाद इस आलेख का 'कादंबरि आणि लोकशाही' शीर्षक से मराठी में रंगनाथ पठारे (मराठी में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत) ने अनुवाद किया, जो नासिक से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'शब्दालय' में प्रकाशित हुआ। अभी हाल ही में मुंबई के एक मराठी प्रकाशक ने इस लेख को पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया है, जो मराठी पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ है। हमारी सीमा यह है कि उपन्यास पर प्रो. पांडेय के विपुल लेखन से केवल चंद उदारणों को यहाँ हम पेश कर पाएँगे। जिससे सुधीजनों को यह अंदाजा लगाने में आसानी होगी कि वे अपने लेखन में उपन्यास की आलोचना से किस तरह संबद्ध, आबद्ध और प्रतिबद्ध रहे हैं। उपन्यास का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो, जिस पर मैनेजर पांडेय ने विचार न किया हो; इसके बाद भी किसी नयनसुखी आलोचक को कुछ दिखाई न दे, तो इसमें उनका क्या दोष है!

उपन्यास के समाजशास्त्र पर विचार करते हुए प्रो. मैनेजर पांडेय ने लिखा है, 'आधुनिक युग की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधि कला रूप बनने के लिए उपन्यास को कठिन संघर्ष करना पड़ा है। आधुनिक युग के प्रतिबंधित और तरह-तरह के सेंसरशिप के शिकार साहित्य का अगर कोई ब्यौरा तैयार किया जाए तो उसमें सबसे अधिक संख्या उपन्यासों की ही होगी। उपन्यास के विरोध के अनेक कारण रहे हैं। आरंभ से ही उपन्यास की कला में निहित लोकतांत्रिक चेतना का विरोध सामंती चेतना की ओर से होता रहा है। सोलहवीं सदी में स्पेन के सम्राट ने कानून बनाकर दक्षिण अमेरिका में उपन्यास लिखने पर प्रतिबंध लगा दिया था, क्योंकि उसके अनुसार उपन्यास जनता के लिए खतरनाक था।' (उपन्यास और लोकतंत्र, पृ.41) सत्ता का ऐसा रवैया सिर्फ पश्चिम में रहा हो, ऐसा नहीं है; भारत भी इन उदाहरणों से मुक्त नहीं रहा है। प्रेमचंद की कृति 'सोजे-वतन', सलमान रुश्दी के उपन्यास 'द मूर्स लास्ट साइ', बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन की कृति 'द्विखंडितो' को बाकायदा प्रतिबंधित किया गया और अपनी कथित उदारता का डंका पीटने वाली भारत सरकार तस्लीमा नसरीन को 'ए रूम वंस ओन' तक दे पाने में 'दाएँ-बाएँ' करती रही है। बांग्लादेश के बाद तस्लीमा भारत को अपना दूसरा घर समझती हैं, लेकिन पहले घर की तरह दूसरे घर में भी उनकी आकांक्षाओं को जगह नसीब नहीं हो रही है।

