गुरुवार, 5 जुलाई 2018

निबन्ध कला और नीति इलाचन्द्र जोशी

निबंध

कला और नीति
            इलाचंद्र जोशी

कला का मूल उत्स आनंद है। आनंद प्रयोजनातीत है। सुंदर फूल देखने से हमें आनंद प्राप्त होता है। पर उससे हमारा कोई स्वार्थ या प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। प्रभा की उज्ज्वलता और संध्या की स्निग्धता देखकर चित्त को एक अपूर्व शांति प्राप्त होती है। पर उससे हमें कोई शिक्षा नहीं मिलती। न कोई सांसारिक लाभ ही होता है। कारण आनंद का भाव समस्त लौकिक शिक्षा तथा व्यवहार से अतीत है। उसमें कोई बहस नहीं चल सकती।

हमें आनंद क्यों मिलता है? इसका कोई कारण नहीं बताया जा सकता। वह केवल अनुभव ही किया जा सकता है। 'ज्यों गूँगे मीठे फल को रस अंतर्गत ही भावै।' आनंद का भाव वाणी और मन की पहुँच के बिल्कुल अतीत है। 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।' पर नीति का संबंध मन के साथ है। मन बिना आलोचना के, आनंद के सहज भाव को ग्रहण नहीं करना चाहता। वह पोथी पढ़-पढ़कर 'पंडिताई' में मस्त रहता है। सहज प्रेम के 'ढाई अक्षर' से उसकी तृप्ति नहीं होती। वह कविता पढ़कर इस बात की खोज में लग जाता है कि इसमें अर्थनीति, राजनीति, राष्ट्रतत्व, भूतत्व, जीवतत्व अथवा और कोई तत्व हैं या नहीं। वह यह नहीं समझना चाहता कि इस कविता में आनंद का जो अमिश्रित रस है, उसके किसी भी तत्व का कोई मूल्य नहीं। पर जो लोग इस दुष्ट समालोचक मन को दमन करने में समर्थ होते हैं, वे कला के 'आनंदरूपमृतम्' का अनुभव कर लेते हैं।

उपनिषदों में हमारे भीतर पाँच पृथक-पृथक कोषों का अवस्थान बतलाया गया है - अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष। अन्नमय कोष के संस्थान के लिए हमें अर्थनीति की आवश्यकता होती है। प्राणमय कोष की पुष्टि के लिए धर्मनीति की, मनोमय कोष के लिए कामनीति की और विज्ञानमय कोष के लिए वैज्ञानिक नीति की। पर जब इन सब कोषों की स्थिति को पार करके मनुष्य आनंदमय कोष के द्वार खटखटाता है, तो वहाँ सब प्रकार की नीति तथा नियमों के गट्ठर को फेंककर भीतर प्रवेश करना पड़ता है। वहाँ यदि नीति किसी उपाय से घुस भी गई; तो उसे इच्छा के शासन में वेष बदलकर दुबके हुए बैठना पड़ता है। लौकिक तथा प्राकृतिक बंधनों की अवज्ञा करने वाली इस सर्वजयी इच्छा महारानी के आनंदमय दरबार में नैतिक शासन का काम नहीं है। वहाँ सहज प्रेम का कारोबार है। वहाँ इस प्रेम के बंधन में बँधकर पाप और पुण्य भाई-भाई की तरह एक-दूसरे के गले मिलते हैं।

नीति? इस विपुल सृष्टि के मूल में क्या नीति है? क्या प्रयोजन है? क्या तत्व है? प्रतिदिन असंख्य प्राणी विनाश को प्राप्त हो रहे हैं, असंख्य प्राणी उत्पन्न होते जाते हैं; उत्पन्न होकर फिर अपने प्रेम, घृणा, सुख-दुख, हँसी-रुलाई का चक्र पूरा करके अनंत में विलीन हो रहे हैं। इस समस्त चक्र का अर्थ ही क्या है? अर्थ कुछ भी नहीं। यह केवल भूमा के सहज आनंद की लीला है।

