शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

नीहार के दोहे

नीहार के दोहे-
['नीहार-सतसई' और 'नीहार-नौसई' के बाद अब 'नीहार-हजारा'] 

शब्द-शब्द नाराच नव, जिह्वा कुटिल कमान |
जहर-बुझे से छोड़ते द्वेष-घृणा, अभिमान || २९४ ||

जन-गन, भाषा-सभ्यता, भू-नग, नदियाँ-देश |
किन्तु आज के दौर में अलग-थलग सन्देश || २९५ ||

सब कुछ 'जंगल' हो गया, दुर्बल-दीन शिकार |
इधर मेष-मृग-बुद्धि-बल, उधर जाल-हथियार || २९६ ||

साथी! सिली जुबान से कर ले मंगल-गान |
कैद कलम, सच-रोशनी साध्वस-पिंजर प्रान || २९७ ||

हे भारत की भारती! तेरी मौन पुकार |
कौन प्रयोजन, जो लिया विष को गले उतार || २९८ || 

कविता केवल अब भजे-"जय-जय राधेश्याम!"
तिमिर-लोक आलोकमय कौन करे हे राम!! २९९ ||

दुर्जय पाशव वृत्तियाँ-नरक नया अभिप्रेत |
फन्दे जान किसान की, बँधुआ सारे खेत || ३०० ||

"सीता-भू हो द्रौपदी" श्रीमानों की सोच |
जो "उज्ज्वल  वरदान" था, चबा गया रे पोच || ३०१ ||

खुलकर खेले खल, फले चोरी-ह्त्या, पाप | 
पिपीलिका मासूमियत मसले, डँस ले शाप || ३०२ ||

तनी हवा की मुट्ठियाँ, सहमा-सहमा प्यार |
नफ़रत-नेज़े पर चढ़े एक बूँद 'नीहार' || ३०३ ||

[नीहार-हजारा-अमलदार नीहार']
दिनांक : १३ जुलाई, २०१८

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