उपन्यास में अभिव्यक्त नैतिक-अनैतिक चित्रण को लेकर भारत में भी खूब बहस-मुबाहिसे हुए हैं। नागार्जुन ने अपने मैथिली उपन्यास 'पारो' में और अज्ञेय ने 'शेख : एक जीवनी' में भाई-बहन के नाजुक संबंध को लेकर लिखा था, उन दिनों बहुत खलबली मची थी। लेकिन परंपरावादियों की बेचैनी मानवीय संवेदना के क्षरित होते चले जाने और सामाजिक बंधनों के कारण अनेक जिंदगियों के बेमतलब होते चले जाने में कम और नैतिकता के बंधनों के ढीले पड़ जाने के कारण अधिक है। 'उपन्यास की नैतिकता पर बहस हिंदी में ही नहीं हुई। सत्रहवीं और अठारहवीं सदी के अँग्रेजी उपन्यासों पर भी ऐसी बहसें मिलती हैं। उन बहसों को देखने से मालूम होता है कि जो उपन्यास जितना अधिक यथार्थवादी होता था, उसको उतना ही अधिक अनैतिक कहकर उसकी निंदा की जाती थी।' (वही, पृ.41) नागार्जुन के उपन्यास के बहाने इन नैतिक और सामाजिक प्रश्नों पर विचार करते हुए प्रो. पांडेय लिखते हैं, 'नागार्जुन अपने उपन्यास के पात्रों की पीड़ा और परेशानियों को सामाजिक संरचना की देन मानते हैं, इसलिए समाज को बदले बिना व्यक्ति की मुक्ति संभव नहीं देखते। समाजशास्त्रीय कल्पना के सहारे ही नागार्जुन अपने पात्रों की नितांत व्यक्तिगत समस्याओं की जड़ें कभी इतिहास की प्रक्रिया में खोजते हैं तो कभी सामाजिक संस्थाओं, रूढ़ियों और परंपराओं में। उनकी समाजशास्त्रीय कल्पना उनके उपन्यासों को सांस्कृतिक विमर्श भी बनाती है, इसीलिए उनके उपन्यास मिथिलांचल की संस्कृति के बारे में सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि देने में सक्षम हैं, क्योंकि उपन्यासों में कथाकार की संवेदनशीलता और समाजशास्त्री की समझदारी की सर्जनात्मक एकता है।' (वही, पृ.199)

मैनेजर पांडेय आलोचना की लोकतांत्रिक संस्कृति में विश्वास करते हैं और इसके लिए किसी भी मूल्य को चुकाने के लिए तैयार रहते हैं। इसलिए वे किसी भी संस्था या व्यक्ति के अलोकतांत्रिक और अमानवीय कृत्य की खरी-खरी आलोचना करने का नैतिक साहस कर पाते हैं। सरकार की कथित संस्कृति संबंधी चिंता पर व्यंग्य करते हुए वे लिखते हैं, 'कुछ दिनों से केंद्र और राज्य की सरकारें संस्कृति के बारे में बहुत चिंतित दिखाई देती है। संस्कृति के बारे में सरकारी चिंता की शुरुआत मध्यप्रदेश से हुई थी। उससे प्रेरणा पाकर केंद्रीय सरकार भी संस्कृति के बारे में चिंतित हो उठी।' (अनभै साँचा, पृ.191) सरकारों की इस चिंता के पीछे क्या कारण हैं, इसको देखने के बाद सरकारी चिंता के ढोंग को आसानी से समझा जा सकता है, 'जब से किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, हरिजनों और स्त्रियों ने शोषण और दमन के खिलाफ आवाज उठाना आरंभ किया है, उनके आंदोलन तेज हुए हैं, तबसे उनकी कला और संस्कृति में सरकार की दिलचस्पी बढ़ी है। जनता की कला की असहमति और विरोध की आवाज को दबाकर उसे सजावट और मनोरंजन की वस्तु बनाने की कोशिश जारी है।' (वही, पृ.195)