विश्व की इस अनंत सृष्टि की तरह कला भी आनंद का ही प्रकाश है। उसके भीतर नीति, तत्व अथवा शिक्षा का स्थान नहीं। उसके अलौकिक मायाचक्र से हमारे हृदय की तंत्री आनंद की झंकार से बज उठती है। यही हमारे लिए परम लाभ है। उच्च अंग की कला के भीतर किसी अन्य तत्व की खोज करना सौंदर्य देवी के मंदिर को कलुषित करना है।

हिंदी-साहित्य के वर्तमान समालोचक जब तक कला की किसी रचना में कोई तत्व नहीं पाते, तब तक उसकी श्रेष्ठता स्वीकार करने में अपना अपमान समझते हैं। जिन रचनाओं की वे प्रशंसा करते हैं, उनकी विशेषता के संबंध में यदि उनसे पूछा जाय, तो वे उत्तर देते हें कि अमुक रचना में किसानों की दुर्दशा का प्रश्न हल किया गया है। अमुक ग्रंथ में राष्ट्रतत्व की व्याख्या बहुत अच्छी तरह की गई है। अमुक ग्रंथ में हमारे सामाजिक पतन पर विचार किया गया है। यह हमारे समालोचकों के कला-संबंधी विचारों के आदर्शों का नमूना है ! इन आदर्शों के आधार पर कला की श्रेष्ठता का विचार करने से साहित्य में हीनता उपस्थित होती है।

रामायण के मूल आदर्श के भीतर हमको कौन-सा नैतिक तत्व प्राप्त होता है? कुछ भी नहीं। उसके भीतर केवल राम की विपुल प्रतिभा की स्वाधीन इच्छा का लीलामय चक्र, विस्तृत रूप से अत्यंत सुंदरता के साथ चित्रित हुआ है। रामायण निस्संदेह वृहत ग्रंथ है। उसके विस्तृत क्षेत्र में सहस्रों प्रकार के नैतिक उपदेश स्थान-स्थान पर ढूँढ़ने से मिल सकते हैं। पर इस प्रकार खंड-खंड रूप से इस महाकाव्य को विभक्त करने से उसकी अखंड, वास्तविक तथा मूल सत्ता का नाश हो जाता है। यदि उसकी वास्तविक श्रेष्ठता का कारण हमें मालूम करना है, तो हमें उसकी समग्रता पर ध्यान देना होगा। उसके मूल आदर्श पर विचार करना पड़ेगा। रामायण से यदि हमें केवल यही तत्व पाकर संतोष करना पड़े कि उसमें पितृ-भक्ति, भ्रातृ-स्नेह तथा पतिव्रत्य का उपदेश दिया गया है, तो यह महाकाव्य अपनी आनंदोत्पादिनी महत्ता को खोकर एक अत्यंत क्षुद्र नीति ग्रंथ में परिणत हो जाता है। ऐसे उपदेश हमें सहस्रों साधारण नैतिक श्लोकों तथा प्रवचनों से रात-दिन मिलते रहते हैं। तब इस काव्य में विशेषता क्या है? इसकी कथा सहस्रों वर्षों से जनता के हृदयों में अखंड रूप से क्यों विराजती आई है? कारण वही है, जो हम पहले बतला आए हैं। अनादि पुरुष की 'एकोहं बहुस्याम्' की इच्छा की तरह प्रतिभा भी सृजन कार्य करती है। जिस प्रकार सृष्टिकर्ता के उपदेश का रहस्य कुछ न जानने पर भी हमें उसकी माया के खेल में आनंद आता है, उसी प्रकार प्रतिभा की स्वाधीन इच्छामयी उद्दाम प्रवृत्ति की सर्जना का अभिनव विलास देखकर, उसका मूल आदर्श न समझने पर भी, हमें सुख प्राप्त होता है।

