बुधवार, 11 जुलाई 2018

शंकराचार्य की सरस काव्यधारा अमलदार नीहार

अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग

"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" की अकुंठ घोषणा के बावजूद आचार्य शंकर के सरस ह्रदय में भावोच्छल भक्ति की जो तरलता है, वह उनके स्तोत्रों में परिलक्षित होती है | जब वे स्तोत्र रचते हैं तो भावप्राण ऐसे कवि बन जाते हैं, जिनके संकेतों पर नर्तित शब्द अपने माधुर्य-मोद के साथ मनोहर लालित्य की ऐसी सृष्टि करते हैं कि पाठक को विस्मय-विमुग्ध हो जाना पड़ता है | भले ही उनमें महाकवि कालिदास जैसी कल्पना की कमनीयता अथवा औपम्य-विधान न हो, भारवि-माघ जैसा अर्थ-गौरव और महाकवि वाण तथा दण्डी जैसा पद-लालित्य न हो, पर शब्द से शब्द और वर्ण से वर्ण के अनुरणन की ऐसी सहज और मनोरम प्रवृत्ति है, जो चित्त का भरपूर अनुरंजन करती है | मुझे लगता है राधा-कृष्ण के श्रृंगार-संवलित भक्ति-काव्य में जो लालित्य जयदेव के यहाँ दिखाई पड़ता है, उसका उत्स आचार्य शंकर और वल्लभाचार्य आदि की वाणी में पहले से मौजूद है | संस्कृत वाङ्मय की ऐसी सरसता कि जैसे हम हिंदी में पद्माकर आदि की रचना का पाठ कर रहे हों | आचार्य शंकर, वल्लभाचार्य, वाणभट्ट, जयदेव आदि ने यह सिद्ध कर दिया कि सुरभारती की रसवती वाग्धारा में निमज्जन करना कितना आनंददायक है | वाणी की यह सरसता जयदेव से होती हुई मैथिल कोकिल विद्यापति पुनश्च सूर-तुलसी आदि से होती हुई यत्किंचित विशुद्ध श्रृंगार काल(रीतिकाल) के कतिपय कवियों के रचनाभोग तक प्रसृत दिखाई देती है | गंगा की स्तुति संस्कृत साहित्य से लेकर हिंदी तक सैकड़ों-सैकड़ों कवियों-महाकवियों ने की है | फिलहाल संस्कृत में आचार्य शंकर, पंडितराज जगन्नाथ, अब्दुर्ररहीम खानखाना और हिंदी में पद्माकर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जगन्नाथदास रत्नाकर ने गंगा पर रचनाये प्रस्तुत की हैं, जो अधिक चर्चित हैं | आचार्य शंकर की गंगा-स्तुति इस सन्दर्भ में दर्शनीय है-

देवि सुरेश्वरि भगवती गंगे त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे |
शंकरमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले || १ ||

भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगम ख्यातः |
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानं || २ ||

हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे |
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम || ३ ||

तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतं |
मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः  || 4 ||

पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खण्डितगिरिवरमण्डितभंगे |
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवनधन्ये || ५ ||

कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके |
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवतिकृत तरलापांगे || ६ ||

तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोअपि न जातः |
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे || ७ ||

प्रस्तुति
अमलदार 'नीहार'
०५ जुलाई, २०१८

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