हिंदी आलोचना में अनेक चतुर-सुजान आलोचक अमूर्त प्रतिपक्ष को चुनते हैं और क्रांतिकारी मुद्रा में हवा में लाठियाँ भाँजते रहते हैं। जबकि मैनेजर पांडेय केंद्र और राज्य सरकारों के संस्कृति प्रेम के पाखंड को उजागर करते हुए 'संस्कृति-पुरुष' की कारकर्दगी को भी अनावृत्त करने से नहीं चूकते। हिंदी संसार के चुनिंदा सत्ताधीशों में से एक अशोक वाजपेयी से असहमति जाहिर करते हुए वे लिखते हैं, 'संस्कृति के सरकारीकरण के नए अभियान के एक नेता अशोक वाजपेयी का दावा है कि भारतीय राजनीति ने 'साहित्य और समालोचना की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने या उसे सीमित करने की कोई विशेष या गंभीर चेष्टा नहीं की है।' यही नहीं, उनको इस बात का दुख है कि 'भारतीय राजनीति ने साहित्य और समालोचना को एक तरह से छुट्टा छोड़ रखा है।' उनके पहले वाक्य का दावा जितना झूठा है, उतना ही खतरनाक है दूसरे वाक्य में छिपा हुआ इरादा। आलोचना में सुरुचि और शालीनता की माँग करने वाले अशोक वाजपेयी की भाषा उनकी आलोचना की संस्कृति की कलई खोल रही है।' (वही, पृ.138) इसी लेख में अपनी बातों को और स्पष्ट करते हुए प्रो. पांडेय कहते हैं, 'आजकल इस देश में संस्कृति के सरकारीकरण का जो अभियान चल रहा है, उसके दो पक्ष है; प्रतिरोध की संस्कृति का दमन और सहमति की संस्कृति का प्रसार। अशोक वाजपेयी प्रतिरोध की संस्कृति के दमन को झुठलाते हैं और आलोचना के जनतंत्र के नाम पर सहमति की संस्कृति का प्रचार करते हैं।' मैनेजर पांडेय आलोचना के जनतंत्र के नाम पर सहमति की संस्कृति का प्रचार नहीं करते, न वैचारिक साम्य या वैषम्य को आलोचना का प्रतिमान बनाकर किसी की आलोचना या सराहना करते हैं। कहना न होगा कि सैद्धांतिक सोच से समृद्ध आलोचक वैचारिक ईमानदारी के मामले में किसी दुविधा में नहीं जीता और शायद इसीलिए मैनेजर पांडेय अशोक वाजपेयी लिए एक और मार्क्सवादी कवि-आलोचक मुक्तिबोध के लिए दूसरे आलोचना के प्रतिमान की जरूरत महसूस नहीं करते।

मैनेजर पांडेय जिस आलोचनात्मक अनुशासन की प्रस्तावना करते हैं; उसमें धुर विरोधियों की आलोचना भी बिना पढ़े-लिखे करने का अनैतिक चलन नहीं है। आलोचकीय प्रतिमान पर रचना की विवेचना और मूल्यांकन से गुजरने के बाद ही वे किसी रचना, विचार या आंदोलन के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हैं। जिस निर्भीकता से वे अशोक वाजपेयी की आलोचना करते हैं, उसी निर्भीकता से मुक्तिबोध के बारे में भी अपनी राय व्यक्त करने से नहीं झिझकते, 'सगुण काव्य-धारा की सीमा बताने के लिए मुक्तिबोध ने यह सवाल किया है : क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति शाखा के अंतर्गत एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया? यह तथ्य है। लेकिन इससे क्या साबित होता है? तथ्य तो यह भी है कि आधुनिक काल में प्रगतिशील आंदोलन के अंतर्गत भी कोई महत्वपूर्ण और प्रभावशाली कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया। तब क्या इससे यह साबित होता है कि प्रगतिवाद के बड़े कवि उच्चजातीय वर्गों के प्रभुत्व के प्रमाण हैं?'(वही, पृ.26) भक्तिकाल के संदर्भ में वे आलोचना के तमाम बड़े पूर्व-पुरुषों से अपनी असहमति जाहिर करने से नहीं झिझकते, 'हिंदी आलोचना में सबसे पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण संतों के विरुद्ध सगुण भक्तों को खड़ा किया। उन्होंने निर्गुण संतों को लोक-विरोधी और सगुण भक्तों को लोक-संग्रही घोषित किया। बाद में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को निर्गुण संतों के सामाजिक विचार सगुणों से अधिक प्रगतिशील लगे। मार्क्सवादी आलोचना के एक छोर पर रामविलास शर्मा हैं, जिनकी दृष्टि में निर्गुण-सगुण के बीच कहीं कोई द्वंद्व नहीं है। वे भक्ति-आंदोलन और उसके काव्य में किसी विसंवादी स्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। दूसरे छोर पर मुक्तिबोध हैं, जिनके अनुसार निर्गुणमत के विरुद्ध सगुणमत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचि वालों का संघर्ष था।' (वही, पृ.25)