राम की प्रतिभा अपूर्व तथा सुविस्तृत थी। राम तत्काल वन-गमन के लिए क्यों तत्पर हो गए? पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह पिता की इच्छा भली-भाँति जानते थे। वह जानते थे कि पिता उन्हें भेजना नहीं चाहते और यथाशक्ति उन्हें ऐसा करने से रोकेंगे भी। पर प्रतिभा किसी भी बात पर सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप से विचार करके बाल की खाल निकालना नहीं चाहती। इसीलिए लोग उसका इतना सम्मान करते हैं। वह एक झलक में समस्त स्थिति को समझकर अपना कर्तव्य निर्धारण कर लेती है। ‍अंग्रेजी में जिसे exalted state of mind (मन की उन्नत अवस्था) कहते हैं, राम की मानसिक स्थिति सर्वदा, सब समय वैसी ही रहती थी। उनकी प्रतिभा की विपुलता अपने आप में आबद्ध न होकर प्रतिरक्षण, नाना रूपों में, नाना क्षेत्रों में, अपने को विस्तारित करने के लिए उन्मुख रहा करती थी। उसकी गति प्रतिक्षण वर्तमान को भेदकर सुदूर भविष्य की ओर प्रवाहित होती रहती थी। पति-पत्नी, पिता-पुत्र तथा भाई-भाई के बीच तुच्छ स्वार्थ की छीना-झपटी की अत्यंत हास्यकर तथा नीच प्रवृत्ति के प्राबल्य की आशंका करके उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता तथा वज्र-कठिन दृढ़ता के साथ महत् त्याग स्वीकार किया। अपने गृह में घनीभूत स्वार्थ-भाव को त्याग के करुणा-विगलित रस से बहाकर साफ कर दिया। उन्होंने पिता का प्रण निभाया, इस बात पर हमें उतनी श्रद्धा नहीं होती, जितनी इस बात पर विचार करने से कि उन्होंने इस स्वार्थ-मग्न संसार के प्रतिदिन के व्यवहार की यवनिका भेदकर सुदूर अनंत की ओर अपनी प्रतिभा की सुतीक्ष्ण दृष्टि प्रेरित की। उनकी इस इच्छा-शक्ति के वेग की प्रबलता के कारण ही हमें इतना आनंद प्राप्त होता है और हृदय बारंबार संभ्रम तथा श्रद्धा के साथ उनके पैरों तले पतित होना चाहते हैं।

यदि कोरी नीति के आधार पर ही समस्त कार्यों का निर्धारण करना हो, तो राम का वन-गमन अनीतिमूलक भी कहा जा सकता है। उनके वन-गमन से उनकी प्रजा को कितना कष्ट उठाना पड़ा, इसका उल्लेख रामायण में ही है। उनके पिता की मृत्यु का कारण भी यही था। भरत को सुख-भोग की जगह तपस्या करनी पड़ी। यह सब परिणाम समझते हुए भी राम वन गए थे। वन में उन्हें जाबालि मुनि मिले थे। जाबालि ने उनके वनवास को व्यर्थ साधना बतलाया। उन्होंने कहा, 'तुम्हारी इस साधना की कुछ भी उपयोगिता नहीं। तुम समझते हो कि पिता का प्रण निभाकर तुमने महत् कार्य किया है। पर यदि वास्तव में देखा जाय तो कौन किसका पिता है, कौन किसका भाई? जब तक जीवित रहना है, तब तक मौज करते चले जाओ। इस भस्मी-भूत देह का पुनरागमन कहाँ है? मरने के बाद कौन पिता है और कौन पुत्र? केवल दुर्बल भावुकता के कारण ही तुमने वन-गमन स्वीकार किया है और मोहांधता के कारण इस त्याग को तुम श्रेष्ठ आदर्श समझे बैठे हो।'

यदि केवल नीति के ही पीछे लग जाय, तो जाबालि की यह उक्ति वास्तव में यथार्थ जान पड़ती है। परलोक की कौन जानता है! इसी जीवन में प्रत्यक्ष में जो निश्चित लाभ होता है, चाणक्य की 'यो ध्रुवाणि परित्यज्य' वाली नीति के अनुसार वही श्रेष्ठ है। और 'आत्मानं सततं रक्षेत् दारैरपि' वाली उक्ति से सभी परिचित हैं। अपना स्वार्थ ही कोरी नीति की दृष्टि से सबसे बड़ी बात है। पर हम पहले ही कह आए हैं कि प्रबल प्रतिभा का संप्लवन नैतिक तथा नैयायिक उक्तियों को ग्रहण नहीं करता। अकारण ही अपने को प्लावित करने में उसे आनंद मिलता है।

राम जानते थे कि उनके वनवास की कोई सार्थकता नहीं है। पर उनकी प्रतिभा ने यही दिखलाना चाहा कि उनकी आत्मा अनंत की विपुलता से पागल है और अपने क्षुद्र परिवेष्टन के भीतर बंद नहीं रहना चाहती। आत्म-प्रकाश का आनंद इसे ही कहते हैं। यदि नैतिक उपयोगिता का विचार करके उन्होंने वन-गमन किया होता, तो यह घटना आज मानव-हृदय की करुणा से इतना द्रवीभूत न करती। कवि के तीव्र आत्मानुभव तथा उसकी कल्पना की वास्तविकता का परिचय हमें यहीं पर मिलता है।

यह नीति की छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता तो आज महाभारत के समान विपुल काव्य से हम वंचित रहते। कवि को बात-बात पर सफाई देनी होती कि द्रौपदी के पाँच पति क्यों थे? वेदव्यास जेसे महात्मा का जन्म घृणित व्यभिचार से क्यों हुआ? धृतराष्ट्र और पांडु क्षेत्रज पुत्र होने पर भी महाशक्तिशाली क्यों हुए? कुंती कौमार्यावस्था में ही गर्भवती होने पर भी पांडवों की सर्वजन प्रशंसिता माता क्यों हुई? (सूर्य की दुहाई देना वृथा है; विवेचक पाठक जानते हें कि सूर्य के समान किसी तेजस्वी पुरुष के औरस से ही कर्ण का जन्म हुआ था - सूर्य रूपक-मात्र हैं।) ऐसे असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं। पर महाभारतकार की कलम लेशमात्र भी इन कारणों से नहीं हिचकी। कारण स्पष्ट है। कवि यही दिखलाना चाहता है कि इन तुच्छ नैतिक उल्लंघनों से उसके महत् आदर्श पर तनिक भी आँच नहीं आ सकती। इस प्रकार हम पाते हैं कि कला का आदर्श छोटी-मोटी नीतियों से बहुत ऊपर उठा हुआ होता है।

कालिदास का मेघदूत क्या नीति सिखाता है? विरहजन्य आनंद की इस रचना का लक्ष्य यदि नीति की ओर होता, तो वह असह्य हो उठती। अलकापुरी के जिस आनंदमय देश की ओर कवि हमें आकर्षित करके ले चलता है, उसके संबंध में हमारे मन में यह प्रश्न बिल्कुल ही नहीं उठता कि वहाँ जाकर क्या होगा? किसी नैतिक लाभ के लिए हम अलकापुरी नहीं जाते। हम जाते हैं आनंद की विपुलता अनुभव करने के लिए। वहाँ जिस आनंद का हम अनुभव करते हैं, वह तुच्छ सुख-दुख, क्षुधा-तृष्णा तथा पाप-पुण्य के अतीत है।