अपने लेखन के आरंभ से ही उनकी रुचि भक्तिकाल में लगातार बनी रही है। मध्यकाल, जिसे अंग्रेज इतिहासकार 'मुस्लिम इंडिया' कहते हैं; उसे हिंदी साहित्य में भक्तिकाल कहा जाता है। इस काल की प्रवृत्तियों और विशिष्टताओं पर उन्होंने 'भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य' नामक पुस्तक में विस्तार से विचार किया है, 'जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं उसके निर्माण में भक्ति आंदोलन की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके विभिन्न रूपों पर उस आंदोलन की अमिट छाप है। भाषा और साहित्य ही नहीं, संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्ति, स्थापत्य आदि कलाओं के साथ धर्म, दर्शन की जो सजीव और सार्थक परंपराएँ भारतीय जीवन में घुली-मिली हैं उनमें से अधिकांश भक्ति आंदोलन की देन हैं। भक्ति आंदोलन के व्यापक और स्थायी प्रभाव का एक कारण यह है कि उसमें भारतीय संस्कृति के अतीत की स्मृति है, अपने समय के समाज तथा संस्कृति की सजग चेतना है, भविष्य की गहरी चिंता भी है।' (भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, भूमिका से) भक्तिकाल के अनेक कवियों पर उन्होंने सहृदयतापूर्वक नए तथ्यों की रोशनी में विचार-विमर्श किया है, जिसका एक बेहतरीन नमूना है इसी पुस्तक के अंतिम अध्याय में सूरदास पर बहुत मौलिक ढंग से लिखा गया उनका लेख। जिसमें वे कहते हैं, 'सूर-साहित्य की व्याख्या के लिए जो सत्संगी आलोचना आगे आई, उसकी दिलचस्पी महात्मा सूरदास में अधिक थी और महाकवि सूरदास में बहुत कम। इस आलोचना में बुद्धि की जगह श्रद्धा ने ली थी। फिर 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' और 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' के आधार पर सूर के जीवन और काव्य में वल्लभ संप्रदाय की छाप की खोज होने लगी। लक्ष्य था सूर को 'पुष्टिमार्ग का जहाज' सिद्ध करना, ताकि आलोचना लोक-परलोक दोनों को सुधारने का साधन बन सके। सूर-साहित्य की व्याख्या में सत्संगी आलोचना की वही भूमिका है जो तुलसी-साहित्य के प्रसंग में कथावाचकों की परंपरा है।' प्रसंग चाहे उपन्यास पर विचार करने का हो या भक्तिकाल पर, प्रो. पांडेय हिंदी आलोचना की प्रचलित पिष्ट-पेषण की परंपरा से बचते हुए अपनी तर्कशक्ति और आलोचकीय क्षमता के सहारे मौलिक ढंग से विचार करने का प्रयास करते हैं।

डॉ. रामविलास शर्मा ने भक्तिकालीन कवि सूरदास पर जो कुछ लिखा, उसमें स्वतोव्याघात और अवसर के अनुकूल अलग-अलग तरह की राय व्यक्त की गई है, जिसे देखकर उचित ही प्रो. पांडेय ने उनके मत का विरोध किया है, 'सन् 1984 में डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा था, 'कबीर शहरी कारीगरों के, सूर पशु-पालकों के, तुलसी किसानों के जीवन से जुड़े हुए हैं।' लेकिन साल भर बाद उन्होंने लिखा, 'किसान-जीवन के चित्र कबीर और सूर के काव्य में नहीं हैं - मेरी यह बात केवल सापेक्ष रूप में सही है।' रामविलास जी के अन्य वैचारिक विचलनों को उनके विरोधियों और अनुयायियों ने लक्षित किया है, लेकिन महज साल भर के भीतर रामविलास जी राय एकदम से उलट होगी, इसका परीक्षण और विरोध करने से वे नहीं चूकते और तथ्यों की नई व्याख्या करते हुए यह स्थापना देते हैं, 'सूर के काव्य में खेती से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात का जितना आत्मीय ज्ञान है, वह किसान-जीवन से तादात्म्य के बिना संभव नहीं। उसमें खेती की भूमि के गुण-धर्म की पूरी पहचान है।' (पृ.293) सूरदास के काव्य-गुणों की पहचान करते हुए उन्होंने महात्मा सूरदास को वात्सल्य के साथ-साथ जीवन-राग का कवि सिद्ध किया और राजनीति से लेकर खेती-बारी की तमाम बारीकियों से परिचित किसान चेतना से परिपूरित कवि सिद्ध किया।