केवल हमारे ही देश में नहीं, पाश्चात्य देशों में भी बहुत से लोग नीति के उपासक हैं। गेटे की रचनाओं में नीति की अवहेलना देखकर कई लोग उन पर बरस पड़े हैं। शेक्सपीयर के नाटकों में से कई समालोचक अपनी इच्छानुसार नीति निकालने में व्यस्त रहते हैं। प्रकृति के सच्चे उपासक, प्रसिद्ध फ्रांसीसी चित्रकार मिले (Millet) की कला के बहुत से आलोचकों ने उसकी राजनीतिक व्याख्या करने की चेष्टा की थी। वह बात इस प्रकृति के के चतुर चितेरे को बहुत बुरी लगी। प्रसिद्ध क्रांतिकारी प्रूधों (Proudhon) ने उसे चित्रों के जरिए राजनीतिक प्रश्न हल करने के लिए उकसाया। पर वह इस अयुक्त प्रस्ताव पर सहमत नहीं हुआ। इससे यह न समझना चाहिए कि वह देशद्रोही था। राजनीति से देश-प्रेम का कोई संबंध नहीं। सहज प्रेम के साथ नीति का क्या संबंध हो सकता है?

मिले स्वयं कृषक का पुत्र था। किसानों के प्रति उसकी इतनी सहानुभूति थी कि उसके प्रायः सभी चित्रों से कृषक-जीवन की सरलता का सुमधुर परिचय मिलता है। उसके चित्रों की सरलता से मानवात्मा के अंतर का आभास अत्यंत सुंदर रूप से आँखों में झलकता है और हृदय में किसानों के प्रति आंतरिक सहानुभूति उमड़ी पड़ती है। पर उसका उद्देश्य किसानों की दुर्दशा का चित्र खींचकर तात्कालिक साम्यवाद की राजनीतिक महत्ता 'प्रचार' करने का नहीं था। यही कारण है कि उसके चित्रों ने अमरत्व प्राप्त कर लिया है।

महाकवि गेटे को जर्मनी के कई समालोचकों ने इस बात के लिए कोसा था कि वे सदा राजनीति से विमुख रहे हैं। इस पर उन्होंने लूर्डन से कहा था - 'जर्मनी मुझे प्राणों से प्यारा है। मुझे इस बात पर दुख होता है कि जर्मन लोग व्यक्तिगत रूप से इतने उन्नत होने पर भी समष्टिगत रूप से इतने ओछे हैं कि अन्य जाति के लोगों के साथ जर्मन लोगों की तुलना करने से हृदय में व्यथा का भाव उत्पन्न होता है। इस भाव को मैं किसी भी उपाय से भूलना चाहता हूँ। कला और विज्ञान में मैं इस व्यथाजनक भाव से त्राण पाता हूँ, क्योंकि उनका संबंध समस्त विश्व से है। उनके आगे राष्ट्रीयता की सीमा तिरोहित होती है।' पाठकों को मालूम होगा कि रवींद्रनाथ का भी यह मत है। गेटे ने किसी अन्य स्थान पर कहा है - 'सत्य की इसी सरल उक्ति पर लोग विश्वास नहीं करना चाहते कि कला का एकमात्र उन्नत ध्येय भाव को प्रतिबिंबित करना है।' इंग्लैंड के प्रसिद्ध साहित्यालोचक कार्लाइल जब एक बार बर्लिन गए थे, तो किसी भोज के अवसर पर कुछ लोगों ने गेटे पर यह दोष लगाना आरंभ किया कि इतने बड़े प्रतिभाशाली कवि होने पर भी उन्होंने धर्मसंबंधी बातों की अवहेलना की है। कार्लाइल ने उनकी संकीर्णता से कुढ़कर कहा - 'Mein Herren, did you never hear the story of that man who vilified the sun because it would not light his cigar?' 'महाशयो! क्या आपने कभी उस मनुष्य की यह कहानी नहीं सुनी जो सूर्य को इस कारण रोकता था कि वह उनकी चुरट जलाने के काम नहीं आता?' यह मुँहतोड़ जवाब सुनकर किसी के मुँह से एक शब्द न निकला!