मैनेजर पांडेय अपनी आलोचना में 'संस्कृति' और 'राजनीति' का प्रयोग और उसकी व्याख्या अक्सर करते हुए चलते हैं, ताकि व्यवहारिक आलोचना के समय इन चीजों की सैद्धांतिक व्याख्या दृश्य-पटल से ओझल न हो जाए। सैद्धांतिक सोच की स्पष्टता ईमानदार और निर्भीक आलोचना के मार्ग को प्रशस्त करता है और उसे अवसरवादिता के ब्लैकहोल में जाने से रोकता है। सैद्धांतिक स्पष्टता आलोचकीय नैतिकता और साहस को तो बल प्रदान करता ही है, व्यवहारिक आलोचना के समय आनेवाले वैचारिक और सामाजिक 'ऊहापोहों' को भी अलग रख पाने में सहायक होता है। दृष्टि और अवधारणा दोनों की स्पष्टता के लिए यह आवश्यक है कि आलोचक की वैचारिक और सैद्धांतिक सोच स्पष्ट हो। लेकिन जब दौर लेखकप्रियता और लोकप्रियता के दबाव में आलोचना लिखने का चल रहा हो तो कलावादी सब कुछ को घंघोल कर दृश्य की संस्कृति को आलोचना की दृष्टि बताने का प्रयास करते हैं। 'आजकल दृश्यों की संस्कृति के अभूतपूर्व और सर्वग्रासी विस्तार के समय में शब्द की संस्कृति या कि साहित्य की स्थिति संदेह और चिंता के घेरे में है। ऐसे में आलोचना और वह भी साहित्य की शुद्ध साहित्यकता की खोज करने वाली आलोचना की सामाजिकता अगर खतरे में हो तो क्या आश्चर्य! आलोचना की घटती सामाजिकता का कारण केवल बाहरी नहीं है, केवल आज का सांस्कृतिक परिवेश नहीं है, आंतरिक भी है, जिसका संबंध आलोचना दृष्टि से है।' (आलोचना की सामाजिकता, भूमिका से) आलोचना की घटती सामाजिकता की पड़ताल करते हुए जहाँ एक ओर वे समकालीन आलोचना भाषा को प्रश्नचिह्न के घेरे में लाते हैं, वहीं दूसरी ओर वे छद्म बौद्धिकता को भी बेनकाब करने की कोशिश करते हैं। आलोचना के सामाजिक बनने की प्रक्रियाओं को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं, 'आलोचना सामाजिक बनती है अपने समाज के मानस की रचनात्मक क्रियाशीलता की समग्रता के बोध और उसकी व्याख्या के माध्यम से। समाज में अनेक प्रकार के टकराव भी होते हैं, जो समाज के मानस तथा उसकी क्रियाशीलता को प्रभावित करते हैं और उनकी अभिव्यक्ति रचनाओं में होती है। आलोचना उन टकरावों और उनकी अभिव्यक्तियों को पहचानती है और उनमें से कुछ के पक्ष में खड़ी होती है, इसलिए उसकी एक हस्तक्षेपकारी भूमिका भी होती है। अब आलोचना संगति, सामंजस्य और सहमति की सेवा करके सार्थक नहीं हो सकती।' (वही, पृ.18)