सभी जानते हैं कि रूसो नीति के कितने पक्षपाती थे। पर जब वह कला की रचना करने बैठते थे, तब नीति-वीति सब भूल जाते थे। उनके प्रसिद्ध उपन्यास La Nouvelle Heloise में उनके अपने हृदय की क्षुब्ध वेदना प्रतिबिंबित हुई है। उनके इस आत्म-प्रकाश की मनोहरता के कारण ही यह ग्रंथ इतना आदरणीय है। सच्चा कलाविद् हृदय की प्रेरणा से ही चित्र खींचता है, न कि वाह्य आवश्यकता के अनुसार !

टाल्सटाय को नीति की छोटी-छोटी बातों का भी बड़ा ख्याल रहता था। यहाँ तक कि अपने 'What is Art' शीर्षक पुस्तक में उन्होंने अनीतिमूलक ग्रंथों की तीव्र निंदा करके यह मत प्रतिष्ठित किया है कि कला के भीतर नीति का होना परमावश्यक है। उन्होंने जिस समय यह मत प्रचारित किया था, उस समय उन्होंने यह भी लिखा था कि, 'मेरी इस समय से पहले की रचनाएँ दोष-पूर्ण समझी जानी चाहिए।' पर उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास 'अन्ना कैरेनिना' इसके बाद लिखा गया था। इसके प्रकाशित होने पर लोगों को यह आशंका हुई थी कि उसमें नीति भरी पड़ी होगी। पर उनकी यह आशंका निर्मूल निकली।

टाल्सटाय सच्चे कलाविद् तथा शिल्पी थे। उनका व्यक्तिगत मत चाहे कुछ भी रहा हो, पर उनकी आत्मा में कवि स्वभाव का राज होने के कारण कला की रचना में वह नीति की संकीर्णता घुसेड़कर कला के आदर्श को खर्च नहीं कर सकते थे। 'अन्ना कैरेनिना' में किटी के गार्हस्थ्य-जीवन की शांत, सुखमय छवि अवश्य हृदय को आराम पहुँचाती है, पर अभागिनी अन्ना के संघर्षण-क्रिष्ट, 'दुर्नीति-मूलक' जीवन के प्रति प्रत्येक पाठक की आंतरिक संवेदना उमड़ी पड़ती है। और तो क्या, स्वयं ग्रंथकार ने अपनी इच्छा के प्रतिकूल, अनजाने ही अंत तक अन्ना के जीवन की 'ट्रेजेडी' के प्रति अपनी सहानुभूति प्रदर्शित की है। आरंभ में ग्रंथकार का प्रकट लक्ष्य किटी के गार्हस्थ्य तथा नीति-अनुमोदित जीवन को स्निग्धता और अन्ना के जटिल तथा नीति विरुद्ध जीवन के बीच अंतर प्रदर्शित करके एक निश्चित नैतिक सिद्धांत प्रतिष्ठित करने का रहा है। पर थोड़ी ही दूर जाकर, दुखिनी अन्ना के उन्नत चरित्र की जटिलता का विचार करके, उसका यह उद्देश्य शिथिल हो जाता है और अंत में मानव-चरित्र की अंतर्गत दुर्बलता की समस्या का कोई समाधान ही कवि नहीं करने पाता है। कहाँ वह कठिन नीतिज्ञ का निष्ठुर दंड लेकर 'दुर्नीति' को शासित करने चला था, कहाँ शासित व्यक्ति के साथ मानवता के समान सूत्र में ग्रसित होकर उसे भी रोकना पड़ा है! सच्चे कलाविद् की श्रेष्ठता का प्रमाण इसी से मिलता है।

वह अपने प्राणों की प्रेरणा के चरित्र चित्रित करता है और अपने प्राणों ही में वह उन चरित्रों की यातनाओं का अनुभव भी करता
है। धर्मध्वजी लेखक की तरह, अपने चरित्रों से अपने को बिल्कुल अलग समझकर वह शासक नहीं बनना चाहता।

साभार - हिन्दी समय http://www.hindisamay.com

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