उनकी आलोचना-भाषा की एक विशेषता को लक्षित किया जाना चाहिए कि किसी समस्या, मुद्दे, प्रवृत्ति और आंदोलन की तात्कालिकता पर विचार करते समय भी वे इन चीजों के सैद्धांतिक और ऐतिहासिक पक्षों को भी अपने जेहन में रखते हैं। इसलिए निकली हुई बात वाकई बहुत दूर तलक जाती है और दूर तलक गई हुई बात जब व्यापक रूप से सामने आती है, तो अपने तर्कों से निरुत्तर कर देती है। 'कला का उत्सव और उत्सव की संस्कृति' के बहाने वे संस्कृति के सरकारीकरण और व्यवसायीकरण पर विचार करते हैं। 'शासक वर्ग लोक संस्कृति और लोक कलाओं की रक्षा की बात करता है, लेकिन उस कला की रचना करने वाली जनता की उपेक्षा करता है, उसका शोषण और दमन करता है। आजकल कुछ लोग लोक कला कला को बिकाऊ माल समझकर उसकी ओर लपक रहे हैं तो कुछ दूसरे उसे सजावट और पूजा की वस्तु बना रहे हैं। लोक कला के व्यापारी और पुजारी दोनों ही उसे इतिहास की सक्रिय शक्ति बनने से रोकते हैं। लोक जीवन से लोक कलाएँ अभिन्न रूप से जुड़ी होती हैं। इसलिए लोक कलाओं का विकास लोक जीवन के विकास पर निर्भर है। शासक वर्ग जनता को हमेशा लोक बनाए रखना चाहता है।' (अनभै साँचा, पृ.202) पिछले कुछ वर्षों से देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संस्थापनार्थ जिस तरह इतिहास और संस्कृति को युद्ध का मैदान बनाया जा रहा है, उसमें कितनी संस्कृति बचेगी और कितना लोक सुरक्षित रह पाएगा; कहना कठिन है।

मैनेजर पांडेय ने हिंदी साहित्य की लगभग सभी विधाओं और सभी काल की प्रवृत्तियों नई दृष्टि से विचार-विमर्श किया है। इसके बावजूद, वो बात जिसका जिक्र सारे फसाने में न था/वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है की मानिंद आलोचकगण जहाँ यह प्रवाद फैलाते हैं कि वे तो हमेशा सैद्धांतिक आलोचना में ही खोए रहते हैं, वहीं रचनाकारों की ओर से यह कहा जाता है कि वे कविता-कहानी जैसी विधा में वे रस नहीं लेते और सैद्धांतिक तथा अकादमिक विवेचनों के जंजाल में उलझे रहते हैं। इन चीजों पर कोई बात नहीं करते। तब यह सहज ही जिज्ञासा होती है कि क्या वाकई यही सच है? या सत्य की शक्ल में यह अफवाह है जिसकी आड़ में तथ्य/सत्य का दमन और उनकी आलोचकीय छवि के दुष्टतापूर्ण मर्दन का खल-सुख छिपा है? हिंदी में सैद्धांतिक सोच का प्रायः अभाव और व्यवहारवादी आलोचना का प्रभाव दिखाई देता है, इसलिए अनेक बार उनकी सहृदयता और रसवादिता को लेकर प्रश्न उठाए जाते हैं। इस बात का अहसास उनको भी है और इसलिए इस संदर्भ में अपनी राय व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है, 'आजकल हिंदी में अधिकांश आलोचना या तो अफवाहों के सहारे चल रही है या फिर आप्त-वचनों के सहारे। मेरे बारे में हिंदी आलोचना में यह अफवाह फैली हुई है या फैलाई भी गई है कि मैं सैद्धांतिक सोच का आलोचक, व्यवहारिक आलोचना लिखने वाला आलोचक नहीं हूँ। क्या हिंदी का हर आलोचक यह नहीं जानता कि मैंने सूरदास की कविता की आलोचना की पूरी पुस्तक लिखी है जो मेरी सर्वाधिक प्रिय पुस्तक है। उसके बाद मैंने मध्यकाल के कवि कबीर, दादू, मीराँ और रहीम तथा आधुनिक काल के कवि महेश नारायण, नाथूराम शर्मा शंकर, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, नागार्जुन, त्रिलोचन, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, धूमिल, कुमार विकल, शैलेंद्र, अदम गोंडवी और पी.सी. जोशी की कविताओं का विवेचन तथा मूल्यांकन किया है।' (भूमिका से, 'हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान')

मैनेजर पांडेय विचारों से मार्क्सवादी हैं और उनकी आलोचना दृष्टि की निर्मिति वामपंथी विचारों से हुई है, इसके बावजूद कविता के मूल्यांकन में मार्क्सवादी वैचारिक आग्रहों को वे अपनी दृष्टि की सीमा नहीं बनने देते हैं और कहना चाहिए कि इससे भी आगे बढ़कर मार्क्सवादी कवियों की कमजोर रचनाओं की आलोचना करने से बिल्कुल गुरेज नहीं करते। हालाँकि रूपवाद और कलावाद के आग्रही आलोचकगण कविता के मूल्यांकन में भी काव्य-गुण से अधिक वैचारिक आग्रहों की प्रशंसा करते हुए पाए जाते हैं, लेकिन प्रो. पांडेय वैचारिक घेरे को कभी आलोचनात्मक घेरे तब्दील नहीं होने देते हैं। रामधारी सिंह दिनकर कहीं से भी वामपंथी नहीं थे और शायद इन वजहों से भी सायास या अनायास उनकी उपेक्षा का आरोप हिंदी आलोचना पर लगता रहा है। लेकिन उनकी कविता का मूल्यांकन करते हुए मैनेजर पांडेय कहते हैं, 'दिनकर मार्क्सवादी नहीं थे लेकिन उनकी कविता में पराधीनता, विषमता, शोषण और सामाजिक अन्याय के प्रति जैसा गहरा आक्रोश है वैसा बहुत कम प्रगतिशील कवियों के यहाँ दिखाई देता है।' इस बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, 'दिल्ली में बहुत कवि रहते हैं, लेकिन दिल्ली क्या है, इस पर ध्यान देने वाले कवि बहुत कम हैं। हिंदी में अकेले दिनकर ने दिल्ली पर तीन-चार कविताएँ लिखी हैं। उन कविताओं को अलग-अलग पढ़िए तो उनमें दिनकर की चेतना की चार अवस्थाएँ दिखाई देंगी - अँग्रेजी सत्ता की केंद्र दिल्ली, स्वाधीनता आंदोलन के दौर की दिल्ली, आजादी के बाद की दिल्ली और बाद में और भी पतनशील दिल्ली-उन्होंने दिल्ली के विभिन्न रूपों पर कविताएँ लिखी हैं।' (हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान, पृ.87) मार्क्सवादी न होने के बावजूद दिनकर की काव्य-संवेदना की तारीफ और प्रगतिशील कवियों की कमजोर रचनाओं की स्पष्ट आलोचना करते हुए वे कहते हैं, 'असल में भावना को संयमित करके कला में ढालने की कोशिश में बहुत सारे प्रगतिशील कवि मारे गए। अकारण नहीं है कि खुलकर कविता लिखने के कारण हिंदी आलोचना ने तीस साल तक नागार्जुन को कवि नहीं माना। नागार्जुन को मजबूरी में अपने पैसे से पुस्तकें छपवानी पड़ी। यह हिंदी आलोचना की दुर्गति का सबूत है। यदि एक कवि के मन में पराधीनता, शोषण, उत्पीड़न, सामाजिक अन्याय के प्रति गहरा आक्रोश है, जिसे वह कविता में व्यक्त कर रहा है तो प्रगतिशीलों द्वारा उसका स्वागत किया जाना चाहिए था। यह नहीं हुआ।' (वही)

मैनेजर पांडेय ने जिस संवेदना और अधिकार से कबीर की कविताओं पर लिखा है, उसी संवेदना और जुड़ाव से लोकप्रिय कवि अदम गोंडवी पर भी लिखा है। कविता के पाठक नहीं हैं, कविता से हिंदी समाज दूर जा रहा है - जैसे जुमले अनेक बार सुनने को मिल जाते हैं, लेकिन कविता इस दशा में आखिर क्योंकर पहुँची; इसकी सही पड़ताल बहुत कम लोग करते हैं। एक तरफ हिंदी कविता की मंचीय दुनिया है जिसमें तुक्कड़ों का साम्राज्य है, तो दूसरी तरफ ऐसे कविगण हैं जिनकी कविता में संवादधर्मिता की जगह रूपगर्विता के हाव-भाव देखे जा सकते हैं। रोचक यह है कि हिंदी कविता के अलग-अलग दुनियाओं के बीच किसी तरह का कोई संवाद नहीं है। जिन मैनेजर पांडेय के बारे में 'अफवाह' है कि वे कविता-कहानी जैसी विधा को अपनी आलोचना का विषय बनाने से बचते हैं, उन मैनेजर पांडेय ने 'आज का समय और कविता का संकट' नामक निबंध में विस्तार से इन प्रश्नों पर विचा

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